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सुबोधिनीटीका. सून १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् । ३१३ हस्तितः कुन्थुश्च अल्पकमतर एच, कुन्थुतो वा हत्ती महाकर्मतर एव तदेव।। कस्मात् खलु भदन्त ! हस्तिनश्च कुन्थोश्च सम एव जीवः । प्रदेशिन् ! तद् यथानामक कूटाऽऽकारशाला स्यात, यावत् निर्वातगम्भीरा, अथ खलु कश्चित् पुरुषः ज्योतिर्वा प्रदीपं वा गृहीत्वा तो कूटाऽऽकारशालाम् अन्तरन्तरनुम
कुन्थु की अपेक्षा हाथी क्या महाकम तर ही होता है, महाक्रियोतर ही होता है? यावत् महाधुतितर ही होता है ? इस प्रदेशी के प्रश्न के उत्तर में केशी कुमारश्रमणने कहा-(हंत, पएसी! हथिओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव, कुंथुओं वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव-त' चेव) हां, प्रदेशिन! ऐसी ही बात है-हाथी से कुन्थु अल्पतर कर्मवाला ही होता है, इत्यादि इसी प्रकार कुन्थु की अपेक्षा से हाथो महाकर्मतरवाला ही होता है, महाक्रियावाला ही होता है इत्यादि। (कम्हा गं भंते ! हथिस्स.य कुंथुस्स य समे चेद जीवे) अब प्रदेशी इस प्रकार पूछता है कि-हे भदन्त ! आपने जो हाथी और कुन्थु के जीव को समानपरिमाणवाला कहा है. सो इसका क्या कारण है ? केशीकुमारश्रमणने उससे कहा-(पएसी! से जहा नामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगभीरा) हे प्रदेशिन् ! जैसे एक कूटाकारवाली पर्वत के शिखर के आकार जैसी शाला हो और यावत् वह निर्वात-वायुपवेश रहित होने के कारण गंभीर हो. (कह णं केइ पुरिसं जोई पदीव च गहाय तं कूडागारसाल अंतो२ अणुपविसइ) अब कोई
મહાફિયાતર હોય છે? યાવત્ મહાતિતર જ હોય છે? પ્રદેશના આ પ્રશ્નના उत्तरमा शी भा२ श्रभो ह्यु- (हता पएसी ! हत्थीओ कुथू अप्प कम्मतराए चेब, कुथुओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव तंचेव) i, प्रशिन ! पात मेवी ४ छ. डाथी ४२ता थु मध्यतर भरता डोय છે. વગેરે. આ પ્રમાણે કુન્થ કરતાં હાથી મહાકર્મ કર્તા હોય છે, મહાક્રિયા યુકત डाय छ. बगेरे. (कम्हाणं भंते ! हत्थित्स च कुंथुस्स य मामे चेध जीवे) हुवे પ્રદેશી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદંત! તમે જે હાથી અને કુંથુના જીવને સમાન પરિણામવાળે કહ્યો છે તે એનું શું કારણ છે? કેશી કુમાર પ્રમાણે તેને કહ્યું (पएसी ! से जहानामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगंभीरा) હે પ્રદેશિન ! જેમ કે કેઈ એક કુટાકારવાળી–પર્વતના શિખરની આકૃતિ જેવી–
Alोय मने यावत् ते निर्वात-पाय प्रवेश हित पाथी भी लीय, (अहं ___णं केइ पुरिसे जोइ च पइव च गहाय तं फूडागारसालं अंतो २ अणु