________________
१५८
राजप्रश्नीयम खलु भो ! मुण्ड' पर्युपासते, मूढाः खलु भो ! मूढ पर्युपासते, अपण्डिताः खलु भो ! अपण्डित' पर्युपासते, निर्विज्ञाना: खल भो ! निर्विज्ञान पर्य: पासते, स कीदृशः खल एप पुरुषो जडो मुण्डो मूढोऽपण्डितो निर्विज्ञान: श्रियो हिया उपगतः उत्तप्तशरीरः, एप खलु पुरुषः कमाहारमहारयति ? जाव समुप्पजित्था) कि जिस और एक बहुत बडी परिपदा के बीच में बैठे हुए केशीकुमारश्रमण जोर २ से धर्म का व्याख्यान कर रहे थे. इस प्रकार से उन्हें देखकर उसको इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (जडा वलु भो! जड पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो मुड पज्जुवासाति) अरे ! जो जन जड होते हैं वे जडकी सेवा करते हैं और जो जन मुंड होते हैं, वे मुड की सेवा करते हैं (मृदा खलु भो मूह पज्जासति) तथा जो जन मृह होते हैं, वे मूढ की सेवा करते हैं। (अपांडिया खलु भो अपडियौं पञ्जुवासति) जो अपण्डित होते है वे अपण्डित जन की सेवा करते हैं, (निविण्णागा खलु भो निलि. णाण पज्जुवासति) जो विशिष्टज्ञान से रहित होते हैं, वे विशिष्टज्ञान से रहित की सेवा करते हैं। (से केस ण एस पुरिसे जडे, मु डे, मढे, अपडिय निविण्णाणे सिरीए हिरीए अवगए उत्तप्पसरी रे) परन्तु यह कैसा पुरुष है जो जड, मुंड, मूढ, अपण्डित, निर्विज्ञान होता हुआ भी श्री से और ही से युक्त है (उत्तप्पसरीरे) शरीर की कान्ति से संपन्न है। (एस ण पुरिसे किमाहारमाहारेइ) यह पुरुप क्या किस प्रकार का आहार करता है ? समुप्पज्जित्था) 2 त२३ मे विशण पविहानी ये मेसा शीमा२५भए બહ મેટા સ્વરે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરી રહ્યા હતા. આ પ્રમાણે તેમને જોઈને તેને मा ततन माध्यात्मियावत् भागत स४६५ सत्पन्न । १ (जडा खलु भो! जङ्क पज्जुवासंति. मुंडा खलु भो मुड पज्जुवासति) भरे ! २ वाटी જડ હોય છે, તેઓ જડને સેવે છે અને જે લેકે મુંડ હોય છે. તેઓ મુંડની સેવા ४३ छे. (मूढा खलु भो मूढं पज्जुवासति) तेभन रे । भूढ डोय छ तेमा भूनी सेवा ४२ छे. (अपडिया खलु भो अपडिय पंज्जुवास ति) मा मयडित सोय छ तमा मचायतीने सेवे छ. (निविणाणा खल भो ! निविण्णाण पज्जुवास ति) रेमो विशिष्ट ज्ञानथी हित छ, ते विशि! ज्ञान २डितन सेवे छ. (से केस ण एस पुरिसे जडमुडे, मूढे, अपडिए. निविणाणे सिरोए हिरीए उवगए उत्तष्पसरीरे) ५४ २ वो पु३५ छ । २०, भु, भूद, मति , निविज्ञान डोप छतi श्री. तेभर ली थी युत छ. (उत्तप्पसरीरे) शरीरनी तिथी सपन्न छ. ( एस ण पुरिसे किमाहारमाहारेइ ) मा ५३५ ४४