Book Title: Pratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप श्री दिगम्बर जैन प्रतिष्ठा विधि विधान 2010 05 पोभूमि लेखक एवं सम्पादक नाथूलाल जैन शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित नाथूलाल जैन 'शास्त्री' जैन सिद्धान्त दर्शन, न्याय, साहित्य, ज्योतिष एवं आयुर्वेद आदि के प्रकाण्ड विद्वान, जिन-बिम्ब प्रतिष्ठा, धार्मिक विधि-विधान (क्रिया-काण्ड) के निष्णात् मनीषी, परम्परानुसारी आगमविरुद्ध क्रिया-काण्डों को बन्द कर आगमोक्त प्रतिष्ठा-विधि के सम्पूर्ण जैन समाज एवं विद्वद्वर्ग के कुशल सम्पादक एवं मार्गदर्शक हैं। १. पिता : श्री सुन्दरलालजी बज २. माता : श्रीमती गेंदाबाई ३. विवाह : इन्दौर; १ दिसम्बर, १९३३ ४. पत्नी : स्व. श्रीमती सुशीलाबाई ५. पुत्र : श्री जिनेन्द्रकुमार जैन (स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर) ६. जन्म : २५ जनवरी, १९१३ ७. जन्म-स्थान : सुरली ग्राम (सवाई माधोपुर, राजस्थान) ८. शिक्षा : सन् १९१९ में सर हुकमचन्द जैन छात्रावास में प्रवेश कर लगन, परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर सिद्धान्त शास्त्री, साहित्यशास्त्री, साहित्यरत्न (प्रयाग), न्यायतीर्थ (दिगम्बर, श्वेताम्बर) कलकत्ता आदि। सन् १९२७ से धार्मिक क्रिया-काण्ड एवं प्रतिष्ठाओं में संलग्न ; सन् १९७५ तक लगभग १०० प्रतिष्ठाएँ भारत के विभिन्न प्रान्तों में बिना भेंट लिये करायीं। १९३३ से १९५० तक सर हुकमचन्द जैन महाविद्यालय के प्राध्यापक, १९५८ से १९९५ तक प्राचार्य पद पर रहे। १९५० से अखिल भारतीय महासभा के सं. महामन्त्री व १९८७ तक परीक्षालय का सफल संचालन, १९८८ से अभी तक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परीक्षा JainEducation international-2010-05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप श्री दिगम्बर जैन प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधान नाथूलाल जैन, शास्त्री न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, सिद्धान्ताचार्य, जैन सिद्धान्त महोदधि, संहितासूरि, प्रतिष्ठा दिवाकर पूर्व प्राचार्य सर हुकमचन्द दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, जॅवरीबाग, इन्दौर पंचकल्याणक प्रतिष्ठाविधि, समुद्र के समान गंभीर एवं अगाध है और सर्वसाधारण के लिए सूक्ष्म, अगम्य एवं गूढ़ है। जैसे समुद्र का जल स्वयं समुद्र से ग्रहण करने से खारा ही मिलता है। परंतु वही जल मेघ के द्वारा प्राप्त होता है तो मधुर (मीठा) होता है। उसी तरह मनमाने प्रतिष्ठा-पाठ ग्रंथों को अपने आप पढ़ कर उसका मनमाने विधि-विधान करने पर वह खारे जल के समान ही अग्राह्य होगा। जैसे मेघ के द्वारा आनीत वही जल मधुर होता है, उसी तरह परिपक्व ज्ञानी विद्वानों से या आचार्य परंपरा से अधीत आगम-सम्मत प्रतिष्ठा-पाठ ही ग्राह्य एवं उपयोगी होगा। -आचार्य विद्यानन्द वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति गोम्मटगिरि, इन्दौर-४५२ ००१ (म.प्र.) श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट इन्दौर-४५२ ००४ (म.प्र.) 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c:\op\pradiop.qxd 2 • • © • प्रतिष्ठा प्रदीप वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति का ६१ वाँ पुष्प लेखक एवं सम्पादक नाथूलाल जैन 'शास्त्री' • प्रथम संस्करण १९९०; वीर निर्वाण संवत् २५१६ द्वितीय संस्करण जुलाई १९९८ वी. नि. सं २५२४ १००० प्रतियाँ रेखांकन देवकृष्ण लाम्बोले वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति प्रबन्ध सम्पादक : गुलाबचन्द बाकलीवाल प्राप्ति स्थान : वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति कार्यालय दि. जैन अतिशय क्षेत्र, गोम्मटगिरि, इन्दौर -१ ( म.प्र.), फोन ८८२२५१ पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी ६४ / ३, मल्हारगंज, इन्दौर -२, फोन : ०७३१-४११४७६ श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट कार्यालय ४५, माणक चौक, श्री वीर सार्वजनिक वाचनालय भवन इन्दौर - ४ ( म.प्र.), फोन : ०७३१-५३२८२९ मूल्य रुपये मुद्रक : नईदुनिया प्रिन्टरी बाबू लाभचन्द छजलानी मार्ग इन्दौर-४५२००९ 2010_05 Rs 95000 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह "प्रतिष्ठा प्रदीप" विधि-विधान ग्रन्थ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परीक्षा संस्थान, इन्दौर की प्रतिष्ठा रत्न' परीक्षा के लिए एवं नैतिक शिक्षा १ से ७ भाग हा. से. स्कूलों की कक्षा ६ठी से १२वीं तक तथा 'जैन संस्कार विधि प्रतिष्ठा विशारद के लिए स्वीकृत किये गये हैं। प्रतिष्ठा प्रदीप जैन संस्कार विधि नैतिक शिक्षा (तीन) 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रह सत्रह | BI15 uruwr 9 9 9 बीस ० ० ० ० प्रतिष्ठा प्रदीप अनुक्रमणिका अनुक्रमांक पृष्ठ अनुक्रमांक १. प्रस्तावना नौ | २७.प्रतिष्ठा मुहूर्त २. आशीर्वाद तेरह | २८. सिद्धियोग चक्र ३. इस ग्रन्थ की आवश्यकता २९. अमृतसिद्धि योग चक्र ४. भूमिका ३०. सर्वार्थसिद्धि योग चक्र ५. प्रतिष्ठा में माता-पिता एवं ३१. त्याज्यसूर्य दग्धा तिथि शान्ति यज्ञ का इतिहास ३२. उत्पातादियोग चक्र ६. प्रकाशकीय तेईस ३३. मंडप मुहूर्त ७. गोम्मटगिरि अतिशय क्षेत्र परिचय चौबीस ३४.प्रतिष्ठा में योग विशेष प्रथम भाग ३५. हवन का मुहूर्त मंदिर निर्माण ३६.राशि ज्ञान ६. खनन कार्य | ३७.दिन का चौघड़िया मुहूर्त ७. सूर्य की राशि से खातचक्र ३८.रात्रि चौघडिया ८. खात मुहूर्त की सामग्री व विधि ३९. प्रतिष्ठोत्सव आमंत्रण पत्रिका ९. शिलान्यास | ४०.प्रतिष्ठा महोत्सव कार्यक्रम १०. जिनालय निर्माण मुहूर्त | ४१. प्रतिमा प्रशस्ति ११. चैत्यालय | ४२.प्रतिमा में मंत्र जप १२.प्रतिमा निर्माण | ४३.प्रतिष्ठा सामग्री १३. कायोत्सर्ग प्रतिमा | ४४.प्रतिष्ठा में उपयोगी यंत्र १४. पद्मासन प्रतिमा ४५.प्रतिष्ठा मंडप आदि का निर्माण १५. प्रतिमा निर्माण की विस्तृत विधि ४६. मंडप में शांतियज्ञ के लिए १६. अष्ट प्रातिहार्य, मुक्तिआसन व मूर्ति विशेषता ९ | ४७. मेरु की पांडुकशिला १७. प्रतिमा पाषाण के दोष १० ४८. दीक्षा वृक्ष १८. प्रतिमा दोष से हानि ४९. समवसरण रचना १९. वेदी निर्माण | ५०. सिद्ध क्षेत्र रचना व सिद्ध प्रतिमा २०. मानस्तम्भ और शिखर ५१. प्रतिष्ठा हेतु गुरुआज्ञालंभन २१. वर्तमान तीर्थंकरों का परिचय प्रतिष्ठाचार्य से निवेदन २२. विदेह के तीर्थंकर | ५२. मंगलाष्टक २३.पंच कल्याणक शुद्ध तिथि १३ / ५३. पूजा विधि प्रारंभ २४.यज्ञनायक या प्रतिष्ठाकारक १४ | ५४.नवदेव पूजा २५. प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण १४ / ५५. विनायक यंत्र पूजा २६. इन्द्र-इन्द्राणियाँ १५ | ५६. शांतिजप विधि ० (पाँच) ____ 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमांक ५७. मंडप शुद्धि ५८. नान्दी व इन्द्र प्रतिष्ठा ५९. झंडा - ध्वजारोहण ध्वज गीत ध्वजा का उद्देश्य विधान ६०. मंडल पूजा ६१. अभिषेक - शांतिधारा का उद्देश्य ६२. हिन्दी अभिषेक पाठ ६३. संस्कृत अभिषेक पाठ ६४. शांतिधारा ६५. जलयात्रा ६६. यागमंडल विधान ६७. वेदी एवं मंदिर- मानस्तम्भ प्रतिष्ठा ६८. वास्तु शांति ६९. विनायक यंत्र पूजा ७०. वेदी शुद्धि ७१. . जिनेन्द्र भवन स्नपन एवं पूजन ७२. . मंदिर एवं मानस्तम्भ शुद्धि ७३.८१ कलशों से शुद्धि ७४. मंदिर - कलश प्रतिष्ठा ७५. कलश चढ़ाने की विधि ७६. ध्वज दण्ड शुद्धि ७७. मंदिर पर ध्वजादण्ड एवं ध्वजारोहण ७८. मंदिर - वेदी में प्रतिमा विराजमान विधि ७९. . शांतियज्ञ हवन ८०. शांतिधारा . शांतिपाठ ८१. ८२. प्रतिष्ठा का महत्व ८३. भक्ति पाठ (९) द्वितीय भाग १. पंचकल्याणक व क्रियाएँ २. गर्भ कल्याणक की रात्रि को पूर्वक्रिया दृश्य के अन्तर्गत इन्द्रसभा ३. गर्भ कल्याणक पूर्व क्रिया दृश्य ४. गर्भ कल्याणक मंत्र संस्कार 2010_05 पृष्ठ अनुक्रमांक ४० ४२ ४४ ४६ ४६ ४७ ४९ ५१ ५३ ५५ १०२ १०२ १०३ १०८ १११ ११३ ११३ १२१ १२४ १२६ १२९ १२९ १३१ १३६ -१३७. १३८ १३९ १५० १५० १५३ १५५ ५. प्रातः गर्भ कल्याणक उत्तर क्रिया दृश्य ६. गर्भ कल्याणक पूजा ७. आदिनाथ के पूर्व भव ८. जन्म कल्याणक ९. इन्द्रसभा १०. जन्माभिषेक व क्रियाएँ ११. जन्माभिषेक पूजा १२. मंत्र संस्कार १३. राज्य व वैराग्य प्रसंग १४. तपोवन क्रियाएँ १५. पंच कल्याणकारोपण १६. तपकल्याणक की पूजा १७. आहारदान व पूजा १८. मंत्र संस्कार (अंकन्यास) १९.४८ संस्कार आदि २०. तिलक दान विधि २१. अधिवासना आदि २२. स्वस्त्ययन २३. श्रीमुखौद्घाटन २४. नयनोन्मीलन क्रिया २४. प्राण प्रतिष्ठा मंत्र २६. सूरि मंत्र २७. केवल ज्ञान मंत्र २८. ज्ञान कल्याणक व पूजा २९. निर्वाण भक्ति व मोक्ष कल्याणक पूजा तृतीय भाग १. सिद्ध प्रतिमा प्रतिष्ठा विधि २. सिद्ध पूजा ३. चरण प्रतिष्ठा विधि व पूजा ४. कुन्द कुन्द के चरण चिह्न ५. महर्षि पर्युपासन विधि ६. आचार्यादि पूजा ७. यंत्र व शास्त्र प्रतिष्ठा ८. रथयात्रा विधि (छः) पृष्ठ १५८ १६१ १६६ १६७ १६९ १७३ १७४ १७८ १७९ १८१ १८२ १८४ १८८ १९० १९० १९३ १९४ १९५ १९६ १९६ १९७ १९७ १९७ १९८ २०२ २०९ २१०, २१२ २१३ २१४ २१५ २१७-२१८ २१८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ mo Ꮃ 99 0 0 0 Ꮃ Ꮃ Ꮃ Ꮃ Ꮘ Ꮕ Ꮘ KK W W UNA Ꮙ अनुक्रमांक ९. श्री बाहुबलि प्रतिष्ठा १०.शांति यज्ञ के मंत्रों का स्पष्टीकरण ११. मूर्ति प्रशस्ति में गणगच्छ अनावश्यक १२. अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों का परिचय १३. भगवान ऋषभदेव के संबंध में १४. इतिहास (जैनमंदिर-जैन मूर्तियाँ) १५. उपलब्ध प्रतिष्ठा ग्रंथ १६. अन्य तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा में विधिनायक का परिचय १७. समवसरण के १२ कोठों में बैठने वाले १८. श्री जिन बिम्ब पंचकल्याणक की __ संक्षिप्त विधि १९. विश्व मैत्री का प्रतीक ओम् या ॐ २०. कुछ आवश्यक समाधान २१. दिगम्बर जैन मूर्ति के प्राप्ति स्थान २२. व्रतादि जैन तिथि की मान्यता २३. पंचकल्याणक की द्वितीय विधि २४. प्रतिष्ठाचार्यों के प्रति परिशिष्ट (उपयोगी यंत्र आदि के चित्र) : शिखर निर्माण पंच परमेष्ठी मंडल विधान चौवीसी मंडल विधान याग मंडल विधान विनायक यंत्र कर्म दहन यंत्र नद्यावर्त साथिया मातृका यंत्र अष्ट दल कमल लघु सिद्धचक्र यंत्र वृहत् सिद्धचक्र यंत्र त्रैलोक्य सार यंत्र वर्द्धमान यंत्र गणधर वलय यंत्र पृष्ठ | अनुक्रमांक २१८ | बोधि समाधि यंत्र २१९ | मोक्षमार्ग यंत्र २२० नयनोन्मीलन यंत्र २२१ | निर्वाण सम्पत्कर यंत्र प्रतिमाजी के नीचे रखे जाने वाले यंत्र : श्री ऋषभनाथजी का यंत्र श्री अजितनाथजी का यंत्र श्री संभवनाथजी का यंत्र श्री अभिनन्दननाथजी का यंत्र श्री सुमतिनाथजी का यंत्र श्री पद्मप्रभजी का यंत्र श्री सुपार्श्वनाथजी का यंत्र श्री चन्द्रप्रभजी का यंत्र श्री पुष्पदंतजी का यंत्र श्री शीतलनाथजी का यंत्र २३४ श्री श्रेयांसनाथजी का यंत्र २३३ श्री वासुपूज्यजी का यंत्र २३४ श्री विमलनाथजी का यंत्र श्री अनन्तनाथजी का यंत्र श्री धर्मनाथजी का यंत्र श्री शान्तिनाथजी का यंत्र श्री कुन्थुनाथजी का यंत्र श्री अरहनाथजी का यंत्र श्री मल्लिनाथजी का यंत्र श्री मुनिसुव्रतजी का यंत्र श्री नमिनाथजी का यंत्र श्री नेमिनाथजी का यंत्र श्री पार्श्वनाथजी का यंत्र श्री महावीरजी का यंत्र रथयात्रा में पूजा यंत्र वर्तमान चौवीसी मंडल यंत्र Ꮙ Ꮘ Ꮙ Ꮙ Ꮘ . 0 0 orrm 339 ७० 6 6 ००० (सात) JainEducation International 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप प्रस्तावना जिन बिंब प्रतिष्ठा का उद्देश्य मिथ्यात्व का नाश और अपने धन का सदुपयोग है। आचार्य जयसेन के प्रतिष्ठा पाठ का यह पद्य उल्लेखनीय है:-- "अस्मिन् महे राज्य सुभिक्ष संपदाद्यो हि हेतुः कथितो मुनीन्द्रैः” जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा द्वारा राज्य में सुख, शान्ति और सुभिक्ष की प्राप्ति आचार्यों ने बताई है। इसी शुभकामना से प्रतिष्ठा की जाती है। प्रतिदिन की पूजा के शान्तिपाठ में हम यही भावना भाते हैं- "क्षेमं सर्व प्रजानाम" समस्त प्रजाजनों का कल्याण हो। तीर्थकर पद भी जगत्कल्याण की भावना से ही प्राप्त होता है। धातु व पाषाण की सर्वांग सुन्दर मूर्ति में मन्त्रों द्वारा गुणों का आरोपण करने पर पूज्यता का भाव उत्पन्न होता है। मूर्ति वीतरागता का आदर्श होना चाहिये। प्रतिष्ठेय मूर्ति में व्यक्ति विशेष का आकार या स्टेच्यु नहीं होता। प्रतिष्ठित मूर्ति के माध्यम से भक्तजन वीतराग विज्ञानता को प्राप्त सच्चे देव की स्तुति पूजा कर सकते हैं। हम जितनी भी प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन करते हैं, उनका आकार व स्वरूप सामान्य अर्हन्त सिद्ध अवस्था का पाते हैं। मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठा के समय उनमें तीर्थंकर विशेष या अन्य विशिष्टता की स्थापना कर देते हैं। प्रतिष्ठा पाठ में इसका उल्लेख है कि जिन तीर्थंकरों की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती है उनके माता, पिता, वंश, जन्म-नगरी, चिन्ह आदि आवश्यक रहते हैं। अन्यथा उनकी प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती, क्योंकि उनके नामादि के उल्लेख का मन्त्र प्रतिष्ठा पाठ में विद्यमान है। वर्तमान जैन पूजा पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। आचार्य कुन्दकुन्द के दशभक्ति पाठ में अष्ट द्रव्य का उल्लेख है १. दिव्वेण ण्हाणेण - जलाभिषेक २. दिव्वेण गंधेण - चन्दन ३. दिव्वेण अक्खेण - अखण्ड अक्षत ४. दिव्वेण पुप्फेण - पुष्प ५. दिव्वेण-चुण्णेण - मोदकादि खाद्य चूर्णेन (पतंजलिभाष्य २६-४-२३ एवं अभिकोश) ६. दिव्वेण दीवेण - दीपक ७. दिव्वेण धूवेण - सुगंध धूप ८. दिव्वेण वासेण - तीर्थंकर पूजायाः माहात्म्य प्रदर्शने-फल (६ अभिधानराजेन्द्र कोश ११-५) पूजा स्थापना निक्षेप का उदाहरण है। जिनमन्दिर या वेदी, समवसरण व गंध कुटी का रूप है। जल पदुमद्रह, क्षीर समुद्र या महागंगा आदि का माना जाता है। केशर से मिश्रित जल में बावन चंदन का, अखण्ड चावलों में मुक्ताफल का, केशर से रंगे चाँवलों में* विविध पुष्पों का, सफेद गिरी खण्डों में विविध व्यंजन रूप नैवेद्य का, पीत गिरी खण्डों में रत्नदीपक का तथा बादाम व लोंग आदि में विविध फलों का संकल्प (स्थापना) कर पूजा की जाती है। जो स्थापना सत्य के अन्तर्गत मानी जाती है और अहिंसापूर्ण क्रियाकाण्ड का सूचक है। सुवर्ण रूक्मोपचितानि युक्त्या संरोपितानीष्ट मनोहराणि। सुवर्ण चाँदी के उपचार करि अर युक्ति करि आरोपित केशर करि रंगे।। (जयसेन प्रतिष्ठा० २४) (नौ) 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन उपासना पद्धति में किसी देव को बाह्य द्रव्य चढ़ाकर-भोग लगाकर उसी अर्पित द्रव्य को देव प्रसाद मानकर स्वयं ग्रहण नहीं किया जाता, वरन् वह हमारे लिये हितकारी नहीं यह मानकर छोड़ा जाता है। उसी माध्यम से आत्मा के गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। मन्त्र पूर्वक चढाये गये ये द्रव्य निर्माल्य माने जाते हैं। यह संसारी प्राणी जिन वस्तुओं को भोगोपभोग के साधन मानता है उनमें हेय बुद्धि और अपने आराध्य वीतराग देव के गुणों के प्रति उपादेय बुद्धि हो सके, इन अष्ट द्रव्यों से पूजन का यही प्रयोजन है। द्रव्यों के क्रमशः चढ़ाने का उद्देश्य आत्मा से संबद्ध अष्ट कर्मों के नाश और उनके नाश से आठ गुणों की उपलब्धि का है, जिसका प्रमाण पाठक वर्तमान पूजा में से स्वयं अपने चिंतन द्वारा ढूँढ़ सकेंगे। इस विषय में 'जिन पूजा/जिन मन्दिर' पुस्तिका, वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरि, इन्दौर से प्राप्त कर सकते हैं। इस वैज्ञानिक युग में हमें प्रतिमाओं और उनकी प्रतिष्ठा तथा उनके प्रतिष्ठापकों के संबंध में भी विचार करना होगा। समाज में प्रतिष्ठा कार्य एक व्यापार बन गया जो भी प्रतिष्ठित मूर्तियाँ उपलब्ध हैं, उनमें कई ऐसी हैं जो प्रतिष्ठा शास्त्रानुसार सांगोपांग नहीं हैं। इसका कारण हमारी उपेक्षा है। मैं सन् १९३० से प्रतिष्ठा कार्य के क्षेत्र में आया हूँ। एक वर्ष तक मैंने इसका अध्ययन किया है। उन दिनों सर्वश्री पं. हजारीमलजी अजमेरा, उदासीन ब्र. पन्नालालजी गोधा, पं. भूरालालजी दोशी, पं. राजकुमारजी शास्त्री और पं. मुन्नालालजी काव्यतीर्थं इस प्रांत के प्रतिष्ठाचार्य थे, जिनके संपर्क में रहकर प्रतिष्ठा कराता रहा। सन् १९३५ से स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठायें कराई। परन्तु इस कार्य में मेरी रुचि बिलकुल नहीं रही, न ही मैंने इसे आजीविका का साधन बनाया। सन् १९६९ से तो मैंने कई कारणों से प्रतिष्ठा कार्य बन्द कर दिया। फिर भी बार-बार परामर्श तो मुझ से लिया ही जाता रहा है। यह प्रतिष्ठा पाठ मेरे ६० वर्ष के श्रम द्वारा संकलित है। श्री पूज्य आचार्य वीरसागरजी, आचार्य कुंथसागरजी, आचार्य सूर्यसागरजी, आचार्य विमलसागरजी एवं आचार्य विद्यानन्दजी आदि दि. जैन गुरुओं ने मेरी प्रतिष्ठा विधि में उपस्थित रहकर सूरि मन्त्र एवं शुभाशीर्वाद प्रदान किया है। कोई ऐसा एक प्रतिष्ठापाठ नहीं है जिसमें संपूर्ण विधि दर्शाई गई हो। अतः यह 'प्रतिष्ठा प्रदीप' नये प्रतिष्ठा विधि शिक्षणार्थियों के लिये उपयोगी हो सकेगा। भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् के द्वितीय अधिवेशन कटनी (सन् १९४६) में एवं सागर अधिवेशन (१९४७) के अवसर पर प्रतिष्ठा और ज्योतिष संबंधी शिक्षण एवं प्रशिक्षण श्री पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी के समक्ष मैंने और स्व. डॉ. नेमिचन्दजी ज्योतिषाचार्य ने दिया था। समाज में सामान्य रूप में दो प्रकार के क्रियाकांड प्रचलित हैं। किन्तु पंच कल्याणक द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूज्यता में कोई विरोध नहीं है। एक क्रियाकांड में पंचामृताभिषेक, चतुनिकाय के देवी-देवताओं की पूजा व उनकी मूर्ति स्थापना, हरित पुष्पफलों से पूजा और महिलाओं द्वारा प्रतिमाभिषेक ये चार हैं। दूसरे क्रियाकांड में उक्त चारों क्रियायें नहीं होती। प्रथम का विधि-विधान आशाधर प्रतिष्ठासारोद्धार व नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक द्वारा तथा द्वितीय का जयसेन (वसुविन्दु) आचार्य के प्रतिष्ठा पाठ द्वारा किया जाता है। सभी प्रतिष्ठा ग्रंथों में बिम्ब प्रतिष्ठा संबंधी मुख्य-मुख्य मन्त्र समान हैं। अंकन्यास, तिलकदान, अधिवासना, स्वस्त्ययन, श्रीमुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राणप्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र ये बिंबप्रतिष्ठा के प्रमुख मन्त्र संस्कार हैं, जो सभी प्रतिष्ठा ग्रंथों में समान हैं और महत्त्व भी इन्हीं का ही है। इनके सिवाय बाह्य क्रियाकांड भिन्न हैं। यथा यागमंडल में एक विधि द्वारा पंचपरमेष्ठी, चौबीस तीर्थंकर आदि की पूजा है, तो दूसरी विधि में चतुनिकाय के देवी-देवताओं की पूजा है। जलयात्रा आदि में भी पूजा संबंधी विभिन्नता है। अतः जहाँ (दस) 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी मान्यता हो, उनमें हस्तक्षेप न करते हुए सामाजिक शांति और धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखना चाहिये। 'विद्यते न हि कश्चिदुपायः सर्वलोक परितोषकरो यः।' की नीति का स्मरण कर हृदय में उपगूहन और वात्सल्य को स्थान देना चाहिये। मुझे जैन मुहूर्तों का ज्ञान संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान् श्री पं. भूरामलजी शास्त्री (परम पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज के गुरु स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज) से प्राप्त हुआ। सन् १९५३ में मोदी नगर (दिल्ली) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में वे मेरे मार्गदर्शक थे। यह प्रतिष्ठा श्री लाला रघुवीरसिंहजी एवं उनके सुपुत्र श्री लाला प्रेमचन्दजी, कैलाशचन्दजी, शांतिस्वरूपजी, जैना वॉच कंपनी द्वारा कराई गई थी। यह प्रतिष्ठा आचार्य श्री नमिसागरजी महाराज के शुभाशीर्वाद से हुई थी। ध्यान देने योग्य- बिंब प्रतिष्ठा में दि मुनिराज अनिवार्य रूप से रहते हैं। केवलज्ञान कल्याणक के स्वस्त्ययन, श्री मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राण-प्रतिष्ठा, सूरिमंत्र, केवलज्ञान- ये ६ मंत्र उनके द्वारा कराये जाते हैं। सूरि (दि. मुनि-आचार्य) द्वारा दिये गये मंत्र सूरिमंत्र कहलाते हैं। इसके प्रमाण वसुनंदि प्रति.-श्लोक ८, आचार्य जयसेन प्रति. पद्य २४९, आशाधर प्रति.-पद्य ११७, प्रतिष्ठा तिलक पृष्ठ ३६ में देखिये, गृहस्थ सूरिमंत्र देवें तो प्रतिष्ठा निर्दोष नहीं मानी जावेगी। वर्तमान में संस्कृत यागमंडल आदि के स्थान पर केवल हिंदी में कराने से इसकी मन्त्र रूपता का महत्त्व समाप्त हो गया है। प्रतिष्ठायें जबकि उत्तरायण सूर्य में (१४ जनवरी के पश्चात्) ही कराई जाती है, अभी दक्षिणायन (मंगसिर पौष) में देखकर आश्चर्य होता है। शुक्र एवं गुरु अस्त में भी प्रतिष्ठायें होने लगी हैं। यह सब प्रतिष्ठाशास्त्र के मुहूर्तों का उल्लंघन समाज एवं जनता को संकट में डालने के उपाय हैं। बिना आवश्यकता प्रतिष्ठायें बोली द्वारा धन एकत्रित करने हेतु कराई जा रही हैं, जबकि तीर्थों पर जीर्णोद्धार की अत्यन्त आवश्यकता है। उधर हमारा ध्यान नहीं। आगम में विधिपूर्वक प्रतिष्ठा को मित्र के समान और विधि रहित प्रतिष्ठा को शत्रु के समान माना है। हमारे यहाँ जैन पूजा-प्रतिष्ठा विधान-प्रवचन आदि में निपुण विद्वानों की कमी है, जिनका तैयार होना आवश्यक है। मेरा निवेदन है कि प्रतिष्ठाचार्यों के प्रति समाज का आदरभाव बना रहे इस हेतु शास्त्रानुकूल विधि के साथ श्रद्धा, संयम और संतोष रखकर कर्तव्य दृष्टि से प्रतिष्ठा कराते रहना चाहिये। मैं चाहता हूँ कि प्रतिष्ठा संबंधी अधिक व्यय न होकर 'प्रतिष्ठा तिलक' के मतानुसार संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि का प्रचार हो, जिसे तृतीय भाग में मैंने लिखायी है। ऐसी प्रतिष्ठायें करीब १० हो चुकी हैं। इस प्रतिष्ठा ग्रंथ की दूसरी बार शुद्ध कापी तैयार करने में व संपूर्ण प्रकाशन में श्री गुलाबचन्दजी बाकलीवाल की विशेष सहायता प्राप्त हई है तथा श्री अरविन्दकुमारजी. व्यवस्थापक श्री कन्दकुन्द ज्ञानपीठ एवं टाइप सेटिंग में श्री ओमप्रकाशजी जैन का सहयोग मिला है। जैन संस्कार विधि (पंचम संस्करण) एवं नैतिक शिक्षा १ से ७ भाग अनेक बार प्रकाशन के पश्चात् इस ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण हेतु प्रसिद्ध समाजसेवी आदरणीय पद्मश्री बाबलालजी पाटोदी ने श्री वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन समिति एवं श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्वीकृति प्रदान करायी है। वर्तमान दिगम्बर जैन समाज के अध्यक्ष श्री हीरालालजी झांझरी, नईदुनिया प्रिन्टरी तथा एस.के. झा मैनेजर ने प्रकाशन संबंधी सुविधा प्रदान की है, एतदर्थ उक्त महानुभावों का मैं आभार मानता हूँ। प्रबुद्ध एवं अनुभवी पाठकों से अपनी अल्पज्ञता के कारण इसमें जो भी त्रुटियाँ हैं, उनकी क्षमा चाहता हूँ। नायूलाल (ग्यारह) 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dan Education International 2010_05 परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य सिद्धान्त-चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज द्वारा आशीर्वचन मनुष्य होना पुण्यों का परिणाम है। इतने पर भी मनुष्योचित गुणों का आस्पद होना और अधिक पुण्यशालिता का सूचक है। प्रायः मनुष्य अपने को उस मार्ग पर उन्मुक्त भाव से छोड़ देते हैं जो सरल-सुगम होता है और सरलपथ प्रायः ढलान जैसा होता है। उसमें उद्योग की अपेक्षा नहीं; किंतु उसी-में पतन की गहराइयाँ निहित हैं। कुएँ में प्रवेश करते समय रस्सी को परिश्रम नहीं करना होता, परंतु जब वह भरी हुई गागर लेकर ऊपर उठती है; तब खींचनेवाले के प्राण फूल जाते हैं। पर्वत पर आरोहण करना कितना कठिन प्रतीत होता है, पर नीचे उतरने में उतना कष्ट नहीं होता। जो लोग सरलता के समुपासक हैं और कठिनता से पलायन करते हैं, वे ऊपर कष्ट से खींचे जाने वाले जलपूर्ण कुंभ की विशिष्ट प्राप्ति के पात्र नहीं हो सकते। __ मनुष्य की बुद्धि हीन व्यक्तियों के साथ हीन हो जाती है और समान के साथ समान रहती है। किंतु अपने से ऊँचे विशिष्ट पुरुषों के साथ रहने से विशिष्ट होती है। इस नीति से मनुष्य को उच्चतम कल्याण-मार्ग पर लगाने में परमात्म-पद प्राप्त भगवान् अरिहंत देव ही मित्र हैं, एक उपासना, भक्ति करने योग्य हैं। ऊँट का अभिमान हिमालय को देखकर नष्ट हो जाता है; किंतु जब तक वह भेड़-बकरियों के समूह में विचरता है, यह सोचता रहता है कि मेरे जितना ऊँचा और कोई नहीं। इसी प्रकार अरिहंत देव की श्रीशरण में आने से पूर्व मनुष्य मान-कषाय से फूला रहता है; परंतु मंदिर के मानस्तंभ को देखते ही उसका मान उतर जाता है। अन्यथा जिनेंद्रदेव आदि की आशातना होने से पाप कर्मों का बन्ध होता है-ऐसा कहा भी है गुरौमानुष बुद्धिस्तु, मन्त्रे चाक्षरबुद्धिकम् । प्रतिमायां शिलाबुद्धिं, कुर्वाणो नरकं ब्रजेत् ।। ग्रंथ गुरु में सामान्य मनुष्य की बुद्धि रखनेवाला और णमोकार महामंत्र में सामान्य अक्षर समझने वाला तथा अरिहंत प्रतिमा में सामान्य पत्थर की कल्पना करने वाला नरक-बिल में जाता है। नरेन्द्रसेनाचार्य का प्रतिष्ठा दीपक _ "इस 'प्रतिष्ठासार दीपक' में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदिकों के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग आदि का विचार करना चाहिये"-ऐसा कहकर किस तिथ्यादिकों में इनकी रचना करने से रचयिता का शुभाशुभ होता है-इत्यादि वर्णन किया है। यह ग्रंथ साढ़े तीन सौ श्लोकों का है। ग्रंथ के अंत में प्रशस्ति नहीं है। इस ग्रंथ में स्थाप्य, स्थापक और स्थापना में से तीन विषयों का वर्णन है। पंचपरमेष्ठी तथा उनके पंचकल्याणक और जो-जो पुण्य के हेतुभूत हैं, वे 'स्थाप्य' हैं। यजमान, इन्द्र स्थापक' हैं। मन्त्रों से जो विधि की जाती है उसे 'स्थापना' कहते हैं। तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जहाँ हुए हैं, ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्र स्थान, नदी तट, पर्वत, ग्राम, नगरादिकों के सुंदर स्थानों में जिनमंदिर निर्माण करना चाहिये। आरंभ से हिंसा होती है, हिंसा से पाप लगता है, तो भी जिनमंदिर बाँधने में किये जाने वाले आरंभ से महापुण्य प्राप्त होता है। जिनमंदिर (धर्म) की स्थिति जिनमंदिर के बिना नहीं रहती तथा जिनमंदिर (तेरह) 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिप्रासाद में प्रवेश करने में सोपान के समान सहायक हैं। अतः जिनमंदिर की रचना करनी चाहिये-ऐसा हेतु आचार्य ने प्रदर्शित किया है। वे कहते हैं 'यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः । तथाप्यत्र कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते निरालम्बन धर्मस्य स्थितिर्यस्मत्ततः सताम् मुक्ति प्रासाद सोपानमाप्तैरुक्तो जिनालयः ।।' "इस प्रतिष्ठा ग्रंथ की रचना देखने से आचार्य ज्योतिष-शास्त्रों में निष्णात थे-ऐसा सिद्ध होता है। अस्तु।" पंचकल्याणक प्रतिष्ठाविधि, समुद्र के समान गंभीर एवं अगाध है और सर्वसाधारण के लिए सूक्ष्म, अगम्य एवं गूढ़ है। जैसे समुद्र का जल स्वयं समुद्र से ग्रहण करने से खारा ही मिलता है। परंतु वही जल मेघ के द्वारा प्राप्त होता है तो मधुर (मीठा) होता है। उसी तरह मनमाने प्रतिष्ठा-पाठ ग्रंथों को अपने आप पढ़ कर उसका मनमाने विधि-विधान करने पर वह खारे जल के समान ही अग्राह्य होगा। जैसे मेघ के द्वारा आनीत वही जल मधुर होता है, उसी तरह परिपक्व ज्ञानी विद्वानों से या आचार्य* परंपरा से अधीत आगम-सम्मत प्रतिष्ठा-पाठ ही ग्राह्य एवं उपयोगी होगा। 