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________________ सुबोधिनी टीका. सू. १५० सुर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९९ 'यः स पुरुषो नो ददाति नो संज्ञापयति स खन्द्र अव्यवहारी । एवमेव त्वमपि व्यवहारी, नो चैत्र खलु त्वं प्रदेशिन् ! अव्यवहारी ॥ १५० ॥ टीका - "तएण केसीकुमारसमंणे" इत्यादि - - ततः -- अनन्तरोक्त - मकारेण वर्त्तनानन्तरं खलुं केशी कुमारभ्रमणः प्रदेशिराजम् एवमवादीत - 5 सणवेह से णं पुरिसे बेबहारी२) तथा जो पुरुष देता नहीं है किन्तु सम्यगू. आलाप से संतोप उत्पन्न करता है वह पुरुष व्यवहारी है। ( तस्य णं जे से पुरिसे देह वि, सण्णवेइ वि, से पुरिसे वहारी३) तथा जों पुरुष देता भी है और सम्यक् आलाप द्वारा संतोष भी उत्पन्न कराता हैं वह पुरुष व्यवहारी है । (तस्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो - सण्णयेड़ से पुरिसे से णं अववहारी) तथा जो पुरुष न देता है और न सम्यक् संभापण द्वारा संतोष उत्पन्न करता है वह पुरुष - अव्यवहारी है। ( एवामेव तुम - पिवहारी जो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी) इसी तरह से अर्थात् भङ्गत्रयोक्त पुरुष, के बीच में एक भंग विशेष की तरह हे प्रदेशिन् तुम भी व्यवहारी हो, चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुष की तरह तुम अव्यवहारी नहीं हो - तात्पर्य कहने का यह है कि यद्यपि हे प्रदेशिन् ! तुमने सम्यकू आलाप द्वारा सन्तुष्ट कर मुझसे व्यवहार नहीं किया है- फिर भी मेरे विषय में भक्ति और बहुमान, तो किया ही है - अतः तुम आधभङ्गो पुरुष की तरह व्यवहारी ही हो - अव्यवहारी नहीं हो । RC તેમજ જે પુરૂષ આવતા નથી પણ સારા સંભાષણથી સંતાષ ઉત્પન્ન કરે છે. તે व्यवहारी छ. ( नृत्थ णं जे से पुरिसे देइ, वि, सण्णवेइ वि. से. पुरिसे वचहारी : ३) તેમજ જે પુરૂષ આપે પણ છે અને સમ્યક આલાપવડે સ ંતેષ પણ ઉત્પન્ન કરે. छे ते चु३ष व्यवहारी छे. (तत्थण जे से पुरिसे णो देह णो सण्णवे से पुरिसेणं अवहारी) तेभन ? युरेष आयतो नथी तेभन - सभ्य आसाथ या उश्ते! नथी એટલે કે સારા સંભાષણથી સ ંતાષ ઉત્પન્ન કરતેા નથી તે પુરુષ અવ્યવહારી છે. ( एवामेव तुमं पिवत्रहारी णो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी) या अभा હે પ્રદેશિન તમે પણ વ્યવહારી છે. J 2 ચતુર્થાં ભંગમાં કહ્યા મુજબ તમે અન્યવહારી નથી. તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે હું પ્રદેશિન્ ! તમાએ સમ્યકૢ આલાપરૂપ સારા વ્યવહાર મારી સાથે કર્યાં નથી છતાંએ મારા વિષયમાં ભકિત અને બહુમાન તે તમે કર્યાં છે. એથી તમે આદ્યભ’ગાકત પુરૂષनीरेमे व्यवहारी छो. मव्यवहारी नथी.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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