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________________ - . ૨૪૦ . . . . . राजप्रश्नीयसूत्र भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावतू निपुण शिल्पोपगतः प्रभुः । पञ्च काण्डकं निस्स्रष्टुम् ? हन्त प्रभुः! यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषो बालः यावत् मन्दविज्ञानः प्रभुमवेत् पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुम्, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां यथा-अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! स केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पणाओ उवमा) हे भदन्त ! यह जो आपने उपमा दी हैवह केवल बुद्धिविशेष से जन्य होने के कारण वास्तविक नहीं है (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) क्यों कि जो कारण में प्रदर्शित कर रहा हूँ उससे मेरे हृदय में जीव और शरीर का भेद जमता नहीं है। (अस्थि णं भते! से जहा नामए केइ पुरिसे तरूणे नाव निउणसिप्पोवगए पभू पंचकंडग निसिरित्तए) वह कारण ऐसा है-हे भदन्त ! जैसे कोइ युवापुरूप हो यावत् वह निपुणशिल्पोपगत हो, तो वह पांचवाणों को एक ही साथ पांच लक्ष्योंको वेधने के लिये छोडने में समर्थ हो सकता है न ? (हंता पभू) केशीकुमार श्रमणने कहा--हां हो सकता है। (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडग निसिरित्तए) अव यदि वही पुरुषवाल, यावत् मन्दविज्ञान वाला अपनी अवष्यापन्न हुआ पांचकाण्डकको-पांचवाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो जावे तो मैं आपके वचनों को श्रद्धा के विषयभूत बनाउ' और यह मानलू कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर रूप नहीं प्ररशी २०- ४शीभा२श्रमानने ॥ प्रभारी ४थु (अधिणं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) महत ! म प्रमाणे तभाये ५मा मापी छ. ते मात्र गुद्धिविशेष न्य हावाथी वास्तवि: नथी. (इमेण पुण मे कारणेणं नों उवागच्छद) भ? જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી મારા હૃદયમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાત OME नथी. (अस्थि णं भंते ! से नहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ते २४ मा प्रभारी छ. ભદંત! જેમ કે યુવક હેય ચાવતુ તે નિપુણશિલ્પપગત હય, તે તે પાંચ બાણને सी. साथे पांय सक्ष्योनु वेधन ४२पामा समर्थ थ छ?(हंता पम) शोभार भयो ४ह्यु डाल, थश छ. (जह णं भंते ! से चेव पुरिसे याले. जाव मंदविन्नाणे पभृ होजा पंच कंडगं निसिरित्तए) वेत युवर मात, यावा મંદવિજ્ઞાનવાળે પિતાની અવસ્થાપન થયેલ પાંચકાંડને-પાંચ બાણોને છોડવામાં સમર્થ થઈ જાય તે હું તમારા વચનને શ્રદ્ધા એગ્ય માની શકું તેમ છું અને આ
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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