'देवीं वाचमुपासत हि बहवः सारं तु सारस्वतं। जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः।। अब्धिलंधित एव वानरभटैः किन्त्वस्यगम्भीरतां। आपाताल - निमग्न - पीवरतनुर्जानाति मंथाचलः।।" पंचकल्याणक पूजा में भगवान् के माता-पिता नहीं 'यजमान' बनते हैं-वस्तुतः ‘पंचकल्याणक पूजा में यज्ञनायक के रूप में 'यजमान' की ही विधि शास्त्र-सम्मत है, अन्य 'माता-पिता' आदि पद नहीं हैं। इनसे अविनय भी होती है। अतः बिना किसी आशंका एवं पूर्वाग्रह के शास्त्र की मूल परिपाटी को स्वीकार करके 'यजमान' ही बनाना चाहिये, माता-पिता नहीं। पुस्तक की विद्या से अब तक अनेकों ने वाग्देवी की उपासना की है। सारस्वत सार को मात्र, गुरुकुलवास में निवास करके आक्लिष्ट हुये मुरारी कवि ही जानता है। कपिभटों ने समुद्र का लंघन तो किया लेकिन क्या उसकी गहराई को जाना? नहीं जाना, उसकी गहराई को पाताल तक डूबा हुआ महान् मंथाचल ही जानता है। हमें इस बात का गौरव है कि भारतीय दि. जैन विद्वानों में नवोन्मेषशालिनी प्रतिभावान् एवं सिद्धहस्त लेखक यशस्वी प्रतिष्ठाचार्य धर्मानुरागी श्री पंडित नाथूलाल शास्त्रीजी ने 'प्रतिष्ठा-प्रदीप' ग्रंथ को परिश्रमपूर्वक संग्रह करके लिखा है। एतावता आज के प्रबुद्ध समाज में प्रतिष्ठा-प्रदीप ग्रंथ गौरव गरिमा को प्राप्त होगा, ऐसी हमारी भावना है। कुन्दकुन्द भारती १८-बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशन एरिया नई दिल्ली-११० ०६७ शुभाशिर्वाद आचार्य नियाद (चौदह) 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रंथ की आवश्यकता प्रतिष्ठा प्रदीप के प्रकाशन की आवश्यकता इस हेतु है कि उपलब्ध प्रतिष्ठा ग्रंथों में से किसी में भी प्रतिष्ठा की सम्पूर्ण विधि नहीं है। यह प्रतिष्ठा प्रदीप' संग्रह ग्रंथ है, इसमें आचार्य जयसेन (वसुबिन्दु) के प्रतिष्ठाग्रंथ का अनुसरण किया गया है, किंतु उसमें मन्दिर, वेदी, कलश, ध्वजा, जलयात्रा संबंधी सम्पूर्ण क्रियायें व मन्त्र विधि एवं पूजन नहीं है। उसमें पंचकल्याणक पूजायें, तीर्थंकर, अर्हत्, चैत्य, समाधि भक्तियाँ व उनका उपयोग, सिद्ध एवं आचार्यादि व चरण प्रतिष्ठा विधि, पंचकल्याणक पूजायें, मन्त्र संस्कार में कंकण बंधन, प्राण प्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र आदि विशिष्ट मन्त्र भी नहीं हैं। यह सब हम लोग अपनी गुरु परम्परा से संग्रहीत विधि द्वारा कराते रहते हैं, इसलिए क्रियाकाण्डों में भेद भी पाया जाता है जिनमें सुधार होना आवश्यक है। अ.भा.दि. जैन विद्वत् परिषद् की इन्दौर कार्यकारिणी के १७ अक्टूबर १९८७ को प्रतिष्ठा पाठ संबंधी प्रस्ताव द्वारा मुझे प्रोत्साहित करने पर बिना इच्छा के भी यह कार्य सम्पन्न हो गया है। श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा प्रथम बार ३५ विद्वानों ने प्रतिष्ठा संबंधी शिविर में शिक्षण प्राप्त किया। दूसरी बार सुकलिया पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में २५ विद्वानों ने शिक्षण-प्रशिक्षण लिया। । बाबलालजी पाटोदी के संरक्षण, श्री कैलाशचन्दजी वेद इंजीनियर के मंत्रित्व एवं श्री कलीवाल के संयोजकत्व में संपन्न हआ। इस प्रतिष्ठा ग्रंथ के अंत में शिविर संबंधी चित्र भी प्रकाशित हैं। आमंत्रित विद्वानों को ट्रस्ट की ओर से आने-जाने का मार्ग-व्यय देते हुए भोजन एवं आवास तथा पाठ्य-ग्रंथ की निःशुल्क व्यवस्था रही। उक्त ट्रस्ट के संचालन में श्री सुरेशजी गंगवाल एवं कोषाध्यक्ष श्री शांतिलालजी दोशी का योगदान प्रमख रूप से है। मैंने श्री आशाधरजी, आचार्य वसुनन्दिजी एवं श्री नेमिचन्द्रदेव के प्रतिष्ठा पाठों का परिचय भी प्रस्तुत ग्रंथ में दिया है। उनमें भी कलश आदि प्रतिष्ठा संबंधी पूर्ण विधियाँ नहीं पायी जातीं, इन प्रतिष्ठा ग्रंथों से भी यथोचित सहायता लेनी पड़ी है। इस ग्रंथ की विशेषता यह भी है कि इसमें मण्डल विधान एवं यंत्रों के आवश्यक नक्शे भी दिये गये हैं तथा परम पूज्य आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज ने हमें प्रत्येक तीर्थंकर की प्रतिमा विराजमान करते समय उनके नीचे के पृथक्-पृथक् यंत्र तथा जिनाभिषेक व पूजा के अष्ट द्रव्यों की प्राचीनता के प्रमाण का दिग्दर्शन कराने की कृपा की है। श्री परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का भी शुभाशीर्वाद प्राप्त हुआ है। हम चाहते हैं कि इस प्रतिष्ठा प्रदीप के माध्यम से प्रतिष्ठा संबंधी विसंगतियाँ जैसे दक्षिणायन में प्रतिष्ठा मुहूर्त, आगम विरुद्ध भगवान् के माता-पिता बनाना आदि में नियन्त्रण हो सकेगा। इस प्रतिष्ठा ग्रंथ में हमारे वरिष्ठ विद्वान् श्री पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री एवं डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य आदि का मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ है। वर्तमान ४-५ प्रसिद्ध प्रतिष्ठाचार्यों के अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जो बिना प्रतिष्ठा विधि व मन्त्रसंस्कार के केवल णमोकार मन्त्र से प्रतिष्ठायें करा रहे हैं। वे जब मिलते हैं तब यह पूछते हैं कि हमें आप विधि, प्राण-प्रतिष्ठा व सूरिमन्त्र आदि बता देवें। इस प्रतिष्ठा पाठ से ऐसे लोगों को भी लाभ होगा। (पन्द्रह) ___ 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रस्तुत 'प्रतिष्ठा प्रदीप' ग्रंथ मूर्ति प्रतिष्ठा की विधि का प्रदर्शक एक संग्रहीत ग्रंथ है। यद्यपि दि. जैन साहित्य में प्रतिष्ठा विधि के अनेक ग्रंथ हैं पर संस्कृत भाषा में निबद्ध होने और भाषा क्लिष्ट होने से सबकी गति नहीं हो पाती। दूसरे, कुछ विधियों में भी अन्तर पाया जाता है जिससे प्रतिष्ठा में एकरूपता नहीं रहती। इन बातों पर विचार कर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् ने दिनांक १७-१०-१९८७ को स्थान इन्दौर म.प्र. के अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर आधनिक भाषा में विधिविधान के स्पष्टीकरण के साथ प्रतिष्ठापाठ संकलित करने का प्रस्ताव किया था और यह कार्य श्री पं. नाथूलालजी शास्त्री, संहिता सूरि इन्दौर को सौंपा था तदनुसार पंडितजी ने उक्त संकलन कर इसे तैयार किया है। श्री पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' टीकमगढ़ निवासी प्रतिष्ठाचार्य के पास भी एक संकलन था, उन्होंने उसे भी व्यवस्थित किया। विचार यह हुआ कि दोनों विद्वान् परस्पर परामर्श कर इसे एकरूपता प्रदान करें। मैंने श्री पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' को प्रेरणा दी कि आप श्री पं. नाथूलालजी शास्त्री इन्दौर के पास जाकर परामर्श करें, वे इन्दौर गये और जो भी परामर्श हुआ हो, यह ग्रंथ प्रकाश में आ रहा है।* इस पंचमकाल में न तो तीर्थंकर होते हैं और न केवली भगवान, पर सम्यग्दर्शन में श्रद्धा के विषयभूत देव-शास्त्र-गुरु हैं। इस काल में न देव का सद्भाव है, न इस काल में होगा। ग्रंथ जरूर है और ये जिनवाणी के आधार पर वीतराग आचार्यों द्वारा प्ररूपित पाये जाते हैं, अतः जिनवाणी जीवित है। यद्यपि कुछ नई रचनाएँ भी मुनियों, आचार्यों व गृहस्थ विद्वानों द्वारा गत ५-७ सौ वर्षों में हुई हैं और उनमें पूर्वाचार्यों की परम्परा को ही मान्यता दी है, अतः वे भी प्रमाण की कोटि में हैं। हाँ, कुछ रचनाकारों ने आचार्यों के नाम से कुछ स्वेच्छा कल्पित ग्रंथ भी बनाये हैं और जनता में यह भ्रम भी फैला रहे हैं कि वे भी आचार्य प्रणीत हैं। परन्तु वे प्राचीन आचार्यों की परम्परा से मेल नहीं खाते। यद्यपि प्रतिमा निर्जीव है तथापि यदि अन्तस् में वीतरागता संभव नहीं, तो भी बाह्य में वीतराग मुद्रा है और अन्तस् में भी राग की स्थिति अचेतन में सहज ही नहीं है। लोक में सजीव पुरुष में भी ईश्वर की स्थापना की जाती है, जैसे रामलीला, कृष्णलीला में राम-कृष्ण की पर जैनाचार्यों ने माना है कि जिस व्यक्ति में स्थापना की जानी है उसके न तो भीतरी ईश्वरत्व है और न बाहर वीतरागता, अतः स्थापना निक्षेप के अनुसार तदाकार जिन बिम्ब में जिनस्थापना का विधान किया गया है। स्थापना दो प्रकार की होती है, तदाकार स्थापना अर्थात् जिसकी स्थापना जिस मूर्ति में स मति में की जाय वह उसके अनुरूप आकार हो। दूसरी स्थापना अतदाकार है - जैसे पाषाण आदि की शिला में सिन्दूर आदि लगाकर लोक में देवस्थापना कर लेते हैं। जिनागम में दोनों प्रकार की स्थापना स्वीकृत है। दैनिक पूजा में जहाँ वेदी में विराजमान जिनबिम्ब की हम पूजन करते हैं वहीं जो जिनबिम्ब अन्य तीर्थंकरों की है और पजा अन्य तीर्थंकर की करना है या अकृत्रिम चैत्यालयों की, नन्दीश्वर द्वीप की भी करते हैं उनकी अतदाकार स्थापना करके करते हैं। 'अत्रअवतर' इत्यादि स्थापना के मन्त्र हैं। अतदाकार स्थापना का निषेध तो नहीं है पर वह पंचम कालिक जिन प्रतिमा के सन्मुख ही करना चाहिये अन्यत्र नहीं, यह भी आगम में निदेश है। यह तत्काल के लिए ही है पर तदाकार स्थापना स्थायी होती है अत: उसकी प्रतिष्ठा आवश्यक है। इसी प्रतिष्ठा विधि के शास्त्र प्रतिष्ठाशास्त्र कहे जाते हैं। अप्रतिष्ठित मूर्ति तदाकार भी पूज्य नहीं है। आजकल प्लास्टिक आदि की भी तदाकार मूर्ति बनती है, चित्र भी तदाकार बनाये जाते हैं, वे सब अनादरणीय नहीं, पर अष्टद्रव्य से पूजा उनकी नहीं की जाती, यह एक मर्यादा है। * कुछ क्रियाओं में विचार भेद होने से एकरूपता नहीं हो सकी। -संपादक (सत्रह) 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा पंचकल्याणक रूप में की जाती है। तीर्थंकर प्रभु के गर्भावतरण, जन्म तथा राज्याभिषेकदीक्षा - ज्ञान- भगवान् की देशना ( समवशरण रचना के साथ) मोक्ष कल्याणक आदि जो-जो विधान सौधर्म इन्द्र ने किये हैं वे सब विधियाँ समन्त्र प्रतिमा पर की जाती हैं तब प्रतिमा प्रतिष्ठित या पूज्य मानी जाती है। ये सब विधियाँ इस ग्रंथ में लिखी गई हैं, अतः प्रतिष्ठा विधि के लिए यह उत्कृष्ट प्रामाणिक ग्रंथ है। यह इस सरलता के तथा विशिष्ट सूचनाओं के साथ लिखा गया है कि प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् सहज ही विधि से परिचित हो जाएगा। बिंब प्रतिष्ठा में दिगम्बर गुरु की अनिवार्यता के प्रमाण : १. वसुनन्दि आचार्यकृत प्रतिष्ठा सार संग्रह आचारादि गुणाधारो, रागद्वेषविवर्जितः । यशपातोज्झितः शांतः, साधुवर्गाग्रणीर्गणी । । ८ । । अशेषशास्त्रविच्चक्षुः प्रव्यक्तं लौकिक स्थितिः । गंभीरो मृदुभाषी च स सूरिः परिकीर्तितः । । ९ । । आचारादिगुणयुक्त, रागद्वेषरहित, निष्पक्ष, शांत, ज्ञाता, गंभीर, मिष्टभाषी सूरि कहे गये हैं। आगे लिखा है कि इनके पास प्रतिष्ठा के समय प्रतिष्ठाचार्य (इन्द्र) व याजक स्नानादि कर उपवास ग्रहण कर प्रतिष्ठा मंडप में प्रवेश करें। ( ४०२-४०३) २. प्रतिष्ठा सारोद्धार श्री आशाधर कृत : ऐदं युगीन श्रुतधर धुरीणो, गणपालकः । पंचाचार परो दीक्षा प्रवेशाय तयोर्गुरुः । । ११७ । । प्रतिष्ठाचार्य और यजमान को प्रतिष्ठा कराने की दीक्षा देने वाले आचार्य व्यवहार शास्त्र के ज्ञाता श्रुतज्ञानी मुख्य, साधु संघ के पालक, दर्शन आदि पंचाचार पालने में लीन होते हैं। C. ३. श्री आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ : प्रातर्गृहीत्वा गुरु पूजनार्थं वादित्रनादोल्वणयात्रया सः । गुरूप कंठे नत मस्तकेन भूमिं स्पृशत् वाक्यमुपाचरेत् सत् । । २३४ । । इत्याद्यभिप्रायवशादुदीर्य व्रतग्रहः सद्गुरुणोपदेश्यः यज्वेन्दुकाभ्यामपरैर्विधार्यः । । २४९ । । मंत्रेणबद्धांजलि मस्तकाभ्यां यहाँ गुरुपूजन हेतु प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर गुरु के पास जाकर इन्द्र व याजक आदि के साथ निवेदन करें कि हम बिंब प्रतिष्ठा कराना चाहते हैं। गुरु उन्हें उपदेश दे कर नियम करावें । ४. श्री नेमिचन्द्र देवकृत प्रतिष्ठा तिलक : चैत्यादिभक्तिभिः स्तुत्वा देवं शेषं धर्माचार्य समभ्यर्च्य नत्वा त्वत्प्रसादात् प्रबुध्यार्हत्पूजादेर्लक्षणं जिन प्रतिष्ठामिच्छामः कर्तुमेतेऽद्य बालिशाः । ।२० ॥ स्फुटम् । जिनदेव एवं धर्माचार्य ( सूरि ) की पूजा कर उनसे जिन प्रतिष्ठा करने की इच्छा प्रगट करें। श्लोक ३३ - ३४ में प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण हैं । इन्द्र के भी ३५-३६-३७ श्लोक में लक्षण बताये हैं। श्लोक ३८-३९-४० में प्रतिष्ठाचार्य व यजमान आदि को दीक्षा मन्त्र दिगम्बर गुरु ( सूरि ) द्वारा दिये गये हैं तथा श्लोक ५० तक नियम भी दिलाये हैं। 2010_05 (अठारह) समुद्वहन्। विज्ञापयेदिदम् ।।१७।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ विषय विचारणीय हैं, उनकी चर्चा यहाँ कर लेना प्रासंगिक होगा : १. मूर्ति प्रतिष्ठा विधि में मूर्ति के योग्य पाषाण का चुनाव, उसका समादर तथा निर्माण विधि, प्रतिमा ___का माप आदि विषय भी शास्त्रों में हैं, पर आजकल बनी-बनाई मूर्तियाँ जयपुर आदि में मिलती हैं, ऐसी व्यवस्था बन चुकी है अ लेते समय इस ग्रंथ में बताये हए सब लक्षणों का मिलान कर लेना चाहिये। उन नियमों के विरुद्ध बनी हुई प्रतिष्ठा योग्य न मानी जाएगी। २. इन्द्र की प्रतिष्ठा पुरुष में ही होती है। वह सजीव है अतः सदाचारी व्यक्ति को ही इन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहिये। इन्द्र-इन्द्राणी-प्रतिष्ठाचार्य-याजक आदि के लक्षण इस ग्रंथ में दिये हैं तदनुसार ही करें, रुपयों के चन्दे को आधार का प्रमुख न बनावें। भगवान के माता, पिता पुरुषों व महिलाओं में स्थापित करने की पद्धति गलत है। जैसे भगवान् की स्थापना व्यक्ति में नहीं होती तदनुसार उनका गर्भावतरण आदि क्रियाएँ भी व्यक्ति में करना उचित • नहीं है, इसलिए जैसा कि ग्रंथ में लिखा गया है पेटिका ही में गर्भ-जन्म की क्रियाएँ करना चाहिये, उस प्रकरण में इसका आगम प्रमाण सहित उल्लेख है। ४. जैसे इन्द्रस्थापना व्यक्ति में होती है इसी प्रकार वायुकुमार, अग्निकुमार आदि देवों की स्थापना भी व्यक्ति में करना चाहिये। चन्दे से धन इकट्ठा करके भी प्रतिष्ठा करना शास्त्र विहित नहीं है "स्वात्म संपत्ति द्रव्येण" अपनी कमाई द्रव्य से व्यक्ति को कराना चाहिये। प्रतिष्ठाओं के सिवाय दैनिक पूजा में भी अभिषेक-पूजन-स्थापना-विसर्जन आदि के कार्य होते हैं, उनमें भी सुधार अपेक्षित है। अभिषेक की वस्तु जल है। जलाभिषेक या प्रक्षाल प्रतिमा का है। वे स्थापना रूप में भगवान है अतः वीतरागता के दर्शन में बाधा न आवे इसलिए जलाभिषेक करना आवश्यक है। यह जन्माभिषेक नहीं है अतः जन्माभिषेक बोलकर नहीं करना चाहिये। हाँ जन्माभिषेक पर इन्द्र ने जिस महान महोत्सव के साथ अभिषेक किया था उसका स्मरण सहज हो सकता है पर यह याद रखें कि यह पञ्चकल्याणक संपन्न अर्हत प्रतिमा का अभिषेक है। स्त्रानुसार पंचोपचारी पूजा मानी गई हैआह्वानन-स्थापन-सन्निधिकरण पूजन और विसर्जन। इनमें चार तो करते ही हैं। हाँ, जहाँ जिनकी पूजन करना है वहाँ अतदाकार स्थापन करना आवश्यक नहीं है, पर यदि स्थापना की है तो विसर्जन भी करना चाहिये, यही लोक पद्धति सामान्य अभ्यागत के आने और उसके विदा करने की भी है। विसर्जन के बाद अपराध क्षमापण भी है। प्रचलित विसर्जन पाठ में “आहूता ये पुरादेवाः” यह प्रतिष्ठापाठों में कार्य हेतु देवों को बुलाया था उनका विसर्जन है। स्थापित जिनेन्द्र का नहीं। वह तो तब हो जाता है जब हम बोलते हैं 'तव पादौ मम हृदये" या हिन्दी में “तुवपद मेरे हिय में" बोला जाता है। यह जिनेन्द्र स्थापना जो हमने अतदाकार की है उसका विसर्जन है। तदाकार में अपराध क्षमापण पाठ पर्याप्त है। पूजापाठ पुस्तकों को छापने वाले केवल शुद्ध व्यापार करने में संलग्न हैं। पहली छपी पुस्तक गलत भी हो तो, गलत ही छापने लगते हैं। इससे गलत पूजा-पाठ की परंपरा चल रही है। सर्वसाधारण जैन जनता तो साधारण हिन्दी पूजाओं के भी अर्थ नहीं समझ पाती, फिर संस्कृत पाठों की गलती वह कैसे जान पाएगी। यह दोष तो पुस्तक प्रकाशकों का है, उन्हें सुधार करना या विद्वानों से शुद्ध कराकर ही छापना चाहिये। "प्रतिष्ठा प्रदीप" ग्रंथ आपके सामने है तद्नुसार प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा करावें, इसमें प्रमुख रूप से जयसेन आचार्य प्रणीत प्रतिष्ठा पाठ से संकलन कर उपयोगी प्रकाशन किया गया है। - जगमोहनलाल शास्त्री, कटनी कुंडलपुर, (दमोह) (उन्नीस) 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा में माता-पिता एवं शान्ति-यज्ञ (हवन) का इतिहास माता-पिता बन कर पाप के भागी नहीं होवें ब्र. शीतलप्रसादजी का 'प्रतिष्ठा सार संग्रह', जो सन् १९२९ में प्रथम बार खण्डवा पंचायत ने प्रकाशित कराकर भेंट रूप में भिजवाया था, के अनुसार सन् १९३१ में सर्वप्रथम पंच कल्याणक प्रतिष्ठा पं. मुन्नालालजी इन्दौर ने ब्र. दीपचन्दजी वर्णी के अस्वस्थ हो जाने से दाहोद तेरापंथी नसिया में करायी थी। सर सेठ हुकमचन्दजी एवं ब्र. पन्नालालजी गोधा अधिष्ठाता उदासीन आश्रम, इन्दौर ने सहयोग हेतु मुझे दाहोद भेजा था क्योंकि पं. जी ब्र. दीपचन्दजी के भाई मास्टर कालूरामजी इन्दौर के दामाद थे, और प्रथम बार प्रतिष्ठा करा रहे थे। उन्हें उच्च स्वर से गाने का अभ्यास था तथा यह 'प्रतिष्ठा सार संग्रह' हिन्दी कविताओं में गायन द्वारा किया जा सकता था तथा नाटकीय दृश्य भी इसमें बहुत थे, जिनसे दर्शकों का मनोरंजन किया जा सकता था। इसी में तीर्थंकर माता-पिता, गर्भ कल्याणक में माता सबके सामने शैय्या पर शयन आदि का वर्णन था। पं. जी ने बनेड़िया क्षेत्र आदि में भी पंच कल्याणक के ऐसे दृश्य दिखलाये। वहाँ तालाब में इन्द्र-इन्द्राणियों को खड़ा करके जल देवता की पूजा करा कर जल-यात्रा हेतु जल-कलशों में भरवाया। नये पण्डितों के लिए बिना प्रशिक्षण इस 'प्रतिष्ठा सार संग्रह' के आधार पर प्रतिष्ठा के प्रचार का अवसर मिल गया। मूल प्रतिष्ठा पाठ आचार्य जयसेन के संस्कृत पाठ, आशाधर प्रतिष्ठा पाठ, वसुनंदि प्रतिष्ठा पाठ, नेमिचन्द्र देव प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने देखा भी नहीं क्योंकि इनके आधार पर पं. पन्नालालजी न्याय दिवाकर, पं. धन्नालालजी केकड़ी, पं. नरसिंहदासजी, पं. राजकुमारजी, पं. भूरालालजी दोशी, पं. दुर्गाप्रसादजी, पं. हजारीमलजी, पं. सुन्दरलालजी बसवा एवं उक्त गोधाजी साहब ने प्रतिष्ठा में मंजूषा (काष्ठ पेटी) और भद्रासन में ही माता-पिता की स्थापना कर पूजा, भेंट, स्तुति आदि किये थे। ‘मंजूषिकां कल्पतु मातृकार्ये' यह प्रतिष्ठा पाठों का मुख्य प्रमाण है। पं. शिवजी रामजी रांची ने तो ज्योतिषाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य पं. दुर्गाप्रसादजी कानपुर और रा.व. सेठ हरकचन्दजी के सहयोग से उक्त 'प्रतिष्ठा सार संग्रह के अनुसार माता-पिता बनाने का विरोध लिखते हुए सन् १९६० में 'प्रतिष्ठा चन्द्रिका' छपवाई थी। सम्मेद शिखर बावन चैत्यालय बिम्ब प्रतिष्ठा (१९६४) में साहू शान्तिप्रसादजी, पं. जगन्मोहनलालजी, पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने भी विरोध किया था उसके पहले वाराणसी में जन्माभिषेक में महिलाओं द्वारा अभिषेक हुआ था, उसका भी विरोध किया था। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् की इन्दौर कार्यकारिणी की प्रेरणा से मैंने 'प्रतिष्ठा प्रदीप' ग्रन्थ तैयार किया। मैंने प्रस्ताव रखा था कि सन् १९५६ से प्रतिष्ठा क्षेत्र में आये पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' द्वारा संकलित प्रतिष्ठा ग्रन्थ के साथ विद्वत् परिषद् द्वारा सम्मिलित एक ग्रन्थ प्रकाशित हो जाये। परन्तु पुष्पजी ने तीर्थकर माता-पिता बनाने और दक्षिणायन में बिम्ब प्रतिष्ठा कराने का अपना मत नहीं बदला, इसलिए मैंने स्वतंत्र रूप से ही प्रतिष्ठा ग्रन्थ प्रकाशित कराया, जिसे सन् १९९० से १९९८ तक नव वर्ष हो गये। अभी यह दूसरा संस्करण है और पुष्पजी द्वारा भी 'प्रतिष्ठा रत्नाकर' बड़ा ग्रन्थ अभी प्रकाशित हो गया है। उस ग्रन्थ की मैं प्रशंसा करता हूँ। पुष्पजी ने उसके लिए परिश्रम किया है। उसमें तीर्थंकर माता-पिता के दो प्रमाण जयसेन-प्रतिष्ठा पाठ के दिये हैं:- “अत्र मातापित्रो रंक निवेश स्थानीय पूर्वप्रक्लृप्त मंडपोपरिकृत वेदिकायां भद्रासने, मूलबिंब स्थापनं विदध्यात्"। इसका अर्थ पुष्पजी ने यह किया है कि जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र भगवान् के माता-पिता की गोद में प्रतिमा को सौंपे। (बीस) 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु संस्कृत का अर्थ ठीक यह है कि जन्माभिषेक के बाद इन्द्र माता-पिता के स्थानापन्न (स्थापना रूप में) वेदी के सिंहासन पर प्रतिमा को विराजमान करें। 'अस्य यजमानस्य इक्ष्वाक्वादि वंशे श्री ऋषभनाथादि संताने काश्यप गोत्रे परावर्तनं यावदध्वरं भवतु भवतु क्रौं ह्रीं है नमः।' इसका भी पुष्पजी अर्थ करते हैं कि यजमान याने माता-पिता को तीर्थंकर के वंश व गोत्र में परिवर्तन करें। उक्त संस्कृत में यजमान शब्द है, माता-पिता का उल्लेख तक नहीं है। वहाँ सूतक-पातक यजमान (याजक) और इन्द्र को न लगे इसलिए दोनों के लिए यह मन्त्र है। माता-पिता का संबन्ध होता तो इन्द्र का इस मन्त्र में नाम क्यों रखा जाता, जिसका अर्थ स्वयं आगे आचार्य ने किया है। वर्तमान स्त्री में स्वेदादि - मलमूत्र - गर्भ – रजस्वला दोष होने से माता की योग्यता है ही नहीं। आश्चर्य है कि माता-पिता न बनाने पर भी धन के बल पर यज्ञनायक व नायिका सातवें माह की गर्भ क्रिया (खोला या अगरनी) भी करने लगे हैं। इस पर साड़ियाँ ओढ़ाना, श्रीफल बाँटना आदि कार्य भी किये गये हैं। यह गर्भ कल्याणक के एक दिन पूर्व किये गये जो हम लोगों से छिपा कर किये गये। ब्रह्मचर्य व्रत ले कर भी माता क्या गर्भ में तीर्थकर को लाने का संकल्प कर सकती है? किन्तु यह भी देखने में आया। श्लोकवार्तिक द्वितीयाध्याय टीका पृष्ठ २६४ के संकेतानुसार जो पूज्य पंच परमेष्ठी आदि हैं, उन चेतन की स्थापना चेतन में नहीं होती किन्तु अचेतन प्रतिमा आदि में होती है। जो रागी-द्वेषी साधारण इन्द्रादि है, उनकी स्थापना हम सरीखे चेतन पुरुष स्त्रियों में हो सकती है,इसीलिए मैंने नेमिनाथ व महावीर का पार्ट लेने वालों का विरोध किया जो बन्द हो गया है। प्रतिष्ठा मूल ग्रन्थों में सर्वत्र माता-पिता की स्थापना मंजूषा और भद्रासन में बतायी है, जैसे तीर्थंकर की स्थापना प्रतिमा में होती है। गर्भ कल्याणक में (प्रतिष्ठा सार संग्रह) में चौबीस माताओं की पूजा अष्ट द्रव्यों में बतायी है। क्या चेतन माताओं को बैठा कर पूजा हो सकती है? वहाँ तो गर्भ कल्याणक पूजा प्रतिमा के माध्यम से ही होती है। ब्र. शीतलप्रसादजी ने यह पूजा गलत लिखी है। महापुराण पर्व १४-८२ व १२-२६८ मेंपूज्येषु युवां च नः शाश्वत् पितरौ जगतः पितुः। वभूव भुवनांबिका अर्थ- 'जगत् के पिता तीर्थंकर के आप माता-पिता हमारे पूज्य हैं। माता (मरुदेवी) लोक की माता थी।' इस विषय में हमारे पूज्य दिगम्बर गुरुओं को मार्गदर्शन करना चाहिये, जिनके सम्मुख प्रतिष्ठा होती है। अब तो हमने प्रतिष्ठा में उनका सान्निध्य अनिवार्य सिद्ध कर दिया है। हमने सुझाव भी दिया है कि गर्म कल्याणक में केवल एक घंटा स्वप्न-फल व प्रश्नोत्तर में जरूरत होती है जहाँ प्रतिष्ठाचार्य समझा देते हैं अन्यथा राजसभा को लोक सभा का रूप दे कर यज्ञनायक व नायिका द्वारा 'माता ने स्वप्न देखे, उनका फल पूछा और पिता ने स्वप्नों का फल इस प्रकार बताया' -उक्त प्रकार कह कर कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। __ 'प्रतिष्ठा रत्नाकर' ग्रन्थ के छपने से प्रमाण ग्रन्थ मान कर माता-पिता बनाये जाते रहेंगे, इसलिए यह लिखना पड़ा है। हम क्षमा चाहते हैं। प्रतिष्ठा सामग्री में बढ़िया बेडशीट, कालीन, पलंग, दरी, गादी, तकिया, रजाई स्टेज पर माता को सुलाने हेतु मँगाना क्या उचित है? बड़े घर की महिलाएँ क्या जनता के सामने सो सकती हैं? ऐसे अश्लील दृश्य बन्द होना चाहिये। मैंने भी इसका परिणाम अच्छा न समझ कर (इक्कीस) 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही छोड़ा था। माता-पिता बन कर पाप के भागी नहीं होवें। प्रतिष्ठाचार्यों को संस्कृतज्ञ और निर्लोभी होना चाहिये। शान्ति-यज्ञ (हवन) का इतिहास- सन् १९४० में श्री कानजी स्वामी से सोनगढ़ मंदिर की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा में हमारे यहाँ के प्रतिष्ठाचार्यजी ने स्वार्थवश अंजनशलाका (श्वेताम्बर पद्धति) के रूप में सवस्त्र नेत्रोन्मीलन संस्कार करा दिया, जिसका विरोध हम मुश्किल से सन् १९४५ में वीछियाँ प्रतिष्ठा में कर सके। क्योंकि स्वामीजी प्रतिष्ठाचार्यों पर विश्वास करते थे। बहनश्री व बहनजी दोनों बहनों ने सोनगढ़ मानस्तम्भ प्रतिष्ठा के समय जलाभिषेक हेतु कतिपय भक्तों द्वारा प्रेरित होकर भी मेरे द्वारा निषेध करने पर अभिषेक नहीं किया। शांतियज्ञ (हवन) प्रतिष्ठामंडप में होता था, वहीं स्वामीजी के प्रवचन भी होते थे। स्वामीजी को अधिक कफ निकलते रहने से धूम्र के फैलने से गले में दर्द होता था। बहन श्री वहन ने मुझे कई बार कहा कि प्रत्येक प्रतिष्ठा के समय अग्नि द्वारा शांति यज्ञ से स्वामीजी को कष्ट होता है। मैं सुनता रहा परन्तु यज्ञ बंद नहीं कर सका। मैं सोनगढ़ की ओर प्रतिष्ठाओं में लगभग ८० बार गया था। मेरे सन् १९६९ से वहाँ जाना बंद हो जाने के कारण नहीं मालूम शांतियज्ञ पीले चाँवलों से कैसे होने लगा? जिसमें संकल्प तो मन्त्रों द्वारा हवन का ही है। आचार्य जयसेन स्वामी ने प्रतिष्ठा पाठ, श्लोक ३५, पृष्ठ १०९ पर अग्नि से हवन का विस्तार से व श्लोक ४२१ द्वारा दशांश हवन का विधान बताया है जिसे शुद्धाम्नाय का प्रतिष्ठा पाठ माना जाता है। श्री पं. मिलापचन्दजी कटरिया ने 'जैन निबंध-रत्नावली' के 'जैन धर्म और हवन' लेख में वैदिक यज्ञ का और श्री पं. टोडरमलजी, श्री पं. कैलाशचंदजी ने वैदिक यज्ञ के बारे में ही निषेध किया है। किन्तु जनता भयभीत होकर उन अन्यमत के देवी-देवताओं की ओर न झुक जावे इसलिए उस आडम्बर व हिंसापूर्ण यज्ञ के स्थान में आदिपुराण (आचार्य जिनसेनजी) के प्रमाणानुसार अति संक्षेप में विवेकपूर्वक मंदिर से बाहर प्रतिष्ठा व विवाह, गृह-प्रवेश आदि में जैन मन्त्रों से शांतियज्ञ कर लेना चाहिये यह सुझाव कटारियाजी ने दिया है अतः उसे ध्यान से पढ़ना चाहिये। प्रतिष्ठा आदि में मन्त्र जप तो करना पड़ता है अतः उसकी सफलता हेतु हवन भी आवश्यक है, परन्तु पीले चाँवल से समाधान नहीं होता। या तो फिर मन्त्र ही न जपा जाय। समाज में हवन के कारण जो घर-घर में मतभेद बढ़ रहा है, इस पर शांति से विचार करें। हिंसा व पाप पंखा, बिजली मंदिर निर्माण आदि में कहाँ नहीं हैं। शान्ति-यज्ञ (हवन) का निषेध किसी भी शास्त्र में नहीं है। धूप के स्थान पर पीले चांवल का विधान भी नहीं है। यह नया रूप चल गया जो पहचान बन गयी। वर्तमान में पर्यावरण-प्रदूषण को दूर कर सकने का हवन अचूक उपाय है। इससे अनेक रोग नष्ट होते हैं। नायूमल प्रतिष्ठा में विकार : जब से बिम्ब प्रतिष्ठाओं में व्यावसायिकता बुद्धि प्रमुख हो गई है, तब से प्रतिष्ठाओं में विकार आ गये हैं। कई विकार पंथ-व्यामोह के कारण आये हैं और कुछ तथाकथित सुधारवादी दृष्टिकोण से आये हैं। जैसे हवन-विधान और प्रतिष्ठा का आवश्यक अंग है। जो कट्टर सुधारवादी प्रतिष्ठा-ग्रन्थों के आचार्य हैं, उन्होंने भी हवन करने का विधान बताया है। किन्तु कुछ सुधारवादी हवन का विरोध करते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि इससे अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। क्या इस तर्क से एक दिन मन्दिरों में जो पूजन-विधान और प्रतिष्ठायें होती हैं, वे बन्द नहीं हो जावेंगी? क्योंकि इनमें जल आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है। -आचार्य विद्यानन्द - - (बाईस) 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय संहितासूरि पं. नाथूलालजी शास्त्री द्वारा लिखित “प्रतिष्ठा प्रदीप" एक संग्रहीत ग्रंथ है। पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न विधियों द्वारा प्रतिष्ठा संपन्न करवाई जा रही है जिससे प्रतिष्ठा में एकरूपता नहीं रहती। यद्यपि जिनेन्द्रदेव की मूर्ति तो प्रतिष्ठित की जाती है पर उसमें अतिशय प्रकट नहीं होता इस कारण समाज का बहु भाग देवी-देवताओं की ओर आकर्षित होकर एक प्रकार से इस महान् वीतराग धर्म की आस्था पर प्रश्न चिह्न लगा रहा है। पंडितजी समाज के एक अनुभवी वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य हैं जिन्होंने अपने जीवन में सैकड़ों प्रतिष्ठाएँ संपन्न करवाई व विधि में कभी किसी श्रीमान् धीमान् के आगे झुके नहीं । सन् १९८७ में विद्वत् परिषद् कार्यकारिणी ने अपने इन्दौर अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर आधुनिक भाषा में विधि-विधान के स्पष्टीकरण के साथ प्रतिष्ठा पाठ संकलित करने की जिम्मेदारी पंडितजी को सौंपी। पंडितजी ने प्रस्तुत ग्रंथ को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में मंदिर निर्माण से प्रारंभ कर वेदी, ध्वजा, कलश आदि विधियों का दिग्दर्शन कराया। द्वितीय भाग पंचकल्याणक के दृश्यों व विधि तथा मन्त्र संस्कार आदि पूर्ण किया । तृतीय भाग में सिद्ध प्रतिमा व अन्य प्रतिष्ठा विधि आदि तथा सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों के कर्त्तव्य का बोध कराया। यहीं पंडितजी ने अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों का भी सार व यंत्र आदि देकर इस ग्रंथ को पूर्ण करने का प्रयत्न किया। उससे निश्चय ही नवीन प्रतिष्ठाचार्यों को शास्त्रोक्त पद्धति से प्रतिष्ठा संपन्न करवाने का अवसर प्राप्त होगा। इस प्रतिष्ठा प्रदीप ग्रंथ पर विद्वद्वर्य पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री ने भूमिका लिखकर इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला है। परम पूज्य सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज ने अपने शुभाशीर्वाद से इस ग्रंथ की उपयोगिता को प्रतिपादित किया है। ५ जनवरी १९९० को इस युग के महान् संत