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________________ - - . : :. ": .. . . : सुबोधिनो टोका. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ... छाया-तत खलु स चित्रः सारथिः कन्चुकिपुरुषस्य अन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हष्टतुष्ट-यावद् हृदयः कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा, एवमयादीतक्षिप्रमेव भो देवानमिया ! चातुर्घण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्थापयत यावत्सच्छत्रम् उपस्थापयन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः स्नातः कृतबलिकर्माः कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्तः शुद्धपवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरप.... 'तएण' से चित्त सारही कंचुईपुरिसस्स आतिए एयम' इत्यादि । सूत्रार्थ-(नएणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम सोधा निसम्म हतुट्ट जाच हिंयए कोड्डवियपुरिसे सहावेइ) इसके बाद जब . कि क चुकी के मुख से इस अर्थ को सुना और उसका हृदय में विचार किया तय हृष्ट यावत् . हृदय वाले होकर उस चित्रसारथिने कौडम्बिकपुरुषोंआज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया, (सावित्ता एवं बयासी) बुलाकर उसने ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउग्घंटे श्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेड) हे देवानुपियो ! आप लोग चातुर्घट-(चारघंटोवाले) अश्वरथ को घोडों से युक्त करके शीघ्र ही उपस्थित करो (जाव सच्छत्त उबटुवे ति) अपने स्वामी की इस प्रकार आज्ञा के वचन सुनकर यावत् उत्तम छन्त्र सहित अश्वरथ को उन्होंने लाकर उपस्थित कर दिया. (नएण से चिशे सारही हाए कयबलिकम्मे, कयकोउयम गलपायच्छित्त) रथ को उपस्थित हुआ जानकर चित्र सारथिने स्नान किया, वलिकर्म किया अर्थात काक 'त एणं से चित्ते सारही कचुइपुरिसस्स प्रतिए एयम'' इत्यादि. सूत्रार्थ:-ति एणं ले चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमई सोचा निसम्म हतु जाव हियए कोडविय पुरि से सदावेइ) या युजीना મુખથી આ બધી વિગત સાંભળી ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો અને હષ્ટ થાવત્ હદયવાળો, થઈને તે ચિત્રસારથીએ કૌટુંબિક પુરૂષોને-આજ્ઞાકારી પુરૂષોને બોલાવ્યા. (सहावित्ता एक बयासी) मालावीन भने मा प्रमाणे ह्यु. (विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्र आसरह जुत्तामेव उवचेह) हे देवानुप्रिय ! मा५ सौ सत्परे न्यातुध (या२ घटवाणा). अश्वथने Alerard शनसावा. (जाव सच्छत्त' उचट्ट ति) पोताना २वामीनी. २मा प्रमाणे माज्ञ! Aiewीने यावत् तेभाणे ઉત્તમ છત્રસહિત અધર લાવીને ઉપસ્થિત કર્યો. ...... (त एणसे चित्त सारही पहाए कयवलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्त) २थने भावह नन यिसाथिये स्नान यु", सिभ यु" भने दु:२१ना निवारणार्थ गौतु४, म८३५ प्रायश्चित्तनी विधियो संपन्न ४ी. सुद्धः
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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