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________________ ३२८ राजपनी मूत्र खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकम् अयोभारकं मुक्त्वा त्रपुकमारकं बढुम, इतिकृत्वा अन्योऽन्यस्य अन्तिके एतमर्थं प्रतिगण्वन्ति, अयोभारं मुञ्चन्ति, त्रपुकभारं वनन्ति! तत्र खलु एकः पुरुषो नो शक्नोति अयोभार मोक्तुम् त्रपुकभार बछुम् । ततः खलु ते पुरुषाः तं पुरुषमेवमत्रादिपु:-एप खलु देवानुप्रिय ! प्वाकरः यावत् सुबहुअयो लभ्यते, तद् मुञ्च खलु देवानुप्रिय ! अयोभारकम, त्रपुकमारकं वधान। ततः स पुरुषः एवमवादीत्-दूराऽऽहृतं मया देवानुप्रियाः ! अयः, चिराऽऽहृतं मया खान इष्ट यावत् मन आम-अर्तिहर होने से मनः गम्य है [अप्पे णं चेव तउएण सुवह अए लभइ) थोडे से ही रांगा से बहुत अधिक लोहा हमें मिल सकता है (तं सेयं खलु अम्ह देणुप्पि ! अयभारग उडेता तउयभारगं बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिग एयम पडिसुणे ति) अतः हमारी भलाई अब इसी में है कि हम इस लोहे के भार को छोडकर इस रांगा को यहां से बांध ले, इस प्रकार का विचार करके उन्होंने आपस के इस कृत विचार को निश्चय का स्थान दे दिया. (अयभार छड्डे ति, त उपयारं बंधे ति) और लोहके भार को छोडकर रांगा के भार को वांघ लि (तत्थ ण एगे पुरिसे णो संचाएइ, अयभारं छड्डत्तए, तउएभारं वंधत्तए) परन्तु इनमें एक पुरुप ऐसा भी था जो लोहे के भार को छोडने में और रांगा के भार को ग्रहण करने में वांधने में असर्थथा, अर्थात वह ऐसा करना नहीं चाहता था. (तएण ते पुरिसा નુપ્રિ ! આ રાંગાની ખાણ ઈષ્ટ યાવત્ મન આમ-અર્તિવર હોવા બદલ મનગમ્ય છે. (अप्पे णं चेव तउएणं सुबहुं अए लव्भइ) या संपाथी मभने धाशु होम भणी छ. (तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, छडेत्ता तउयभारगं वंधित्तए त्ति कट्ट अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुणेति) सेवी અમારા માટે એ જ સારું છે કે અમે લેખંડના ભારને ત્યજીને આ રાંગાને અહી થી બાંધી લઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પરસ્પર કૃત આ વિચારને નિશ્ચયા(म४३५ माथी सीधु. (अयभारं छेडेंति, तउयभार बंधति) मने वो ना मारने भूलने Hinl मारने साथ 45 सीधे. (तत्य णं एगे पुरिसे णो संचाएइ, अपभारं छडेत्तए, तउए भार चंधित्तए) ५ तेमधाम से मस मेसो पा हुने सामना मारने त्याने ने अडवानी वातने यिन भान न तो. (तए गं ते पुरिसा त पुरिस एवं वयासी) त्यारे ते ५३षाये तने म प्रमाणे - (एस ण देवाणुप्पिया ! तउआगरे जाव सुवह अए लब्भइ) 8 हेवानुप्रिय ! આ રાંગાની ખાણ છે, ઈષ્ટ કાંત વગેરે વિશેષણોથી યુકત છે. થોડા રાંગાથી પણ माप प सोम भेषी शीमे तेम छाये. (तं..... ण देवाणुप्पिया !
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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