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________________ सुबोधिनी टीका स. १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजी प्रदेशिराजवर्णनम् ३३९ ऽयोहारकः । तदिच्छामि खलु देवानुप्रि णामन्तिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं निशमयितुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः । मा प्रतिबन्धं कुरुत्त. धर्मकथा, यथा : चित्रस्य तथैव यावत् गृहिधर्म प्रतिपद्यते नैव वेतांविका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ मु० १५५ ।। = • एवं वयासी) फिर उसने वंदना की यावत् केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा - (णो खलु भंते । अहं पच्छाणुता विए भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अग्रहारए) हे भदंत ! मैं उस अयोहारक - लाहवणिक पुरुष की तरह पश्चादनुतापित नहीं होऊंगा ( तं इच्छामि णं देवाणुपिणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) अत मैं आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्तः धर्म सुनने का अभिलाषी हो रहा हू (अहा सुहं देवानुप्पिया ! मा पडिबंध करेह) तब केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा- हे देवानुभि ! आप को जिससे सुख ऊपजे एसा करो परन्तु इस विषय में विलम्ब करना उचित नहीं है । (धम्म कहा) प्रदेशी राजाको तब केशीकुमारश्रम ने मुनिर्म और गृहस्थधर्म का उपदेश दिया. ( जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्मं पडिवइ) यहां वह धर्म कथा १११ वें सूत्र में जैसी कही गई है वैसी जाननी चाहिये, तब प्रदेशी राजाने द्वादशविधरूप गृहीधर्म स्वीकार करलिग (जेणेव सेयं वियागयरी तेणेव पहारेत्थ गमगाए) इस प्रकार गृहिधर्म धारणकर वह प्रदेशी राजा जहां श्वेतांचिका नगरीथी उस ओर : चलदिया ईशी कुमारश्रभाणुने वहना पुरी यावत ठेशिकुमार श्रमने या प्रमाणे धु' - (णो खलु भंते ! अहं पच्छातावि भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अयहारए) हे लढत ! हु ते भयोहार मोडलिङ यु३षनी प्रेम पश्चानुतापिः ४श नहि. (तं इच्छामि णं देवाप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) मेथी हु खाय हेवाઇપ્રિય પાસેથી કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મને સાંભળવાની અભિલાષા રાખું છું. (अहासु देवानुप्रिया ! मा पबिध करेह) त्यारे शीकुमार श्रम तेने अधु हे देवानुप्रिय ! તમને જેમાં આનંદ થાય તેમ કરે. પણ આ વિષયમાં વિલંબ ઉચિત નથી. (धम्मका) प्रदेश | रामने त्यारे उशी कुमार श्रमाणे मुनिधर्मः मने गृहस्थधर्मना उपदेश यांच्या. (जहा चित्तस्स तत्र गिहिधम्मं परिवज्जड ) सही ते धर्मस्था ૧૧. મા સત્ર પ્રમાણે કહેવામાં આવી છે. ત્યારે પ્રદેશ રાજાએ દ્વાદશ વિધરૂપ गृहीधर्मना स्वीकार भ्यो. ( जेणेव सेयंविया णयरी तेणेत्र पहारेत्थ गमणाए ) આ પ્રમાણે ગૃહીધમ ધારણ કરીને તે પ્રદેશી રાજા જ્યાં શ્વેતાંખિકા નગરી હતી તે તરફ રવાના થઈ ગયા.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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