तपोनिधि आचार्य श्री विद्यासागरर्जी महाराज के समक्ष (टड़ा ) ग्राम (सागर) में समस्त मुनि संघ के समक्ष इस ग्रंथ पर विस्तृत चर्चा हुई। आचार्यश्री ने भी प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक पं. नाथूलालजी शास्त्री से ग्रंथ के विभिन्न विषयों पर चर्चा की तथा आचार्यश्री ने कहा कि प्रतिष्ठा शास्त्र एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो पाषाण प्रतिमा को सातिशय बनाने की विधि दिग्दर्शित करता है। संपूर्ण ग्रंथ के आलोड़न के पश्चात् पूज्य आचार्यश्री ने पंडितजी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि एक समुच्चय प्रतिष्ठा ग्रंथ की कमी को पूरी करके आपने समाज की उत्कृष्ट सेवा की है। महाराजश्री ने यह भी कहा कि समस्त प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा को विधि-विधान के द्वारा संपन्न करवावें तो जो आजकल हो रहा है, उससे जो विकृतियाँ आ रही हैं, समाज उससे बच जावेगा । श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति अपना सौभाग्य मानती है कि उसे एक उद्भट, त्यागमूर्ति, कर्तव्यशील, चरित्रवान, संयमी विद्वान् के ग्रन्थ का प्रकाशन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। मैं समाज एवं समस्त प्रतिष्ठाचार्यों से विनम्र अपील करता हूँ कि इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण उपयोग करके एक-सी विधि द्वारा प्रतिष्ठा जैसे महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करवाने में अपना योगदान देवें । कर पाटोदी 2010_05 ( तेईस ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चतुर्विंशति तीर्थकर मन्दिर एवं भगवान् बाहुबलि प्रतिमा श्री गोम्मटगिरि अतिशय क्षेत्र परिचय श्री दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थ गोम्मटगिरि का निर्माण परम पूज्य राष्ट्र-सन्त सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्यश्री विद्यानन्दजी के शुभाशीर्वाद एवं समस्त भारत तथा इन्दौर की समाज के तनमन-धन द्वारा पूर्ण सहयोग से जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति तथा अहिंसक जीवन मूल्यों के प्रचारप्रसार के प्रेरणा केन्द्र, लोक-सेवा एवं आत्मोत्थान हेतु शान्तिपूर्ण जीवन-यापन की साधना-स्थली के रूप में हुआ है। वीर निर्वाण संवत् २५०७ (ईस्वी सन् १९८१) में यह टेकरी व भूखण्ड प्रसिद्ध समाजसेवी श्री बाबूलालजी पाटोदी को उनकी षष्ठि-पूर्ति के उपलक्ष्य में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जुनसिंहजी द्वारा उपरोक्त ध्येय की पूर्ति हेतु दिगम्बर जैन समाज इन्दौर को प्रदान किया गया। इस क्षेत्र के निर्माण की परिकल्पना स्वर्गीय श्री दुलीचन्दजी सेठी तथा श्री शान्तिलालजी पाटनी की थी। उन्होंने ही परम पूज्य मुनिश्री का शुभाशीर्वाद प्राप्त कर इस गिरि पर अपने संकल्प को मूर्तरूप देने हेतु श्री पाटोदीजी को प्रेरित किया था, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ भगवान् बाहुबलि की २१ फुट उन्नत मनोज्ञ प्रतिमा, उनके दोनों ओर वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के शिखर संयुक्त जिनालय, चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी की स्मृति में 'त्यागी ज्ञानोपासना मन्दिर'. सरस्वती भवन, त्यागी निवास. श्री आदिनाथ जिनालय एवं तलेटी में अतिथिगह, धर्मशाला, भोजनशाला इत्यादि के निर्माणपूर्वक विशाल रूप में फाल्गुन वदी १३, शनिवार, ८ मार्च १९८६ से फाल्गुन वदी ३ गुरुवार, १३ मार्च १९८६ तक जिनबिंब पंच कल्याणक महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् यहाँ २४ चरण प्राचीन एवं अर्वाचीन दि. जैनाचार्यों के स्थापित हुए हैं। श्री आचार्य कुन्द कुन्द एवं श्री आचार्य शान्तिसागरजी के स्टेच्यू व चरण चिह्न भी स्थापित हुए। श्री मिश्रीलालजी गंगवाल की स्मृति में गंगवाल विद्या मन्दिर का संचालन हो रहा है। छोटी पहाड़ी पर नव निर्माण की योजना को मूर्त रूप दिया जायेगा। भोजनशाला चल रही है। उपनगर का निर्माण हो रहा है। आधुनिक कोई-कोई प्रतिष्ठाचार्य किसी भी दम्पत्ति को भगवान् के माता-पिता बनाकर कार्य करने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भी शास्त्रानुसार नहीं है। इसलिए जिनमातृस्थानापन्न जिनेशपेटिका रखनी चाहिये। -प्रतिष्ठा-चन्द्रिका, रांची-बिहार, (पर्वृषण-२४८६) । (चौबीस) JainEducation International 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan Education international 201020 For காளான்கணக்கான Personal cl jainelibrary.org इंदौर स्थित अतिशय क्षेत्र श्री गोम्मटगिरि की चौबीसी का विहंगम दृश्य Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप MMAR ........ - म TE SHESYAVAVAVAVA AVAVE IMA Vivir VANATAVATA, आज अनेक ऐसी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जा रही है जो शास्त्र विहित नियमों के प्रतिकूल है। -आचार्य विद्यानन्द प्रथम भाग 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवृषभादिवर्द्धमानान्त चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो नमः ॥ प्रतिष्ठा प्रदीप प्रथम भाग मन्दिर निर्माण गृहस्थ जीवन में देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षट्कर्म प्रतिदिन आवश्यक माने गये हैं । मोक्षमार्ग रूप रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन का निमित्त देव, सम्यग्ज्ञान का जिनागम और सम्यक् चारित्र का निर्ग्रन्थ गुरु हैं। वर्तमान काल में परमात्मा की पूजा, भक्ति और उपासना ही श्रेयस्कर है । अर्हन्त परमात्मा सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहते, इस कारण उनके स्मरणार्थ और भक्तिभाव प्रकट करने के लिए उनकी प्रतिमा बनाई जाती है । अपने को पवित्र बनाने और श्रद्धा के भाव जाग्रत करने का साधन वीतराग मूर्ति है, जिसे हम विधि पूर्वक मन्दिर में विराजमान करते हैं । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिन मन्दिर, जिनधर्म, जिनागम और जिन प्रतिमा देवता हैं, जिनकी प्रत्येक गृहस्थ प्रतिदिन पूजा करता । इन सबका आधार जिन मन्दिर है । अतः उसके निर्माण का स्थान और मुहूर्त निम्न प्रकार है : मन्दिर का स्थान सुन्दर, शुद्ध, जलाशययुक्त, नगर के समीप, सर्पादिक बिल व श्मशान रहित तथा उपजाऊ भूमिवाला होना चाहिये । जहाँ भूकम्प, विधर्मी और लुटेरों का भय न हो, ऐसे स्थान पर भक्तजन लाभ उठा सकें, उनकी प्रबल अभिलाषा जानकर जिनायतन या चैत्यालय का निर्माण कराया जावे । मन्दिर I का द्वार मुख्यरूप से पूर्व या उत्तर दिशा में रहे। जिन प्रतिमा का मुख भी पूर्व या उत्तर में रहे कदाचित् पश्चिम में भी रह सकता है । जिस वेदी या चबूतरे पर प्रतिमा विराजमान की जावे, वह ढाई फुट ऊँचा हो; उसके ऊपर कमल या कटनी उतनी ऊँची रखी जावे कि द्वार में प्रतिमा की दृष्टि प्रतिष्ठा - शास्त्रानुसार रह सके। खनन कार्य मन्दिर मार्गशीर्ष (अगहन), पौष, माघ, फाल्गुन, वैशाख और ज्येष्ठ महीनों के शुभ दिनों में प्रारम्भ करना चाहिये । नींव मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी, भरणी, मघा इन अधोमुख नक्षत्रों में खोदें । 2010_05 मिती ४, ९, १४, ३०, १५ को नहीं खोदें। मंगलवार और शनिवार को भी छोड़ दें । ज्योतिष की दृष्टि से सूर्य १२, १, २री राशि पर हो तो आग्नेय (पूर्व-दक्षिण) दिशा में; ९, १०, ११वीं राशि पर हो तो नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा में; ६, ७, ८वीं राशि पर हो तो वायव्य (पश्चिम-उत्तर) दिशा में और ३, ४, ५वीं राशि पर सूर्य हो तो ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा में नींव खोदना चाहिये । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य की राशि से खात चक्र दिशाकोण विवाहमंडप देवालयारंभ गृहारंभ जलाशयारंभ आग्नेय २-३-४ १२-१-२ ५-६-७ १०-११-१२ नैऋत्य ११-१२-१ ९-१०-११ २-३-४ ७-८-९ वायव्य ८-९-१० ६-७-८ ११-१२- १ ४ -५-६ ऐशान ५-६-७ ३-४-५ ८-९-१० राशिनाम : मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन१२। नोट : विवाह-मंडपारम्भ में आग्नेय दिशा में स्तंभारोपण का मत भी है। मंदिर में कूपारंभ भी उक्त रीति से करें। खात मुहूर्त की सामग्री व विधि श्रीफल-२, लच्छा, खैर की खूटी बारह अंगुल लम्बी-४, गेंती-१, फावड़ा-१, कुंकुम-३०० ग्राम, पिसी हल्दी-३०० ग्राम, पाटे-४, चौकी-१, छोटा सिंहासन-१, विनायक यन्त्र-१, आसन-५, पूजा द्रव्य १ किलो, धूपदान-१, जल के लोटे-२, लाल चोल-१ गज, सरसों-१०० ग्राम, दीपक-४, रुई, माचिस१, सुपारी-११, हल्दी गाँठ-११ । जिस दिशा में मुहूर्त करना हो उस कोने पर सीमा के भीतर की दो हाथ लंबी चौड़ी भूमि साफ कर कुंकुम व हल्दी से रेखा खींच देवें। उसके चारों दिशा में चारों खूटी गाड़ देवें । वहाँ ४ दीपक रख कर चारों ओर लच्छा बाँध देवें । उसके भी भीतर एक हाथ लंबी-चौड़ी भूमि मापकर कुंकुम से बीच में स्वस्तिक माँड देवें । पूर्व या उत्तर दिशा में से किसी एक में पूजा करने वाले बैठे और दूसरी में यंत्र विराजमान कर देवें । सर्वप्रथम मंगलाष्टक, जल कलश स्थापन, संकल्प, नवदेवपूजा, यंत्रपूजा, निर्वाण भक्ति पाठ, णमोकार मंत्र की एक माला जप करके खड़े होकर ॐ क्षी भूः शुद्ध्यतु स्वाहा यह मंत्र ९ बार पढ़ कर जल से भूमि शुद्ध करें और प्रत्येक व्यक्ति ५-५ बार स्वस्तिक के वहाँ गेंती मारकर फावड़ा से मिट्टी निकालें । लगभग एक फुट गहरा गड्ढा खोदें। पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, विसर्जन द्वारा कार्य संपूर्ण कर गुड़, धनिया या पेड़े बँटवा देवें । शिलान्यास सूर्य न बदला हो तो जिस दिशा में खात हुआ हो वहीं नींव भरी जाती है। विस्तार से करना हो तो चारों दिशाओं व वेदी जहाँ रखना हो, वहाँ बीच में भी नींव भरी जाती है। २] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रा, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी इन ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में नींव भरना चाहिये । शेष वार व मास पूर्ववत् हैं । इसकी सामग्री में पूर्व सामग्री के सिवाय सीम्नि प्रखाते प्रथमं शुभेऽह्रि घृतोद्भवं दीपमुपांशुमंत्रैः । संयोज्य ताने कलशे पिधाय, न्यसेत् स यंत्रं कलशं तदू| ॥३०॥ (जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ-३२) एक ताँबे का छोटा लोटा चौड़े मुँह का, जिसमें दीपक प्रज्ज्वलित कर भीतर रखा जा सके और उसके चारों ओर छेद करा दिये जावें, नीचे खड्डे में एक फुट लम्बी-चौड़ी शिला स्थापित कर उस पर स्वस्तिक व वहीं एक विनायक यंत्र, जिसमें मन्दिर की प्रशस्ति (नाम, तिथि, संवत् आदि) खुदवाकर रख देवें । उक्त लोटे में दीपक प्रज्ज्वलित कर उसे स्थापित कर वहीं पारद, सरसों, सुपारी, हल्दी गाँठ आदि मांगलिक द्रव्य क्षेपकर चारों ओर से ईंटें और सीमेन्ट, कन्नी से चुनवा देवें । उस पर एक दूसरी वैसी शिला रख देवें| इस विधि के पहले खात मुहूर्त के माफिक पूजा कर लेवें । पीछे पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, विसर्जन कर लेवें। नोट : यह शिलान्यास और खात मुहूर्त एक साथ भी हो सकता है। दो-चार घंटे पूर्व सामान्य खात कराकर पीछे शिलान्यास में पूजा आदि पूरी विधि कर देवें । चर लग्न में नींव खोदें और स्थिर लग्न में भरें। शिलान्यास में प्रशस्ति लिखकर एक बड़ा पाषाण कुछ ऊँचाई पर लगाकर बाहर भी किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा अनावरण कराया जाता है । यदि खात मुहूर्त के बहुत समय बाद शिलान्यास करना हो तो सूर्य देखकर शिलान्यास करना होगा, जिसमें खात वाली दिशा में परिवर्तन भी संभव है। जिनालय निर्माण मुहूर्त जिनालय निर्माण में माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, मृगसिर, पौष में तिथि २,३,५,७,११,१२,१३ को चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, रवि में तथा पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरात्रय, मृग., श्र., अश्विनी, चित्रा, विशाखा, आर्द्रा, ह., ध., रो., नक्षत्रों में करें । गुरुवार को मृगशिरा, अनुराधा, आश्लेषा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरात्रय, रोहिणी, पुष्य नक्षत्र तथा शुक्रवार को चित्रा, धनिष्ठा, विशाखा, अश्विनी, आर्द्रा, शतभिषा और बुधवार को अश्विनी, उत्तरात्रय, हस्त, रोहिणी ये नक्षत्र शुभ हैं। चैत्यालय शब्दकोश एवं आगम के अनुसार मन्दिर और चैत्यालय पर्यायवाची शब्द हैं, परन्तु व्यवहार में जहाँ बड़ी प्रतिमा, शिखर व कलश हो वह मन्दिर माना जाता है और उससे विपरीत जिसका रूप लघु हो वह चैत्यालय कहा जाता है । गृह के भीतर चैत्यालय में ११ अंगुल तक की सर्वधातु प्रतिमा विराजमान की जाती है । ३, ५, ७, ९ और ११ अंगुल की प्रतिमा शुभ मानी जाती है। एकादशांगुलं बिंबं सर्व कार्यार्थ साधकम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊर्ध्वं न कारयेत् ।। (प्रतिष्ठा सारोद्धार, पृष्ठ-९) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [३ 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान में गृहस्थों के घरों में ही शौचालय, लघुशंका का स्थान एवं स्नानगृह होते हैं। प्रायः शुद्ध एवं पवित्र स्थान का अभाव होने से गृह चैत्यालय रखना लाभप्रद नहीं है। जिनके मकान बड़े और निवास स्थान से पृथक् चैत्यालय निर्माण की सुविधा है, वहाँ उक्त प्रमाण से बड़ी प्रतिमा भी स्थापित कर सकते हैं । चैत्यालय से घर के बच्चों और वृद्ध व्यक्तियों को जिनदर्शन का लाभ मिलता है । परन्तु जो चैत्यालय के भार को उठाने में समर्थ हों और निर्व्यसनी हों, उन्हें ही यह जिम्मेदारी लेना चाहिये । आजकल चोरी की घटनायें अधिक होने से चैत्यालय व मन्दिर में सुवर्ण व रजत की मूर्ति या यन्त्र आदि सामान एकत्रित करना उचित नहीं है । मन्दिर व मानस्तम्भ प्रतिष्ठा हेतु उनकी संस्कृत पूजा भी है। उनका अभिषेक सामने बड़ा दर्पण रखकर उसमें उनके प्रतिबिम्ब का किया जावे तथा ८१ कलशों से उनके मन्त्र बोलकर शुद्धि करें। प्रतिमा निर्माण जहाँ प्रतिमा निर्माण हेतु पाषाण पसन्द किया हो, वहाँ विनायक यंत्र की पूजा कर पाषाण को - ॐ ही अर्ह असिआउसा जिन प्रतिमा निर्माणार्थं शुद्ध जलेन पाषाण शुद्धिं करोमि, इस मन्त्र से ९ बार शुद्धि करें । वहाँ १०८ लवंग पाषाण पर रखते हुए णमोकार मन्त्र की एक माला जप लेवें। वहीं स्वस्तिक कर देवें। प्रतिमा तैयार मिले तो निम्न प्रकार प्रमाण से उसकी जाँच करा लेवें पद्य संस्थान सुन्दर मनोहर रूपमूर्ध्वप्रालंबितं ह्यवसनं कमलासनं च । नान्यासनेन परिकल्पितमीशबिंबमर्हाविधौ प्रथितमार्यमतिप्रपन्नैः ॥१५१॥ बृद्धत्व बाल्यरहितांगमुपेतशान्तिं श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेशहीनम् । सद्धातुचित्रदृषदां समसूत्रभागं वैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तम् ॥१५२।। (जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ - ३८) सांगोपांग, सुन्दर, मनोहर, कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन, दिगम्बर, युवावस्था, शान्तिभावयुक्त, हृदय पर श्रीवत्स चिन्ह सहित, नख-केशहीन, पाषाण या अन्य धातु द्वारा रचित, समचतुरस्त्रसंस्थान एवं वैराग्यमय प्रतिमा पूज्य होती है। उक्त लक्षणों में अर्हन्त प्रतिमा के अष्ट प्रातिहार्य और तीर्थंकर का चिन्ह होना चाहिये । सिद्ध प्रतिमा कराना हो तो अर्हन्त प्रतिमा के समान ही सांगोपांग होना चाहिये केवल प्रातिहार्य और चिह्न न होकर उसके नीचे सिद्ध प्रतिमा खुदवा देना चाहिये। सिद्धेश्वराणां प्रतिमापि योज्या । सत्प्रातिहार्यादि विना तथैव ।। (जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ-१८१) ४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा नासाग्र दृष्टि और क्रूरतादि १२ दोष (रौद्र, कृशांग, संक्षिप्तांग, चिपिट नासा, विरूपक नेत्र, हीनमुख, महोदर, महाहृदय, महाअंस, महाकटी, हीनजंघा, शुष्क जंघा) दोष रहित होवे । (आशाधर प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ-७) प्रतिमा निर्माण कराने हेतु उत्तरात्रय, पुष्य, रोहिणी, श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा, पुनर्वसु और आर्द्रा नक्षत्र और सोम, गुरु, शुक्रवार तथा जिन तीर्थंकर की प्रतिमा निर्माण कराना हो उनके गर्भकल्याणक का दिन शुभ है। कारीगर मद्य मांसादि का त्यागी और शिल्पज्ञ होवे। कायोत्सर्ग प्रतिमा खड्गासन पद्मासन [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख ९ ताल (वसुनंदि) १०ताल* १२ अंगुल विस्तार १२ अंगुल १३॥ अंगुल और लम्बाई में ग्रीवा ४ अंगुल ४ अंगुल केशांत भाग तक ग्रीवा से हृदय तक १२ अंगुल १३।। अंगुल हृदय से नाभि तक १२ अंगुल १३॥ अंगुल नाभि से लिंग तक १२ अंगुल १३।। अंगुल खड्गासन में दोनों लिंग से गोड़ा (घुटना) २४ अंगुल २७ अंगुल पैरों का अंतर गोडा ४ अंगुल ४ अंगुल ४ अंगुल रखे गोडा (घुटना) से गुल्फ तक २४ अंगुल २७ अंगुल गुल्फ (टिकूण्या) ४ अंगुल ४ अंगुल पैर की गाँठ से पैर के तले तक १०८ १२० नोट : बारह अंगुल का एक ताल, मुख या वितस्ति होता है। अंगुल को भाग भी कहते हैं। पद्मासन प्रतिमा __ इसका माप ५४ अंगुल होता है । बैठी प्रतिमा के दोनों घुटने तक सूत्र का मान, दाहिने घुटने से बाँये कंधे तक और बाँये घुटने से दाहिने कंधे तक इन दोनों तिरछे सूत्रों का मान तथा सीधे में नीचे से ऊपर केशांत भाग तक लम्बे सूत्र का मान ये चारों भाग समान होना चाहिये। १३|| + १३॥ + १३|| + १३|| = ५४ दोनों हाथ की अंगुली के और पेडू के अन्तर ४ भाग रखें । कोहनी की पास २ भाग का उदर से अन्तर और पोंची से कोहनी तक शोभानुसार हानि रूप रखे । नाभि से लिंग ८ भाग नीचा, ५ भाग लंबा बनायें तथा लिंग के मुख के नीचे से अभिषेक के जल का निकास दोनों पैरों के नीचे से चरण चौकी के ऊपर करें। * दसताल माण लक्खण भरिया -(त्रिलोकसार, गाथा ९८६) भवबीजांकुर मथना अष्ट महाप्रातिहार्य विभवसमेताः । ते देवा दश ताला शेषा देवा भवन्ति नव तालाः || (यशस्तिलक उत्त. पृष्ठ-११२) यही जिन संहिता में भी लिखा है। नोटः वर्तमान में जयपुर में १० ताल की प्रतिमा बनाई जाती है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रतिहार्य अशोक वृक्ष सुरपुष्पवृष्टि देवदुन्दुभी SATAR RANDAN सिंहासन छत्रत्रय चवर दिव्य ध्वनि भामंडल या प्रभा मंडल 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट मंगल द्रव्य झारी কল9I दर्पण ध्वजा चवर छत्र बीजना (पंखा) सुप्रतिष्ठ 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा निर्माण व परीक्षण की विस्तृत विधि १. मुख : मस्तक के केशों से लेकर ठोड़ी तक १२ भाग प्रमाण ऊँचा और इतना ही चौड़ा मुख करें। ऊँचाई के तीन भाग करें। उनमें से १ भाग अर्थात् ४ भाग प्रमाण ललाट करें, दूसरे भाग में ४ भाग प्रमाण नासिका करें; और तीसरे भाग में दाढ़ी तक ४ भाग प्रमाण मुख और ठोढ़ी करें । ललाट ८ भाग प्रमाण चौड़ा और ८ भाग प्रमाण ऊँचा करें। ललाट के ऊपर उष्णीश चोटी तक ५ भाग प्रमाण केश करें । उसके ऊपर २ भाग प्रमाण क्रम से चूड़ा उतार रूप में किंचित् ऊँची और गोल चोटी करें। चोटी से ग्रीवा के पिछले भाग तक ५ भाग प्रमाण में लम्बे केश करें। इस प्रकार ललाट से लेकर ग्रीवा के पिछले भाग तक १२ भाग प्रमाण में मस्तक करें। मस्तक के उभय पाश्र्यों में ४-४ भाग प्रमाण चौड़े (धनुष के आकार मध्य में मोटे और दोनों ओर अग्रभाग में कृश) शंख नाम के दो हाड़ करें । इन दोनों हाड़ों के मध्य में ४ भाग प्रमाण चौड़ा केश स्थान करें। इस प्रकार भी १२ भाग प्रमाण ही मस्तक रक्खें । ललाट के ४ भाग प्रमाण नीचे और ४३ भाग प्रमाण लम्बे दोनों भंवारे करें। १३ भाग प्रमाण चौड़ा आदि में, ५ भाग प्रमाण चौड़ा अंत में करें । ३ भाग प्रमाण लम्बी नेत्रों की सफेदी कमल पुष्पदल के समान करें। सफेदी के मध्य में १ भाग प्रमाण श्याम तारा करें । तारा के मध्य भाग प्रमाण गोल छोटी श्याम तारिका करें । भृकुटी के मध्य से लेकर नीचे की ओर बाफणी तक ३ भाग प्रमाण आँखों की चौड़ाई करें । नासिका के मूल में २ भाग प्रमाण दोनों नेत्रों का अंतराल करें। ऊपर नीचे के दोनों होठ २-२ भाग प्रमाण लम्बे और १-१ भाग प्रमाण ऊँचे करें। ४ भाग प्रमाण मुख फाड़ करके, मुख के मध्य में २ भाग होठों को खुले करें और १-१ भाग प्रमाण (दोऊ बगल मिली करें)। नासिका के नीचे और ऊपर के होठ के मध्य में भाग प्रमाण लम्बी और ? भाग प्रमाण चौड़ी नाली करें। १ भाग प्रमाण लम्बी तथा ३ भाग प्रमाण मोटी सृक्किणी करें । २ भाग प्रमाण चौड़ी और २ भाग प्रमाण लम्बी ठोड़ी कर दो भाग प्रमाण मोटी हनु (गाल के ऊपर के समीप का हाड़) करें। हनु के मूल से चिंबुक का अंतराल ८ भाग प्रमाण करें। ४१ भाग प्रमाण लम्बे और ३ भाग प्रमाण चौड़े कान करें। ४ भाग प्रमाण चौड़ी पास (कान की मध्यवर्ती कड़ी नस के आगे परनाली रूप खाल) करें। पास के ऊपर की वतिका (गोट) ३ भाग प्रमाण करें। ३ भाग प्रमाण कर्ण का छिद्र मध्य में यवनालिका के समान करें । ४३ भाग प्रमाण नेत्र और कर्णों का अंतराल करें। आगे से दोनों कर्णों का अंतराल १८ भाग प्रमाण करें। और पीछे से दोनों कर्णों का अंतराल १४ भाग प्रमाण हो । इस प्रकार करें के समीप में मस्तक की परिधि ३२ भाग प्रमाण होनी चाहिये और ऊपर में मस्तक की परिधि १२ भाग होनी चाहिये। २. हाथ : कोहनी का विस्तार ५१ भाग प्रमाण और उसकी परिधि १६ भाग प्रमाण करें । कोहनी से पौंचा तक चूड़ा उतार से बाहु करें। भुजा का मध्य भाग ४२ भाग प्रमाण और उसकी परिधि १४ भाग प्रमाण करें। पौंचे का विस्तार ४ भाग प्रमाण और उसकी परिधि १२ भाग प्रमाण करें। पौचे से मध्यमांगुलि पर्यन्त १२ भाग प्रमाण करें। मध्यमांगुलि ५ भाग प्रमाण करें। मध्यमांगुलि से अर्ध-अर्ध पर्व [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्जनी और अनामिका करें । अनामिकांगुलि से १ पर्व हीन कनिष्ठिकांगुलि करें । पौंचे से लेकर कनिष्ठिका के मूल तक ५ भाग प्रमाण अंतराल करें । तर्जनी तथा मध्यमा के प्रमाण से कनिष्ठिका की मोटाई अर्धभाग प्रमाण घाटि करें। अंगुष्ठ में दो पर्व करें। अंगुष्ठ की परिधि चार भाग प्रमाण करें। शेष चारों अंगुलियों में ३-३ पर्व करें। अर्द्ध पर्व समान पाँचों ही अंगुलियों में नख करें। हथेली ७ भाग प्रमाण लम्बी और ५ भाग प्रमाण चौड़ी करें। हथेली की मध्य परिधि १२ भाग प्रमाण करें। अंगुष्ठमूल और तर्जनी के मूल का अंतराल २ भाग प्रमाण करें । भुजा गोल संधि जोड़ से मिली गोड़ा तक लम्बी करें । अंगुलियों को मिलाप युक्त, स्निग्ध, ललित, उपचय संयुक्त, शंख-चक्र-सूर्य कमलादि उत्तम चिन्हों करि युक्त करें । ३. वक्षस्थल : २४ भाग चौड़ा वक्षस्थल करें। पीठ सहित वक्षस्थल की परिधि ५६ भाग प्रमाण हो । वक्षस्थल के मध्य में श्रीवत्स का चिन्ह हो । दोनों स्तनों का मध्यांतराल १२ भाग प्रमाण हो । स्तनों की चूचियाँ २ भाग प्रमाण वृत्ताकार हों । चूचियों के मध्य में भाग प्रमाण बीटलियाँ हों । वक्षस्थल से नाभि तक १२ भाग प्रमाण अंतराल हो । ४. उदर : वक्षस्थल से नीचे और नाभि के ऊपरी भाग को उदर कहते हैं । नाभि का मुख १ भाग प्रमाण चौड़ा हो | नाभि को दक्षिणावर्त्तरूप में मनोहर गोल गहरी करें । ५. पेडू : नाभि के मध्य से लेकर लिंग के मूल तक १२ भाग प्रमाण में अंतराल या पेडू करें। उनमें से आठ भागों में आठ रेखाएँ करें । १८ भाग प्रमाण चौड़ी कटि तथा उसकी परिधि ४८ भाग प्रमाण हो । तिकूणा (बैठक का हाड़) आठ भाग प्रमाण विस्तीर्ण हो । तिकूणा का मध्य भाग ८ भाग प्रमाण हो । ऊपरवाला भाग अनीछट बांसा के हाड़ से मिला हो। दोनों कूले ६ भाग प्रमाण गोल हों, स्कंध के सूत से गुदा पर्यन्त ३६ भाग लम्बा और आधा भाग प्रमाण मोटा रीढ़ का हाड़ हो । ६. लिंग : ४ भाग प्रमाण लम्बा, मूल में २ भाग प्रमाण मोटा, मध्य में १ भाग प्रमाण मोटा, अन्त भाग प्रमाण मोटा लिंग हो और सर्वत्र अपनी मोटाई के प्रमाण से तिगुनी परिधि हो । ७. पोते : दोनों पोतों को आम की गुठली के समान चढ़ाव उतार रूप में ५-५ भाग प्रमाण लम्बे और ४-४ भाग प्रमाण चौड़े पुष्ट रूप में बनावें । ८. जाँघ : दोनों जाँघों को २४- २४ भाग प्रमाण पुष्ट रूप में बनावें । दोनों जाँघों के मूल में ११ - ११ भाग प्रमाण, मध्य में ९-९ भाग प्रमाण और अंत में ७-७ भाग प्रमाण चौड़ी रखें। इनकी परिधि सर्वत्र अपनी-अपनी मोटाई से तिगुनी रखें। ९. घुटना : जाँघों के नीचे और पींडियों से ऊपर मध्य में ६ भाग प्रमाण चौड़े और ४ भाग प्रमाण लम्बे दोनों घुटने रक्खें । १०. पींडी : घुटनों से नीचे टिकूण्या तक लम्बी २४ - २४ भाग प्रमाण दोनों पींडियाँ बनावें । ये दोनों [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] <] 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडियाँ मूल में ७-७ भाग, मध्य में ६ - ६ भाग और अन्त में टिकूण्या के पास ४३-४३ भाग चौड़ी रक्खे। परिधि सर्वत्र तिगुनी हो । ११. टिकूण्या : दोनों पगों की चारों टिकूण्यों को १ - १ भाग प्रमाण गूढ़ रखें । परिधि इनकी भी तिगुनी हो । १२. चरण : दोनों पगों के चरण तलों को १४- १४ भाग प्रमाण लम्बे करें । टिकूण्यों से अंगुष्ठ के अग्र भाग तक १२ भाग प्रमाण लम्बाई हो । टिकूण्यों के पीछे एड़ी को २ भाग प्रमाण रक्खें । एड़ी नीचे २ भाग, बगल में कुछ कम और मध्य में ऊँची गोल हो, परिधि ६ भाग प्रमाण हो । अंगुष्ठ २ भाग प्रमाण लम्बा, मध्य में २ भाग प्रमाण चौड़ा तथा आदि अन्त में कुछ कम चौड़ा हो । प्रदेशिनी ३ भाग प्रमाण लम्बी हो । मध्यमा प्रदेशनी से भाग प्रमाण कमती हो अर्थात् २ भाग लम्बी हो । मध्यमा से अनामिका कुछ और कम अर्थात् २ भाग लम्बी हो । अनामिका से कनिष्ठिका कुछ और कम अर्थात् भाग लम्बी हो । चारों ही अंगुलियाँ १-१ भाग प्रमाण मोटी और तिगुनी परिधि की हों। अंगुष्ठों में २-२ पर्व और चारों अंगुलियों में ३-३ पर्व करें। अंगुष्ठ का नख १ भाग प्रमाण, प्रदेशिनी का नख भाग प्रमाण और शेष अंगुलियों के नख अनुक्रम से कुछ-कुछ कमती रक्खें । पादतली को एड़ी के पास ४-४ भाग प्रमाण, मध्य में ५-५ भाग प्रमाण और अंत में ६-६ भाग प्रमाण चौड़ी बनावें । चरण युगल एक सरीखे पुष्ट बनावें । शंख, चक्र, अंकुश, कमल, यव, छत्र आदि शुभ चिह्नों से संयुक्त चरण बनावें । इस प्रकार से कायोत्सर्ग प्रतिमा बनावें। शेष अंगोपांगों को भी पुष्ट एवं शोभनीय बनावें । पद्मासन प्रतिमा के भी कितने ही भाग यही हैं । कायोत्सर्ग के भागों के आधे भाग अर्थात् ५४ भाग प्रमाण ही दोनों घुटनों के अंत तक पलौटी की लम्बाई करें। दोनों हाथों की अंगुलियों और पेडू में ४ भाग प्रमाण अंतराल रक्खें । उदर से स्कंध पर्यन्त क्रम से हानिरूप यथा शोभित २ भाग प्रमाण अन्तर रक्खें । अष्ट प्रातिहार्य अशोक वृक्ष (तीर्थंकरों के ज्ञानकल्याणक वृक्ष), पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि, सिंहासन, छत्र, चमर, दिव्यध्वनि, भामण्डल । मुक्ति आसन व मूर्ति विशेषता श्री ऋषभदेव, वासुपुज्य और नेमिनाथ पद्मासन से और शेष तीर्थंकर खड्गासन से मुक्त हुये । ऋषभनाथ की प्रतिमा में सिर पर केश, सुपार्श्वनाथ प्रतिमा पर ५ फण, पार्श्वनाथ प्रतिमा पर सप्त या अधिक फण, बाहुबलि प्रतिमा पर बेल परम्परानुसार निर्माण होती है । मोक्ष को प्राप्त न हुए आचार्यों, उपाध्यायों एवं मुनिराजों के स्टेच्यु व मूर्ति नहीं बनाकर उनकी पिच्छी- कमण्डल सहित चरण व मोक्षगामी तीर्थंकरों व मुनियों की उपलब्ध मूर्ति व उनके चरण चिन्ह बनाये जाते हैं । एक साथ पंच बालयति, सप्तर्ष चौबीस तीर्थंकर, नवदेवता, पंचपरमेष्ठी प्रतिमा भी बनती है और पाई जाती है । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ ९ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा पाषाण के दोष बेलवृक्ष की छाल निर्मल कांजी के साथ पीसकर पाषाण पर लेप करने से उसके दाग दृष्टिगोचर हो जाते हैं । उस दाग से पाषाण के भीतर कोई जीव या जल का ज्ञान हो जाता है । ऐसी पाषाण प्रतिमा हानिकारक होती है । पाषाण में मूल वस्तु के रंग से भिन्न वर्ण की रेखा हो तो उसे सदोष मानना चाहिये। नीले आदि रंग की रेखावाला पाषाण प्रतिमा के लिए त्याज्य है । मृत्तिका कण, काष्ठ, कांसा, सीसा, कलई, विलेपन की प्रतिमा पूज्य नहीं है (न मृत्तिका काष्ठ विलेपनादि, जातं जिनेन्द्रैः प्रतिपूज्यमुक्तम् ।) (वा.सा.) नासामुखे तथा नेत्रे हृदये नाभि मण्डले । स्थानेषु च गतांगेषु प्रतिमा नैव पूजयेत् ।। जीर्णं चातिशयोपेतं तद्विंबमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न-पूज्यं-स्यात्-निक्षिपेत्तन्नदादिषु ।। (उ.श्रा.) नासा, मुख, नेत्र, नाभि, सिर से रहित प्रतिमा पूजनीय नहीं है । जीर्ण और सातिशय प्रतिमा पूज्य है, खंडित प्रतिमा को गहरे जल में क्षेपण करें। प्रतिष्ठिते पुनर्बिम्वे संस्कारः स्यान्न कर्हिचित् । संस्कृते च कृते कार्या प्रतिष्ठा तादृशी पुनः ।। संस्कृते तुलिते चैव दुष्ट स्पृष्टे परीक्षिते । हृते विम्वे च लिंगे च प्रतिष्ठा पुनरेवहि ।। (आ.