________________
१३४
राजश्रीसूत्रे
एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलमजस धर्म नो लभते श्रवणतायै । (२) आश्रयगन' श्रमण वा तदेव यावत् एतेनापि स्थानेन चित्र ! जोवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणतायै । (३) गोवराग्रगत' श्रमण वा माहन वा सन्मुख सत्कार आदि करने के निमित्त जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो सुखशातादि मनपूर्वक उनकी स्तुति नहीं करता है, उनके समक्ष अपने मस्तक को जो नहीं झुकाना है, अभ्युत्थानादि द्वारा जो उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि के देने से जो उनका सन्मान नहीं करता है, तथा कल्याणस्वरूप, मंगलग्वरूप, धर्म देवस्वरूप मानकर एवं विशिष्टज्ञान वाला मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है, (नो अड्डाई, हेक३' परिणाइ. कारणाइ, वागरणाई पुच्छे३) अर्थ को - जीवाजीवादिक पदार्थों को, हेतुओं को अन्यथानुपपत्तिरूप साधनों को, प्रश्नों को, कारणों को, व्याकरणों को, नहीं पूछता है, (एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्मनो लभइ सवणयाए) इस कारण से हे चित्र ! जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है। यह प्रथम कारण है । (१) ( उवस्सगय समणं वा तं चैत्र, जात्र एएणं वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नन्तं धम्म नो लभइ सवयणयाए ) उपाश्रय में आये हुए भ्रमण के सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता है यावत उनसे व्याकरणों को नहीं पूछता है, ऐसा जीत्रइस द्वितीय कारण से भी के वलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है । (२)
સામે જે સત્કાર વગેરે કરવા માટે જતા નથી, મધુર વચનોથી સુખશાતાદિ પ્રશ્નપૂર્વક તેમની સ્તુતિ કરતા નથી, તેમની સામે પાનાનુ' મસ્તક નમ્ર ભાવે નમાવતા નથી, અભ્યુત્થાન વગેરે વડે જે તેમને સત્કારતા નથી, વસતિ વગેરેઆપીને તેમનું સન્માન કરતા નથી તેમજ કલ્યાણુ સ્વરૂપ, મંગળસ્વરૂપ, ધર્મ દેવસ્વરૂપ માનીને અને વિશિષ્ટज्ञान सयन्न मानीने ने तेभनी पर्युपासना १२तो नथी. (नो अट्ठाई, हेऊड़, पसि णाइ, कारणोइ वागरणाइ, पुच्छेइ) अर्थाने व अव वगेरे चहार्थेने, हेतुओने अन्यथानुपपत्तिज्ञ्य साधनाने,प्रश्नीने अरथेने, व्य२शोने पूछतो नथी,(एएण ं ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभइ सवणयाम्) हे चित्र ! म अरथुने લીધે જ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણુ કરી શકતા નથી. આ પહેલ કારણ છે. (૧) (उवस्तयगयं समणं वा तं चेत्र, जात्र एए णं वि ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म, नो लभइ सवणयोए) उपाश्रयमां पधारेसा શ્રમણ કે માણના સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જતા નથી. યાવત તેમને વ્યાકરણા વિષે પ્રશ્ન કરતા નથી. આ જાતના જીવ આ ખીજા કારણથી પણ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્માંનુ