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________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३२६ अटव्याः कंचित् देशमनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तम् अयआकारं पश्यति, अयसा सर्वतः समन्ताद् आकीर्णं विस्तीर्ण सच्छटम् उपच्छटं स्फुटम् अनुगाढं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हृष्टाःतुष्टाः यावत् हृदयाः अन्योऽन्यं शब्दयन्ति, एवमवादिपुः-एप खलु देवानुप्रियाः ! अयआकरः इष्टः कान्तः यावत् मनामः, तन श्रेयः खलु देवानुप्रियाः वस्तु समूह को लेकर तथा साथ में पर्याप्त अशनपानरूप पाथेयलेकर एक विशाल अटवी में जो वसति से रहित थी, हिंसक जतुओं के भय से मनुष्यों का गमनागमनरूप संचार जिसमें क्लिकुल नहीं था और दीर्घमार्गयुक्त थी जा पहुँचे (तए णं से पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कचिदेसं अणुप्पत्ता समागा एगं महं अयागरं पासंति) इसके बाद वे पुरुप जव उस अग्रामिका, छिन्नापातयुक्ता एवं दीर्घावावाली अटवी के और आगेके प्रदेश में आ चुके तब उन्होंने वहां पर एक लोहे की खान को देखा (अएणं सचओ समंता आइणं - सच्छ उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति] यह खान सब तरफ से लोहेसे आकीण बनी हुई थी. स्पष्टरूप में नहीं थी बहुत विस्तारव ली थी समीचीन छटा-चाकचिक्यवाली थी. छटायुक्त थी. स्पष्टरूप में नहीं थी. (पासित्ता हतुवा जाव हियया अन्नमन्नं सद्दावेंति) इस लोहे की खान देखकर वे बहुत अधिक हृष्ट एवं तुष्ट यावर हृदयवाले हुए और फिर उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया (एवं चयासी) बुलाकर ऐसा कहा (एस णं देवाणुप्पिया ! अयागरे इटे कंते, ધનની કાંક્ષાથી યુક્ત હતા, ધનની તરસવાળા હતા, ધનની ગવેષણ માટે વિપુલ ક્રયાણુક વસ્તુ સમૂહને લઈને તેમજ સાથે પર્યાપ્ત અશનપાનરૂપ પાથેય લઈને એક વિશાળ અટવીમાં–કે જે એકદમ નિર્જન હતી, હિંસક જંતુઓના ભયથી માણસની અવરજવર જેમાં સદંતર બંધ હતી અને દીર્ઘ માર્ગ યુકત હતી75 पडi-या. (त एणं ते पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कंचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं महं अयागारं पासंति). त्या२ पछी ते माणसाने मयाમિકા, છિન્નાપાત યુકત અને દીર્યાવાવાળી અટવીની અંદર ખૂબ આગળ જતા २ह्या त्या तेभ मिनी मोटी न. (अएणं सवओ समंता आइष्ण वित्थिण्ण सच्छड उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति) २ मा यामे२ यो ડથી આકી હતી. બહુ જ વિસ્તાર યુક્ત હતી. સમીચીન છુટા એટલે કે ચાકચિક્ય વાળી હતી, છંટાયુક્ત હૈતી. સ્પષ્ટરૂપથી દેખાતી હતી- અને એક પુંજ રૂપમાં હતી. छिन्नभिन्न ३५i न ती. (पासित्ता हतुट्ठा जाव हि यया अन्नमन्नं सद्दावेंत्ति) તે લોખંડની ખાણને જોઈને બહુજ વધારે હષ્ટતુષ્ટ યાવત્ હદયવાળા થયા અને પછી तभो ५२२५२ सेमीन मासाव्या. (एवं चयासी) मालावीन .मा प्रमाणे ४थु. (एस ण देवाणुप्पिया ! अयागरे इटे, कंते, . जाव मणामे)
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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