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________________ १२१ सुबोधिनी टीका सू. १२० सूर्याभिदेवस्य पूर्वभव जीवप्रदेशीराजवर्णनम् लव्धार्थाः सन्तः हृष्टतुष्ट यावद् हृदया यत्रैव केशी कुमारभ्रमणः तत्रैव उपागच्छन्ति केशिन कुमारश्रमणं वन्दन्ति नमनति यथामतिरूपमवग्रहमनुजानन्ति प्रातिहारिकेण यावत् संस्तारकेण उपनियन्त्रयन्ति, नामगोत्र पृच्छन्ति, अवधारयन्ति, एकान्तमक्रामन्ति अन्योन्यमेवमवादिपुः - खलु देवानुप्रियाः ? चित्रः सारथिः दर्शनं काङ्क्षति, दर्शन प्रार्थयति, दर्शनं स्पृहयति, दर्शनमभिलपति, यस्य खलु नामगोत्रस्यापि श्रवणतया दृष्टतुष्टवे हट्टनुट्ठ जाव हिगया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति ) इसके बाद उद्यानपाल जब इस बात से निश्चितमतिवाले हो गये. तव हृष्ट तुष्ट यावत् हृदयवाले होते हुए वे जहां केशीकुमारभ्रमण थे वहां पर आये, (के लिकुमारसमणं वदति, नमस'ति, अहापडिरून उग्गह अणुजाण ति) वहां आकर उन्होंने केशो कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया एवं यथारूप अवग्रह आज्ञा उन्होंने दिया. (पाडिहारिएण जाय संधारण उवनिम तति) तथा समर्पण (प्रातिहारिक) यावत् संस्तारक आदि से उन्हें उपनियंत्रित किया. (णाम गोयं पुच्छति ओधारेति, एगते अवकमति, अन्नमन्न एवं व्यासी) नामगोत्र पूछा। उसे हृदय में धारण किया। फिर वे एकान्त में गये और वहां जाकर उन्होंने आपस में इस प्रकार से बातचीत को (जस्स ण देवाणुपिया । चित्ते सारही द'क्षण' कखेइ द'सण पीहेड़, दंसण अमिलसे) हे देवानुप्रियो ! जिनके दर्शन चित्र सारथि चाहता है, जिनके दर्शन की वह प्रार्थना करता है, जिनके दर्शन की वह स्पृहा रखना है, जिनके दर्शन की वह अभिलावावाल जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति) त्यार पछी ते उद्यानवाले! क्यारे नमसति આ બાબતમાં નિશ્ચિત મતિવાળા થયા ત્યારે તેઓ હૃષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને नयां ठेशीकुमार श्रभणु हृता त्यां न्याव्या (केसिं कुमारसमण ं वदति, · अहापडिरून उग्गह' अणुजाणति) त्यां भावीने तेमले शुभार श्रमलुने बहना उरी नभस्टार र्या भने यथा दयनीय वस्तुओ तेथे श्रीने आयी. (पाडिहा 'रिएण' जात्र संधारण' उवनिमतति) तेभर समर्पणीय यावत् संस्ता२४ वगेरे - अर्थाने तेथेोश्रीने उपनिभ त्रितय. (णाम गोय पुच्छति ओधारेंति, एग'त' अवक्कमति, अन्नमन्न एवं व्यासी) नाम - गोत्र पूछयां गने तेने हृदयभां धारएणु र्या, त्यारपछी ते सर्वे तमां गया त्यां वर्धने तेभो परस्पर या प्रमाणे वातशीत ४री (जस्सण देवाणुपिया ! चित्ते सारही दसण ं कळखेइ, द ंसण ं पत्थेइ, दसण पोहेह, दंसण अभिलस्सेह) हे हेवानुप्रिये! ! ચિત્રસોરથ જેઓશ્રીના નાની ઇચ્છા ધરાવે છે, જેઓશ્રીના દર્શના માટે તે પ્રાર્થના કરે છે, જેઓશ્રીના દાની તે સ્પૃહા ધરાવે છે, જેઓશ્રીના દર્શનાની
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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