SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टीका सु. १५४ सूर्याभिदेवस्य पूर्वभ जाव प्रदेशिराजवर्णनम् ३२५ छाया - ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिं राजानमेवमवादी न मा खलु त्वं प्रदेशिन ! पश्चादनुतापिको भवेः, यथा वा स पुरुतोऽयोहाकः । कः खलु भदन्त ! सोऽयोहारकः ? | प्रदेशिन् ! ते यथा नामकाः केचित् पुरुषा अर्थार्थिकाः अर्थगवेषकाः अर्थलुब्धकाः अर्थकांक्षिनः अर्थपिपासिताः अर्थगवेषणायै विपुलं पणितभा डमादाय सुबहु भक्तपानपथ्यदनं गृहीत्वा एका महतीम् अग्रामिकां छिन्नाऽऽपातां दीर्घाध्यान अटवीमनुप्रविष्टाः । ततः खलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकाया याव । 'तए केसीकुमारसमणे' इत्यादि । ण सूत्रार्थ – (तएगं) इसके बाद ( केसीकुमारसमणे) केशीकुमार श्रमणने (पर्सि - रायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से एसा कहा ( मागं तुमं पएसी ! पच्छाणुतात्रिए भवेज्जासि – जहा व से पुरिसे अप्पहारए) हे प्रदेशिन् ! तुम पश्चात्तापयुक्त मत बनो जैसा कि वह अयोहारक - लोहवणिक - पश्चात्तापयुक्त बना, अब प्रदेशी उससे परिचय को जानने के अभिप्राय से पूछता है (के णं भंते ! से अग्रहारए) हे भदन्त ! वह अयोहारक कौन था ? इस पर केशीकुमारश्रमण कहते हैं - (पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थस्थिया अत्थगवेसिया अत्थलुद्वया, अत्थकखिया, अत्यपिवासिया, अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुँ भत्तपाणपत्ययगं गहाय एवं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहमद्धुं अडविं अणुपविट्ठा) हे प्रदेशिन् । अनिर्दिष्ट नामवाले कितनेक पुरुष जो कि धन के अर्थी थे, धन के गवेषक थे, धन" के लोलुप थे, धनकी कांक्षा से युक्त थे, धनकी प्यासवाले थे, धनकी गवेषणा के लिये विपुल कयाणक 'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि । सूत्रार्थ - (तए णं) त्यार चड़ी (केसीकुमारसमणे) કેશી કુમારશ્રમણે (पसिं राय एवं वयासी) प्रदेशी रान्नने या प्रमाणे धुं. ( मा णं तुम पएसी ! पच्चाणुताविए भवेज्जासि - जहाव से पुरिसे अयभारए) हे अहेशिन् ! તમે પેલા અચૈાહારક–લાહ વણિક–ની જેમ, પશ્ચાત્તાપ ન કરો. હવ પ્રદેશી તેના સંબંધમાં संबंधी विगत भगुवा भाटे या प्रमाणे पूछे छे (किं णं भंते ! से अथहारए) डे ભત તે અચૈાહારક લેાખડના વજેપારી કાણુ હતા? તેના જવાબમાં કેશી डुभार श्रम, उडे 8-(पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थत्थिया अत्थगवेसिया अत्थद्वया, अत्यखिया, अत्यपिवासया, अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंड मायाए सुबहु भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहम अडाव अणुपविठ्ठा) हे अहेशिन ! अनिर्दिष्टानाभवाजा કેટલાક પુરૂષો કે જેઓ ધનાથી હતા, ધનના ગવેષક હતા, घनना बोलुच हृता +
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy