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जुबोधिनी टीका सू. १४३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् "तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, जइ णं भते ! तस्ल पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्त मुयस्स वा तुलियस्स होज्जा केइ नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तो गं अहं सदहेजा तं चेव, जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा नुलियस्त नस्थि केइ नन्नत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तम्हा सुपइदियो मे पइण्णा जहा तं. जीवो त चेव ।।सू० १४३ ॥ - छाया-ततः खलु स प्रदेशी के शिकुमारश्रमणमेवमवादीत-अस्ति खलु... भदन्त! यावत: नो उपागच्छति, एवं खलु भदन्त! यावद विहरामि, ततः खलु
मम नगरगुप्तिकाः यावत् चोरमुपनयन्ति, ततः खलु अहत पुरुपं जीवि - तकमेव तोलयामि तोलयित्वा छविच्छेदम् अकुर्वाणः जीविताद् व्यपरोप:
तए णं से पएसी इत्यादि । मुत्रार्थ- (तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एव वयासी) इसके
वाद उस मदेशीने केशीकुमारश्रमण से एसा कहा-(अस्थि ण भते जाव नो उवागच्छद) हे भदन्त ! यह उपमा बुद्धि जन्य है अतः वास्ता विक नहीं है. मुझ. इस वक्ष्यमाण कारण से जीव और शरीर का भेद प्रतीत नहीं होता है (एवः खलुभाते-जाव विहरामि) वह कारण इस प्रकार से है-एक दिन की बात है कि मैं गणनायक आदिकों के साथ बाह्यउपस्थानशाला में बैठा हुआ. था. (तएणं मम जगरगुत्तिया जाव चोर उव.. णे ति) इतने में मेरे नगररक्षक साक्षियुक्त आदि विशेषण संपन्न किसी एक.. चोर को पकड कर ले आए (तए णं अहं तं पुरिसं जीवितगं चेत्र तुलेमि):
तएणं से पएसी' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-तए ण से :पएसी के सिकुमारसमगं एवं वासी) या पछी ते अशी. सन 20 मार श्रमाने २मा प्रमाणे यं. (अस्थिभंते जाव नों उचागच्छइ) मत ! मा उपमा गुद्धिन्य छ मेथी वास्तवि: नथी. पक्ष्यमा २६थी मने शरीरनी मिन्नत मा। मनमा मती नथी. (एवं खलु .भंते !' जाव विहरामि) ते २९] २मा प्रभारी छ-मे हिवसनी वात छ गना वगेरे.. नी साथे गाव उपस्थानशा (मानी ध्ये)मा मेटे हुतो. (एमं मम गंगर-. गुत्तिया जाव चोर उवणेति) ते quते भा। ना२२क्ष सालित वगैरे विशेषणाथी संपन्न 1 मे या२ने पडसाव्या. (त एणं अहं तं पुरिस
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