दि.) __ प्रतिष्ठा के बाद जिस मूर्ति का संस्कार या जीर्णोद्धार करना पड़े, दुष्ट का स्पर्श हो जाये, परीक्षा करनी पड़े या चोर चोरी कर ले जाये, ऐसी मूर्ति की प्रतिष्ठा (मन्त्र संस्कार) कराना चाहिये। प्रतिष्ठित प्रतिमा के टांकी नहीं लगती। उसकी प्रशस्ति भी मिटाई नहीं जाती। (पीयूष श्रा.) नोट : समवायांग, स्थानांग, आवश्यक नियुक्ति इन प्राचीन श्वेताम्बर आगमो में ५ बालयति (ब्रह्मचारी) तीर्थंकरों में महावीर जी का उल्लेख मिलता है। प्रतिमा दोष से हानि प्रतिमा के नख, अंगुली, बाहु, नासिका व चरण में से कोई अंग खण्डित हो तो क्रमशः शत्रुभय, देशविनाश, बंधन, कुलनाश, द्रव्यक्षय होता है। छत्र, श्रीवत्स, कर्ण खण्डित हो तो क्रमशः लक्ष्मी, सुख, बंधु का क्षय होता है। टेढ़ी नाक, छोटे अवयव, खराब नेत्र, छोटा मुख हो तो क्रमशः दुःख, क्षय, नेत्रविनाश, भोग हानि। ऊर्ध्वमुख, टेढ़ी गर्दन, अधोमुख, ऊँच-नीच मुख हो तो धननाश, स्वदेश नाश, चिंता, विदेश गमन हो। अन्याय से धनार्जन द्वारा निर्मापित प्रतिमा दुष्काल करे। ___ इसलिये प्रतिष्ठा के पूर्व भलीभाँति प्रतिमा की परीक्षा कर लेना चाहिये। (वा.सा.-आ.प्र.) १०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 T 1 * मान स्तम्भ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदी निर्माण मन्दिर में पूर्व या उत्तर दिशा में जिसका मुख हो ऐसा ढाई फुट ऊँचा चबूतरा और उसके ऊपर प्रतिमा बड़ी एक या अधिक हो तो उस माफिक लंबाई-चौड़ाई रखते हुए तीन कटनी निर्माण करावे । उक्त प्रथम ढाई फुट ऊँचाई पर कमल व उस पर बड़ी एक प्रतिमा विराजमान करने योग्य स्थान बनवाया जा सकता है। पीछे भामण्डल व छत्रत्रय पाषाण के होना चाहिये जिससे चोरी की आशंका न रहे। आजू-बाजू अभिषेक हेतु खड़े होने की जगह रहे । ऐसी प्रतिमा बड़े हाल में शोभा देती है जिसके दूर से भी दर्शन होते हैं। बीच की मूलनायक प्रतिमा जिस वेदी में विराजमान की जावे उसके सामने के दरवाजे की ऊँचाई निम्न प्रकार देखकर रखे - विभज्य नवधा द्वारं तत्षड्भागानधस्त्यजेत् । ऊर्ध्वद्वौ सप्तमं तद्वत् विभज्य स्थापयेद् दृशाम् ॥ दरवाजे का नवभाग करके उसके नीचे (वसुनंदि प्रतिष्ठा पाठ) छह भाग और ऊपर के दो भाग छोड़कर सातवें भाग में तथा इस सातवें भाग के नवभाग करके इसके भी सातवें भाग में उस प्रतिमा की दृष्टि रहे, जिसे वेदी में विराजमान करना है। अन्य मतानुसार द्वार के ६४ भाग करके ५५वें भाग में प्रतिमा की दृष्टि रखी जाये । इस नियमानुसार वेदी व उस पर की कटनी या कमल की ऊँचाई का ज्ञान हो जाता है। वेदी के पीछे की दीवार से प्रतिमा को दूर विराजमान करें तथा पीछे कोई द्वार व उजालदान नहीं बनवायें। परिक्रमा अवश्य रखी जावे । दीवार में आला बनवाकर उसमें प्रतिमा विराजमान करना शुभ नहीं है। मान-स्तम्भ और शिखर मन्दिर के सामने पूर्व या उत्तर दिशा में मन्दिर की ऊँचाई से ऊँचा मान-स्तम्भ निर्माण करावें। उसमें ऊँचे भाग में व नीचे भाग की तीसरी कटनी में चारों दिशाओं में चार-चार प्रतिमा, समान ऊँची व मूलनायक के नामवाली विराजमान करें। शिखर भी गुंबज रूप में नहीं, लम्बा व ऊँचा मन्दिर की ऊँचाई से सवाया या डेढ़ा निर्माण करावें । वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का परिचय क्र. नाम पिता माता जन्मस्थल चिन्ह वंश वर्ण ऋषभनाथ नाभिराय मरुदेवी अयोध्या वृषभ स्वर्ण अजितनाथ जितशत्रु विजयसेना अयोध्या गज संभवनाथ जितारि सुषेणा श्रावस्ती स्वर्ण अभिनंदननाथ संवर सिद्धार्थ अयोध्या वानर स्वर्ण सुमतिनाथ मेघप्रभ सुमंगला अयोध्या स्वर्ण पद्मप्रभ सुसीमा कौशांबी कमल सुपार्श्वनाथ सुप्रतिष्ठ पृथ्वी वाराणसी स्वस्तिक हरित चन्द्रप्रभ महासेन लक्ष्मणा चन्द्रपुरी चन्द्र शुक्ल पुष्पदन्त काकंदी मगर १०. शीतलनाथ दृढ़रथ भाद्रिल कल्पवृक्ष ११. श्रेयांसनाथ विष्णु विष्णुश्री सिंहपुर गेंडा इक्ष्वाकु स्वर्ण अश्व कोक धरण रक्त सुग्रीव रमा सुनंदा स्वर्ण स्वर्ण [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वासुपूज्य १३. विमलनाथ १४. अनंतनाथ १५. धर्मनाथ १६. शांतिनाथ १७. कुंथुनाथ १८. अरनाथ १९. मल्लिनाथ २०. मुनिसुव्रतनाथ २१. नमिनाथ २२. नेमिनाथ २३. पार्श्वनाथ २४. महावीर क्र. तीर्थंकरनाम १. २. सीमंधर युग्मन्धर ३. बाहु ४. सुबाहु ५. सजातक ६. स्वयंप्रभ ७. ऋषभानन ८. अनंतवीर्य ९. सूरिप्रभ १०. विशाल भ ११. वज्रधर १२. चन्द्रानन १३. चन्द्रबाहु १४. भुजंग १५. ईश्वर १६. नेमिप्रभ १७. वीरसेन १८. महाभद्र १९. देवयश २०. अजितवीर्य १२ ] वसुपुज्य कृतवर्मा सिंहसेन भानु विश्वसेन कुभ सुमित्र विजय 2010_05 शूरसेन सुदर्शन समुद्रविजय अश्वसेन सिद्धार्थ चिह्न 丽啊觋丽盘雠丽疽丽丽丽做嘅盘 वृषभ गज मृग कपि रवि चन्द्र सिंह गज रवि चन्द्र शंख वृषभ पद्म चन्द्र रवि वृषभ ऐरावत चन्द्र स्वस्तिक पद्म जया जयश्यामा विमला सुप्रभा ऐरा श्रीमती मित्रा प्रभावती पद्मा सुभद्रा शिवादेवी वामादेवी त्रिशला पितृनाम श्रेयांस दृढ़राज सुग्रीव निशिढिल देवसेन मित्रभूत कीर्तिराज मेघराज नागराज विजययति पदमार्थ वाल्मीकि देवनंदि पृथ्वीपाल देवराज अवभूत सुबोध चंपा कंपिला अयोध्या रत्नपुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिला सुनंदा देवसेना राजगृह मिथिला शौरीपुर वाराणसी कुंडलपुर विदेह के तीर्थंकर मातृनाम सत्या सुतारा विजया सुमंगला वीरसेना मंगला महाबल गलसेन ज्वाला वीरषेण सेना सूर्या उमादेवी गंगा कनका भद्रा विजया सरस्वती पद्मावती रेणुका महिला अलका विजय मृग निवास पुंडरीकपुर विजयवती सुसीमा अयोध्या सुसीमा अयोध्या महिषा शूकर सेही वज्र सुसीमा अयोध्या अज मीन कलश कच्छप नीलकमल शंख नाग सिंह विजयपुरी पुंडरीकपुरी सुसीमा पुंडरीकणी विनीता विजया सुसीमा अयोध्या पुंडरीकणी विजयनगर 11 23 33 कुरु इक्ष्वाकु कुरु 33 इक्ष्वाकु यदु इक्ष्वाकु यदु उग्र नाथ सुदर्शन सीतोदा दक्षिण सुदर्शन सीतोदा उत्तर विजय सीता उत्तर विजय सीता दक्षिण विजय सीतोदा दक्षिण विजय सीतोदा उत्तर रक्त सुवर्ण अचल सीता उत्तर अचल सीता दक्षिण अचल सीतोदा दक्षिण अचल सीतोदा उत्तर मंदर-सीता उत्तर मंदर-सीता दक्षिण स्वर्ण स्वर्ण स्वर्ण स्वर्ण स्वर्ण मेल से संबंधित सुदर्शन - सीता नदी के उत्तर सुदर्शन - सीता नदी के दक्षिण नील स्वर्ण नील हरित स्वर्ण मंदर सीतोदा दक्षिण मंदर सीतोदा उत्तर विद्युन्माली सीता उत्तर विद्युन्माली सीता दक्षिण विद्युन्माली सीतोदा दक्षिण विद्युन्माली सीतोदा उत्तर [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा बिना नाम, पितृनाम, मातृनाम, स्थान नाम के नहीं होती, ऐसा प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार मन्त्र संस्कार विधि में वर्णित है। विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के जन्माभिषेक हेतु मेरु पर इनकी जन्माभिषेक शिला भी पृथक् पाई जाती है। विशेष यह है कि उक्त तीर्थंकरों की गर्भ व जन्म तिथि का उल्लेख कर पूजा की जाती है। वर्तमान तीर्थंकरों के पंच कल्याणकों की शुद्ध तिथि नाम गर्भ कल्याणक जन्म कल्याणक तप कल्याणक ज्ञान कल्याणक मोक्ष कल्याणक ऋषभनाथ आषाढ़ कृष्ण २ चैत्र कृष्ण ९ चैत्र कृष्ण ९ फाल्गुन कृष्ण ११ माघ कृष्ण १४ अजितनाथ ज्येष्ठ कृष्ण ३० माघ शुक्ल १० माघ शक्ल ९ पौष शुक्ल ११ चैत्र शुक्ल ५ संभवनाथ फाल्गुन शुक्ल ८ कार्तिक शुक्ल १५ मगसिर शुक्ल १५ कार्तिक कृष्ण ४ चैत्र शुक्ल ६ अभिनन्दननाथ वैशाख शुक्ल ६ माघ शुक्ल १२ माघ शुक्ल १४ पौष शुक्ल १४ ।। वैशाख शुक्ल ६ सुमतिनाथ श्रावण शुक्ल २ चैत्र शुक्ल ११ वैशाख शुक्ल ९ चैत्र शुक्ल ११ चैत्र शुक्ल ११ पद्मप्रभ माघ कृष्ण ६ कार्तिक कृष्ण १३ कार्तिक कृष्ण १३ चैत्र शुक्ल १५ फाल्गुन कृष्ण ४ सुपार्श्वनाथ भाद्रपद शुक्ल ६ ज्येष्ठ शुक्ल १२ ज्येष्ठ शुक्ल १२ फाल्गुन कृष्ण ६ फाल्गुन कृष्ण ७ चन्द्रप्रभ चैत्र कृष्ण ५ पौष कृष्ण ११ पौष कृष्ण ११ फाल्गुन कृष्ण ७ फाल्गुन कृष्ण ७ पुष्पदंत फाल्गुन कृष्ण ९ मगसिर शुक्ल १ मगसिर शुक्ल १ कार्तिक शुक्ल २ भाद्रपद शुक्ल ८ शीतलनाथ चैत्र कृष्ण ८ माघ कृष्ण १२ माघ कृष्ण १२ पौष कृष्ण १४ आश्विन शुक्ल८ श्रेयांसनाथ ज्येष्ठ कृष्ण ६ फाल्गुन कृष्ण ११ फाल्गुन कृष्ण ११ माघ कृष्ण ३० श्रावण शुक्ल १५ वासुपूज्य आषाढ़ कृष्ण ६ फाल्गुन कृष्ण १४ फाल्गुन कृष्ण १४ माघ शुक्ल २ भाद्रपद शुक्ल १४ विमलनाथ ज्येष्ठ कृष्ण १० माघ शुक्ल ४ माघ शुक्ल ४ माघ शुक्ल ६ आषाढ़ कृष्ण ८ अनंतनाथ कार्तिक कृष्ण १ ज्येष्ठ कृष्ण १२ ज्येष्ठ कृष्ण १२ चैत्र कृष्ण ३० चैत्र कृष्ण ३० धर्मनाथ वैशाख कृष्ण १३ माघ शुक्ल १३ माघ शुक्ल १३ पौष शुक्ल १५ ज्येष्ठ शुक्ल ४ शांतिनाथ भाद्रपद कृष्ण ७ । ज्येष्ठ कृष्ण १४ ज्येष्ठ कृष्ण १४ पौष शुक्ल १० पौष कृष्ण १४ कुंथुनाथ श्रावण कृष्ण १० वैशाख शुक्ल १ वैशाख शुक्ल १ चैत्र शुक्ल ३ वैशाख शुक्ल १ अरनाथ वैशाख शुक्ल ३ ।। मगसिर शुक्ल १४ मगसिर शुक्ल १० कार्तिक शुक्ल १२ । चैत्र कृष्ण ३० मल्लिनाथ चैत्र शुक्ल १ मगसिर शुक्ल ११ मगसिर शुक्ल ११ पौष कृष्ण २ फाल्गुन शुक्ल ५ मुनिसुव्रतनाथ श्रावण कृष्ण २ वैशाख कृष्ण १० वैशाख कृष्ण १० वैशाख कृष्ण ९ फाल्गुन कृष्ण १२ नमिनाथ आश्विन कृष्ण २ आषाढ़ कृष्ण १० आषाढ़ कृष्ण १० मगसिर शुक्ल ११ वैशाख कृष्ण १४ नेमिनाथ कार्तिक शक्ल ६ श्रावण शक्ल ६ श्रावण शक्ल ६ आश्विन शक्ल१ आषाढ शक्ल ७ पार्श्वनाथ वैशाख कृष्ण २ पौष कृष्ण ११ पौष कृष्ण ११ चैत्र कृष्ण ४ श्रावण शुक्ल ७ महावीर आषाढ़ शुक्ल ६ चैत्र शुक्ल १३ मगसिर कृष्ण १० वैशाख शुक्ल १० कार्तिक कृष्ण ३० नोट:- उपलब्ध हिन्दी चौवीसीपूजा १६ में प्रायः पंच कल्याणक तिथियाँ अशुद्ध होने से उक्त संस्कृत उत्तरपुराण की शुद्ध तिथियों का विवरण यहाँ दिया गया है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप [१३ 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ऋद्धियाँ बुद्धि १८- केवलज्ञान, मनःपर्यय, अवधि, बीज, कोष्ठ, पादानुसारि, संभिन्न संश्रोतृ, दूरादास्वादन, दूराद्दर्शन, दूरात्स्पर्शाद्विन, दूराद्माण, दूरालघुवण, दशपूर्वित्व, चतुर्दशपूर्वित्व, अष्टांगमहानिमित्त, प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येकबुद्धि, वादित्व । विक्रिया- जल, जंघा, तंतु, फल, पुष्प, बीज, आकाश, श्रेणी, अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाट्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघाती, अंतर्धान, सकामरूपित्व। तप७- उग्र, घोरतप, घोर पराक्रम, घोर ब्रह्मचर्य, तप्त तप, दीप्त तप, महातप। बल ३- मन, वचन, काय । औषध ८- आमर्ष, श्वेल, जल्ल, मल्ल, बिड, सर्व, मुखनिर्विष, दृष्टिनिर्विष । रस ६- आस्यविष, दृष्टिविष, शीरश्रावी, मधुश्रावी, सर्पिश्रावी, अमृतश्रावी। क्षेत्र (अशीष)२- अशीषमहानस, अशीषमहालय । यजमान-यज्ञनायक या प्रतिष्ठाकारक न्यायोपजीवी, गुरुभक्त, अनिंद्य, विनयी, पूर्णांग, शास्त्रज्ञ, उदार, अपवाद व उन्माद रहित, राज्य व निर्माल्य द्रव्य का हर्ता न हो, प्रतिष्ठा में सम्पत्ति का व्यय करने वाला, कषाय रहित, धामिक व्यक्ति यज्ञनायक के योग्य होता है । प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी अष्टमूल गुणधारी, सप्त व्यसन त्यागी और अणुव्रती बने । उनसे तीर्थंकर के माता-पिता न बनाकर वर्तमान आवश्यकतानुसार उनका कार्य सम्पन्न करा दें। माता का काम मंजूषा (पेटी) से लेने का उल्लेख जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पद्म ७१९ में व सभी प्रतिष्ठा पाठों में मिलता है। पिता की स्थापना भद्रपीठ में बताई है। अन्य प्रतिष्ठा पाठों में भी माता-पिता बनाने के प्रमाण नहीं हैं। प्रतिष्ठाचार्य या गृहस्थाचार्य के लक्षण स्याद्वाद विद्या में निपुण शुद्ध उच्चारण वाला, आलस्यरहित, स्वस्थ, क्रियाकुशल, दया दान शीलवान, इन्द्रिय विजयी, देव गुरु भक्त, शास्त्रज्ञ, धर्मोपदेशक, क्षमावान्, समाज-मान्य, व्रती, दूरदर्शी, शंका समाधानकर्ता, उत्तम कुल वाला, आत्मज्ञ, जिन धर्मानुयायी, गुरु से मंत्र शिक्षा प्राप्त, हविष्यान्न (घृतमिश्रित चरुभात)- (शब्दरत्नाकर कोश व आप्टे के कोशानुसार) का भोजन कर रात्रि भोजन का त्यागी, निद्रा विजयी, निःस्पृह, परदुःखहर्ता, विधिज्ञ और उपसर्गहर्ता प्रतिष्ठाचार्य होता है । वर्णी ब्रह्मचारी या गृहस्थ बारह व्रतधारी भी वसुनंदि प्रतिष्ठापाठ में बताया है । लोभी, क्रोधी, संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ और अशांत प्रतिष्ठाचार्य या गृहस्थाचार्य त्याज्य हैं। विशेष- प्रमुख आचार्य दिगम्बर मुनि होते हैं, जिनसे आज्ञा व यज्ञ दीक्षा ली जाती है वे ही सूरिमन्त्र देते हैं। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र व इन्द्राणियाँ प्रतिष्ठाकारक के प्रतिनिधि, पूजक, सुन्दर, सद्गुणवान, युवा, आभरण भूषित, श्रद्धावान्, निष्पाप, अशुद्ध भोजन-पान रहित होते हैं। इन्द्रों में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, लाँतव, शुक्र, शतार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा इनकी एक-एक इन्द्राणियाँ दीक्षित होकर संयमपूर्वक प्रतिष्ठा में अपना-अपना नियोग (कर्तव्य) पूर्ण करें। सभी इन्द्र-इन्द्राणियाँ भोजन एक बार करें और रात्रि को चारों प्रकार के आहार का त्याग करें । प्रतिदिन शान्ति मन्त्र का जाप करें। कुबेर के कार्य हेतु भी किसी को दीक्षित करावें । इन्द्र-इन्द्राणियाँ पूजा के शुद्ध वस्त्र अलग रखें। मन्त्र से दीक्षित हो जाने पर प्रतिष्ठा पूर्ण होने तक सूतक-पातक इन्हें नहीं लगता। प्रतिष्ठा मुहर्त प्रतिष्ठा मुहूर्त जिनेन्द्र प्रतिमा को विराजमान करने का प्रमुख रूप से माना जाता है। अन्य मुहूर्त उसके अनुसार किये जाते हैं। "देव मूर्ति प्रतिष्ठायां स्थिर लग्नोत्तरायणे" दिगम्बर जैन प्रतिष्ठा में मूर्ति प्रतिष्ठा उत्तरायण सूर्य में ही होती है। अन्य देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा दक्षिणायन में भी होती है। डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने 'भारतीय ज्योतिष के अन्तर्गत "मुहूर्त दर्पण" (पृ. १४-१५) में इसकी पुष्टि की है। श्रावण माह से पौष तक दक्षिणायन और माघ से ज्येष्ठ तक उत्तरायण सूर्य होता है। राशि की दृष्टि से १०वीं मकर के सूर्य से मिथुन तक उत्तरायण और कर्क ४थी राशि से ९वीं धनु तक दक्षिणायन कहलाता है। प्रतिष्ठा हेतु पुनर्वसु, उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, पुष्य, हस्त, श्रवण, रेवती, रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा नक्षत्र वसुनंदि व जयसेनाचार्य के अभिमत से श्रेष्ठ हैं। चित्रा, मघा, भरणी, मूल ये नक्षत्र भी सामान्य रूप से शुभ हैं। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार ये प्रतिष्ठा में ग्राह्य हैं । १, २, ५, १०, १३, १५ ये शुक्ल पक्ष की तिथियाँ मान्य हैं । मीन के सूर्य में जो प्रायः चैत्र में आता है, प्रतिष्ठा त्याज्य है । कृष्ण पक्ष में पंचमी तक प्रतिष्ठा की जा सकती है, उसमें १, २, ५ तिथि अच्छी है। गुरु व शुक्र तारा के अस्त होने पर प्रतिष्ठा नहीं होती । मल मास (९ वें सूर्य) में भी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। (मुहूर्त दर्पण व शीघ्र बोध तथा वृहदवकहडाचक्रम् ५०-५१) सिद्धि योग चक्र वार रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र तिथि ८ शनि in |r 9 w v 8 an १३ (आ. वसुनंदि-जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पद्य १८९ से १९५) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५ 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रा, शतभिषा ऽश्लेषा, विशाखा, भरणीद्वयम् । त्याज्या च द्वादशी रिक्ता, षष्ठी चन्द्रक्षयोऽष्टमी ।। प्रतिपच्च तिथिर्वारो, त्याज्यौ शनिकुजौ तथा । देव मूर्ति प्रतिष्ठायां, स्थिर लग्नोत्तरायणे ।। योग विशेष को छोड़कर (सामान्य रूप से) आर्द्रा, शतभिषा, आश्लेषा, विशाखा, भरणी, कृत्तिका नक्षत्र और १२, ४, ९, १४, ३०, ६, २, ८, १ तिथि और शनि, मंगल ये प्रतिष्ठा में त्याज्य हैं । वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ तथा उत्तरायण सूर्य में देव प्रतिष्ठा करें। (शीघ्र बोध ४१-४२) गीर्वाणांबु प्रतिष्ठा परिणय दहनाधान गेह प्रवेशाश्चौलंराज्याभिषेको व्रतमपि शुभदं नैव याम्यायने स्यात् ।। नो वा बाल्यास्तबार्द्ध सुरगुरुसितयो नैव केतूदये स्यात् । न्यूने मासेऽधिके वा नहि च सुरगुरौ च सिंह नक्रस्थिते वा ।। दक्षिणायन में प्रतिष्ठा नहीं होती, गुरु, शुक्र के बाल्य, वृद्ध, अस्त में तथा क्षयमास, मलमास में शुभ कार्य नहीं होते। (वृहदवकहडाचक्रम् ५०-५१) अमृत सिद्धि योग चक्र रवि सोम मंगल बुध शुक्र शनि मृग. अश्वि . उत्तरात्रय वि.कृ. पुन. पुष्य रो. श. पुष्य रो.श्र. गुरु अनु. श्र. रे. गुरु सर्वार्थ सिद्धि योग रवि सोम मंगल बुध शुक्र शनि हस्त श्रवण अश्विनी रोहिणी रेवती रेवती श्रवण मूल रोहिणी उ.भा. अनुराधा अनुराधा अनुराधा रोहिणी उत्तरात्रय मृगशिर कृत्तिका हस्त अश्विनी अश्विनी स्वाति पुष्य पुष्य आश्लेषा कृत्तिका पुनर्वसु पुनर्वसु अश्विनी अनुराधा मृगशिर पुष्य श्रवण उक्त दोनों योगों को मुहूर्त हेतु देख लेना चाहिये । रवि से शनि तक क्रमशः भरणी, चित्रा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा, रेवती त्याज्य है। त्याज्य सूर्यदग्धातिथि धनु मीन में २, वृष-कुंभ में ४, मेष-कर्क में ६, मिथुन-कन्या में ८, सिंह-वृश्चिक में १०, तुला-मकर में १२ तिथि। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याज्य चन्द्रदग्धातिथि कुंभ-धनु में २, मेष-मिथुन में ४, तुला-सिंह में ६, मकर-मीन में ८, वृष-कर्क में १०, वृश्चिककन्या में १२ । चालू पंचांग के अनुसार उक्त मुहूर्त देखा जाता है । जैन ज्योतिष की दृष्टि से जो तिथि सूर्योदय से ६ घड़ी या उससे अधिक होती है वही मान्य होती है। पंचांग की क्षय तिथि ६ घड़ी से ज्यादा होने पर जैन ज्योतिष में पूर्ण मानी जाती है। पंचांग में दो तिथि होने पर प्रथम मानना चाहिये। ___ चौबीस तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथि में से कोई होने पर उक्त मुहूर्तों के साथ सोने में सुहागा समान होती है। उत्पात-मृत्यु-काण-तिथि-योग-चक्र फल रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि उत्पात पू.षा. पुष्य उ.फा. मृत्यु __ अनु. उ.षा. अश्वि मृग. आश्ले. ह. काण अश्विनी पू.षा. आर्द्रा मघा चि. सिद्धि श्र. उ.षा कृ. पुन. पू.फा. स्वा. वि. ध. शं. (वसुनंदि प्रतिष्ठा पाठ) उक्त मुहूर्त सामान्य रूप में हैं, परन्तु पंचांग द्वारा इसमें प्रतिष्ठाकारक, प्रतिष्ठाचार्य व प्रतिमा नाम से भी चन्द्रमा देखा जाता है जो उनकी राशि से ४, ८ व १२ न हो । यह देखकर उस प्रतिष्ठा मुहूर्त में प्रतिमा विराजमान की जाती है। इसमें कुछ योग भी ज्ञातव्य हैं। मंडप मुहूर्त __ मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रों में सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार को २, ५, ७, ११, १२, १३ तिथियों में शुभ है। प्रतिष्ठा में योग विशेष __ राजयोग- मंगल, बुध, शुक्र, रवि में से किसी वार को भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वा फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तरा भाद्रपद इसमें से कोई नक्षत्र हो तथा २, ७, ३, पूनम में से कोई तिथि हो, तो राजयोग शुभ होता है। पंचकयोग- धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्र को पंचक कहते हैं। इनमें मृतक संबंधी दोष है किन्तु प्रतिष्ठा में दोष नहीं। कालमुखी योग- चौथ को तीनों उत्तरा, पंचमी को मघा, नवमी को कृत्तिका, अष्टमी को रोहिणी और तीज को अनुराधा नक्षत्र हो तो कालमुखी योग अशुभ होता है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवियोग- सूर्य के नक्षत्र से दिन का नक्षत्र ४, ६, ९, १०, १३, २०वाँ हो, तो रवि शुभ योग होता है। किन्तु १, ५, ७, ८, ११, १५, १६वाँ अशुभ योग होता है। कुमारयोग- सोम, मंगल, बुध, शुक्र में से किसी वार को अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, हस्त, विशाखा, मूल, श्रवण और पूर्वाभाद्रपद में से कोई हो तथा १, ५, ६, १०, ११ तिथि हो तो कुमार शुभ योग होता है। किन्तु सोम को ११ या विशाखा, मंगल को १० या पूर्वाभाद्रपद, बुध को १ या मूल व अश्विनी, शुक्र को १० या रोहिणी हो तो वह अशुभ है। मृत्युयोग- नन्दा (१, ६, ११) तिथि को मूल, आर्द्रा, स्वाति, चित्रा, आश्लेषा, शतभिषा, कृत्तिका या रेवती हो; भद्रा (२, ७, १२) तिथि को पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी हो; जया (३, ८, १३) तिथि को मृगशिरा, श्रवण, पुष्य, अश्विनी, भरणी या ज्येष्ठा हो; रिक्ता (४, ९, १४) को पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु, मघा हो; पूर्णा (५, १०, १५) तिथि को हस्त, धनिष्ठा या रोहिणी हो तो वह अशुभ है। सिद्धयोग- रवि को मूल, सोम को श्रवण, मंगल को उत्तराभाद्रपद, बुध को कृत्तिका, गुरु को पुनर्वसु, शुक्र को पूर्वाफाल्गुनी और शनि को स्वाति हो तो सिद्ध योग होता है। विषयोग- रवि-पंचमी को हस्त, सोम-छठ को मृगशिरा, मंगल-सप्तमी को अश्विनी, बुधअष्टमी को अनुराधा, गुरु-नवमी को पुष्य, शुक्र-दशमी को रेवती, शनि-ग्यारस को रोहिणी हो तो प्रतिष्ठा में त्याज्य है। स्थिरयोग- गुरु या शनि को ४, ८, ९, १३, १४ तिथि में से कोई एक हो, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, रेवती में से कोई हो तो स्थिर शुभ योग होता है। वज्रपातयोग- दूज को अनुराधा, ३ को तीनों उत्तरा, ५ को मघा, ६ को रोहिणी, ७ को मूल या हस्त हो तो वज्रपात अशुभ योग होता है। विशेष- प्रतिष्ठा में पंचकल्याणक के दिन क्रम से रखे जाते हैं। इनमें प्रत्येक का मुहूर्त संभव नहीं है। फिर भी कुछ ज्ञातव्य है। मंजूषिका में से प्रतिमा स्थिर लग्न में निकालें, यह प्रातः होना चाहिये । भरणी, उत्तराफाल्गुनी, मघा, चित्रा, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती में, गुरु, बुध, शुक्र वारों में २, ५, ७, ११, १३ तिथियों में तप ग्रहण शुभ है, यह अपराह्न में होता है। वेदी में प्रतिमा विराजमान प्रातः दोपहर १२ बजे से पहले करना चाहिये । मण्डप निर्माण सोम, बुध, गुरु, शुक्र वारों में तथा २, ५, ७, ११, १२, १३ तिथियों व मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, नक्षत्रों में शुभ है । ध्वजारोहण शुभ मुहूर्त में किया जाना चाहिये। १८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष वे कर्क FRO_ hor 45454 | BF OFFER हवन का मुहूर्त शुक्ल पक्ष की एकम से अभीष्ट तिथि तक गिनने पर जितनी संख्या हो उसमें एक मिलावें । फिर रविवार से इष्ट वार तक गिनने पर जितनी संख्या हो उसको उक्त संख्या में जोड़ दें। इस संख्या में ४ का भाग देने पर तीन या शून्य बचे तो शुभ और एक या दो बचे तो अशुभ है। राशि ज्ञान मेष चे चो ला ली लू ले लो अ ओ वा वो मिथुन ही हु हे हो डा डी ड्र डे डो सिंह - मा मी म् मे मो टा ठी टू टे कन्या रा री रु रे रो ता ति तू ते वश्चिक - तो ना नी नू ने नो या यी यू धनु - ये यो भा भी भू धा फा ढ़ा भे मकर - भो जा जी जू जे जो खा खी खू खे खो गा गी कुम्भ - गु गे गो सा सी सू से सो दा मीन - चा ची नोट:- आगे जो चौघड़िया है उसमें प्रातः ६ बजे से शाम ६ बजे तक और रात्रि ६ बजे से प्रातः ६ बजे तक १||-१|| घंटे के योग हैं। दिन चौघड़िया मुहूर्त चं. मं. बु. गु. शु. 7 अ रो ला शु का उ अ रो ला ला शु च का उ अ लाशु च का अ रोला शु b 4444 ty EbAAE HD 46ty to 04 FM तुला 5 EEF ty to ho hot FM दी 의 의 A 4 My PER 44444 TA PEलक 444444 se | 444444se | 괴 4 4 의 [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. र. २. २०] (식대회의식의외의 शु च रो का ला उ शु चं. च रो का हिmp शु मं. का ला उ शु अ च का 2010_05 रात्रि चौघड़िया मुहूर्त गु. बु. उ शु अ च का ला उ लह ल रो उ शु प्रतिष्ठोत्सव आमंत्रण पत्रिका शु. रो का 석회 외에 외식 ल उ रो श. ला उ शु अ 최원식의 외 च रो तीर्थंकर मन्दिर आचार्य उद्देश्य, मंगलाचरण, मूलनायक व विधिनायक का प्रतिष्ठा के आयोजन संबंधी विवरण प्रतिष्ठाकारक, प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिष्ठा तिथि अन्य सूचना आदि का उल्लेख पत्रिका में होना चाहिये । प्रतिष्ठा महोत्सव कार्यक्रम का शीर्षक- श्रीमज्जिनेन्द्र मन्दिर, वेदी, कलश एवं ध्वजारोहण, प्रतिष्ठा महोत्सव ... अथवा श्री दि. जैन पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव स्थान ... ला प्रतिष्ठा मण्डप में जिनप्रतिमा विराजमान व झण्डारोहण मुहूर्त, दिगम्बर जैनाचार्य अनुज्ञा व प्रतिष्ठा आज्ञालंभन शान्ति जप - सवालक्ष या ५१००० (कम हो तो संख्या) - [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ३. मण्डल विधान - तेरहद्वीप, समवशरण, चौबीस महाराज, पंचपरमेष्ठी, भक्तामर आदि। ४. नाँदी विधान व इन्द्र प्रतिष्ठा ५. जल (घट) यात्रा व मन्दिर वेदी कलश, ध्वज दंड शुद्धि नोट : जल पात्र के जल को वेदी पर छिड़कना । ६. यागमण्डल (प्रतिष्ठा संबंधी विधि) ७. गर्भ कल्याणक की पूर्व क्रिया और पूर्वभव दिग्दर्शन (रात्रि में) ८. गर्भ कल्याणक प्रातः ९. जन्म कल्याणक (पाँडुकशिला पर जन्माभिषेक) १०. पालना (झूला) ११. राज सभा १२. वैराग्य एवं जिनदीक्षा १३. आहार दान १४. मंत्र संस्कार एवं समवशरण (ज्ञान कल्याणक) १५. निर्वाण भक्ति १६. जिन मन्दिर में मूलनायक आदि प्रतिमा विराजमान, शिखर पर कलशारोहण एवं ध्वजारोहण १७. शान्ति यज्ञ १८. रथ यात्रा (मंडप में उत्सव हेतु लाई गई प्रतिमा को वापस विराजमान हेतु) १९. प्रतिष्ठा समापन (आभार प्रदर्शन) नोट : उक्त कार्यक्रमों में बिंब (पंच कल्याणक) प्रतिष्ठा के सिवाय शेष कार्यों में भी यही क्रम सम्मिलित है। प्रतिमा प्रतिष्ठा में गर्भ कल्याणक के दो दिन पूर्व प्रशस्ति लेख भी प्रतिमाओं पर अंकित करा देना चाहिये। प्रतिमा प्रशस्ति स्वस्ति श्री वीर निर्वाण संवत्सरे २५..... तमे..... विक्रमाशब्दे २०...... तमे...... मासे..... तमे..... पक्षे...... तिथौ...... वासरे..... मूल संघे श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये ...... स्थाने जिन बिम्ब प्रतिष्ठोत्सवे...... दि. जैनाचार्य श्री १०८..... सान्निध्ये प्रतिष्ठाचार्यत्वे..... इत्येतैः प्रतिष्ठापितमिदं जिन बिंबं सर्वलोकस्य कल्याणाय भवेत् । प्रतिष्ठा में मन्त्र जप जिस वर्ण (शब्द) या वर्ण समूह का बार-बार मनन किया जाय और जिससे मन की चंचलता का त्राण (रक्षण) हो वह मन्त्र है। प्रभावशाली, महत्वपूर्ण, रहस्यमय, शब्दात्मक वाक्य मन्त्र हैं। जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रगट होती है, उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहते हैं। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२१ 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई भी अक्षर मन्त्र रहित नहीं है, कोई वृक्ष का अवयव औषध रहित नहीं है और कोई व्यक्ति योग्यता रहित नहीं है | इनकी योजना करके इन्हें लाभप्रद बनाने वाला ही दुर्लभ है। वर्ण और पदों में मन्त्र शक्ति एवं अतिशय का होना प्रयोक्ता, उसके भाव, उसके क्षेत्र और काल पर निर्भर है । अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः || ‘ॐ, ऐं, श्रीं, क्लीं, ह्रीं, क्षीं, हूं, ह्रौं' आदि बीज मन्त्र अपना पृथक्-पृथक् महत्व रखते हैं । मन्त्र की सफलता शुद्ध उच्चारण, श्रद्धा, जप के नियम, द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि पर निर्भर है । वैज्ञानिकों ने शब्द शक्ति के चमत्कार का परीक्षण किया है उसके अनेक उदाहरण हैं । वीणावादन से सर्प, हाथी आदि मोहित हो जाते हैं । ओं: = अ अरहंत का, अ अशरीर (सिद्ध) का, आ+आ आचार्य का मिलाकर, आ + उ उपाध्याय का, संधि होने पर, ओ+म् मुनि का = ओम् । म् का अनुस्वार होने पर ओं बनता है । यह पंच परमेष्ठी वाचक है । ओंकार दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला की शान्ति के लिए नूतन मेघ, समस्त श्रुत के प्रकाश हेतु दीपक और पुण्य रूप है । हे साधक ! इस प्रणव (ओं) का स्मरण कर । ( ज्ञानार्णव ३६-३१) स्मर-दुःखानल-ज्वाला प्रशांतैर्नव नीरदम् । प्रणव वाङ्मय ज्ञाने प्रदीपं पुण्य शासनम् ॥ २२ ] यहाँ बिंदु संयुक्त ओंकार पद उसकी प्रभावकता, अनन्तशक्ति सम्पन्नता अथवा कारण परमात्मत्व का बोध होता है । ॐ प्रेस ओर पुस्तकों में ऐसा प्रचलित है। इसके उकारव्यवहार और '०' बिन्दु निश्चय तथा - बीच की लकीर दोनों की सापेक्षता का ज्ञान कराते हुए ऊपर की चन्द्रकला, आत्मानुभूति का जो व्यवहार निश्चय से ऊपर है, बोध कराती है। विकार की शून्यता का शून्य है। इसी प्रकार ह्रीं (माया बीज) हं, ह्रौं आदि मन्त्रों का महान् फल ज्ञानार्णव आदि में बताया गया है । विद्यानुवाद पूर्व में इनका विशेष वर्णन है । प्रतिष्ठा ग्रन्थ में महामन्त्र णमोकार मन्त्र के जप का उल्लेख किया गया है । समस्त मन्त्रों में यह अलौकिक माना गया है। श्रद्धा एवं निष्काम रूप में इसे जपने पर ऐसी कोई ऋद्धि-सिद्धि नहीं, जो इसके द्वारा प्राप्त न हो सके । 