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राजप्रश्नी सूत्र प्रदेशिनो राज्ञः इमं रहस्यभेद करिष्यति, इति कृत्वा प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि च- मर्माणि च रहस्यानि च विवराणि च, अन्तराणि च प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती विहाति ॥ सू० १६२ ॥
"टीका-"तए णं तीसे" इत्यादि-ततः खलु तस्याः सूर्यकान्ताया देव्या प्रदेशिराजस्य पट्टराश्या अयमेतद्रूपः-वक्ष्यमाणप्रकारकः आध्यात्मिकः-आत्मगतो विचारः यावत्-यावत्पदेन 'चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः" इति संग्राह्यम्, अर्थस्तु पूर्घसूत्रे गतः, समुदपद्यत-संजातः, तदेव दर्शयति-यत्नभृते-दिनादारभ्यः च : रनलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासक:-श्रावको जानः, ततात तद्दीनादारभ्य च खलु : राज्यं-स्वाम्पमात्द-सुहृत्-कोप-राष्ट्र-दुर्गसरियकते. · कुमारे पएसि स रण्णो रहस्सभेयं करिसइ त्ति कटु पग सिस्स रप्णो छिंदाणिय-मम्माणिय-रहस्साणिय-विवराणिय-अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरेइ--" सूर्यकान्तकुमार प्रदेशी राजा के पास, अर्थात्-प्रदेशी राजा से मेरी रस मन्त्रणा को.. प्रकाशित न करदे ? अतः वह इस विचार से प्रदेशी राजा के छिद्रों को, दो की, मर्मों को, कुकृत्यरूप लक्षणों को रहस्यों को एकान्तस्थान में सेवित निपिद्ध' आचरणों को, विवरों को. निर्जनस्थानों को, और अवकाश लक्षणरूप अन्तरों को बड़ी सावधानी के साथ वार-२ देखने लगी-अर्थात्-न सब पर वह कडी दृष्टि रख्नने लगी. ॥ . ' टीकार्थ-स्पष्ट है. "अज्झथिए जाव' में आगत इस यावत् पदसे-चिन्तित कल्पित प्रार्थित मनोगत संकल्प, इन पदों का संग्रह हुवा है। इन विचार के विशेषणों का अर्थ पहले प्रकट किया जा चुका है। "ज्ज च. जाव अंतेउर' च-" मैं आगत यावत् पद से-“वलं वाहनं कोप कोष्ठागार पएसि स. रणो रहस्सभेयं करि सह त्ति कटु पएसि स रणो, छिदाणिय मम्मर णिय रह साणिय, विवराणिय अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरई" सूर्यरत भा२ प्रदेशी .यनी पासे-मेरो प्रशी. २ने- भारी. વાત કહી દે નહિ એથી તે પ્રદેશ રાજાના છિદ્રોને, દેને, મને, કુટ્ટ યરૂપ લક્ષણને, રહસ્યોને, એકાન્ત સ્થાનમાં સેવિત નિષિદ્ધિ આચરણાને, વિવોને, નિર્જન સ્થાને અને અવકાશ લક્ષણરૂપ અત્રેને બહેજ સાવધાનીપૂર્વક વારંવાર જોવા લાગી. मेटले. धारिदयाल ५२ हष्ट राभवा माडी. . . . . " Fitथप छ. "अज्झत्यिए जाव"भावसा यावत् पहथा "चिन्तितः कल्पितः 'पार्थितः मनोगतः संघल्पः" ! पहानी संग्रह थयो छ, पहानी मथः पद २५४४२वामां मां-ये। छ. . "रज्जच जाव अंतेउरं च" भi मावस यावत् पट्टेयी
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