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________________ सुबोधिनो टोका. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जीवप्रदेशिरजवर्णनम् २४५ हन्त ! प्रभुः स एव खलु पुरुषः तरुणः चारत् निपुण शिल्पोपगतः जिर्णेन धनुषा जीर्ण या जीवया जीर्णेन इषुणा प्रभु, पञ्च काण्डकं निस्रष्टुम् । नायमर्थ सः मर्थः । कस्मात् भदन्त । तस्य पुरुषस्य अपर्याप्तानि उपकरणानि भवन्ति, एवमेव प्रदेशिन ! स एव पुरुषः बालो यावत् मन्दविज्ञानः अपर्यासोपकरणः नो प्रभुः पञ्चकाण्डकं निस्सष्टुम् तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा अन्यो जीवस्तदेव ५ ।। मृ० १४० ॥ ऐसा वह पुरुष नवीन धनुष से, नवीन प्रत्यञ्चा से, नवीन बाण से पांच याणों को एक साथ पांच लक्ष्यों का वेधन करने लिये छोड़ने में समर्थ है क्या ? (हंता पभृ) तब प्रदेशीने कहा--हां, समर्थ होना है (सो चेवणं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिपोरगए कोरिल्लिएणं धणुगा कोरिल्लिए जीवाए, कोरिल्लिएणं इसुणा पधू पंचकडगं निसिरितए) पुनः केशीने पूछा-हे प्रदेशिन् ! यदि वही युवा पुरुष यावत् निपुणशिल्पोपगत बना हुआ जीर्ण धनुष्य से, जीर्ण प्रत्यञ्चासे जीर्ण वाण से पांच बाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो सकता है क्या? प्रदेशीने कहा-(णो इण? सम?) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। केशीने पूछा-(कम्हा) हे प्रदेशिन् ! इसमें क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है। (भंते ! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताइ उरगरणोइ हति) प्रदेशी राजाने कहा हे भदन्त ! उस पुरुषके उपकरण अपर्याप्त हैं (एवामेव पएसी! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपज्जात्तोरगरणे, णो पद्म पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सहवाहिणं तुमं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेव ५) પુરૂષ શું નવીન ધનુષ વડે, નવીન બાણ વડે પાંચ બણને એકી સાથે પાંચ લક્ષ્ય ना धन माटे छापामो समय डाय छ? (हता पभू) त्यारे प्रशन् रातो पु-sis, समर्थ साय छ. (सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरिलिएणं घणुगा कोरिल्लयाए जीवाए, रिल्लिएणं इसुणा पभू पंच कंडग निसिरित्तए) २री उशीय प्रश्न ४ ई मशिन् ! . ते युवा पुरुष થાવત્ નિપુણશિગત થઈને જીણું ધનુષથી, જીર્ણ પ્રત્યંચાથી, બાણથી પાંચ माणन छ।उवामी समर्थ था 3 तेभ छ ? प्रशान्ये ४पु. (जो इणढे समद्दे) त! | अथ समय नथी. (भंते ! तस्ल पुरिसस्स अपज्जनाई उवगरणाई हवं ति) प्रदेशी राणे ४ र मत ! ते ५३५ना उप४२|पति नथी. (एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले जाय मंदविन्नाणे अपज्जत्तोषगरणे, णो पभू पंच कडयनिसिरित्तए, तं सहाहि णं तुमं एएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेव ५) त्यारे अशी ४- २ प्रमाणे प्रशिन.! ते ३५
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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