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सुबोधिनी टीका सू. १९२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्णनम् खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्तिके पञ्चाणुवति यावद् गृहिधर्मम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः खलु स चित्रः सारथिः केशि'कुमारश्रमण' वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव चातुर्घष्टः अश्वरथस्तत्रैव प्राधारयद् गमनाय चातुर्घष्टम् अश्वरथं दूरोहति यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेत्र दिश' प्रतिगतः । सू० ११२ ।। टीका--'त एणं से' इत्यादि --
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ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः : कुमारभ्रमणस्य अन्तिके= देवानुप्रिय को जिस प्रकार से सुख हो वैसा करो - परन्तु विलम्ब मत करो. (तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वइय जाव गिहिधम्मं उचसं पज्जित्ताण विहरई) इसके बाद उस चित्र सारथि ने केशिकुमार श्रमण के पास पांच अणुव्रतों वाले एवं सात शिक्षावतों वाले गृहस्थ धर्मको अंगीकार कर लिया (तएण से चित्ते सारही केसिकुमार समण' बंदइ, 'नमसह वंदित्ता नमः सित्ता जेणेच चाउटे आसरहे तेणेत्र पहारेत्थ गमगाए, चाउरघंट आसरह दुरुह ) इसके बाद उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण को वन्दना की नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर उसने जहां चातुर्घट अभ्वस्थ रखा था उस ओर जाने का निश्चय किया, वहां जाकर वह उस पर चढ गया. ( जामेव दिसिं पाउ भूए) तामेत्र दिसि पडिगए) और जिस दिशा से होकर आया था
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| उसी दिशा तरफ चला गया ।
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टीकार्थ - - इसके बाद चित्र सारथी केशीकुमार श्रमण के पास सुण थाय ते रो. पशु विद्या न पुरे. (न एणं से चित्ते सारही के सिकुमार'समस्स अंतिए पंचाणुव्वहय जाव गिरिधम्म उवसपज्जित्ताण' विहरड़ ) ત્યાર પછી તે ચિત્ર સારથિએ કેશિકુમાર શ્રમણ પાંસેથી પાંચ અણુવ્રતાવાળા અને सात शिक्षाव्रतोवाणां गृर्हस्थधर्मने स्वीझरी सीधी. (त एण से चित्ते सारही
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के सिकुमारसमणं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमः सित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमगाए, 'चाउघंट' आसरह दुरुहइ ) त्यार माह ते त्रि ! સારથીએ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યાં, વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે જ્યાં ચાતુ ઘટ અશ્વરથ હતા તે તરફ જવાના નિશ્ચય કર્યાં. ત્યાં જઈને તે રથ
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पर सवार थ गये. (जामेवं दिसिं पाउन्भूए. तामेव दिसिं पडिगए) अने
જે દિશા તરફ થઈને તે આળ્યેા હતેા તે જ દિશા તરફ પાછૈા જતા રહ્યો.
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टीअर्थ - ત્યાર બાદ ચિત્રસારથિ કેશિકુમાર શ્રમણની પાસે ધર્મ સાંભળીને
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