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________________ राजप्रश्नीयसो एकोनो ददाति नो सज्ञापयति ४ । जानासि खलु त्वं प्रदेशिनु ? एतेषां चतुर्णा पुरुषाणों को व्यवहारी ? कोऽव्यवहारी ? हन्त !! नानामि। तत्र खलु. यो स पुरुषो ददाति नो संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी । तत्र खलु यः स पुरुषो नो ददाति संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी। तत्र.: खलु यः स पुरुषो ददात्यपि संज्ञापयत्यपि स पुरुषो व्यवहारी । तत्र ग्वल वि.३, एगे णो देइ णो सण्णवेई ४, जो इस प्रकार से हैं-एक कोइ पुरुष किसी वस्तु को किसी के लिये देता तो है. पर उसके साथ वह मिष्टं भाषण द्वारा अच्छा संतोषपदव्यवहार नहीं करता है १, एक पुरुष, मिष्ट भाषण द्वारा दूसरे के प्रति संतोषप्रद व्यवहार तो करता है, परन्तु देता कुछ भी नहीं है २, एक पुरु, देता भी है और लेने वाले के.. प्रति मिष्टषचनद्वारा संतोषपद व्यवहार भी करता है ३, एक पुरुष ऐसा होता है जो न देता है और न मिष्टवचन द्वारा संतोषप्रद व्यवहार ही करता है. ४, (जाणासि णं तुम पएसी ! एएसिं चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी के अववहारी ? ) केशी ने प्रदेशी से पूछा-हे प्रदेशिन् ! तुम , जानते. हो इन चार · व्यवहारी पुरुषों के बीच में कौन व्यवहारी है और कौन अव्यवहारी है? तब प्रदेशीने केशिकुमार श्रमण से कहा-(हंता, जाणामितस्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ से णं पुरिसे ववहारी?) हां, जानता हुं, इनमें जो पुरुष देता है और सम्यग् पालाप से संतोष उत्पन्न नहीं करता है वह पुरुष व्यवहारी कहा जाता है (तत्थ ण जे से पुरिसों णों णों देई णो संणवेइ ४) रे मा भाणे छ. ४ भाणुस 1 yyad inઆપે તે છે પણ તેની સાથે તે મિષ્ટ સંય ષણવડે અચ્છ સતોષપ્રદ વ્યવહાર કરતે નથી? એક માણસ મિષ્ટ ભાષણવડ બીજાની સાથે સંતોષપ્રદ વ્યવહાર તે કરે છે પણ આપને કંઈ નથી ૨, એક માણસ આપે પણ છે અને લેનાર માણસને મિષ્ટ વચનો વડે સતેષ પણ આપે છે. ૩) એક માણસ એ પણ હોય છે કે જે કંઈ પણ આપતું નથી અને મિણ વચનોથી સંતોષજનક, વ્યવહાર પણંકર નથી (जाणासि · तुमं पएसी! एएसिं चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी': के के अववहारी ?) अशीय प्रदेशाने प्रश्न या प्रशिन् ! तमे on छ। ) मा यार.. ०यवहारी छ ? त्यारे प्रदेशीये. ह्युः (हंता, जाणामि, तत्थणं जे. से। पुरिसे दें। णो सणवेइ से णं पुरिसे बवहारी ?) si, onlY छु': मामाot માણસ આપે છે અને સારા વચનોથી સંતોષ આપતું નથી તે પુરૂષ વ્યવહારી કહે पाय छ. (तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सणावेइ से णं पुरिसे ववहारी,२) ।
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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