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________________ सुबोधिनी टोका. सू. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १३७ यावत पर्युपास्ते, विपुलेन यावत् प्रतिलम्भति, अर्थान यावत् पृच्छति, एतेनापि०, (४) यत्रापि च खलु श्रमणेन चा० अभिसमागच्छति तत्रापि च खल नो हस्तेन वा यावत आकृत्य तिष्ठति, एतेनापि स्थानेन :चित्र ! जीव: केबलिप्रज्ञा धर्म लभते श्रवण नाय, नाच खलु चित्र ! प्रदेशो राना आरामगतं वा तदेव सर्व भणितव्यम् आदिमेन गमकेन यावद् आत्मानमात्यतिष्ठति, तत्कथं खलु चित्र ! प्रदेशिने रातें धर्ममाख्यास्यामः ? ॥०१२३।। से या माण से उनको वन्दना करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, पर्युपामना करता हुआ अर्थो को यावत्- पूछता है, ऐसा जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन सकना है. (२)(गोयररगगय समण वा जाव पज्जुवालई, विउ. लेणं जाव पडिलाभेइ, अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएण वि०) इसी प्रकार जो जीव गोचरीगतश्रमण की या माहण की योवत् पर्युपासना करता है, विपुल आहार से उन्हें प्रतिलाभित करना है, उनसे अर्थों को यावत् पूछता हैवह जीव के वलिमजप्त धर्म को सुन सकता है, (३) (जत्थ वि य णं समणेण वा० अभिसमागच्छइ, तत्थ वि य ण णो हत्थेण चा जाच आवरेत्ता चिटई) जहां पर भी श्रमण या माहण के साथ संगत होता है वहां पर जो जीव अपने आप को हाथ से यावत् आयत्त छुपाना नहीं है ऐसा वह जीव इस चतुर्थ कारण को लेकर केवलिप्रजप्त जिनधर्म का श्रषण कर सकता है (४) (तुज्झ' च णं चित्ता! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सन्न भाणियन आइल्लएणं गमएणं जाव अपाणं आवरेत्ता चिट्ठइ तं कहं ण चित्ता! धनुश्रवणुछ.(१) मे प्रमाणे (उम्मयगय) मा प्रमाणे रे या માં આવેલા શ્રમણોને કે માહનોને વન્દન કરતે, નમસ્કાર કરતા, પર્યુંપાસના કરો, અને યાવત્ પૂછે છે, એવો જીવ કેવલિપ્રજ્ઞ ધર્મનું શ્રવણ કરી शुई छ (२)गोयरममयं समग वा जाव पज्जुवासा, विउलेण नाव पडिलाइ, अट्ठाइ जाव पुच्छइ, एएण वि.) या प्रमाणे २ लगायरी भाटे नाणेसा श्रमानी કે મહિણની ચાવત્ પ્રjપાસના કરે છે.વિપુલહારથી તેમને પ્રતિલાભિત કરે છે. તેમને भयो विधे यावत पूछ छ: सित श्रवण ४२ छे..(३) (जत्थ वि यणं समर्णण वा अभिसमागच्छइ तत्थ वियणंणो हत्येण चा जाव आवरेत्ता चि? इ) SभY - म गमे त्या भणे. व तेयाश्रीनाने यातानी. जतने પોતાના હાથો વડે યાવતું આવૃત કરતો નથી એવો તે જીવ આ ચેથા કારણને લીધે पनि प्रशस्त निर्मनु श्रवण ॥ शंछ. (१) (तुज्झ च णं चित्ता ! पएंसी ‘राया आरामगयं वा त चेच सर्व भाणियच आइल्ल एण' गमएण जाव
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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