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सुबोधिनी टीका. सू. १०८ सूर्याभदेवरा पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
जनसमुदाय दृष्ट्वा च अयमेतद्रूपः आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-समुन्.
त्पन्नः। यावच्छब्देन 'चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्प;' - इति पदसमूहः व्यशीतितमन्त्रावद् बोध्यः। अर्थोऽप्येषां तत एव गम्य ___ इति । सम्पति मनोगतसंकल्पस्वरूपमाह-'किं ण' इत्यादि । किं खलु 'किम्' - इति वितके, 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, अध श्रावस्त्यां नगर्याम् ईन्द्रमहः- इन्द्रः शक्रः तन्निमित्तो महाउत्सवः= इति वा, एव स्कन्दमहः' इत्यारभ्य
'सागरमहः' इत्यन्तानां पदानामपि अर्थोऽनुसन्धेयः। नवरम्-स्कन्दा कार्ति
महान् जनशब्द को यावत् जनस पातको सुन करके और देख करके इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ. यहां यावत् शब्द से 'चिन्तित,... कल्पित, प्रार्थित, मनोगत' ये विशेषण संकल्प के ग्रहण किये गये हैं। इनका अर्थ :८३वे सूत्र में स्पष्ट किया गया है। अतः वहीं से वह जानना चाहिये। किं णं' इत्यादि 'कि' शब्द वितर्क में और
खलु' शब्द वाक्याल कार में आया है। चित्र सारथी को जो संकल्प उत्पन्न हुआ है वही इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है-क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह है १. इन्द्र नाम शक्र का है. इस शक्र को निमित्त करके किया गया मह-उत्सव वह इन्द्रमहः है. 'स्कन्दमह' से लेकर 'सागरमह' तक के पदों का अर्थ भी इसी प्रकार से जानना चाहिये. स्कन्द नाम कार्तिकेय
જનશબ્દને યાવત્ જનસ પાતને સાંભળીને અને જોઈને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત
५. उत्पन्न थयो. मी यावत् २०४थी : चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत' સંક૯૫ માટે આ વિશેષણનું ગ્રહણ સમજવું. આ બધાને અર્થ ૮૩ મા સૂત્રમાં २पट ४२वामा मा०यो छ. तथा विज्ञासुनाये त्यांथी odel से नये. "कि ण ઈત્યાદિ. “” શબ્દ વિતર્ક માટે અને “ ” શબ્દ વાક્યાલંકાર માટે પ્રયુકત થયેલ છે. ચિત્રસારથિને જે સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે તેજ આ નગ્ન શબ્દો વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રિમહ છે. ઈન્દ્ર શુક્રનું નામ छ. PAL AS मत ४३n24 -SA -भड छ. "स्कदमह" थी भांडीन "सागरमह' सुधाना ५५i पहने! अ, भा प्रमाणे on eadeg.. नये ।