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राजप्र श्रीषसूत्रे :
विशति, तस्याः कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घननिचितनिरन्तराणि निछिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, तस्याः कूटाऽऽकारशालाया बहुमध्यदेशभागे तं प्रदीप मदीपयेत् ततः खलु म प्रदीपः तां कूटा शा लाम् अन्तरन्तः अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, नो चैत्र खेल बहिः अथ खलु स पुरुषः तं मदीपम इडरकेण विदध्यात् ततः खलु
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पुरुष अग्नि और दीपक को लेकर उस कूटाकारशाल के भीतर घुसकर बिलकुल ठीक मध्यभाग में जाकर खडा हो जाता है (ती से कूडागारसालाए सच्चओ संमता घर्णानिचियनिरंतराइ णिच्छिडाई दुवारवयणा विहेड़ ) फिर वह उस कूटाकारशाला के चारों ओर के सब दरवाजों को इस तरह से चन्द कर देता हैं कि जिससे उनके आपस में किवाड इस प्रकार से सट जाते हैं कि उनमें जरासा भी छिद्र नहीं रहने पाता है. इस तरह से दरवाजों को अच्छी तरह से बन्द कर (तीसे कूडागार सालाए बहुमज्जदे सभाए तं पत्र पलीवेज्जा ) फिर वह उस कूटाकारशाला के बहुमध्य देशभाग में उस 'प्रदीप को प्रज्जवलित करता है. (तए णं से पईवे त कूडागारसाल अतो२ ओभा सइ) इस तरह वह दीपक उस कूटाकारशाला के पूरे भागको ही प्रकाशित करता है (उज्जोइ, तावइ पभाव ) उद्योतित करता है, तापित करता है एवं घटपटादि पदार्थों को दिखाने से उसे प्रभासित करता है (णोचेंब वाहिं) उस कूटाकारशाला के बाहिरी भाग को वह न प्रकाशित करता है, न उद्योतित करता है, न तापित करता है और न घटपटादिकों को पंविसाई) हवे अ ३ष अग्नि तेन हीच सहने ते टूटा अरथाजानी अंडर प्रविष्ट थर्धने हभ तेना मध्यभागमां- लाने उलो था लय छ (तीसे कूडागारंसालाए सन्त्रओ समंता घणनिचियनिरंतराई णिच्छिाई दुवारवयणाईँ पिहेइ) પછી' તે માણસ તે કૃટાકાર શાળાના ચારે તરફના બધા દ્વારાને એવી રીતે અંધ કરી દે છે તેના પરસ્પર એકદમ બધ થયેલા કમાડામાંથી નાનુ' સરખું પણુ કાણુ रेडेतु' नथी. (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पई पलीवेज्जा) પછી તે` માણુસ તે ફૂટાકારશાળાના મહુમધ્ય દેશભાગમાં તે દીપકને પેટાવે છે. (तए णं से पईवे तं कूडागारसाल अंतो २ ओभासह) आ प्रमाणे ते द्वीप ते ईटाहार शाणाना अहरना लागने प्राशित १२ छे, (उज्जोवेइ, तावइ "भावई) उद्योतित पुरे छे, तापित रे छे, मने घटपट वगेरे यहाथैने मतावीने तेभने प्रतिलासित ४३ छे (जो चेत्र णं वाहि) ते टार शाजाना भंडारना ભાગને તે પ્રકાશિત કરતા નથી, ઉદ્યોતિત કરતા નથી, સંતાપિત કરતા નથી અને
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