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________________ ܘ ܘ ܪ राजश्री वन्दध्व' नमस्यत, वन्दित्त्वा नमस्थित्वा यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अनुज्ञापयत, मातिहारिकेण पीठ - फलक - यावत् उपनिमन्त्रयत, एतामज्ञिप्तिक क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत - ! ततः खलु ते उद्यानपालकाः चित्रेण सारथिना एवमुकाः सन्तो हृष्टतुष्ट यावदियाः करतलपरिगृहीत यावत् एवमवादीत्तथेति, आज्ञाया विनयेन वचन प्रतिशृण्वन्ति ॥ सू० ११७ ॥ पुत्रि चरमाणे, गामाशुगाम दुइजमाणे इहमापच्छिला. तयाणं तुग्भे देवा शुप्पिया! के सिकुमारसमण व दिज्जह) हे देवानुप्रियों । जब पार्श्वनाथ भगवान परपरा में विचरने वाले केशी नामके कुमारश्रमण पूर्व साधु परम्परा के अनुसार विचरते हुए तथा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां पर पधारे, तब तुम हे देवानुप्रियो ! केशिकुमार श्रमण को वन्दना करना ( नमः सिज्जाह ) नमस्कार करना. ( वंदित्ता नमसिता महापडिरूत्र' उग्गहं अणुज्जाज्जाः) वदना नमस्कार कर फिर तुम उन्हें साधुकल्पानुसार वसति में निवास करने के लिये आज्ञा दे देना (पाडिहारिएण पीठफलग जाव उबनिमंतिज्जाह) और समर्पणीय पीठफलक आदि जैसा में चाहे वैसा तुम उन्हें देने की प्रार्थना करना. (एयमाणतिय विपामेव पञ्चष्पिणे जाह) बाद में मेरी इस आज्ञा को जब पीछे शीघ्र लौटाना - अर्थात् जब केशि कुमार श्रमण आ जावे- तब तुम उनके आगमनादि के वृत्तान्त की हमें शीघ्र ही खबर देना: (तपूर्ण ते उज्जाणपालगा चितेण सारहिणा एवं बुता समाणा हहतुङ जाव हिपया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी - तहसि पुत्राणुपुचि चरमाणे, गामाणुगाम दूइज्माणे इमागच्छिउजा, तयाण' तुम्भे देवाणुपिया के सिकुमारसमणं व दिज्जह) वाय પાર્શ્વનાથ ભગવાનની પર‘પરામાં વિચરણુ કરનારા કેશી પૂર્વ સાધુ પર પરા મુજખ વિચરણુ કરતાં કરતાં તેમજ એક ગામથી બીજે ગામગાંવહાર કરતાં કરતાં અહીં પધારે ત્યારે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદન કરો ( नमः सिज्जाह) • नमस्कार ४२ (वदित्ता नमसत्ता अहापरुिव उरंगह अणुज्जाणेज्जाह ) बहना तेभन नमस्र अरीने तमे तेमने साधु चानुभार बसतीभां निवास १२वानी माझा आशी. ( पडिहारिएणं पीठफलग जाव उ निम तिन्जाह ) भने समर्पणीय पीठ वगेरे ? वस्तुनी" तेयोश्री भागणी ४रै ते वस्तु ं नभे तेभने नम्रपणे समर्पितः १२ . (एयमाणान्तिय खियाँ मैत्रः पचपिज्जाह ) अने क्यारे माधुः थ नयत्यारे' त' भनेः शिष्ठुभार श्रमधुनी गडी'' पधारमानी मर आपले (तए णं ते उज्जाणपालगा चित्ते सारहिणा एवं घुन्सा समाणाः हहतुः जात्रः हिययाः करयलपरिगहियें जाव નામે શ્રમણ 7 "
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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