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________________ ween १४० স্নাযা केन कारणेन भवति' इत्यादि रूपाणि, व्याकरणानि-पृष्टम्य जीवादिस्वरूपस्य उत्तरतया प्रश्नान्तर करणरूपाणि, तानि नो पृच्छति-पतेन स्थानेन-क.रणेन चिन ! जीवः केवलिपजप्त धर्म अवणतायै श्रोतु नो लाते-इति प्रथम क्या. नम् १श द्वितीयमाह-उपाश्रयगतम्-उपाश्रयो वसतिः, नत्र गन श्रमण वा, इनो ऽग्र-'मानवाइत्यारभ्य 'व्याकरणानि पृच्छति' इत्यन्तः सकलोऽपि पूर्वोक्तः पाठो ग्राह्यः अमूमेवार्थ मुचयितुमाह-त चेत्र जाव' इति । हे चित्र-! एनेनाऽपि स्थानेन=कारणेनजीवः केवलिमज्ञप्त धमै श्रवणताये-श्रोत नो लभते इनि द्वितीय स्थानम् २। तृतीयमाह-गोचराग्रगत=भिक्षार्थ ग्रामाभ्यन्तरे प्रविष्ट श्रमणं वा माहनं वा नो 'यावत्' यावत्पनेन-'अभिगच्छति. नो बन्द ने, नो प्राप्त किये गये उत्तर में पुनः प्रश्नान्तर करनेरूप व्याकरणों को, नहीं पूछता है, इस कारण से जीव केवलिमजप्त धर्म को सुन नहीं सकता है इस प्रकार से यह प्रथम स्थान का निरूपण है। द्वितीयस्थान का कारण निरूपण इस प्रकार है-उपाश्रय-में जाकर श्वमण को, अथवा मारण को. जो जीव प्राप्त करके यावत् व्याकरणों को नहीं पूछता है, हे चित्र ! इस कारण से भी जीव के बलिप्राप्त धर्म को मुन नहीं पाता है, यहां 'त' चेव यावत्' पद ले 'माइन' वा' यहां से लेकर व्याकरणानि पृच्छनि' वहाँ तक का सम्पूर्ण पाठ ग्रहण किया गया है। इसी अर्थ की सूचना 'त चेन जाव' पद से दी गई है। तृतीयस्थान इस प्रकार से है-श्रमण या माहन भिक्षा के लिये ग्राम के भीतर आया हो, परन्तु जो जोव उनके समक्ष नहीं जाता है, उनको वन्दना नहीं करता है उन्हे नमस्कार नहीं करता है. उनका રૂપ સંસારભ્રમણ શા કારણથી હોય છે વગેરે રૂપ કારણોને, પૃષ્ઠ જીવાદિકના સ્વરૂપ વિષે જે ઉત્તર આપવામાં આવે તે વિષે ફરી સામે પ્રશ્નોત્તર કરવા રૂપ વ્યાકરણને પૂછત નથી, આ કારણથી જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્તિ ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી. આ પ્રમાણે આ પ્રથમ સ્થાનનું નિરૂપણ છે. દ્વિતીયસ્થાનના કારણનું નિરૂપણ આ પ્રમાણે છે. ઉપાશ્રયમાં જઈને શ્રમણને કે માહણને પ્રાપ્ત કરીને જે છેવ ચાવંતુ વ્યકિરણોને પૂછતો નથી. હું ચિત્ર'! આ કારણથી પણ જીવ કેલિપ્રપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી शत नथी. मी "त चेव यावत् १४या 'माहन वा माथी भान व्याकरणानि पृच्छति" माडी सुधाना संपूर्ण पा8 अंडण वाम माव्या छ. मेर मर्थन 'त चेव जाव' पहथी सूचित ४२वामी आये. छ. तृतीय स्थान या प्रमाणे છે-શ્રમણ કે માહણ ગેચરી માટે ભિક્ષા માટે–ગામમાં આવેલાં હોય એવી. પરૂિ સ્થિતિમાં જે જવ તેમની સામે જ નથી, તેમને વંદન કરતો નથી તેમને નમસ્કાર
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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