2010_05 ओंकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमोनमः ॥ १. णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । (इस मन्त्र में ५ पद, ४ विराम और समस्त वर्ण ३५ हैं ) [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मन्त्र पढ़कर एक सफेद कलश (बिना जल का) में सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों रखकर ऊपर श्रीफल लाल चोल से ढककर लच्छा से बांधकर विनायक यन्त्र के समीप चौकी पर प्रमुख व्यक्ति से स्थापित करावें । वहीं अखण्ड दीपक स्थापित करावें। चत्तारि मंगलं, अरिहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहन्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहन्ते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि । ह्रौं सर्वशांति कुरु कुरु स्वाहा । २. ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असिआउसा सर्व-शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । ३. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अहँ असिआउसा अनाहत विद्यायै णमो अरिहंताणं ह्रौं सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । __उक्त मन्त्र सूत की माला को दाहिने हाथ के अंगूठे पर रख कर उस हाथ को हृदय के पास रखना चाहिये। माला नाभि के नीचे न पहुँचे । माला प्रायः तर्जनी अंगुली की सहायता से फेरना चाहिये । कायोत्सर्ग में उक्त पंच नमस्कार मन्त्र का जप ९ बार २७ उच्छवास में करना चाहिये । उक्त मन्त्र किसी की हानि नहीं करते, इनसे कल्याण ही होता है । ये धर्म्यध्यान के अन्तर्गत हैं। प्रतिष्ठाचार्य व प्रतिष्ठाकरक को भी प्रतिष्ठा के दिनों में संयम रखते हुए ऐसे शान्ति एवं निम्नलिखित विघ्न निवारण मन्त्रों का जप अवश्य करते रहना चाहिये। ॐ हूं धूं फट् किरिटि किरिटि घातय-घातय पर-विघ्नान् स्फोटय-स्फोटय सहप्रखंडान् कुरु कुरु पर मुद्रां छिधि-छिंधि पर मंत्रान् भिंधि-भिंधि क्षः क्षः हुं फट् स्वाहा । इस मन्त्र को जपते हुए सर्षप = सरसों प्रक्षेपण करना चाहिये। प्रतिष्ठा सामग्री निम्नलिखित सामग्री बिंब (पंचकल्याणक) प्रतिष्ठा की है। इसमें से ही मन्दिर, वेदी आदि प्रतिष्ठा की सामग्री बताई जा सकती है : श्रीफल १५०, केशर ५ तोला, देशी कपूर १० तोला, सरसों २ किलो, लच्छा १०० ग्राम, चाँवल ५ मन, खोपरा गोले ४००, बादाम २० किलो, लोंग १५० ग्राम, कमल गट्टा ३५ किलो, घृत २ डिब्बे, चाटू १५, दीपक ५० और ५ छोटे-बड़े, माचिस २ पुड़े, सफेद लट्ठा (परदे हेतु), सूत की माला २५, मण्डल पर चादर १, पर्दे की रस्सियाँ, सुतली १०० ग्राम, चाँवल चूरी ५ किलो, चौकी १५, पाटे ३०, सुपारी २ किलो, हल्दी गाँठ २ किलो, कुंकुम १ किलो, पिसी हल्दी १ किलो, बोर्ड लकड़ी के २, चाक मिट्टी १२, मुकुट इन्द्र-इन्द्राणी १५-१५, हार ३० गोटे के, इन्द्रों के पीले दुपट्टे, कुर्ते, नये धोती दुपट्टे (इन्द्रों के), जपवालों के धोती दुपट्टे, बनियान, पंचे, सुवर्ण शलाका १, कोयला १ थैला, कन्यायें ८ (पीली लुगड़ी पहने हुए), लौकान्तिक कुमार ८ (धोती दुपट्टेवाले), लालचोल १ गज, पीला कपड़ा १५ गज, मिश्री १५ ग्राम। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२३ ___ 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट मंगल द्रव्य १, मकराने का शिशु १, सोलह स्वप्न व राजमहल के पर्दे १, पूर्वभव १०, गर्भपेटी (मंजूषा) कंकोल ३ तो., खस २ तो., चाँदी छड़ी २, तलवार २, चंदन का पाटा १, चंदोवा २, मेनफल २५, शिला १, लोढ़ी छोटी १, पाषाण की षट्कोण शिला छोटी १, पंचरत्न पुड़ी १५, लाल सफेद चंदन की समिधा ५-५ कि., इलायची, खोपरा, हीराकणी ५, पारद ५ सीसी, मण्डल माँडने के रंग, मण्डल के तख्ते, अगर-तगर समिधा १-१ कि., तपेली घृत हेतु १०, पूजा की लम्बी टेबलें ५, चटाई (शीतल पट्टी) ४ व आसन डाभ के ३२, झारी शान्तिधारा को १, पूजा उपकरण, ईंटें स्थंडिल को १००, सूखी मिट्टी १५ कि., जल की कोठी १, परात १, तपेले २, हंडे २, विछायत, लालटेन २, बेदी २, चाँदी की डिब्बी, (केश रखने को), कलश मिट्टी के, विधिनायक प्रतिमा १ . ९ अंगुल सर्वधातु की, विधिनायक प्रतिमा के २ जोड़ी वस्त्र, आभूषण, मुकुट, कुण्डल, कड़े (हार), कोठरी २, परिचारक २, पुजारी २, हाथी, बाजे, झंडा, जपवाले ११, चाँदी के पुष्प, जलयात्रा कलश १०८, वेदी व शिखर के कलश, ध्वजदण्ड और ध्वजा, समवसरण, कैलाश या पावापुरी आदि की रचना, याग मण्डल रचना, चाँवल सफेद व पीले मण्डल के लिए मण्डल माँडने वाले २, वेदी प्रतिष्ठा को क्वाथ, सर्वोषधि । तीर्थ मृत्तिका, लम्बा दर्पण १, डाभ की कूँची २५, मेरु (पाण्डुक शिला) की रचना, दीक्षावन, बटवृक्ष, झण्डा १। मण्डप में तीन कटनी, चबूतरा, कोठार, स्नान-जप-पूजा द्रव्य धोने का स्थान, इन्द्रों के लिए ड्रेसिंग स्थल, रथयात्रा, राजसभा की सजावट, झूला १ (मय सजावट व रस्सी के)। ___ क्वाथ- शमी, पलाश, बेल, आम्र के सूखे पत्ते, अडूसा, सतावर, गिलोय, सहदेवी के सूखे पत्ते, चन्दन, श्रीखण्ड, अगर, अर्जुन; इनमें जो मिल सकें। नदी की मृत्तिका, सफेद सरसों, मौलश्री, अशोक, पीपल के सूखे पत्ते । उबटन- सफेद सरसों, जायफल, हल्दी पिसी, कंकोल, इलायची, जावित्री, लोंग, चन्दन चूरा, अगर-तगर का चूरा, कूट, सरसों।। दशांगधूप- सुगंध यंत्री, सुगंधबाला, सुगन्ध कोकिला, छवीला, कपूरकाचरी, गूगल, जटामासी, नागरमोथा, चन्दन लाल व सफेद, चन्दन चूरा। अष्टगंध- केशर, जावित्री, जायफल, अगर-तगर, लाल चन्दन, सफेद चन्दन, देशी कर्पूर सभी ४-४ आने भर वजन। पंचाश्चर्य- रत्न, पुष्पवर्षा, जल, देव दुन्दुभि के शब्द, जय-जय शब्द । प्रतिष्ठा में उपयोगी यन्त्र १. वेदी में - मूलनायक की प्रतिमा को विराजमान करते समय एवं पृथक यन्त्र । २. चौवीस महाराज मण्डल - पंचकल्याणक की पूजा के समय २४॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोठार कमरा -६६ ३६ F इन्द्राणियों के लिए पंडाल (३००x१६८) 2010_05 व्यवस्थापक प्रतिष्ठाचार्य 8 जाप हेतु 3 १२' याग मंडल हेतु ओटला १२ -३६' - १६८ पुरुष झंडा १ हाथ ३ हाथ तृतीय कटनी पर प्रतिष्ठित प्रतिबिम्ब द्वितीय कटनी पर प्रतिष्ठेय प्रतिबिम्ब प्रथम कटनी खाली २ हाथ २ हाथ रास्ता पूजा सामग्री स्नान- गृह -६६' ३०० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. मातृका यन्त्र - वेदी, गर्भकल्याणक में ४. विनायक - शान्ति जप व शान्ति धारा में ५. लघु सिद्ध यन्त्र - सिद्ध प्रतिष्ठा में ६. वृहत सिद्ध यन्त्र - स्वस्ति विधान मन्त्र आदि में ७. बोधि समाधि - तपकल्याणक में ८. गणधरवलय - आचार्यादि चरण प्रतिष्ठा में ९. नयनोन्मीलन - मन्त्र संस्कार में १०. मोक्षमार्ग- समवसरण में ११. वर्धमान - गर्भ व जन्म कल्याणक में १२. नंद्यावर्त स्वस्तिक - नांदी विधान व वेदी शुद्धि में १३. पूजा यन्त्र - रथयात्रा में १४. नक्शा - अंकन्यास का १५. त्रैलोक्यसार - गर्भादि कल्याणकों में नोट : दो यन्त्र मूल प्रतिमा विराजमान का व नंद्यावर्त चाँदी के । शेष ताँबे के यन्त्र रहेंगे। प्रतिष्ठा मण्डप आदि का निर्माण बिम्ब प्रतिष्ठा मण्डप का मुख पूर्व या उत्तर दिशा में रखा जावे। सामान्य रूप से ३०० फुट लम्बा १६८ फुट चौड़ा हो । उसमें २४ हाथ लम्बी चौड़ी वेदी (चबूतरा), २ से ४ हाथ तक ऊँची रखे । उसके मध्य में ८ हाथ लम्बी चौड़ी याग मण्डल की वेदी जिसकी ऊँचाई है रहे । इसी के सामने चबूतरे पर ४ तख्त बिछाकर समवशरण मण्डल माँडा जावे, भक्तामर या चौबीस महाराज का छोटा मण्डल माँडा जावे। यागमण्डल की वेदी के पीछे १ हाथ छोड़कर ३ कटनी बनवाएँ जिनमें २-२ हाथ चौड़ी और १-१ हाथ ऊँची तीनों रखें । दीवाल हाथी की सैंड के आकार की हो, जिसकी ऊँचाई ३|| हाथ ऊपर रखें। उक्त बड़ा चबूतरा कल्याणक दृश्य तथा राजमहल पर्दा, स्वप्न के दर्शन हेतु पक्का और ठोस बनवा कर उस पर पतरे लगवाना चाहिये । उसके पीछे चटाई या पतरों की ओट करके जाप्य-गृह, स्नान-गृह, द्रव्य धोने का स्थान, इन्द्र-इन्द्राणियों के वेशभूषा बदलने का स्थान निर्माण करावें तथा यहीं चारों ओर टीन का पक्का कोठार रहे । पास ही चौकीदार का पहरा आवश्यक है। मण्डप के आगे पीतवर्ण बड़े झण्डे का स्थान मण्डप से डेढ़ा या दुगुना काष्ठ का या पाईप ऊँचा लगाने को तीन कटनी ईंटों से मजबूत बनाई जावे। नोट : प्रतिष्ठा के २८, २१, १४, १०, ९ दिन पूर्व भी यह झण्डारोपण संकल्प के रूप में किया जाता है, इसी समय मण्डप मुहूर्त भी स्तंभारोपण के रूप में किया जाता है, जो आग्नेय या सूर्य के अनुसार दिशा में करें। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२५ 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डप में शांति यज्ञ के लिए ३ कुंड, पहला त्रिकोण, दूसरा चौकोर और तीसरा गोल तथा प्रत्येक की तीन-तीन कटनी जो क्रमशः नीचे से ५-४-३ अंगुल चौड़ी हो । सबकी गहराई १२ अंगुल जमीन में और १२ अंगुल ऊपर हो । तीनों के नाम सामान्य केवली, तीर्थंकर और गणधर कुण्ड हैं। उनकी अग्नि का नाम दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आह्वनीयाग्नि है। श्री जयसेनाचार्य (वसुबिन्दु) प्रतिष्ठा पाठ के श्लोक ३५१ से ३५९ तक इन होम कुण्डों का वर्णन है। यही अग्नि संस्कारपूर्वक हवन और श्लोक ४२१ के अनुसार जप मन्त्र का दशांग हवन बताया है । इन तीनों कुण्डों के स्थान में मिट्टी (ईंटों) का एक हाथ लम्बा-चौड़ा और चार अंगुल ऊँचा स्थंडिल बनाकर केवल कर्पूर व लाल सफेद चन्दन समिधा व अगर-तगर द्वारा कम-से-कम धूप व घृत से शान्ति यज्ञ होता है, जो सरल और शुद्धविधि है। मेह की पाण्डुक शिला प्रतिष्ठा मण्डप से उत्तर दिशा में इसका निर्माण करावें । ईंटों द्वारा नीचे जमीन से प्रथम कटनी ४ हाथ ऊँची, ८ हाथ चौड़ी गोलाकार, उसके ऊपर द्वितीय कटनी ३|| हाथ ऊँची, ४ हाथ चौड़ी गोलाकार, उसके ऊपर तृतीय कटनी २॥ हाथ ऊँची, १ हाथ चौड़ी गोलाकार । तीसरी कटनी के ऊपर मध्य में अभिषेक जल निकलने का गर्त रखें, जिसमें लोहे का नल नीचे तक फिट कर दें और नीचे की कटनी के नीचे भाग से एक टेढ़ा नल फिट करें । अभिषेक का जल उसके द्वारा समीप ही खड्डा रखकर उसमें जाता रहे और ऊपर से वह ढंका हो । पूर्व और पश्चिम में चढ़ने-उतरने की सीढ़ियाँ बनेंगी । पाण्डुक शिला के चारों ओर बड़े घेरे में हाथी तीन प्रदक्षिणा दे सकें, ऐसा स्थान छोड़ना चाहिये। दीक्षा वृक्ष विधिनायक भगवान् द्वारा तप कल्याणक के समय दिगम्बर मुनि दीक्षा किसी वन में ली जाती है, अतः उस वन में निम्नलिखित २४ तीर्थंकरों के दीक्षा वृक्षों में से यथासम्भव कोई भी वृक्ष होना चाहिये जिसके नीचे दीक्षा विधि हो सके। १. वट, २. सप्तपर्ण, ३. साल, ४. साल, ५. प्रियंगु (कंगनी), ६. प्रियंगु, ७. शिरीष, ८. नाग, ९. साल, १०. पलास (ढाक), ११. तेन्दू, १२. पाटल (गुलाब), १३. जम्बू, १४. पीपल, १५. दधिपर्ण, १६. नंदी, १७. तिलक, १८. आम्र, १९. अशोक, २०. चम्पक, २१. मौलश्री, २२. बाँस, २३. धव, २४. साल। यहीं चन्दोवा और तख्त, टेबलें आदि जमाकर दीक्षा विधि की जाती है। समवसरण रचना मण्डप में ज्ञान कल्याणक के समय समवसरण की रचना याग मण्डल के आगे वेदी पर करना चाहिये, जहाँ चार प्रतिमा विराजमान करते हैं और ज्ञान कल्याणक की पूजा व दिव्यध्वनि-उपदेश होता है। २६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - शान्ति यज्ञ कुण्ड व स्थंडिल - गणधर कुण्डेआहनीययाग्नि तीर्थंकर कुण्डेगार्हपत्याग्नि सामान्य केवली कुण्डे दक्षिणाग्नि - सादा चौकोर स्थंडिल ८ मिट्टी की ईंटों से निर्मित करें। १ हाथ लम्बा, १ हाथ चौड़ा व ४ अंगुल ऊँचा ऊपर पीली मिट्टी बिछावें। 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - munoonr - - - .५.२५' ::::::::: ::: :::: पाण्डुक शिला 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धक्षेत्र रचना व सिद्ध प्रतिमा निर्वाण भक्ति हेतु भगवान् का ध्यानयोग उनके निर्वाण स्थान सम्मेदशिखरजी, कैलाशपर्वत, गिरनार, पावापुरी या चम्पापुरी में से जहाँ से मोक्ष हुआ हो, उस पर्वत या स्थान की रचना प्रतिष्ठा वेदी पर करना चाहिये । ध्यान रहे हमारे विधिनायक या मूलनायक अरहंत परमेष्ठी हैं। जिन मन्दिरों में विराजमान चिह्नवाली जितनी प्रतिमाएँ हैं वे सब अरहंत परमेष्ठी की हैं । सिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमा के सम्बन्ध में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ व अन्य में लिखा है - सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपियोज्या, तत्प्रातिहार्यादिविना तथैव। आचार्य सत्पाठकसाधु सिद्धक्षेत्रादिकानामपि भाववृद्ध्यै ॥१८१॥ (जयसेन प्रतिष्ठा, पृष्ठ ४४) सिद्ध भगवान् की प्रतिमा, अर्हन्त प्रतिमा के समान ही निर्माण कराना चाहिये, किन्तु उसमें प्रातिहार्य आदि (चिन्ह) नहीं होते । शेष आचार्य आदि की प्रतिमा यथायोग्य भाव वृद्धि के लिए निर्माण करावे। सिद्ध प्रतिमा सांगोपांग होने से ही नेत्रोन्मीलन आदि विधि हो सकती है। पोलाकार प्रतिमा सिद्ध का स्वरूप समझने के लिए है। सर्वत्र मन्दिरों में ऐसी पोलाकार प्रतिमाएँ भी उपलब्ध होती हैं । सिद्ध प्रतिमा में चिन्ह के स्थान पर 'सिद्ध प्रतिमा' खुदवा देना चाहिये, सिद्ध प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि आगे पृथक् ही बताई गई है। यों सिद्धपूजा सिद्धयन्त्र के माध्यम से होती है। ___ निर्वाण कल्याणक में सामान्य रूप से निर्वाण-भक्ति का पाठ करके समझाने को प्रदर्शन किया जाता है, किन्तु अग्नि संस्कार का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये । बाकी मन्त्र संस्कार भी नहीं होता है क्योंकि हमें प्रतिष्ठेय प्रतिमाओं को अर्हन्त रूप में विराजमान करना है। प्रतिष्ठा हेतु गुरु आज्ञालंभन व प्रतिष्ठाचार्य से निवेदन जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार आचार्य निमंत्रण नहीं होता है। वहाँ श्री दिगम्बर गुरु का प्रतिष्ठा महोत्सव में होना आवश्यक बताया है। प्रातः यज्ञनायक आदि उनके समीप जाकर उनकी पूजा कर उनसे प्रार्थना करें कि हे अकारण बंधो! पूर्वोपार्जित पुण्य से हमने यह आर्यदेश, मनुष्य भव, उत्तमकुल और उच्चगोत्र प्राप्त किया है, व हमने न्यायोपार्जित धन द्वारा जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव करने का विचार किया है । इस चंचल लक्ष्मी और अनित्य शरीर, कुटुम्ब आदि को जानकर इस संकल्प की पूर्ति हेतु आपका आशीर्वाद चाहते हैं । तब गुरुदेव उनको व्रत ग्रहण करावें, जिसमें ब्रह्मचर्य एवं कषाय त्याग, पंक्ति भोजन त्याग आदि प्रतिष्ठा हेतु सामयिक नियम करावें । इसी अवसर पर प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थ श्रोत्रिय (पृष्ठ ६२, श्लोक ५५) जिन्हें हम प्रतिष्ठाचार्य बनावें, उनसे भी प्रतिष्ठाचार्य पद की स्वीकृति के लिए निवेदन करें । वे इन्द्र-प्रतिष्ठा, जिसके अन्तर्गत नांदी विधान है, करावें । यहाँ प्रतिष्ठाचार्य को भेंट दी जाना चाहिये। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२७ 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाष्टक अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धश्वराः, आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः । श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा, रत्नत्रयाराधकाः । पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु ते मंगलम् ।। अथवा-श्रीमन्नम्र- सुरासुरेन्द्र- मुकुट- प्रद्योतरत्न-प्रभा . भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधाववस्थायिनः । ये सर्वे जिन सिद्ध सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः, स्तुत्या योगिजनेश्च पञ्चगुरवः, कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥१॥ सम्यग्दर्शन बोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं । मुक्तिश्री नगराधिनाथ जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः ॥ धर्मः सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्यालयं । प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥२॥ नाभेयादिजिनाः प्रशस्तवदनाः, ख्याताश्चतुर्विंशतिः । श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश || ये विष्णु प्रतिविष्णु लांगलधराः, सप्तोत्तरा विंशतिः । त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्ठिपुरुषाः, कुर्वन्तु ते मंगलम् ||३|| ये सौषधिऋद्धयः श्रुततपो वृद्धिंगताः पञ्च ये । ये चाष्टांग महानिमित्तकुशलाश्चाष्टौ विधाश्चारिणः ॥ पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो, ये बुद्धिऋद्धीश्वराः । सर्वैते सकलार्चिता मुनिवराः, कुर्वन्तु ते मंगलम् ||४|| कैलाशो वृषभस्य निर्वृतिमही, वीरस्य पावापुरी । चम्पा वा वसुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदशैलोऽर्हताम् ॥ शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरी, नेमीश्वरस्याहतो । निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः, कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥५॥ ज्योतिर्व्यन्तर भावनामरगृहे, मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः । जम्बूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा, वक्षाररौप्याद्रिषु ।। इष्वाकार गिरौ च कुण्डलनगे, द्वीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः, कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥६॥ सर्पो हारलताभवत्यसिलता, सत्पुष्पदामायते । सम्पद्येत रसायनं विषमपि, प्रीतिं विधत्ते रिपुः ।। २८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः, किं वा बहु ब्रूमहे । धर्मादेव नभोऽपि वर्षतितरां, कुर्यात्सदा मंगलम् ||७|| यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां, जन्माभिषेकोत्सवो । यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो, यः केवलज्ञानभाक् ।। यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा, सम्पादितः स्वर्गिभिः । कल्याणानि च तानि पंच सततं, कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।८| इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं, सौभाग्यसम्पत्करं । कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणा मुषः ।। ये श्रृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः, धर्मार्थकामान्विता । लक्ष्मीराध्रियते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥९|| विनायक यन्त्र पूजा विधि यत्राभिषेक मध्ये तेजस्ततः स्याद्, बलयमथधनुः संख्यकोष्ठेषु पंच । पूज्यान् संस्थाप्य वृत्ते, तत उपरितने, द्वादशाम्भोरुहाणि ॥ तत्र स्युर्मंगला-न्युत्तमशरणपदान्, पंच पूज्यामरर्षीन् । धर्म प्रख्यातिभाज-स्त्रिभुवन पतिना, वेष्टयेदं कुशाढ्यम् ॥ ॐ हीं भूर्भुवः स्वरिह एतद् विघ्नौघवारकं यन्नं वयं परिषिञ्चयामः । पूजा प्रारंभ ॐ जय जय जय | नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ (ॐ हीं अनादि मूल मंत्रेभ्यो नमः) (पुष्पांजलिं क्षिपामि)। चत्तारि मंगलं, अरिहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहन्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पटवज्जामि, अरिहन्ते सरणं पटवज्जामि, सिद्धे सरणं पटवज्जामि, साहू सरणं पटवज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पटवज्जामि । ॐ नमोऽहंत स्वाहा (पुष्पांजलि क्षिपामि)। अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्यायेत् पंच-नमस्कारं, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं, स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ।।२।। अपराजित - मन्त्रोऽयं, सर्व - विघ्न - विनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मतः ||३|| [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२९ 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसो पंच णमोयारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम होई मंगलं ।।४।। अर्ह - मित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।।५।। कर्माष्टक - विनिर्मुक्तं, मोक्षलक्ष्मीनिकेतनम् । सम्यक्त्वादि - गुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ।।६।। विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी - भूतपन्नगाः । विषं निर्विषतां-याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ।।७।। (इति पुष्पांजलिं क्षिपामि) पंचकल्याणक अर्घ्य उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घकैः । धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे कल्याणमहं यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री भगवतो गर्भजठमतपज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणक प्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य उदक - चंदन - तंदुल - पुष्पकैश्चरु - सुदीप - सुधूप - फलार्घकैः । धवल - मंगल - गान - रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री अर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । सहस्रनाम का अर्घ्य उदक - चंदन - तंदुल - पुष्पकैश्चरु - सुदीप - सुधूप - फलार्घकैः । धवल - मंगल · गान - रवाकुले जिनगृहे जिननाम यजामहे ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन सहस्रनामध्येयेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा॥ श्री मज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशं, स्याद्वादनायक मनन्तचतुष्टयाहँ । श्री मूलसंघसुदृशां सुकृतैक हेतुः, जैनेन्द्र यज्ञ विधिरेष मयाभ्यधायि ।। स्वस्ति त्रिलोक गुरवे जिनपुंगवाय, स्वस्ति स्वभाव महिमोदय सुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाश सहजोजित दृङ्मयाय, स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुतवैभवाय ।। स्वस्त्यच्छलद्विमल बोध सुधाप्लवाय, स्वस्ति स्वभाव परभावविभासकाय। स्वस्ति त्रिलोक विततैकचिदुद्गमाय, स्वस्ति त्रिकाल सकलायतविस्तृताय ।। द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः । आलंबनानि विविधान्यवलंब्य वल्गन्, भूतार्थ यज्ञ पुरुषस्य करोमि यज्ञं । अर्हत् पुराणपुरुषोत्तम पावनानि, वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव । अस्मिन्ज्वलद्विमल केवल बोधवह्नौ, पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि । (पुष्पांजलिं क्षिपामि) ३०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्ति मंगलविधानम् श्री वृषभो नः स्वस्ति स्वस्ति श्री अजितः । श्री संभवः स्वस्ति स्वस्ति श्री अभिनंदनः ।। श्री सुमतिः स्वस्ति स्वस्ति श्री पद्मप्रभः । श्री सुपार्श्वः स्वस्ति स्वस्ति श्री चन्द्रप्रभः ॥ श्री पुष्पदंतः स्वस्ति स्वस्ति श्री शीतलः । श्री श्रेयान् स्वस्ति स्वस्ति श्री वासुपूज्यः । श्री विमलः स्वस्ति स्वस्ति श्री अनंतः । श्री धर्मः स्वस्ति स्वस्तिः श्री शांतिः ॥ श्री कुंथुः स्वस्ति स्वस्ति श्री अरनाथः । श्री मल्लिः स्वस्ति स्वस्ति श्री मुनिसुव्रतः ।। श्री नमिः स्वस्ति स्वस्ति श्री नेमिनाथः । श्री पार्श्वः स्वस्ति स्वस्ति श्री वर्द्धमानः ।। (पुष्पांजलिं क्षिपामि) नित्याप्रकंपाद्भुत केवलौघाः स्फुरन्मनः पर्यय शुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञान बलप्रबोधाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ।।१।। कोष्ठस्थ धान्योपममेकबीजं संभिन्न संश्रोत पदानुसारि ।। चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥२॥ संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरा - दास्वादनघ्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञान बलाद्वहन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयोः नः ॥३॥ प्रज्ञा प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः प्रत्येक बुद्धा दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्त विज्ञाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥४॥ जंघावलि श्रेणि फलांबु तंतु प्रसूनबीजांकुर चारणाह्वाः । नभोङ्गण स्वैरविहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥५।। अणिम्नि दक्षाः कुशला महिम्नि लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि। मनो वपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥६।। सकामरूपित्व वशित्वमैश्यं प्राकाम्यमंतर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः । तथाऽप्रतीघात गुण प्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥७॥ प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं घोरं तपोघोरपराक्रमस्थाः । ब्रह्मापरं घोरगुणं चरन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ।।८।। आमर्ष सर्वोषधयस्तथाशी विषंविषा दृष्टि विषंविषाश्च ।। सखेल्लविड्जल्लमलौशधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥ क्षीरं सवन्तोऽत्र घृतं सवन्तो मधुस्रवन्तोऽप्यमृतं सवन्तः ।। अक्षीणसंवास महानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥ (इति परमर्षि स्वस्ति मंगल विधानम्) जल परम उज्ज्व ल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरों । वर धूप निर्मल फैल विविध, बहु जन्म के पातक हरों ।। इह भाँति अर्घ्य चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मचों । अरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु, निर्ग्रन्थ नित पूजा रचों ॥ दोहा वसुविध अर्घ्य संजोय के, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा। जलफल आठों दर्व, अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनि ह्तै, थुति पूरी न करी है ॥ द्यानत सेवक जानके, (हो) जगते लेहु निकार । सीमन्धर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जहाज । ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरादि विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । यावन्ति जिन-चैत्यानि, विद्न्ते भुवन-त्रये । तावन्ति सततं भक्त्या, त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ।। ॐ ही श्री त्रिलोक संबंधि कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । नवदेवपूजन अरिहन्त सिद्धसाधु-त्रितयं, जिनधर्म-बिम्ब-वचनानि । जिननिलयान् नवदेवान्, संस्थापये भावतो नित्यम् ।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ३२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये घाति-जाति-प्रतिघाति जार्त, शक्राद्यलडघ्यं जगदेकसारम् प्रपेदिरेऽनन्त चतुष्टयं तान्, यजे जिनेन्द्रानिह कर्णिकायाम् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यम्। निःशेषबन्धक्षयलब्ध शुद्ध-बुद्धस्वभावान्निजसौख्यवृद्धान् । आराधये पूर्व दले सुसिद्धान्, स्वात्मोपलब्ध्यै स्फुटमष्टधेष्ट्या ।।२।। ॐ ह्रीं श्री सिद्ध परमेष्ठिने अय॑म् । ये पञ्चाधाचारमरं मुमुक्षू-नाचारयन्ति स्वयमा-चरन्तः । अभ्यर्चये दक्षिणदिग्दले ता-नाचार्यवर्यान्स्वपरार्थ चर्यान् ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य परमेष्ठिने अय॑म् । येषामुपान्त्यं समुपेत्य शास्त्र-ण्यधीयते मुक्तिकृते विनेयाः । अपश्चिमान्पश्चिमदिग्दलेस्मिन्-नमूनुपाध्यायगुरुन्महामि ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री उपाध्याय परमेष्ठिने अय॑म् ।। ध्यानैकतानानबहिः प्रचारान्, सर्वसहान् निर्वृति साधनार्थ । सम्पूजयाम्युत्तरदिग्दलेतान्, साधूनशेषान् गुणशीलसिन्धून् ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठिने अर्घ्यम् । आराधकानभ्युदये समस्तान्, निःश्रेयसे वा धरति ध्रुवं यः । तं धर्ममाग्नेय विदिग्दलान्ते, सम्पूजये केवलिनोपदिष्टम् ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री जिन धर्माय अय॑म् । सुनिश्चिता सम्भवबाधकत्वात्, प्रमाण भूतं सनयप्रमाणम् । यजे हि नानाष्टकभेदवेदं, मत्यादिकं नैऋतकोण पत्रे ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री जिनागमाय अय॑म् । व्यपेत भूषायुध-वेशदोषान्, उपेत-निःसङ्गत-यार्द्रमूर्तीन् । जिनेन्द्र बिम्बान्भुवनत्रयस्थान, समर्चये वायुविदिग्वदलेऽस्मिन् ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यन् । शालत्रयान्सद्मनि केतुमान-स्तम्भालयान्मगल-मङ्गलाढयान्। गृहान् जिनानामकृतान्कृतांश्च, भूतेशकोणस्थदले यजामि ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री जिन चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यम् । मध्ये . कर्णिकमर्हदार्यमनघं - बाह्येऽष्टपत्रोदरे । सिद्धान् सूरिवरांश्च पाठकगुरून्, साधूंश्च दिक्पत्रगान् ।। सद्धर्मागम-चैत्य-चैत्य-निलायान्, कोणस्थदिक्पत्रगान् । भक्त्या सर्वसुरासुरेन्द्र महितान्, तानष्टधेष्ट्या भजे ॥१०॥ ॐ हीं श्री अर्हदादिनवदेवेभ्यः पूर्णाऽय॑म् । [प्रतिष्ठा-प्रदीप [३३ 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं श्री असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूताः । अत्रावतरतात्रावतरत संवौषट् । ॐ ह्रीं असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूताः । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । ॐ ह्रीं असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूताः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । अथाष्टकम् पंके रुहायातपराग-पुञ्जैः, सौगन्ध्यवद्भिः सलिलैः पवित्रैः । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि 11 ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः जलम् । काश्मीर- कर्पूर-कृतद्रवेण, संसार तापापहृतौ युतेन । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि 11 ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः चन्दनम् । शाल्यक्षतैरक्षत- मूर्तिमद्भि- रब्जादिवासेन सुगन्धवद्भिः । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि 11 विनायक यन्त्र पूजा परमेष्ठिन् ! जगत्त्राण - करणे मङ्गलोत्तम ! इतः शरण ! तिष्ठ त्वं, सन्निधौ भव पावन ! ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः अक्षतान् । कदम्बजात्यादि भवै सुरद्रुमै, जतैिर्मनोजातविपाशदक्षैः । अर्हत्पदाभाषित- मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि || ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः पुष्पम् । पीयूषपिण्डैश्च शशांक कांति स्पर्धाभिविष्टैर्नयनप्रियैश्च । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि || ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः नैवेद्यम् । ध्वस्तान्धकार प्रसरैः सुदीपै, घृतोद्भवैः रत्नविनिर्मितैर्वा । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि || ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः दीपम् । स्वकीय धूमेन नभोऽवकाशं संख्याप्नुवद्भिश्च सुगन्धधूपैः । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः धूपम् । नारङ्ग पूगादि फलै रन, र्हृन्मानसादिप्रियतर्पकैश्च । अर्हत्पदाभाषित-मङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि 11 ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः फलम् । ३४ ] 2010_05 - [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छाम्भः 1 दीपैर्धूप शुचि चन्दनाक्षतसुमै-नैर्वेद्यकैश्चारुभिः फलोत्तमैः समुदितैरेभिः सुपात्रस्थितैः 11 अर्हत्सिद्ध सुसूरिपाठक मुनीन्, लोकोत्तमान् मङ्गलान् । प्रत्यूहौघनिवृत्तये शुभकृतः, सेवे शरण्यानहम् ॐ ह्रीं श्री मङ्गलोत्तम शरणभूतेभ्यः पञ्च परमेष्ठिभ्यः अर्घ्यम् । प्रत्येक पूजनम् || कल्याण पञ्चक- कृतोदयमाप्त-मीश- मर्हन्त मच्युतचतुष्टय- भासुराङ्गम् । स्याद्वादवागमृत-सिन्धुशशांक-कोटि- मर्चे जलादिभि - रनन्त गुणालयं तम् ||१|| ॐ ह्रीं श्री अनन्त चतुष्टयादिलक्ष्मी बिभ्रतॆऽर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यम् । कर्माष्टकेघ्म-चय-मुत्पथमाशु हुत्वा, सद्ध्यानवह्निविसरे स्वयमात्मवन्तम् । निश्रेयसामृत - ‍ - सरस्यथ सन्निनाय, तं सिद्ध मुच्चपददं परिपूजयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टकर्मकाष्ठगणभस्मीकृते श्री सिद्ध परमेष्ठिने अर्घ्यम् । स्वाचार-पञ्चक-मपि स्वय- माचरन्तः, ह्याचारयन्ति भविका न्निजशुद्धि-भाजः । तानर्चयामि विविधैः सलिलादिभिश्च, प्रत्यूहनाशनविधौ निपुणान् पवित्रैः ||३|| ॐ ह्रीं पञ्चाचार परायणाय आचार्य परमेष्ठिने अर्घ्यम् । अङ्गाङ्ग बाह्यपरिपाठन- लालसाना-मष्टाङ्ग ज्ञानपरिशीलन - भावितानाम् । पादारविन्दयुगलं खलु पाठकानां, शुद्धैर्जलादिवसुभिः परिपूजयामि ||४|| ॐ ह्रीं श्री द्वादशाङ्ग पठन पाठनोद्यताय उपाध्याय परमेष्ठिने अर्घ्यम् । आराधना सुख विलास - महेश्वराणां सद्धर्म्मलक्षण-मयात्मविकस्वराणाम् । स्तोतुं गुणान् गिरिवनादि निवास भाजाम्, एषोऽर्घतश्चरण पीठ भुवं यजामि ||५|| ॐ ह्रीं त्रयोदश प्रकार चारित्राराधक साधु परमेष्ठिने अर्घ्यम् । अर्हन्मंगलमर्चामिजगन्मंगल दायकं I प्रारब्ध कर्म विघ्नौघ प्रलय प्रदमन्मुखैः ||६|| ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलायार्घ्यम् | चिदानन्दलसद्वीचि मालिनं गुण शालिनं । सिद्ध मंगल मर्चेऽहं सलिलादिभिरुज्वलैः ||७|| ॐ ह्रीं सिद्धमंगलायार्घ्यम् । बुद्धि क्रियारसतपो विक्रियौषधि मुख्यकाः । ऋद्धयो यं न मोहन्ति, साधुमंगल मर्चये ॥८॥ ॐ ह्रीं साधु मंगलायार्घ्यम् । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ ३५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] लोकालोक स्वरूपज्ञं प्रज्ञप्तं धर्म मंगल । अर्चेवादित्र निर्घोष पूरिताशं वनादिभिः ||९|| ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्म मंगलायार्घ्यम् । लोकोत्तमोऽर्हन् जगतां भवबाधाविनाशकः । अर्घ्यतेऽर्येण स मया कुकर्मगणहानये ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री अहल्लोकोत्तमायार्घ्यम् । विश्वाग्रशिखर स्थायी, सिद्धो लोकोत्तमो मया । मह्यते महासामन्द- चिदानन्द सुमेदुरः ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धलोकोत्तमायार्घ्यम् । रागद्वेष-परित्यागी, साम्य भावाव- बोधकः । साधुलोकात्तमोऽर्येण, पूज्यते सलिलादिभिः ||१२|| ॐ ह्रीं श्री साधुलोकोत्तमायार्घ्यम् । उत्तमक्षमया भास्वान्, सद्धर्मो विष्टपोत्तमः । अनन्तसुख-संस्थानं, यज्यतेऽम्भः सुमादिभिः ||१३|| ॐ ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्तधर्म लोकोत्तमायार्घ्यम् । सदाह शरणमन्ये, नान्यथा शरणं मम I इति भावविशुद्धयर्थम्, अर्हयामि जलादिभिः ||१४|| ॐ ह्रीं श्री अर्हच्छरणायार्घ्यम् । ब्रजामि सिद्धशरणं, परावर्तन पञ्चकम् । भित्त्वा स्वसुखसन्दोह सम्पन्नमिति पूजये ॥ १५ ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धशरणायार्घ्यम् । 2010_05 आश्रये साधुशरणं, सिद्धान्त प्रतिपादनैः । न्यक्कृताज्ञान तिमिरमिति शुद्धया यजामि तम् ||१६|| ॐ ह्रीं श्री साधुशरणायार्घ्यम् । धर्म एव सदा बन्धुः, स एव शरणं मम । इह वान्यत्र संसारे इति तं पूज्येधुना ||१७|| ॐ ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्तधर्म शरणायार्घ्यम् । संसारदुःखहनने निपुणं जनानां । नाद्यन्तचक्रमिति सप्तदशप्रमाणम् ॥ सम्पूजये विविध भक्तिभरावनम्रः । शान्तिप्रदं भुवनमुख्यपदार्थसार्थैः ||१८|| ॐ ह्रीं श्री अर्हदादिसप्तदशमन्त्रेभ्यः समुदायार्घ्यम् । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला विघ्नप्रणाशनविधौ सुरमर्त्यनाथा, अग्रेसरं जिन वदन्ति भवन्तमिष्टम् । आनाद्यनन्तयुगवर्तिनमत्र कार्ये । विघ्नौघवारणकृतेऽहमपि स्मरामि ॥१॥ गणानां मुनीनामधीशत्वतस्ते । गणेशाख्यया ये भवन्तं स्तुवन्ति । तदा विघ्न संदोह शांतिर्जनानां । करे संलुठत्यायतक्षेमकानाम् ॥२॥ तव प्रसादात् जगतांसुखानि, स्वयं समायान्ति न चात्रचित्रम् ।। सूर्योदये नाथमुपैति नूनं, नमो विशालं प्रवलं च लोके ॥३|| कलेः प्रभावात्कलुषाशयस्य जनेषु मिथ्यामदवासितेषु । प्रवर्तितोऽन्यो गणराजनाम्ना कथं स कुर्याद् भव वार्धिशोषम् ॥४॥ यो दृक्सुधातोषित भव्यजीवो, यो ज्ञान पीयूष पयोधितुल्यः । यो वृत्तदूरी . कृतपापपुञ्जः स एव मान्यो गणराजनाम्ना ॥५|| यतस्त्वमेवासि विनायको मे दृष्टेष्टयोगादविरुद्धवाचः । त्वन्नाममात्रेण पराभवन्ति, विघ्नारयस्तर्हि किमत्र चित्रम् ॥६॥ जय जय जिनराज त्वद्गुणान् को व्यनक्ति, यदि सुरगुरुरिन्द्रः कोटि-वर्ष-प्रमाणं ।। वदितुमभिलषेद्वा पारमाप्नोति नो चेत्, कथमिव हि मनुष्यः, स्वल्पबुद्धया समेतः ।।७।। ॐ ह्रीं श्री मंगलोत्तम शरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यो जयमालाऽर्घ्यम् । श्रियं बुद्धिमनाकुल्यं, धर्मप्रीति विवर्धनम् । जिनधर्मे स्थिति याच्छेयो मे दिशतु त्वरा ॥८॥ (इत्याशीर्वादः) नोटः उक्त पूजा करके नीचे लिखे अनुसार शान्ति जप की विधि करावें। शान्ति जप विधि मंगल कलश स्थापन ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्री मदादिब्रह्मणो मतेऽस्मिन् मांगलिक कार्ये श्री वीर निर्वाण संवत्सरे ...... तमे ...... मासे, ...... पक्ष, ...... तिथौ, ...... दिने जंबूद्वीपे भरत क्षेत्रो आर्य देशे ...... नगरे ...... प्रतिष्ठोत्सवे ...... कार्यस्त निर्विघ्न समाप्त्यर्थं मण्डपभूमिशुद्धयर्थ पात्रशुद्धयर्थं शान्त्यर्थं पुण्याहवाचनार्थं नवरत्न-गन्ध-पुष्पाक्षतादि-बीजपूरशोभितं विघ्न निवारणार्थं मंगल कलश स्थापनं करोमि इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । __ यह मन्त्र पढ़कर एक सफेद कलश (बिना जल का) में सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों रखकर ऊपर श्रीफल लाल चोल से ढक कर लच्छा से बाँध कर विनायक यन्त्र के समीप चौकी पर प्रमुख व्यक्ति से स्थापित करावें । वहीं अखण्ड दीपक स्थापित करावें । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ ३७ 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपक स्थापन (ऊपर ढक्कन काँच वाला रखें) रुचिरदीप्तिकरं शुभदीपकं सकललोक सुखाकरमुज्ज्वलम् । तिमिर जालहरं प्रकरं सदा किल धरामि सुमंगलकं मुदा ॥ ॐ अज्ञानतिमिर हरं दीपकं स्थापयामि | अंगन्यास एवं सकलीकरण मनः प्रसत्यै वचसः प्रसत्यै काय प्रसत्यै च कषाय हानिः । सैवार्थतः स्यात्सकली क्रियान्या मन्त्रैरूदारैः कृतिकल्पनांगा ॥ ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय सं सं क्लीं क्लीं ट्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय हं सं इवीं क्ष्वी हंसः स्वाहा। उक्त मन्त्र से सीधे हाथ में जल लेकर शरीर व सिर पर छिड़कें । ॐ हां ही हूं हौं हः अ सि आ उ सा सर्वांग शुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । इस मन्त्र से जल द्वारा सर्वांग शुद्धि करावें । यहाँ सिद्ध, श्रुत, चारित्र, भक्ति पाठ कर कायोत्सर्ग करें। ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं हां अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ हूं णमो आइरियाणं हूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं हौं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः णमो लोए सवसाहणं हः कनिष्ठिकाभ्यां नमः । १. ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः कर तलाभ्यां नमः २. ॐ ह्रां ह्रीं हुं ह्रौं हः कर पष्ठाभ्यां नमः उक्त मन्त्र उच्चारण करके क्रम से दोनों हाथ के अंगूठों आदि को मिला कर शुद्ध करें। ॐ हू डूं फट् किरिटि किरिटि घातय घातय परिविघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहप्रखण्डान् कुरु कुरु परमुद्रां छिन्धि छिन्धि परमन्त्रान् भिन्धि भिन्धि क्षः क्षःहूं फट् स्वाहा । ___ उक्त रक्षामन्त्र से सरसों मंत्रित कर सर्व पात्रों को दे देवें, जिससे वे सरसों क्षेपण करें। ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं ह्रां मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं मम वदनं (मुख) रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ हूं णमो आइरियाणं हूं मम हृदयं रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ह्रौं मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा । ३८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं ह्रः मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्रां णमों अरिहंताणं ह्रां मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं मम वस्त्रं रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ हूं णमो आइरियाणं हूं मम पूजाद्रव्यं रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ह्रौं मम स्थलं रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ ह्रः णमो लोए सव्व साहूणं ह्रः सर्व जगत् रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ क्षां क्षीं हूं क्षौं क्षः ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः सर्व विघ्न निवारणं कुरु कुरु स्वाहा । नव (९) बार णमोकार मन्त्र पढ़ें। ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं ह्रां पूर्व दिशात आगत विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं दक्षिण दिशात आगत विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ हूं णमो आइरियाणं हूं पश्चिम दिशात आगत विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ह्रौं उत्तर दिशात आगत विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं हः सर्व दिशात आगत विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ नमोऽर्हते सर्व रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । सरसों को ७ बार मन्त्रित कर परिचारकों पर क्षेपण करें। नोट- यह अंगन्यास, सकलीकरण व इन्द्र प्रतिष्ठा शान्ति जप आदि के अवसर पर भी उपयोग में लिया जावे। तिलक मन्त्र मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ।। यज्ञोपवीत मन्त्र ॐ हीं यज्ञ चिह्न यज्ञोपवीतं दधामि। रक्षा बंधन मन्त्र ॐ ह्रां ही हूं हौं हः असि आ उ सा सर्वोपद्रवशान्तिं कुरु कुरु । ॐ नमोऽहते भगवते तीर्थंकर परमेश्वराय कर पल्लवे रक्षाबंधनं करोमि एतस्य समृद्धिरस्तु। ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः स्वाहा | __ संकल्प श्री निर्जरस्य द्विपचक्र पूर्वं श्री पादपंकेरुयुग्ममीशम् । श्री वर्द्धमानं प्रणिपत्य भक्त्या संकल्प चित्तं कथयामि सिद्धयै। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [३९ 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ जम्बूद्वीपे भरत क्षेत्रे आर्यखण्डे भारत देशे प्रांते...... नगरे...... मासे.. पक्षे...... तिथौ ...... वासरे.... वीर निर्वाण संवत्सरे..... तमे दिनांक...... जैन मन्दिर वेदी प्रतिष्ठा कार्यस्य निर्विघ्न समाप्त्यर्थं एतस्य मन्त्रस्य...... जाप्यानि अद्य प्रभृति पर्यन्तं करिष्यामः इति संकल्पं कुर्मः सर्व शान्तिर्भवतु अर्हं नमः स्वाहा | तिथि सीधे हाथ में जल, सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों लेकर उक्त मन्त्र पढ़ कर सामने पाटे पर छोड़ें । शान्ति में कागज पर सबको मन्त्र लिख कर देवें । जप वालों से पढ़वा कर देख लेवें । उन्हें रात्रि को चारों प्रकार का आहार त्याग, एक बार शुद्ध भोजन व ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने का नियम करावें । प्रातः और शाम को दिन में ही दो बार एक साथ जप में सम्मिलित हों । माला के १०८ दानों को १ माला मान कर गिनती मालाओं की करें। जैसे २१००० का संकल्प किया हो तो २१० मालाएँ सब मिला कर जपेंगे । दीपक सीधे हाथ की ओर, धूपदान बायीं ओर रखें। जप का आसन, सूत की माला, लोंग माला की गणना हेतु रखें । धूप अग्नि में कभी-कभी सीधे हाथ से खेते रहें। एक बड़े पुट्ठे पर सब का नाम लिख कर मालाओं की गणना का हिसाब प्रतिदिन लिखते रहें । पूर्व या उत्तर दिशा में जप वालों का मुख रहे। कभी पश्चिम दिशा में भी रख सकते हैं। दक्षिण वर्जित है । अन्त में २१००० का दशांश मन्त्रों का हवन होगा, जो सब मिला कर पूरा करेंगे। महिलाएँ शान्ति जप में सम्मिलित नहीं होतीं । शान्ति यज्ञ में सौभाग्यवती सम्मिलित होती हैं । मण्डप शुद्धि ॐ क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षः प्रतिष्ठा मण्डप - वेदी प्रभृति स्थानानां शुद्धिं कुर्मः । इस मन्त्र से ९ बार जल मन्त्रित कर चारों ओर छिड़क देवें । पश्चात् पूजा करने वालों पर शुद्धि हेतु पुष्प क्षेपण कर मण्डप शुद्धि करावें । पूजकों में ही देवों की स्थापना करें । विनायक यन्त्र स्थापन कर पूजा करावें । निम्न प्रकार मन्त्रोच्चारण करें और पूजकों पर पुष्प क्षेपण करें ४० ] चतुर्णिकायामर संघ एष आगत्य यज्ञे विधिना नियोगम् । स्वीकृत्य भक्त्या हि यथार्ह देशे सुस्था भवन्त्वाह्निककल्पनायाम् ||१|| चतुर्णिकाय देवाः स्वनियोगं कुरुत कुरुत | (पुष्प क्षेपण) आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः संघद्द संलसित निर्मलतान्तरीक्षा | वात्यादिदोषपरिभूतवसुन्धरायां प्रत्यूहकर्मनिखिलं परिमार्जयन्तु ॥२॥ वातकुमार देवा: स्थानशुद्धयर्थं स्वनियोगं कुरुत कुरुत स्वाहा | (डाभ कूंची से हवा) 2010_05 [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयात वास्तुविधिषूद्भट संनिवेशा, योग्यांशभाग परिपुष्टवपुःप्रदेशाः । अस्मिन् मखे रुचिर सुस्थित भूषणांके सुस्था यथार्हविधिना जिनभक्तिभाजः ॥३॥ वास्तु कुमार देवाः प्रतिष्ठा स्थान शुद्धयर्थं स्वनियोगं कुरुत कुरुत स्वाहा। (पुष्प क्षेपण करावें) आयात निर्मलनभःकृतसंनिवेशा मेघाः सुराः प्रमदभारनमच्छिरस्काः । अस्मिन्मखे विकृत विक्रियया नितान्ते सुस्था भवन्तु जिनभक्तिमुदाहरन्तु ॥४॥ मेघकुमार देवाः प्रतिष्ठा स्थान शुद्धयर्थं स्वनियोगं कुरुत कुरुत स्वाहा । (डाभकूची से जल क्षेपण) आयात पावकसुराः सुरराज पूज्य संस्थापनाविधिषु संस्कृतविक्रियाहर्हाः । स्थाने यथोचितकृते परिबद्ध कक्षाः सन्तु श्रियं लभत पुण्यसमानभाजाम् ॥५॥ अग्निकुमार देवाः प्रतिष्ठा स्थान शुद्धयर्थ स्वनियोगं कुरुत कुरुत स्वाहा। (रकेबी में कर्पूर जला कर कटनी पर रखें) नागाः समाविशत भूतलसंनिवेशाः स्वां भक्ति मुल्लसितगात्रतया प्रकाश्य । आशीविषादिकृतविघ्नविनाशहेतोः सुस्था भवन्तु निजयोग्यमहासनेषु ॥६॥ नागकुमार देवाः प्रतिष्ठा स्थान शुद्धयर्थं स्वनियोगं कुरुत कुरुत स्वाहा । (पुष्प क्षेपण करावें) पुरुहूतदिशि स्थितिमेहि करोद्धृत कांचनदण्डगखण्डरुचे । विधिना कुमुदेश्वर सव्यकर धृतपंकजशंकितकंकणके ॥७|| पूर्व दिशा प्रतीहार प्रतिष्ठा स्थाने स्वनियोगं कुरु कुरु स्वाहा। (पुष्प क्षेपण करावें) वामनाशु यम दिग्विभागतः स्थानमेहि जिनयज्ञ कर्मणि । भक्तिभार कृत दुष्टनिग्रहः पूतशासन कृताम बन्धकः ॥८॥ दक्षिण दिशा प्रतीहार प्रतिष्ठा स्थाने स्वनियोगं कुरु कुरु स्वाहा। (पुष्प क्षेपण करावें) पश्चिमासु विततासु हरित्सु भूरिभक्तिभर भूकृतपीठाः । अंजन स्वहित काम्ययाध्वरे तिष्ठ विघ्नविलयं प्रणिधेहि ॥९॥ पश्चिम दिशा प्रतीहार स्वनियोगं कुरु कुरु स्वाहा । (पुष्प क्षेपण करावें) पुष्पदंत भवनासुर मध्ये सत्कृतोऽसि यत इत्थमवोचम् । उत्तरत्र मणि दंड कराग्रस्तिष्ठ विघ्नविनिवृत्तिविधायी ॥१०॥ उत्तर दिशा प्रतीहार स्वनियोगं कुरु कुरु स्वाहा । (पुष्प क्षेपण करावें) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करकृत कुसुमानामंजलिं संवितीर्य धनदमणिसुरत्नाधीशपूजार्थ सार्थे । विकिर विकिर शीघ्रं भक्ति मुद्भाव्य नूनं निगदतु परमांके मंडपोर्ध्वावकाशे ॥११॥ धनद ! ररन वृष्टिं मुंच मुंच स्वाहा। (चाँदी के पुष्प क्षेपण करावें) (जयसेन प्रतिः १०१-१०२) 'नान्दी व इन्द्र प्रतिष्ठा यज्ञनायक पत्नी प्रातः अपने निवास स्थान से मिट्टी का कलश, जिसमें सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों, पंचरत्न क्षेपण कर ऊपर श्रीफल पीत-वस्त्र से ढक कर लच्छा से बाँध कर महिलाओं व वादिन के साथ मंडप की वेदी के ऊपर कटनी पर अक्षत रख कर उस पर नंद्यावर्त स्वस्तिक रख णमोकार मंत्र ९ बार जप कर स्थापित करें। यही प्रतिष्ठा का नांदी प्रारंभिक मंगलाचरण है। पश्चात् जो प्रतिष्ठा में इन्द्र-इन्द्राणी बनें, उनमें शची गर्भवती नहीं हो । शेष इन्द्राणी पाँच माह से अधिक गर्भवती न हो और सभी स्वस्थ हों तथा विकलांग न हो । पवित्र आचरण हो और ब्रह्मचर्य पूर्वक रहे। मंडप में एक ओर पाटा, जल की बाल्टी, लोटा, प्रत्येक इन्द्र के लिए रखवा देवें । पास में आसन व वस्त्र-आभूषण थाली में रखवा दें। प्रथम ही - ॐ ह्रां ही हूं हौं हः नमोऽहते भगवते पद्मादिद्रह सिंधवादि नदी शुद्ध जलं सुवर्णघट प्रक्षालितं सर्वगंधाक्षत पुष्पैजिनामोदकं पवित्रं कुरु कुरु झंझंझरौं झौं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पंद्रां द्रां द्रीं द्रीं हंसः स्वाहा।। इस मन्त्र से स्नान जल में सरसों क्षेप कर जल शुद्ध करें। इन्द्र स्नान कर धोती व वस्त्र पहन लेवें । इन्द्राणियाँ अपने निवास स्थान से स्नान करके आ जावें और इन्द्रों के साथ आसन पर बैठ जावें। ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय-द्रावय हं सं झ्वी क्ष्वी हं सः स्वाहा।। इस मन्त्र से इन्द्रों पर जल के छीटें डालें। पात्रेऽर्पितं चंदनमौषधीशं, शुभंसुगंधाहृतचंचरीकं । स्थाने नवांके तिलकाय चर्च्य, न केवलं देहविकारहेतोः ।। ॐ ह्रां ही हूं ह्रौं हः मम सर्वांगशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । इस मन्त्र से चन्दन ललाट, सिर, गला, हृदय, दो भुजायें, उदर, नाभि और पीठ में लगावें। ४२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] धौतान्तरीयं विधुकान्तिसूत्रैः सद्ग्रन्थितं धौतनवीन शुद्धम् । नग्नत्वलब्धिर्न भवेच्च यावत् संधार्यते भूषणमूरुभूम्याः ॥ (अधोवस्त्र का स्पर्श करें) संव्यानमञ्चद्दशयाविभान्तमखण्डधौताभिनवं मृदुत्वम् । संधार्यते पीत सितांशुवर्णमंशोपरिष्टाद्धृतभूषणांकम् ॥ (ऊपर वस्त्र का स्पर्श करें) जिनांधिभूमिस्फुरितां स्रजं में स्वयंवरं यज्ञविधानपत्नी । करोतु यत्नादचलत्वहेतोरितीव मालामुररीकरोमि 11 (माला पहिनें) शीर्षण्यशुम्भमुकुटं त्रिलोकीहर्षाप्तराज्यस्य च पट्टबन्धम् । दधामि पापोर्मिकुलप्रहन्तृ रत्नाढ्यमालाभिरुदञ्चिताङ्गम् ॥ (मुकुट बांधें) ग्रैवेयकं मौक्तिकदाम धाम विराजितं स्वर्णनिबद्धयुक्तम् । दधेऽध्वरापर्ण विसर्पणेच्छुर्महाधनाभोगनिरुपणांङ्कम् ॥ (कण्ठ में कंठाभरण पहने) मुक्तावलीगोस्तनचन्द्रमालाविभूषणान्युत्तमनाकभाजाम् 1 यथार्हसंसर्गगतानि यज्ञलक्ष्मीसमालिङ्गनकृद्-दधेऽहम् ॥ (हार धारण करें) एकत्रभास्वानपरत्र सोमः सेवां विधातुं जिनपस्य भक्त्या । रूपं परावृत्य च कुण्डलस्य मिषादवाप्ते इव कुण्डले द्वे ॥ (कानों में कर्णाभरण धारण करें) भुजासु केयूरमपास्तदुष्टवीर्यस्य सम्यक् जयकृद् ध्वजांकम् । दधे निधीनां नवकैश्च रत्नैर्विमण्डितं सद् ग्रथितं सुवर्णं ॥ (केयूर बाजूबंद धारण करें) यज्ञार्थमेवं सृजतादिचक्रेश्वरेण चिह्नं विधिभूषणानाम् । यज्ञोपवीतं विततं हि रत्नत्रयस्य मार्ग विदधाम्यतोऽहम् || (यज्ञोपवीत पहनें) अन्यैश्च दीक्षां यजनस्य गाढं कुर्वद्भिरिष्टैः कटिसूत्रमुख्यैः । संभूषणैभूर्षयतां शरीरं जिनेन्द्रपूजा सुखदा घटत् ॥ (कटि सूत्र धारण करें) 2010_05 [ ४३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृत्वा शेखरपट्टहार पदकं, ग्रैवेयकालंवकम् । केयूरांगदमध्य बंधुर कटिसूत्रं च मुद्रांकितम् ॥ चंचत्कुण्डल कर्णपूर ममलं, पाणिद्वये कंकणम् । मंजीरं कटकं पदे जिनपतेः श्रीगंधमुद्रांकितम् ॥ (इति षोडषाभरण धारणम्) विधेर्विधातुर्यजनोत्सवेऽहं गेहादिमूर्छामपनोदयामि । अनन्य चेताः कृतिमादधामि स्वर्गादिलक्ष्मीमपि हापयामि ॥ (यह पढ़ कर गृहस्थी के कार्यों से निवृत्त रहने का नियम करें।) ॐ वधिपतये आं हां अः ऐं हौं हः खू क्ष क्षः इन्द्राय संवौषट् । इस मन्त्र को २१ बार पढ़कर इन्द्रों पर सरसों क्षेपें । योगि सिद्धि भक्ति पढ़ने के पश्चात् - ॐ ही अह अ सि आ उ सा णमोअरहंताणं सप्तर्द्धि समृद्धगणधराणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु भवतु ह्रीं नमः स्वाहा। ___'ॐ तत्सदद्य एषां यज्ञनायकस्य पत्नी सहितस्य इन्द्राणी सहितानां सौधर्मेन्द्रादीनां च इक्ष्वाक्वादि वंशे श्रीऋषभनाथादि संताने काश्यपादि गोत्रे परावर्तन यावदध्वरं भवतु क्रौं ह्रीं नमः' उक्त मन्त्र और यह मन्त्र पढ़कर यज्ञनायक व इन्द्रों पर पुष्पक्षेपण करें । एक बार भोजन का नियम करें। इस मन्त्र से बिंब प्रतिष्ठा में सूतक पातक नहीं लगेगा। यद्वंश्यतीर्थकरबिंबमुदीर्यसंस्था मुख्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्त गोत्रचरण प्रतिपातयोगादाशौचमावहतुनोऽद्यभवप्रशस्तम् ॥५८॥ (ज.प्र. पृ-६२) ध्वजा-झंडारोहण मण्डप से डेढ़ा या दुगुना ऊँचा (तीन कटनी निर्माण कराकर उसके भीतर) ध्वज दंड लगेगा। प्रतिष्ठा मण्डप में शोभा यात्रा पूर्वक जिन प्रतिमा विराजमान कर देवें । मण्डप के आगे झण्डारोहण करावें । पश्चात् अभिषेक-पूजा प्रारंभ करें। मंगलाष्टक के पश्चात् । श्रीमज्जिनस्य जगदीश्वरताध्वजस्य, मीनध्वजादि रिपुजाल जयध्वजस्य | तन्न्यासदर्शनजनागमनध्वजस्य, चारोहणं विधिवदाविदधे ध्वजस्य ॥ (पुष्पांजलि) ॐ श्रीं क्षी भूः स्वाहा (जल से भूमि शुद्ध करें) संसारदुःखहनने निपुणं जनानाम्, नाद्यंतचक्रमिति सप्तदशप्रमाणं । संपूजये विविधभक्ति भरावनम्रः शान्तिप्रदं भुवनमुख्य पदार्थसाथैः ॥ ४४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन शासन का ध्वज 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॐ ह्रीं अर्हदादिसप्तदशमंत्रेभ्यः समुदायाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । (९ बार णमोकार मन्त्र) विघ्नौघाः प्रलयं यान्तु व्याधयो नाशमाप्नुयुः, विषं निर्विषतां यातु स्थावरं जंगमं तथा ॥ (पुष्पांजलिः) आचार्य, श्रुत, सिद्ध भक्ति पाठ ॐ पर ब्रह्मणे नमोनमः स्वस्ति स्वस्ति नंद नंद वर्धस्व वर्धस्व विजयस्व विजयस्व पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं मांगल्यं मांगल्यं जय जय। (पुष्पांजलिः) ॐ ह्रीं सौषधिना ध्वजदण्ड शुद्धिं करोमि । ॐ ह्रीं श्रीं नमोऽर्हते पवित्र जलेन ध्वजदण्डशुद्धिं करोमि। पश्चात् स्वस्तिक करावें। ॐ ह्रीं त्रिवर्णसूत्रेणध्वजदण्डं परिवेष्टयामि । ॐ णमो अरिहंताणं स्वाहा । (इस मन्त्र को ९ बार जपें) रत्नत्रयात्मकतयाऽभिमतेऽत्र दण्डे लोकत्रय प्रकृत केवल बोध रूपम् । संकलप्य पूजितमिदं ध्वजमर्च्य लग्ने स्वारोहयामि सन्मंगल वाद्य घोषे । ॐ णमो अरहताणं स्वस्ति भद्रं भवतु सर्वलोकस्यशान्तिभर्वतु स्वाहा। ॐ ह्रीं अहं जिन शासनपताके सदोच्छिता तिष्ठ तिष्ठ भव भव वषट् स्वाहा। इन दोनों मन्त्रों का उच्चारण कर ऊपर पताका सुलझाकर फहरावें। ध्वज गीत आदि वृषभ के पुत्र भरत का भारत देश महान । वृषभ देव से महावीर तक करें सुमंगल गान ।। पंचरंग पाँचों परमेष्ठी युग को दे आशीष । विश्व शान्ति के लिये झुकायें पावन ध्वज को शीष । जिन की ध्वनि जैन की संस्कृति अग मग को वरदान ।। __ भारत देश महान् ध्वजा का उद्देश्य हम जैन शासन के प्रति और सार्वभौम महामन्त्र णमोकार के प्रति तथा अनेकांत और अहिंसावाद के प्रति मन, वचन, काय से निष्ठा रखने की प्रतिज्ञा करते हैं। पंचवर्ण-ध्वजा गतिसूचक (जीवन, चेतना) अरहंत - धवल (घातिया कर्म का नाश करने पर शुद्ध निर्मलता का प्रतीक) सिद्ध - रक्त (अघाति कर्म की निर्जरा का प्रतीक) [प्रतिष्ठा-प्रदीप [४५. _ 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य - पीत (शिष्यों के प्रति वात्सल्य का प्रतीक) उपाध्याय - हरित (प्रेम-विश्वास-आप्तता का प्रतीक) साधु - नील (साधना में लीन होने का प्रतीक, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाना)। नोट- ये पाँच अणुव्रत के भी क्रमशः प्रतीक हैं। स्फटिकं श्वेतरक्तं च पीत श्याम निभं तथा । एतत्पंच परमेष्ठि पंचवर्ण यथाक्रमम् ॥ मण्डल पूजा विधान चौबीस महाराज, पञ्चपरमेष्ठी या भक्तामर मण्डल विधान में से कोई एक विधान याग मण्डल से पहले कर लेना चाहिये । इनमें से जिस मण्डल को करना है, उसका मण्डल भी तख्त पर तैयार करा लेवें। नोट- जो प्रतिष्ठाचार्य केवल मण्डल विधान अष्टाह्निका में सिद्धचक्र विधान एवं अन्य समय में इन्द्र ध्वज विधान, समवशरण, तेरहद्वीप आदि करावें । उनमें भी शान्ति जप, अभिषेक, शान्तिधारा, विधान पूजा प्रतिदिन करावें तथा विधान पूर्ण होने पर अभिषेक, शान्तियज्ञ करावें । जल यात्रा व वेदी शोभायात्रा भी चाहे तो करावें । प्रत्येक मण्डल के शान्ति जप पृथक् होते हैं। सूचना- यह ध्यान रहे कि मण्डलजी पर प्रतिमा, यंत्र व स्थापना स्थापित न की जावे । अधिक दिनों तक मण्डल पर गोले भी न चढ़ाये जावें । वह स्थान कोई पवित्र नहीं है । प्रतिदिन स्थापना व पूजा पूर्ण की जावें क्योंकि मण्डल समुच्चय अर्घ्य प्रतिदिन बोले जाते हैं। विधान तो उसका विस्तार है। अभिषेक व शान्तिधारा का उद्देश्य अर्हत् प्रतिमा का अभिषेक यहाँ दिये जा रहे हिन्दी या संस्कृत अभिषेक पाठ बोल कर ही करें । पंच मंगल में जन्म के मंगल का पाठ बोलकर भगवान् के जन्म के समय ही किया जाता है। क्योंकि उसमें 'पुनि श्रृंगार प्रमुख आचार सबै करे' वाली क्रिया की जाती है। वीतराग होने के बाद नीचे की सराग संबंधी क्रिया नहीं होती। अहंतादि पंचपरमेष्ठी का अभिषेक नहीं होता। किन्तु उनकी प्रतिमा का होता है, इस भेद को भी जानना चाहिये । अभिषेक किसी घटना का अनुकरण नहीं है, किन्तु पूजा का अंग है । शान्ति-धारा यन्त्र पर की जाती है, प्रतिमा पर नहीं । क्योंकि यह वीतराग प्रतिमा निष्काम आराधना का पाठ पढ़ाती है, जबकि शान्ति-धारा में कामनाएँ भरी हैं। गृहस्थ जीवन के कष्टों का विचार कर अन्यत्र भटकने के बजाय यहीं अपनी भावना पूर्ण कर लेवें। वर्तमान समय में चाँदी की प्रतिमा व यन्त्र आदि चोरी जाने व अविनय के भय से मन्दिर में खुले रूप में नहीं रखना चाहिये। यहाँ संस्कृत अभिषेक पाठ (आचार्य माघनंदि) का भाव जानने हेतु हिन्दी अभिषेक का पाठ दे दिया गया है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन जग में ऐसो को बुधवंत जू, जो तुम गुण वरननि करि पावै अन्त जू । इन्द्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी, कहि न सकै तुम गुणगण हे त्रिभुवन धनी ॥ अनुपम अमित तुम गुणनि वारिधि, ज्यों अलोकाकाश है । किमी धरैं हम उर कोष में सो अकथ गुण मणि राश है || पै निजप्रयोजन सिद्धि की तुम नाम में ही शक्ति है । यह चित्त में सरधान यातैं नाम ही में भक्ति है ज्ञानावरणी दर्शन आवरणी भने । कर्म मोहनी लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान मैं । इन्द्रादिक के तब इन्द्र जान्यो अवधितैं उठि सुरन युत वंदत भयो । तुम पुन्य को प्रेरयो हरी है मुदित धनपतिसौं चयो || अब बेगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपद को करौ । साक्षात श्री अरहंत के दर्शन करौ कल्मष हरौ ॥२॥ हिन्दी अभिषेक पाठ दोहा जय जय भगवंते सदा, मंगल मूल महान । वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमौं जोरि जुगपान ॥ ( चाल - मंगल की, छंद - अडिल्ल और गीता) [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 ऐसे वचन सुने सुरपति के धनपती । चल आयो तत्काल मोद धारै अती ॥ वीतराग छबि देखि शब्द जय जय चयौ । दै प्रदच्छिना बार बार बंदत भयो || अति भक्ति भीनो नम्रचित है समवशरण रच्यौ सही । ताकी अनूपम शुभ गती को, कहन समरथ कोउ नहीं ॥ प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं । नगजड़ित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ||३|| सिंहासन तामय बन्यौ अद्भुत दिपै । तापर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपै ॥ तीन छत्र सिर शोभित चौसठ चमर जी । महाभक्तियुत ढोरत है तहाँ अमरजी ॥ प्रभु तरन तारन कमल ऊपर, अंतरीक्ष विराजिया | यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि, भविजन सुख लिया || मुनि आदि द्वादश सभा के भवि जीव मस्तक नायकैं । बहुभाँति बारम्बार पूजैं, नमैं गुणगण गायकें ॥४॥ परमौदारिक दिव्य देह पावन सही । क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं | जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे । राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे ॥ 11311 अन्तराय चारों हने । मुकुट नये सुरथान मैं || [ ४७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमविना श्रमजलरहित पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनिकी अशुचिता हरि, करत विमल अनूपजी ॥ ऐसे प्रभु की शांति मुद्रा को न्हवन जलतें करें । 'जस' भक्तिवश मन उक्ति तैं हम भानु ढिग दीपक धरै ।।५।। तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो । तुम पवित्रत हेत नहीं मज्जन ठयो । मैं मलीन रागादिक मलतै रह्यो । महामलिन तन में वसु विधिवश दुख सह्यो । बीत्यो अनन्तो काल यह मेरी अशुचिता ना गई । तिस अशुचिताहर एक तुमही भरहु बाँछा चित ठई । अब अष्ट कर्म विनाश सह मल रोषरागादिक हरौ । तनरूप कारागेह सै उद्धार शिववासा करौ ॥६।। मैं जानत तुम अष्टकर्म हनि शिवे गये | आवागमन विमुक्त रागवर्जित भये ।। पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही । नय प्रमानतें जानि महा साता लही || पापाचरण तजि न्हवन करता चित्त मैं ऐसे धरूँ । साक्षात श्री अरहंत का मानों न्हवन परसन करूँ ॥ (यहाँ पर (यहाँ पर जलाभिषेक करें) ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तैं । विधि अशुभ नसि शुभबंधतै वै शर्म सब विधि तासतें ॥७॥ पावन मेरे नयन भये तुम दरसते । पावन पानि भये तुम चरननि परसते ॥ पावन मन है गयो तिहारे ध्यानौं । पावन रसना मानी तुम गुण गानतें ॥ पावन भई परजाय मेरी, भयौ मैं पूरणधनी । मैं शक्ति पूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण भक्ति नहीं बनी ॥ धनि-धन्य ते बड़भागि भवि तिन नीव शिवधर की धरी । वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभभरि भक्ती करी ॥८॥ विघनसघन वन दाहन-दहन प्रचंड हो । मोह महा तम दलन प्रबल मारतण्ड हो । ब्रह्मा विष्णु महेश आदि संज्ञा धरो । जग विजयी जमराज नाश ताको करो ॥ आनंद कारण दुखनिवारण, परम मंगलमय सही । मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतिततार सुन्यौ नहीं । चिंतामणी पारस कल्पतरु, एकभव सुखकार ही । तुम भक्तिनौका जे चढ़े ते, भये भवदधि पार ही ॥९॥ ४८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दोहा तुम भवदधिौं तरि गये, भये निकल अविकार । तारतम्य इस भक्ति को, हमें उतारो पार ॥१०॥ पूरा पाठ पढ़कर निर्मल वस्त्र से प्रतिमाजी का मार्जन करें और गंधोदक ग्रहण करें । पश्चात् ९ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर नमस्कार करें। संस्कृत अभिषेक पाठ श्रीमन्नतामरशिरस्तटरत्नदीप्ति तोया विभासिचरणाम्बुजयुग्ममीशं । अर्हन्तमुन्नतपदप्रदमाभिनम्य त्वन्मूर्तिषूद्यदभिषेक विधिं करिष्ये ॥१॥ अथ पौर्वाह्निक देवबंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजास्तववन्दनासमेतं श्री पंचमहागुरुभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् । नोट – इसको पढ़कर ९ बार णमोकार मन्त्र की जाप देना चाहिये । प्रातःकाल पौर्वाह्निक, मध्यकाल में मध्याह्निक, अपराह्निक अपराह्न में देववंदना शब्द बोलना चाहिये । याः कृत्रिमास्तदितराः प्रतिमा जिनस्य संस्नापयन्ति पुरुहूतमुखादयस्ताः । सद्भावलब्धि समयादिनिमित्तयोगात्तत्रैवमुज्वलधिया कुसुमं क्षिपामि ||२|| इति अभिषेक प्रतिज्ञायै पुष्पांजलि क्षिपामि | श्री पीठक्लुप्ते विशदाक्षतौटु श्री प्रस्तरे पूर्णशशांककल्पे। श्रीवर्तक चंद्रमसीति वार्ता सत्यापयन्तै श्रियमालिखामि ॥३॥ ॐ ह्रीं अहं श्री लेखनं करोमि (पाषाण शिला अथवा चौकी पर श्री लिखें) कनकादिनिभं कनं पावनं पुण्यकारणम् । स्थापयामि परं पीठं जिनस्नपनाय भक्तितः ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पीठस्थापनम् करोमि (चौकी पर बड़ी व ऊँची किनारे की थाली रखकर उसमें सिंहासन स्थापित करें) भृङ्गारचामरसुदर्पण पीठकुम्भ तालध्वजातपनिवारकभूषिताये । वर्धस्व नंद जय पीठपादावलीभिः सिंहासने जिन भवंतमहं श्रयामि ||५|| ॐ हीं अहं श्रीधर्मतीर्थाधिनाथ! भगवत्रिह सिंहासने तिष्ठ तिष्ठ (घंटानाद पूर्वक जय जय शब्द बोलते हुए वेदी में से सर्वधातु की प्रतिमाजी व यन्त्र लाकर सिंहासन पर विराजमान करें) श्री तीर्थकृत्स्नपनवर्यविधौ सुरेन्द्रः क्षीराब्धि वारिभिरपूरयदर्थ कुम्भान् । तांस्तादृशानिव विभाव्य यथार्हणीयान् संस्थापये कुसुमचंदन भूषिताग्रान् ॥६।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [४९ 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं स्वस्तये चतुःकोणेषु चतुःकलशस्थापनं करोमि (चौकी पर चार दिशा में जल भरे हुए चार कलश स्थापित करें) आनन्दनिर्भर सुरप्रमदादिगानैर्वादित्र पूरजयशब्दकलप्रशस्तैः । उद्गीयमानजगतीपतीकीर्तिमेनां पीठस्थलीं वसुविधार्चनयोल्लसामि ||७|| ॐ ह्रीं श्रीस्तपन पीठ स्थिताय जिनेन्द्रायाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कर्मप्रबन्धनिगडैरपि हीनताप्तं, ज्ञात्वापि भक्तिवशतः परमादिदेवम् । त्वां स्वीयकल्मषगणोन्मथनाय देव! शुद्धोदकैरभिनयामि नयार्थतत्वम् ।।८।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह वं मंहं संतं पं वं वं मं मंहं हं सं संतं तं पं पं झंझं इवी इवीं क्ष्वी क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽहते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा । दूरावनम्र सुरनाथ किरीट कोटी संलग्नरत्नकिरणच्छवि धूसरांघ्रिं । प्रस्वेदतापमल मुक्तिमपि प्रकृष्टैर्भक्त्या जलैर्जिनपतिं बहुधाभिषिंचे ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीमतं भगवन्तं कृपालसंतं वृषभादि महावीरपर्यन्तं चतुर्विशति तीर्थंकर परमदेवं मध्यलोकेजम्बुद्धीपे भरत क्षेत्रे आर्यखण्डे.... देशे... नाम्निनगरे.... जिनालये.... वीर निर्वाण संवत्सरे मासानामुत्तमेमासे..... मासे....पक्षे.... शुभदिने मुनि आर्यिका श्रावक श्राविकाणां सकलकर्मक्षयार्थं जलेनाभिषिंचे। (उक्त श्लोक व मन्त्रपूर्वक जलाभिषेक करें) पानीयचन्दन सदक्षत पुष्पपुंज नैवेद्य दीपक सुधूपफलब्रजेन । कर्माष्टक क्रथनवीरमनंतशक्तिं संपूजयामि सहसा महसां निधानम् ॥१०॥ ॐ ह्रीं अभिषेकान्ते वृषभादिवीरान्तेभ्योऽय॑म् । हे तीर्थपा निजयशोधवली कृताशा सिद्धौषधाश्च भवदुःखमहागदानाम् । सद्भव्यहृज्जनितपंक कवंधकल्पाः, यूयं जिनाः सततशांतिकरा भवन्तु ॥११॥ शान्त्यर्थं पुष्पांजलि क्षिपामि | नत्वा परीत्य निजनेत्र ललाटयोश्च, व्याप्तं क्षणेन हरतारघसंचयं मे । शुद्धोदकं जिनपते तव पादयोगाद् भूयाद्भवातपहरं धृतमादरेण ॥१२॥ मुक्ति श्रीवनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकं, नागेन्द्रत्रिदशेन्द्रचक्र पदवीराज्याभिषेकोदकम् । सम्यग्ज्ञानचारित्रदर्शन लतासंवृद्धि सम्पादकं, कीर्तिश्रीजयसाधकं तव जिन! स्नानस्य गंधोदकम् ।।१३।। __ (यह पढ़कर स्वयं जिनचरणोदक लेकर दूसरों को देखें) नत्वा मुर्हर्निजकरैरमृतोपमेयैः, स्वच्छैर्जिनेन्द्र तवचन्द्रकरावदातैः । शुद्धांशुकेन विमलेन नितान्तरम्ये, देहे स्थितान्जलकणान्परिमार्जयामि ।।१४।। ॐ ह्रीं अमलांशुकेन जिन बिम्बमार्जनं करोमि ५०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप 2010_05 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इस श्लोक को पढ़कर निर्मल वस्त्र से जिनबिंब पर स्थित जल कणों को साफ करें) स्नानं विधीय भवतोऽष्टसहस्त्र नाम्नामुच्चारणेन मनसो वचसो विशुद्धिम् । जिघृक्षुरिष्टिमिन! तेऽष्टतयीं विधातुम्, सिंहासने विधिवदत्र निवेशयामि ॥१५॥ (यह पढ़कर श्री जिनबिम्ब को वेदी में विराजमान करें) जलगन्धाक्षतैः पुष्पैश्चरुदीपसुधूपकैः । फलैरधृजिनमर्चे जन्मदःखापहानये ॥१६।। ॐ ह्रीं श्री सिंहासन स्थित जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । इमे नेत्रे जाते सकृतजलसिक्ते सफलिते, ममेदं मानुष्यं कृतिजनगणादेयमभवत् । मदीयाद्भालाद्दादशुभवसुकर्माटनमभूत् सदेदृक् पुण्यार्हन् मम भवतु ते पूजन विधौ ॥१७॥ (पुष्पांजलि क्षेपण करें) सूचना - (१) प्रतिमाजी को यथास्थान विराजमान करने के बाद यदि शांतिधारा पाठ पढ़ना हो तो प्रतिमाजी के साथ लाये हुए विनायक यंत्र पर आगे के मन्त्र पढ़ते हुए झारी से अखंडधारा देना चाहिये । (२) उक्त हिन्दी अभिषेक पाठ वेदी पर विराजमान प्रतिमाजी के अभिषेक के समय बोलें। संस्कृत अभिषेक पाठ मंडल विधान में छोटी प्रतिमाजी के बाहर लाते समय बोलें । वेदी पर विराजमान प्रतिमा के संक्षिप्त अभिषेक के लिए भी १, २, ६, ८, ९, ११, १२, १३ वें पद्य पढ़े जा सकते हैं। शांतिधारा ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं वं मं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वी झ्वी क्ष्वीं क्ष्वी द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते । ॐ ह्रीं क्रों अस्माकं पापं खंड खंड हन हन दह दह पच पच पाचय पाचय अर्हन् झंझ्वी क्ष्वी हं सः झं वं ह्यः पः हः क्षां क्षीं हूं क्षे झै क्षों क्षौं क्षं क्षः ह्रां ह्रीं हूं हें हैं हो ह्रौं ह्रः द्रां द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः अस्माकं श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शांति-रस्तु कांतिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा । एवं अस्माकं कार्य सिद्धयर्थं सर्वविघ्न निवारणार्थ श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञ परमेष्ठि परमपवित्राय नमोनमः । अस्माकं श्री शांति भट्टारक पाद पद्मप्रसादात् सद्धर्म श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु स्वशिष्य परशिष्य वर्गं प्रसीदंतु नः।। ॐ श्री वृषभादि वृर्द्धमान पर्यान्ताश्चतुर्विशत्यर्हन्तो भगवन्तः सर्वज्ञाः परम मंगलानामधेयाः इहामुत्र च सिद्धिं तनोतुसद्धर्मकार्येषु इहामुत्र च सिद्धिं प्रयच्छंतु नः। ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीमत्पार्श्वतीर्थकराय श्री भद्रत्नत्रयरूपाय दिव्यतेजोमूर्तये प्रभामंडल मंडिताय द्वादशगण सहिताय अनंतचतुष्टसहिताय समवशरण केवलज्ञानलक्ष्मी शोभिताय अष्टादशदोष रहिताय षट् चत्वारिंशत् गुणसंयुक्ताय परमेष्ठि पवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने परम सुखाय त्रैलोक्य महिताय अनंतसंसारचक्रप्रमर्दनाय अनंतज्ञान दर्शन वीर्यसुखास्पदाय त्रैलोक्य वशंकराय सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे उपसर्ग विनाशनाय घातिकर्मक्षयंकराय अजराय अभवाय अस्माकं व्याधि हन्तु । श्री जिन पूजन प्रसादात् अस्माकं सेवकानां सर्वदोषरोग शोकभय पीड़ा विनाशनं भवतु । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [५१ 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमोऽर्हते भगवते प्रक्षीणशेष दोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये श्री शांतिनाथाय शांतिकराय सर्व विघ्नप्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्यु विनाशनाय सर्व परकृत क्षुद्रोपद्रव विनाशनाय सर्वश्यामडामर विनाशनाय सर्वारिष्ट शांतिकराय ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असिआउसा अस्माकं सर्वविघ्न शांति कुरु-कुरु तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा । अस्माकं कामं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । रतिकामं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । बलिकामं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । क्रोधं पापं बैरं च छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । अग्निवायुभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वशत्रुविघ्नान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वोपसर्ग छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वविघ्नान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वराज्यभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व चौरदुष्टभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व सर्पवृश्चिकसिंहादिभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि। सर्वग्रहभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व दोषं व्याधिं डामरं च छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व परमेत्रान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वात्मघातं परघातं च छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व शूलरोगं कुक्षिरोगं अक्षिरोगं शिरोरोगं ज्वररोगं च छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व नरमारि छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व गजाश्वगोमहिष अजमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वसस्यधान्यवृक्षलता गुल्मपत्र पुष्प फलमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि | सर्व राष्ट्रमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व विषयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व क्रूरबेताल शाकिनी डाकिनीभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व वेदनी छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व मोहनीं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वापस्मारं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व भगवती दुर्भगवतीभयं छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । अस्माकं अशुभकर्मजनित दुःखान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वदुष्टदेवदानववीरनवनाहरसिंह योगिनीकृतदोषान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्वाष्ट कुलीनागजनित विषभयान् सर्वस्थावर जंगम वृश्चिक सर्षादिकृत दोषान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । सर्व सिंहाष्टपदादिकृतदोषान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि । ॐ ह्रीं अस्मभ्यं चक्रविक्रमसत्वतेजोबल शौर्यशांति पूरय पूरय । सर्व जीवानंदनं जनानंदनं भव्यानंदनं च कुरु कुरु स्वाहा । यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधिव्यसनवर्जितं । अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते ।। श्री शांतिरस्तु! शिवमस्तु! जयोऽस्तु! नित्यमारोग्यमस्तु! अस्माकं पुष्टिसमृद्धिरस्तु! कल्याणमस्तु! सुखमस्तु! अभिवृद्धिरस्तु! दीर्घायुरस्तु! कुलगोत्रधनं सदास्तु! सद्धर्म श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अहँ असिआउसा अनाहत विद्यायै णमो अरहंताणं हौं सर्व शांतिं कुरु कुरु स्वाहा । आयुर्वल्ली विलासं सकल सुख फलैद्राधयित्वाश्वनल्पं । धीरं हीरं शरीरं विलासं निरूपममुपयन्त्वातनोत्वच्छकीर्तिं ।। सिद्धिं वृद्धिं समृद्धिं प्रथयतु तरणिस्फूर्यदुच्चैः प्रतापं । कांति शांति समाधिं वितरतु जगतामुत्तमा शांतिधारा ।। * इति शांतिधारा पाठ * ५२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलयात्रा सामान्य रूप से १०८ कलश जल भरकर सौभाग्यवती महिलाओं व कन्याओं द्वारा शोभायात्रापूर्वक मन्दिर की वेदी पर लाये जाते हैं और उनसे वहाँ वेदी शुद्धि की जाती है । शुक्ल व केशरिया चाँवलों से शुद्ध भूमि में मंडल माँडा जावे । किसी जलाशय के समीप पहले से छानकर मंत्र पूर्वक जल से कलश भरवा देवें । घट स्थानोपयोगी मण्डल मण्डल के पूर्व या उत्तर मुख विनायक यन्त्र, कलश, धूप दान स्थापित कर शेष तीनों ओर व्यवस्था की दृष्टि से इन्द्र-इन्द्राणियों को बैठा देवें । आसन, पाटा, पूजा द्रव्य चढ़ाने की थाली रखकर यन्त्र- पूजा देवें । क्रम से मंगलाष्टक, कलश स्थापन, संकल्प, पूजा के पश्चात् चौबीस महाराज व निर्वाण क्षेत्रों को अर्घ्य और निम्नांकित अर्घ्य दिलावें - [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] 2010_05 [ ५३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं सर्व भवनेन्द्रार्चितसमस्ताकृत्रिम चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यम् स्वाहा | ॐ ह्रीं सर्व व्यन्तरेन्द्रार्चित समस्ता कृत्रिम चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं सर्वाहमिन्द्रार्चित समस्ता कृत्रिम चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं विश्वेन्द्रार्चितमध्यलोक स्थितसमस्त कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं विश्वचक्षुषे अर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं ज्योतिर्मतये अर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हं परमब्रह्मणेऽनन्तानन्त ज्ञानशक्तयेऽर्घ्यम् । ॐ ह्रीं श्री प्रभृति देवता स्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं गंगादि देविस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं सीताविद्धमहाहृददेवस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं सीतोदाविद्धमहाहृददेवस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा | ॐ ह्रीं लवणोद कालोदमागधादितीर्थस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं सीतासीतोदा मागधादितीर्थस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं संख्यातीत समुद्र देवस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा । ॐ ह्रीं लोकाभिमत तीर्थस्थाने चैत्य चैत्यालयेभ्योऽर्घ्यम् स्वाहा | शान्ति पाठ - विसर्जन ॐ नमोऽर्हते भगवते श्री शांतिनाथाय शांतिकराय सर्वविघ्ननाशनाय सर्वरोगापमृत्यु विनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रव विनाशनाय सर्वशांतिर्भवतु । (यह पढ़कर कलशों पर सरसों क्षेपण करें) ५४ ] कलश उठाने का पद्य “ॐ” क्षीराब्धि सर्वतीर्थोदकमयवपुषा स्वैरमाक्रोशतोऽस्य । नीरैः पद्माकरस्य प्रणवमुपगतान् शातकुंभीयकुंभान् ॥ सानंदं श्रूयादि देवी निचयपरिचयो जृम्भमाण प्रभावान् । एतानभ्युद्धरामो भगवदभिषव श्री विधानाय हर्षात् ॥ (सरसों क्षेपण करते रहें) 2010_05 - [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याग मंडल विधान याग मंडल प्रयोगः अचिंत्यचिंतामणि कल्पवृक्ष रसायनाधीश्वरमादिदेवं । वंदामहे सृष्टिविधान मूढप्राणि प्रणेतारमबाध्यवाक्यं ॥१॥ स्याद्वाद विद्यामृततर्पणेन सुप्तं जगद्बोधयितारमयं । श्रीकुंदकुंदादिमुनिं प्रणम्य श्रीमूलसंघे प्रणयामि यज्ञं ॥२॥ एवं समासादितवेदिकादिप्रतिष्ठयोपक्रियया दृढार्थः । पुष्पांजलिक्षेपणमत्रसार्थे वितीर्य यागोद्धरणेयतेऽहं ॥३॥ याग मंडल पूजा विधान ॐ जय जय जय, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु, नंद नंद नंद, पुनीहि पुनीहि पुनीहि । ॐ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं । मध्येतेजस्तदंगे वलयितसरणौ पंच पूज्योत्तमादि । द्वादश्यर्चा द्वितीये चतुरधिकसुविंशा जिना भूतकालाः ।। अग्रेष्टयोर्वर्तमाना अवतरण कृतोऽग्रे विदेहस्थपूज्या । आचार्याः पाठकाः स्युर्मुनिवरसुगुणा वह्निवृत्ते निवेश्याः ॥४॥ तेषामग्रिमवृत्तके गणधरा ऋद्धिप्रशस्ताश्चतु - दिक्षु स्युः क्षितिमंडले जिनगृहं चैत्यागमौ सवृषाः ।। एवं स्युर्निधयो नवापरविधैर्युक्ता इहाभ्युद्धृते । सद्यागार्चनमंडले विलिखिताः पूज्याः स्वमंत्रैः सदा ॥५॥ द्विशतोत्तरतः पंचाशत्स्थानं सुपूजयति यो धीमान् ।। निर्धूतकलुषनिकरो जिनबिंबस्थापको भवति ॥६॥ एतेषां निधिसंज्ञायागेशसर्गपति मंडलाधीशाः । कथ्यते विधिविज्ञैः संकेतितमिदं ग्रंथसंबद्धं ॥७|| स्थापना प्रत्यर्थिवजनिर्जयान्निजगुण प्राप्तावनन्ताक्रमदृष्टिज्ञानचारित्र वीर्यसुखचित्संज्ञास्वभावाः परं । आगत्यात्रनिवेशितांकितपदैः संवौषडा द्विष्ठतो, मुद्रारोपणसत्कृतैश्च वषडा गृहणीध्वमर्चाविधिम् ||८|| [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [५५ 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा-गीताछंद कर्मतम को हननकर निजगुण प्रकाशन भानु हैं, अंत अर क्रम रहित दर्शन ज्ञान वीर्य निधान हैं । सुख स्वभावी द्रव्य चित् सत् सुद्ध परिणति में रमें, आइये सब विघ्न चूरण पूजते सब अघ वमें ।। ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्, ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः, ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । (यहाँ स्थापना मण्डल के बीच में न रख कर पूजा की टेबल ही पर रख कर पुष्प क्षेपण करें।) अष्टक प्रांशुस्वर्णमणि प्रभाततिभृताभुंगारनालोच्छलद् गंगासिंधुसरिन्मुखोपचितसत्पाथो भरेण त्रिधा। जन्मारातिविभंजनौषधिमितेनोद्धृतगंधालिना चाये यागनिधीश्वरानघहृते निःश्रेयसः प्राप्तये ॥९॥ भाषा-छन्द चाल गंगा सिंधू वर पानी, सुवरण झारी भरलानी । गुरु पंच परमसुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्दपामीति स्वाहा । घुसृणमलयजातैश्चंदनैः शीतगंधै, भवजलनिधिमध्ये दुःखदो वाडवाग्निः। तदुपशमनिमित्तं बद्धकक्षैर्निमज्जद्-भ्रमरयुवभिरीडत् सांद्रसार्द्रप्रवाहैः ॥१०॥ भाषा- शुचि गन्ध लाय मनहारी, भवताप शमन कर्तारी । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाह शशांकस्पर्द्धद्भिः कमलजननैरक्षतपदाधिरूढः श्रामण्यं शुचिसरलताद्यैर्गुणवरैः । हसद्भिः साम्राज्याधिपतिचमनाहैः सुरभिभिर्जिनार्चाघ्रिप्रांची विपुलतरपुंजैः परियजे ||११|| भाषा- शशिसम शुचि अक्षत लाए, अक्षयगुणहित हुलसाए। गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । दुरंतमोहानलदीप्यदंशु कामेन नष्टीकृतमाशुविश्वं । तद्वाणराजीशमनाय पुष्पैर्यजामि कल्पद्रुमसंगतैर्वा ।।१२।। भाषा- शुभ कल्पद्रुमन सुमना ले, जग वशकर काम नशाले। गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ५६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पीयूषपिंडनिवहैघृत शर्करान्नयोगोद्रवैर्नयनचित्त विलासदक्षैः । चामीकरादिशुचिभाजनसंस्थितैर्वा संपूजयाम्यशन बाधनबाधनाय ||१३|| भाषा- पकवान मनोहर लाए, जासे क्षुद्र रोग शमाए । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो क्षुधारोगनिवारणाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । अमितमोहतमोविनिवृत्तये घटितरत्नमणिप्रभवात्मभिः । अयमहं खलुदीपकनामकै र्जिनपदाग्रभुवं परिदीपये ॥१४॥ भाषा- मणि रत्नमई शुभ दीपा, तुम मोहहरण उद्दीपा । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयझेश्यरजिनमुनिभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । धूपोद्घाणैर्यजनविधिषु प्रीणिताशेषदिक्कैरुद्यद्वन्हावगुरुमलयापीडकान् संदहद्भिः । अर्चे कर्मक्षपणकरणे कारणैराप्तवाक्यैर्यज्ञाधीशानिव बहुविधैधूपदानप्रशस्तैः ।।१५।। भाषा- शुभ गंधित धूप चढ़ाऊं कर्मो के वंश जलाऊं । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्दपामीति स्वाहा । निः श्रेयसपदलब्ध्यै कृतावतारैः प्रमाणपटुभिरिव । स्याद्वाद भंगनिकरैर्यजामि सर्वज्ञमनिशममरफलैः ।।१६।। भाषा- सुन्दर दिवि भव फल लाए, शिवहेतु सुचरण चढ़ाए । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयझेश्वरजिनमुनिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्दपामीति स्वाहा । पात्रे सौवर्णे कृतमानंदजयषक् पूजाहँतं विस्फुरितानां हृदयेऽत्र । तोयाद्यष्टद्रव्य समेतै तमधुशास्तृणामग्रे विनयेन प्रणिदध्मः ॥१७|| भाषा- सुवरण के पात्र धराए, शुचि आठों द्रव्य मिलाए । गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयझेश्वरजिनमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । (अब २५० कोठों में स्थापित पूज्यों को अलग-अलग अर्घ चढ़ाना थाली में ही) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) प्रथम वलय अनंतकाल संपद्भवभ्रमणभीतितो निवार्य संदधन् स्वयं शिवोत्तमार्यसद्मनि । जिनेश विश्वदर्शिविश्वनाथ मुख्यनामभिः स्तुतं जिनं महामि नीरचंदनैः फलैरहं ॥१८॥ भाषा अडिल्ल काल अनन्ता भ्रमण करत जग जीव हैं। तिनको भवते काढ़ करत शुचि जीव हैं। ऐसे अर्हत् तीर्थनाथ पद ध्यायके । पूजू अर्घ बना सुमन हरषायके । ॐ ह्रीं अनंत भवार्णवभयनिवारकानन्तगुणस्तुताय अर्हते अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कर्मकाष्ठहुतभुक् स्वशक्तितः संप्रकाश्यमहनीयभानुभिः । लोकतत्वमचले निजात्मनि संस्थितं शिवमहीपतिं यजे ॥१९॥ भाषा- हरिगीता छंद कर्म-काष्ठ महान जाले ध्यान-अग्निजलायके । गुण अष्ट लह व्यवहारनय निश्चय अनंत लहायके ।। निज आत्म में थिर रूप रहके सुधा स्वाद लखायके । सो सिद्ध हैं कृतकृत्य चिन्मय भजूं मन उमगायके || ॐ ह्रीं अष्टकर्मविनाशक निजात्मतत्त्वविभासक सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सार्थवाह मनवद्यविद्यया शिक्षणान्मुनि महात्मनां वरं । मोक्षमार्गमलघुप्रकाशकं संयजे गुरु परंपरेश्वरम् ॥२०॥ भाषा-त्रिभंगीछंद मुनिगणको पालत आलस टालत आप संभालत परम यती। जिनवाणि सुहानी शिवसुखदानी भविजन मानी धर सुमती ।। दीक्षाके दाता अघसे त्राता समसुख भाता ज्ञानपती । शुभ पंचाचारा पालत प्यारा हैं आचारज कर्महती ॥ ॐ हीं अनवद्यविद्याविद्योतनाय आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । द्वादशांग परिपूर्णसच्छुतं यः परानुपदिशेत पाठतः । बोधयत्यभिहितार्थ सिद्धये तानुपास्य यजयामि पाठकान् ॥२१॥ भाषा त्रोटक छन्द जय पाठक ज्ञान कृपान नमो, भवि जीवन हत अज्ञान नमो ॥ निज आत्म महानिधि धारक हैं । संशय बन दाह निवारक हैं । ॐ ह्रीं द्वादशांगपरिपूरणश्रुतपाठनोधत बुद्धिविभवोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । ५८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्रमय॑तपसाभि संस्कृति ध्यानज्ञान विनिवेशितात्मकं । साधकं शिवरमासुखामृते साधुमीड्यपदलब्धयेऽर्चये ॥२२।। ___ भाषा- द्रुतविलंबित छंद सुभाग तप द्वादश कर्तार हैं । ध्यान सार महान प्रचार हैं ॥ मुकति वास अचल यति साधते । सुख सु आतम जन्य सम्हारते ॥ ॐ हीं घोरतपोऽभिसंस्कृतध्यानस्वाध्यायनिरत साधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । अर्हन्नेव त्रिभुवनजनानंदनान्मंडलाग्यो, विघ्नध्वंसं निजमतिकृतादस्त्रसंघोपनोदात् । संकुर्वस्तत्प्रकृतिरपि स्पष्टमानंददायिन्येवं स्मृत्वा जलचरुफलैरर्चयामि त्रिवारं ॥२३॥ भाषा-मालिनी छंद अरि हनन सु अरिहन् पूज्य अर्हन् बताए । मं पाप गलनहेतु मंगलं ध्यान लाए । मंगं सुखकारण मंगलीकं जताए । ध्यानी छबी तेरी देखते दुख नशाए ।। ॐ हीं अर्हत्परमेष्ठिमंगलाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । स्मारं स्मारं गुणगणमणिस्फारसामर्थ्यमुच्चैर्यत्प्राप्त्यर्थं प्रयतति जनो मोक्षतत्त्वेऽनवद्ये। प्रत्यूहान्तं भवभवगतानां प्रघातप्रक्लृप्त्यै सिद्धानेव श्रुतिमतिबलादर्चये संविचार्य ॥२४॥ भाषा-चौपाई जय जय सिद्ध परमसुखकारी। तुम गुण सुमरत कर्म निवारी । विघ्नसमूह सहज हरतारे । मंगलमय मंगल करतारे ॥ ॐ हीं सिद्धमंगलेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। रागद्वेषोरगपरिशमे मंत्ररूपस्वभावा, मित्रे शत्रौ समकृतहृदानंद मांगल्यरूपाः येषां नामस्मरणमपि सन्मंगलं मुक्तिदायीत्यर्चे यज्ञे वसुविधविधिप्रीणनैः प्राणिपूज्यं ॥२५॥ भाषा-शार्दूलविक्रीड़ित . रागद्वेष महान सर्प शमने शम मंत्रधारी यती । शत्रू मित्र समान भाव करके भवतापहारी यती ॥ मंगल सार महान कार अघहर सत्वानुकम्पी यती । संयम पूर्ण प्रकार साध तपको संसारहारी यती ॥ ॐ ह्रीं साधुमंगलाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। मूर्छा मूर्छा गुरुलघुभिदा द्वैधवर्त्मप्रदिष्टो, जैनो धर्मः सुरशिवगृहद्वारदर्शी नितांतं । सेव्यो विघ्नप्रहणनविधावुत्तमार्थैः प्रशस्तः, संपूजेऽहं यजनमननोद्दामसिद्ध्यर्थमह्यम् ॥२६|| भाषा-संकर छंद जिनधर्म है सुखकार जगमें धरत भव भयवंत । स्वर्ग मोक्ष सुद्वार अनुपम धरे सो जयवंत ॥ सम्यक्त ज्ञान चारित्र लक्षण भजत जगमें संत । सर्वज्ञ रागविहीन वक्ता है प्रमाण महंत ॥ ॐ हीं केवलिपज्ञप्त धर्ममंगलाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येषां पादस्मृतिसुखसुधायोगतस्तीर्थनाम प्रापुः पुण्यं यदवनतिना जन्मसार्थं लभंते । लोका धात्र्यां वनगिरिभुवश्चोत्तमत्वं जिनेंद्रा-नर्च यज्ञप्रसवविधिषु व्यक्तये मुक्तिलक्ष्म्याः ॥२७|| भाषा-झूलना छंद चर्ण संस्पर्शते बन गिरि शुद्ध हो नाम सत्तीर्थको प्राप्त करते भए । दर्श जिनका करे पूजते दुख हरे जन्म निज सार्थ भविजीव मानत भए । देव तुम लेखके देव सब छोड़ के देव तुम उत्तमा संत ठानत भए । पूजते आपको टालते तापको मोक्षलक्ष्मी निकट आज जानत भए । ॐ हीं अहल्लोकोत्तमेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । दृष्टि ज्ञान प्रतिभटतया कर्ममीमांसयाऽन्यान्, श्वभ्रे संपादयति विविधा वेदनाः संकरोति । तेषां मूलं निविडपरमज्ञानखड्गेन हत्त्वा, निःकर्मत्वं समधिगतवानय॑ते सिद्धनाथः ॥२८।। भाषा-भुजंगप्रयात छंद दरश ज्ञान वैरी करम तीव्र आए । नरक पशुगती मांहि प्राणी पठाए । तिन्हें ज्ञान असिते हनन नाथ कीना । परम सिद्ध उत्तम भजू रागहीना ।। ॐ हीं सिद्धलोकोत्तमेभ्योऽय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । सूर्याचंद्रौ मरूदधिपतिर्भूमिनाथोऽसुरेंद्रो, यस्यांहय्ब्जे प्रणतशिरसा लोलुठीति त्रिशुद्ध्या । सोऽयं लोके प्रवरगणनापूजितः किं न वा स्याद्, यस्मादचें मुनिपरिवृढं स्वानुभावप्रसत्त्या ॥२९॥ भाषा-छंद चौपैया सूरज चंद्र देवपति नरपति पद सरोज नित वंदे । लोट लोट मस्तक धर पगमें पातक सर्व निकन्दे ॥ लोकमाहिं उत्तम यतिपनमें जैनसाधु सुख कंदे । पूजत सार आत्मगुण पावत होवत आप स्वच्छंदे ॥ ॐ हीं साधुलोकोत्तमेन्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। यत्र प्राणिप्रवरकरुणा यत्र मिथ्यात्वनाशो, यत्रोपांते शिवपदसमान्वेषणां कामनष्टिः । यत्र प्रोक्ता दुरितविरतिः सोयमग्यः कथं न, यस्माद् धर्मों निखिलहितकृत् पूज्यतेऽसौमयाऽपि ॥३०॥ भाषा-छंद सृग्विणी जो दया धर्म विस्तारता विश्वमें । नाश मिथ्यात्व अज्ञान कर विश्वमें । काम भव दूर कर, मोक्ष कर विश्वमें । सत्य जिनधर्म यह धार ले विश्वमें ।। ॐ ह्रीं केवलीपज्ञप्त धर्मलोकोत्तमाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जीवाजीवद्विविधशरणान्वेषणे स्थैर्यभंगं, ज्ञात्वा त्यक्त्वाऽन्यतरशरणं नश्वरं मद्विधानां । इंद्रादीनामितिपरिचयादात्मरत्नोपलब्धि-मिष्टैः प्राप्तुं निचितमनसा पूज्यतेऽर्हन् शरण्यः ॥३१॥ ६०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा-छंद मरहटा भव भ्रमण कराया शरण नवाया जीव अजीवहिं खोज । इन्द्रादिक देवा जाको पूजे जग गुण गावे रोज ।। ऐसे अर्हत्की शरणा आए, रत्नत्रय प्रगटाय । जासे ही जन्ममरण भय नाशे, नित्त्यानन्दी थाय ।। ॐ हीं अर्हत् शरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । यावद्देहे स्थितिरुपचयः कर्मणामास्रवेण, तावत्सौख्यं कुत उपलभेतस्ततस्त्रोटनेच्छुः । एतत्कृत्यं न भवति विना सिद्धभक्तिं यतो मे, पूर्णाघिप्रयजनविधावाश्रितोऽहं शरण्यम् ॥३२॥ भाषा-छंद नाराच सुखी न जीव हो कभी जहाँ कि देह साथ है । सदा हि कर्म आस्रवें न शान्तता लहात है ॥ जो सिद्धको लखाय भक्ति एक मन करात है । वही सुसिद्ध आप हो स्वभाव आत्म पात है। ॐ हीं सिद्धशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। रागद्वेषव्यपगमनतो निःस्पृहा धीरवीराः, संसाराब्धौ विषमगहने मज्जतां निर्निमित्तं । दत्त्वा धर्मोद्धरणतरणिं पारयंतो मुनीशास्तानLण स्थिरगुणधिया प्रांचयामि त्रिगुप्त्या ॥३३॥ भाषा-छंद त्रोटक नहिं राग न द्वेष न काम धरें, भवदधि नौका भवि पार करें। स्वारथ बिन सब हितकारक हैं, ते साधु जजू सुखकारक हैं ।। ॐ ह्रीं साधुशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। मित्रं सम्यक् परभवयथाचक्रमे सार्थदायि, नान्यो धर्मादुरितदहन प्लोषणेऽबुप्रवाहः । जानंतं मां समदृशिधियां संनिधानाच्छरण्य, त्रायस्व त्वं त्वयि धृतगतिं पूजनार्धेण युक्तं ॥३४॥ भाषा-छंद चापरो धर्म ही सु मित्रसार साथ नाहिं त्यागता, पाप रूप अग्निको सुमेघ सम बुझावता । धर्म सत्त्य शर्ण यही जीवको सम्हारता, भक्ति धर्म जो करें अनंत ज्ञान पावता ।। ॐ हीं धर्मशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । सर्वानेतान् तत्वचंद्रप्रमाणान् जापध्यानस्तोत्रमत्रै रुदय॑ । द्रव्यक्षेत्रस्फूर्तिसज्जावकाशं नत्वाLण प्रांशुना संस्मरामि ॥३५।। भाषा-दोहा पंच परम गुरु सार हैं, मंगल उत्तम जान । शरणा राखनको वली, पूजू कर उर ध्यान ।। ॐ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिप्रभृतिधर्मशरणांत प्रथमवलयस्थित सप्तदशजिनाधीश यज्ञदेवताभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। ६१] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे वलय में २४ भूतकाल के तीर्थंकरों की पूजा निर्वाणदेवं श्रितभव्यलोकं निर्वाणदातारमनंतसौख्यं । संपूजयेऽहं मखसद्धिहेतो रधीश्वरं प्राथमिकं जिनेंद्र ॥३६।। भाषा पद्धरी छन्द भवि लोक शरण निर्वाणदेव, शिवसुखदाता सब देव देव । पूजू शिवकारण मन लगाय, जासें भवसागर पार जाय ।। ॐ ह्रीं निर्वाण जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीसागरं वीतममत्वरागद्वेषं कृताशेषजनप्रसादं । समर्चये नीरचरुप्रदीपैरुद्दीपिताशेषपदार्थमालं ॥३७।। भाषा- तज रागद्वेष ममता विहाय, पूजक जन सुख अनुपम लहाय। गुणसागर सागर जिन लखाय, पूजूं मन वच अर काय नाय॥ ॐ हीं सागरजिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीमन्महासाधुजिनं प्रमाणनयप्रमाणीकृतजीवतत्त्वं । स्याद्वादभंगप्रणिधानहेतुं समर्चये यज्ञविधानसिद्ध्यै ॥३८॥ भाषा- नय अर प्रमाण से तत्त्व पाय, निज जीव तत्त्व निश्चै कराय। साधो तप केवलज्ञान दाय, ते साधु महा वंदौ सुभाय ।। ॐ ही महासाधु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । यस्यातिसज्ज्ञानविशालदीपे प्रभासमानं जगदल्पसारं । विलोक्यते सर्षपवत्कराग्रे समर्चयेऽहं विमलप्रभाख्यं ॥३९।। भाषा- दीपक विशाल निज ज्ञान पाय, त्रैलोक लखे बिन श्रम उपाय। विमलप्रभ निर्मलता कराय, जो पूजे जिनको अघ लाय || ॐ हीं विमलप्रभाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । समाश्रितानां मनसो विशुद्धयै कृतावतारं मुनिगीतकीर्तिम् । प्रणम्य यज्ञेऽहमुदंचयामि शुद्धाभदेवं चरुभिः प्रदीपैः ॥४०।। भाषा- भवि शरण गहें मन शुद्धिकार, गावें थुति मुनिगण यश प्रचार। शुद्धाभदेव पूजू विचार, पाऊं आतम गुण मोक्ष द्वार || ॐ ह्रीं शुद्धाभदेवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। लक्ष्मीद्वयं बाह्यगतांतरंगभेदात्पदाग्रे विलुलोठ यस्य । यस्मात्सदा श्रीधरकीर्तिमापत्तमर्चयेद्याश्रितभव्यसार्थम् ॥४१॥ ६२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- अन्तर बाहर लक्ष्मी अधीरा, इन्द्रादिक सेवत नाय शीस । श्रीधर चरण श्री शिवकराय, आश्रयकर्ता भवदधि तराय ।। ॐ ह्रीं श्रीधराय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । श्रियं ददातीह सुभक्तिभाजां वृंदाय यस्मादिह नाम जातं । श्रीदत्तदेवं भवभीतिमुक्त्यै यजामि नित्याद्भुतधामलक्ष्म्यै ॥४२॥ भाषा- जो भक्ति करें मन वचन काय, दाता शिवलक्ष्मी के जिनाय । श्रीदत्त चरण पूजू महान, भवभय छूटे लहू अमल ज्ञान | ॐ हीं श्रीदत्त जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सिद्धाप्रभांगस्य विसर्पिणी तन्मध्येजनुः सप्तक्दर्शनेन । सम्यग्विशुद्धिर्मनसो यतस्त्वां सिद्धाभ ! यज्ञेऽर्चयितुं समीहे ।।४३॥ भाषा- भामण्डल छवि वरणी न जाय, जहं जीव लखै भव सप्त आय । मन शद्ध करें सम्यक्त पाय सिद्धाभ भजे भवभय नशाय ।। ॐ हीं सिद्धाभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्रभामतिः शक्तिरनेकधा हि सद्ध्यानलक्ष्म्या यत उत्तमार्थैः । संगीयतेत्वं ह्यमलां विभर्षि यतोऽर्चये त्वाममलप्रभाख्यं ॥४४|| भाषा- अमलप्रभ निर्मल ज्ञान धरे, सेवा में इन्द्र अनेक खड़े। नित संत सुमंगल गान करें, निज आतमसार विलास करें॥ ॐ ही अमलप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। अनेकसंसारगतं भ्रमेभ्य उद्धारकर्तेति बुधैरवादि । यतो मम भ्रांतिमपाकुरु त्वमुद्धारदेव प्रयजे भवंतं ॥४५|| भाषा- उद्धार जिनं उद्धार करें, भव कारण भांति विनाश करें। हम डूब रहे भवसागर में, उद्धार करो निज आत्म रमें ॥ ॐ हीं उद्धार जिनाय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा। दुष्टाष्टकर्मेधनदाहकर्ता यतोऽग्निनामाभ्युदितं यथार्थम् । ततो ममासाततृणव्रजेऽपि तिष्ठार्चये त्वां किमु पौनरूक्ते ॥४६|| भाषा- अग्निदेव जिनं हो अग्निमई, अठ कर्मन ईंधन दाह दई । हम असात तृणं कर दग्ध प्रभो, निज सम करले जिनराज प्रभो ॥ ॐ ह्रीं अग्निदेव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्राणेंद्रियद्वैधसुसंयमस्य दातारमुच्चैः कथयामि सार्व । मद्दत्तमर्घ जिन संगृहाण सुसंयम स्वीयगुणं प्रदेहि ॥४७|| भाषा- संयम जिन द्वैविध संयमको, प्राणी रक्षण इंद्रिय दमको । दीजे निश्चय निज संयमको, हरिये हम सर्व असंयमको ।। ॐ हीं संयम जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [६३ 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं शिवः शाश्वतसौख्यदायि स्वायंप्रभुः स्वात्मगुणप्रपन्नः । तस्मात्तदर्शप्रतिपन्नकामस्त्वामर्चये प्रांजलिना नतोऽस्मि ॥४८|| भाषा- शिव जिन शिव शाश्वत सौख्यकरी, निज आत्म विभूति स्वहस्त करी । हम शिव वाञ्छक कर जोड़ नमें, शिव लक्ष्मी दो नहिं काहू नमें । ॐ ह्रीं शिव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सत्कुंदमल्लीजलजादिपुष्पैरभ्यर्च्यमानः श्रियमादधाति । नान्माऽप्यसौ तादृश एव यस्मात् पुष्पांजलिं त्वां प्रतिपूजयामि ॥४९॥ भाषा- पुष्पांजलि पुष्प नितें जजिये, सब काम व्यथा क्षणमें हरिये । निज शील स्वभाव हि रम रहिये, निज आत्म जनित सुखको लहिये ॥ ॐ हीं पुष्पांजलि जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । उत्साहयन् ज्ञानधनेश्वराणां शाम्याम्बुधिं संयमचंद्रकीर्तेः । उत्साहनाथो यजनोत्सवेऽस्मिन् संपूजितो मे स्वगुणं ददातु ॥५०॥ भाषा- उत्साह जिनं उत्साह करें, निज संयम चन्द्र प्रकाश करें । समभाव समुद्र बढ़ावत हैं, हम पूजत तब गुण पावत हैं | ॐ हीं उत्साह जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । _ नमोऽस्तु नित्यं परमेश्वराय कृपा यदीयाक्षणसंनिधानात् । __ करोति चिंतामणिरीप्सितार्थमिवांचये तं परमेश्वराख्यं ॥५२॥ भाषा- चिंतामणि सम चिता हरिये, निज सम करिये भव तम हरिये । परमेश्वर जिन ऐश्वर्य धरें, जो पूजे ताके विघ्न हरें ॥ ॐ ह्रीं परमेश्वर जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। यज्जानरत्नाकरमध्यवर्ती जगत्त्रयं विंदसमं विभाति । तं ज्ञानसाम्राज्यपतिं जिनेंद्र ज्ञानेश्वरं संप्रति पूजयामि ।।५३।। भाषा- ज्ञानेश्वर ज्ञान समुद्र पाय, त्रैलोक बिंदु सम जहं दिखाय । निज आतमज्ञान प्रकाशकार, वंदू पूजू मैं बारबार ॥ ॐ ह्री ज्ञानेश्वर जिनाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा। तपोवृहद्भानुसमूह तापकृतात्मनैर्मल्यमनिर्मलानाम् । अस्मादृशां तद्गुणमाददानं संपूजयामो विमलेश्वरं तं ।।५३|| भाषा- कर्मों ने आत्म मलीन किया, तप अग्निजला निज शुद्ध किया। विमलेश्वर जिन मो विमल करो, मल ताप सकल ही शांत करो ।। ॐ ही विमलेश्वर जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। यशः प्रसारे सति यस्य विश्वं सुधामयं चंद्रकलावदातं । अनेकरूपं विकृतैकरूपं जातं समर्चे हि यशोधरेशं ॥५४|| भाषा- यश जिनका विश्व प्रकाश किया, शशि कर इव निर्मल व्याप्त किया। भट मोहं अरी ने शांत किया, यशधारी सार्थक नाम किया ।। ॐ ह्रीं यशोधरा जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ६४] 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधस्मराशातविघातनाय संजाततीव्रकुधिवात्मनाम । प्राप्तं तु कृष्णेति नु शुद्धियोगात् तं कृष्णमर्चे शुचिताप्रपन्नं ॥५५॥ भाषा- समता मय क्रोध विनाश किया, जग काम रिपूको शांत किया। शुचिता धर शुचिकर नाथ जजू, श्री कृष्णमती जिन नित्य भजू ।। ॐ हीं कृष्णमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञानं मतिर्भाव उपाश्रयादिरेकार्थएव प्रणिधानयोगात् । ज्ञानेमतिर्यस्य समासजातेर्यथार्थनामानमहं यजामि ॥५६।। भाषा- शुचि ज्ञानमती जिन ज्ञान धरे, अज्ञान तिमिर सब नाश करे | जो पूजे ज्ञान बढ़ावत है, आतम अनुभव सुख पावत है । ॐ ह्रीं ज्ञानमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। समस्यमानान्यपदार्थजातं धुरंधुरं मरथांगनेमिः । जिनेश्वरं शुद्धमतिं यजेत प्राप्नोति शुद्धां मतिमेव ना सः ॥५७|| भाषा- शुद्धमति जिन धर्म-धुरंधर, जानत विश्व सकल एकीकर । शुद्ध बुद्धि होवे जो पूजे, ध्यान करे भवि निर्मल हूजे ॥ ॐ ह्रीं शुद्धमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । संसारलक्ष्म्या अतिनश्वरायै जन्मःमुद्रामिव कुत्सयन्वा । भद्रा शिवश्रीरिति योगयुक्त्या श्रीभद्रमीशं रभसार्चयामि ।।५८।। भाषा- संसार विभूति उदास भए, शिवलक्ष्मी सार सुहात भए । निज योग विशाल प्रकाश किया, श्रीभद्र जिनं शिव वास लिया ॥ ॐ ह्रीं श्रीभद जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। अनंतवीर्यादिगुण प्रपन्नमात्मप्रभवानुभवैकगम्यं । अनंतवीर्यं जिनपं स्तवीमि यज्ञार्थभागैरूपलाल्यमानं ।।५९॥ भाषा- सत वीर्य अनन्त प्रकाश किये, निज आतमं तत्त्व विकाश किये। जिन वीर्य अनन्त प्रभाव धरे, जो पूजे कर्म कलंक हरे ।। ॐ हीं अनन्तवीर्य जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। ___ पूर्व विसर्पिण्यथ कालमध्ये संजातकल्याणपरंपराणाम् । संस्मृत्य सार्थ प्रगुणं जिनानां यज्ञेसमाहूय यजे समस्तान् ॥६०|| भाषा दोहा- भूत चौबीस जिन, गुण सुमरूं हरवार । ___ मंगलकारी लोकमें, सुख शांती दातार ॥ ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे यागमण्डलेश्वर द्वितीयवलयोन्मुदितनिर्वाणाधनन्तवीर्याढतेन्यो भूतजिनेभ्यो पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरे वलय में वर्तमान चौबीस जिन पूजा मनुनाभिमहीधरजात्मभुवं मरुदेव्युदरावतरंतमहं । प्रणिपत्य शिरोभ्युदयाय यजे कृतमुख्यजिनं वृषभं वृषभं ॥६१।। भाषा-चाल छन्द मनु नाभि मही धर जाए, मरुदेवि उदर उतराए । युग आदि सुधर्म चलाया, वृषभेष जजों वृष पाया ।। ॐ ह्रीं ऋषभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। जितशत्रुगृहं परिभूषयितुं व्यवहारदिशा तनुभूप्रभवं । नयनिश्चयतः स्वयमेवभुवमजितं जिनमर्चतु यज्ञधरं ॥६२।। भाषा- जितशत्रु जने व्यवहारा, निश्चय आयो अवतारा । सब कर्मन जीत लिया है, अजितेश सुनाम भया है । ॐ ह्रीं अजित जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। दृढराज सुवंशनभोमिहिरं त्रिजगत्रयभूषणमभ्युदयं । जिनसम्भवमूर्ध्वगतिप्रदमर्चनया प्रणमामि पुरस्कृतया ||६३।। भाषा- दृढ़राज सुवंश अकाशे, सूरज सम नाथ प्रकाशे । जग भूषण शिव गति दानी, संभव जज केवलज्ञानी ।। ॐ ह्रीं संभव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कपिकेतनमीश्वरमर्थयतो मृतिजन्मजरापदनोदयतः । __ भविकस्य महोत्सवसिद्धिमियादत एव यजे ह्यभिनंदनकं ॥६४|| भाषा- कपि चिन्ह धरे अभिनन्दा, भवि जीव करे आनन्दा । जम्मन मरणा दुख टारें, पूजे ते मोक्ष सिधारें ॥ ॐ हीं अभिनन्दन जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सुमतिं श्रितमय॑मतिप्रकरार्पणतोऽर्थकराख्यमवाप्सशिवं । महयामि पितामहमेतदधिजगतीत्रयमूर्जितभक्तिनुतः ॥६५॥ भाषा- सुमतीश जजों सुखकारी, जो शरम गहें मतिधारी । मति निर्मल कर शिव पावें, जग भ्रमण हि आप मिटावें ॥ ॐ ह्रीं सुमतिनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। __ धरणेशभवं भवभावमितं जलजप्रभमीश्वरमानमताम् । सुरसंपदियर्त्ति न केति यजे चरुदीपफलैः सुरवासभवैः ॥६६।। भाषा- धरणेश सुनृप उपजाए, पद्मप्रभ नाम कहाए।। है रक्त कमल पग चिन्हा, पूजत सन्ताप बिछिन्ना ।। ॐ ह्रीं पद्प्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ६६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ JainEducation International 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभपार्श्वजिनेश्वरपादभुवां रजसां श्रयतः कमलाततयः । कति नाम भवंति न यज्ञभुवि नयितुं महयामि महध्वनिभिः ।।६७॥ भाषा- जिन चरणा रज सिर दीनी, लक्ष्मी अनुपम कर कीनी । है धन्य सुपारश नाथा, हम छोड़े नहिं जग साथा || ॐ हीं सुपार्श्वनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। __ मनसा परिचिंत्य विधुः स्वरसात् मम कांतिहृतिर्जिनदेहघृणेः । __ इति पादभुवं श्रितवानिव तं जिनचंद्रपदांबुजमाश्रयत ।।६८॥ भाषा- शशि तुम लषि उत्तम जगमें, आया वसने तव पगमें । हम शरण गही जिन चरणा, चंद्रप्रभ भवतम हरणा ।। ॐ हीं चंद्रप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। __ सुमदंतजिनं नवमं सुविधीतिपराहमखंडमनंगहरं । शुचिदेहततिप्रसरं प्रणुतात् सलिलादिगणैर्यजतां विधिना ||६९|| भाषा- तुम पुष्पदंत जितकामी, है नाम सुविधि अभिरामी । वंदूं तेरे जुग चरणा, जासे हो शिवतिय वरणा || ॐ ह्रीं पुष्पदंत जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। शीतं सुखं लाति सदा सुजीवान्। तं शीतलं प्रणिगदंति यतीश्वराद्याः ॥ तं शीतलं श्रयत भव्यजना हि भक्त्या| यस्याश्रयेण भवतीहममापि सौख्यं ॥७०।। भाषा- श्री शीतलनाथ अकामी, शिव लक्ष्मीवर अभिरामी । शीतल कर भव आतापा, पूजूं हर मम संतापा ।। ॐ हीं शीतलनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। श्रेयोजिनस्थ चरणौ परिधार्य चित्ते संसारपंचतयदुर्भमणव्यपायः । श्रेयोऽर्थिनां भवति तत्कृतये मयाऽपि संपूज्यते यजनसद्विधिषु प्रशस्य ॥७१॥ भाषा- श्रेयांस जिना जुग चरणा, चित धारूं मंगल करणा । परिवर्तन पंच विनाशे, पूजनते ज्ञान प्रकाशे ॥ ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। इक्ष्वाकुवंशतिलको वसुपूज्यराजा यज्जन्मजातकविधौ हरिणार्चितोऽभृत् । तद्वासुपुज्यजिनपार्चनया पुनीतः स्यामद्य तत्प्रतिकृतिं चरुभिर्यजामि ।।७२।। भाषा- इक्ष्वाकु सुवंश सुहाया, वसुपूज्य तनय प्रगटाया । इन्द्रादिक सेवा कीनी, हम पूजें जिनगुण चीन्हीं ।। ॐ ह्रीं वासुपूज्य जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। कांपिल्यनाथकृतवर्मगृहावतारं श्यामाजयाहजननीसुखदं नमामि । कोलध्वजं विमलमीश्वरमध्वरेऽस्मिन्नर्चे द्विरुक्तमलहापनकर्मसिद्ध्यै ॥७३।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [६७ 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- कांपिल्य पिता कृतवर्मा, माता श्यामा शुचि धर्मा । श्री विमल परम सुखकारी, पूजा द्वै मल हरतारी ॥ ॐ ह्रीं श्री विमलनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। साकेतनायकनृपस्य च सिंहसेननाम्नस्तनूजममरार्चितपादपद्मं संपूजयामि विविधाहणया ह्यनंतनाथं चतुर्दशजिनं सलिलाक्षतौधैः ।।७४॥ भाषा- साकेता नगरी भारी, हरिसेन पिता अविकारी । सुर असुर सदा जिन चरणा, पूजें भवसागर तरणा ।। ॐ ह्रीं अनन्तनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। धर्मं द्विधोपदिशता सदसींद्रधार्ये किं किं न नाम जनताहितमन्वदर्शि । श्रीधर्मनाथ! भवतेति सदर्थनाम संप्राप्तयेऽर्चनविधिं पुरतः करोमि ।।७५|| भाषा- समवसत द्वैविध धर्मा, उपदेशो श्री जिनधर्मा ! हितकारी तत्त्व बताए, जासे जन शिवमग पाए । ॐ ह्रीं धर्मनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । श्रीहस्तिनागपुरपालक विश्वसेनः स्वांके निवेश्य तनयामृतपुष्टितुष्टः । एराऽपि सा सुकुरुवंशनिधानभूमिर्यस्माद् बभूव जिनशांतिमिहाश्रयामि ||७६।। भाषा- कुरुवंशी श्री विश्वसेना, एरादेवी सुख दैना । श्री हस्तिनागपुर आए, जिन शांति जजों सुख पाए ॥ ॐ हीं शांतिनाथ जिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । श्रीकुंथुनाथजिनजन्मनिषदनिकायजीवाः सुखं निरुपमं बुभुजुर्विशंकं । किं नाम तत्स्मृतिनिराकुलमानसोऽहं भुंक्ष्वे न सत्त्वरमतोऽर्चनमारभेय,॥७७|| भाषा- श्री कुन्थु दयामय ज्ञानी,रक्षक षटकायी प्राणी, सुमरत आकुलता भाजे, पूजत ले दर्व सु ताजे ॥ ॐ हीं कुन्थुनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सद्दर्शनप्लुतसुदर्शनभूपपुत्रं त्रैलोक्यजीववररक्षणहेतुमित्रम् । श्रीमित्रसेनजननीखनिरत्नमर्चे श्रीपुष्पचिह्नमरनाथजिनेंद्रमर्थ्यम् ॥७८|| भाषा- शुभदृष्टी राय सुदर्शन, अर जाए त्रय भू पर्शन । माता सेना उर रत्नं, धर चिन्ह सुमन जज यत्नं ॥ ॐ हीं अरनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। कुंभोद्भवं धरणिदुःखहरं प्रजावत्यानंदकारकमतंद्रमुनींद्रसेव्यं । श्रीमल्लिनाथंविभुमध्वरविघ्नशांत्यै संपूजये जलसुचंदनपुष्पदीपैः ॥७९॥ भाषा- नृप कुम्भ धरणिसे जाए, जिन मल्लिनाथ मुनि नाए । जिन यज्ञ विघ्न हरतारे, पूजू शुभ अघ उतारे ॥ ॐ ह्रीं मल्लिनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ६८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजत्सुराजहरिवंशनभोविभास्वान् वप्रांबिकाप्रियसुतो मुनिसुव्रताख्यः । संपूज्यते शिवपथप्रतिपत्यहेतुर्यज्ञे मया विविधवस्तुभिरर्हणेऽस्मिन् ॥८०॥ भाषा- हरिवंश सु सुन्दर राजा, वप्रा माता जिन राजा । मुनि सुव्रत शिव पथ कारण, पूजूं सब विघ्न निवारण ।। ॐ ह्रीं मुनिसुव्रत जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सन्मैथिलेशविजयाह्वगृहेऽवतीर्णं कल्याणपंचकसमर्चितपादपद्मं । धर्माबुवाहपरिपोषित भव्यशस्यं नित्यं नमिं जिनवरं महसार्चयामि ||८१|| भाषा- मिथलापुर विजय नरेन्द्रा, कल्याण पांच कर इन्द्रा । नमि धर्मामृत वर्षायो, भव्यन खेती अकुलायो । ॐ ह्रीं नमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। द्वारावतीपति समुद्रजयेशमान्यं श्रीयादवेशबलकेशवपूजितांह्निम् । शंखांकमंबुधरमेचकदेहमर्चे सद्ब्रह्मचारिमणिनेमिजिनं जलाद्यैः ।।८२।। भाषा- द्वारावति विजयसमुद्रा, जन्मे यदुवंश जिनेन्द्रा । हरिबल पूजित जिन चरणा, शंखांक अंबुधर बरणा ।। ॐ ही नेमिनाथ जिनाय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा। काशीपुरीशनृपभूषणविश्वसेननेत्रप्रियं कमठशाठ्यविखंडनेनं । पद्माहिराजविबुधव्रजपूजनांकं वंदेऽर्चयामि शिरसा नतमौलिनीतः ।।८३।। भाषा- काशी विश्वसेन नरेशा, उपजायो पार्श्वजिनेशा । पद्मा अहिपति पग वंदे, रिपु कमठ मान नि:कंदे ।। ॐ ही पार्श्वजिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सिद्धार्थभूपतिगणेन पुरस्क्रियायामानंदतांडवविधौ स्वजनुः शशंसे । श्रीश्रेणिकेन सदसि ध्रुवभूपदाप्त्यै यज्ञेऽर्चयामि वरवीरजिनेंद्रमस्मिन् ॥८४॥ भाषा- सिद्धार्थराय त्रय ज्ञानी, सुत वर्द्धमान गुण खानी । समवसृत श्रेणिक पूजे, तुम सम है दैव न दूजे ॥ ॐ ही वर्द्धमान जिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अत्राहूतसुपर्वपर्वनिकरे बिंबप्रतिष्ठोत्सवे संपूज्याश्चतुरुत्तरा जिनवरा विंशप्रमाः संप्रति । संजाग्रत्समयादयैकसुकृतानुद्धार्य मोक्षं गतास्तेऽत्रागत्य समस्तमध्वरकृतं गृह्णतु पूजाविधिं ॥८५|| भाषा- वर्तमान चौबीस जिन, उद्धारक भवि जीव । बिम्बप्रतिष्ठा साधने, यजूं परम सुखनीव ॥ ॐ ही अस्मिन् यागमण्डले मरवमुख्यार्चित तृतीयवलयोटमुदितवर्तमानचतुर्विंशतिजिनेभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [६९ 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे वलय में भविष्यकालीन चौबीस तीर्थंकरों की पूजा पद्मा चलेत्यंकनलुप्तिकामा जिनस्य पादावचलौ विचार्य । यत्पादपद्मे वसतिं चकार सोऽयं महापद्मजिनोऽर्च्यतेऽधैः ।।८६।। चौपाई भाषा- महापद्म जिन भावी नाथ, श्रेणिक जीव जगत विख्यात । लक्ष्मी चंचल लिपटी आन, तव चरणा पूजूं भगवान ॥ ॐ हीं महापद्म जिनाय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा। देवाश्चतुर्भेदनिकायभिन्नास्तेषां पदौ मूर्धनि संदधानः । तेनैव जातं सुरदेवनाम तमर्चये यज्ञविधौ जलाधैः ॥८७।। भाषा- देव चतुर्विधि पूजे पाय, नाय नाय सुरप्रभ जिनराय । ___ मैं सुमरण करके हरषाय, पूजूं हर्ष न अंग समाय । ॐ ह्रीं सुख्खभ जिनाय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । सेवार्थमुत्प्रेक्ष्य न भूतिदाता कारुण्यबुद्ध्यैव ददाति लक्ष्मीम् । यतो जिनः सुप्रभुरायसार्थं नामार्चयेऽहं विधिनाध्वरीयैः ।।८८|| भाषा- सुप्रभु जिनके वंदूं पाय, सेवकजन सुखसार लहाय । करुणाधारी धनदातार, जो अविनाशी जियसुखकार ।। ॐ ह्रीं सुप्रभु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । न केनचित्पट्टविधायि मोक्षसाम्राज्यलक्ष्म्याः स्वयमेव लब्धं । स्वयंप्रभत्वं स्वयमेव जातं यस्याय॑ते पादसरोजयुग्मं ॥८९।। भाषा- मोक्ष राज्य देवे नहिं कोय, स्वयं आत्मबल लेवें सोय । देव स्वयंप्रभ चरण नमाय, पूजूं मन वच ध्यान लगाय ॥ ॐ हीं स्वयंप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सर्वं मनः कायवचः प्रहारे कर्मागसां शस्त्रमभूद् यतो यः । सर्वायुधाख्यामगमन्मयाद्य संपूज्यतेऽसौ कृतुभागभाज्यैः ॥९०|| भाषा- मन वच काय गुप्ति धरतार, तीव्र शस्त्र अघ मारणहार । सर्वायुध जिन साम्य प्रचार, पूजत जग मंगल करतार ।। ॐ ही सर्वायुधदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । कर्मद्विषां मूलमपास्य लब्धो जयोऽन्यमत्यैरपि योऽनवाप्यः । ततो जयाख्यामुपलभ्यमानो मयार्हणाभिः परिपूज्यतेऽसौ ॥९०|| ७०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- कर्म शत्रु जीतन बलवान, श्रीजयदेव परम सुखखान । पूजत मिथ्यातम विघटाय, तत्त्व कुतत्त्व प्रगट दरशाय । ॐ हीं जयदेवाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। - आत्मप्रभावोदयनान्नितांतं लब्धोदयत्वादुदयप्रभाख्यां । समाप यस्मादपि सार्थकत्वात् कृतार्चनं तस्य कृती भवामि ॥९१॥ भाषा- आत्मप्रभाव उदयजिन भयो, उदयप्रभजिन तातें थयो। पूजत उदय पुण्यका होय, पापबन्ध सब डाले खोय ।। ॐ हीं उदयप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्रभा मनीषा प्रकृत्तिर्मतिप्रिभृत्युदीर्णैकफलेति मत्त्वा । जाता प्रभादेव इति प्रशस्तिस्ततोऽर्चनातोहमपि प्रयामि ||९२॥ भाषा- प्रभा मनीषा बुद्धिप्रकाश, प्रभादेवजिन छूटी आश । पूजत प्रभा ज्ञान उपजाय, संशय तिमिर सबै हट जाय ।। ॐ हीं प्रभादेवजिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । उदंकदेव त्वयि भक्तिभोग्य घटी घटी सा न तदुच्यते हा । त्वामेव लब्ध्वा जननं प्रयातं वरं यतस्त्वामहं महामि ॥९३|| भाषा- भव्यभक्तिजिनराजकराय, सफल काल तिनका होजाय । देव उदंक पूज जो करें, मनुष देह अपनी वर करें । ॐ ही उदंकदेव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सुरासुर स्वांतगतभ्रमैकविध्वंसने प्रश्नकृतोपपत्या । कीर्तिं ययौ प्रोष्ठिलमुख्यनामस्तवैर्निरुक्तोऽहमुदंच्यामि ।।९४॥ भाषा- सुरविद्याधर प्रश्न कराय, उत्तर देत भरम टल जाय । प्रश्नकीर्तिजिन यश के धार, पूजत कर्मकलंक निवार ॥ ॐ ह्रीं प्रश्नकीर्ति जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। पापाश्रवाणां दलनाद् यशोभिर्व्यक्तेर्जयात् कीर्तिसमागमेन । निरुक्तलक्ष्म्यै जयकीर्तिदेवं स्तवसजा नित्यमुपाचरामि ॥१५॥ भाषा- पाप दलनते जयको पाय, निर्मल यश जगमें प्रगटाय । गणधरादि नित वन्दन करें, पूजत पापकर्म सब हरें ॥ ॐ हीं जयकीर्ति देवाय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा । कैवल्यभानातिशये समग्रा बुद्धिप्रवृत्तिर्यत उत्तमार्था । तत्पूर्णबुद्धेश्चरणौ पवित्रावयेन यायज्मि भवप्रणष्ट्यै ॥९६।। भाषा- बुद्धिपूर्ण जिन वंदूं पाय, केवलज्ञान ऋद्धि प्रगटाय । चरण पवित्र करण सुखदाय, पूजत भव बाधा नश जाय ॥ ॐ हीं पूर्णबुद्धि जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [७१ _ 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधादयश्चात्मसपत्नभावं स्वधर्मनाशान्न जहत्युदीर्णं । तेषां हतिर्येन कृता स्वशक्तेस्तं निःकषायं प्रयजामि नित्यं ॥९७|| भाषा- हैं कषाय जगमें दुखकार, आत्मधर्मक नाशनहार । निःकषाय होंगे जिनराज, तातें पूजू मंगल काज ॥ ॐ ह्रीं निःकषाय जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। मलव्यपायान्मननात्मलाभाद् यथार्थशब्दं विमलप्रभेति । लब्धं कृतौ स्वीयविशुद्धिकामाः संपूजयामस्तमनय॑जातं ।।९८॥ भाषा- कर्मरूप मल नाशनहार, आत्म शुद्ध कर्ता सुखकार । विमलप्रभ जिन पूजू आय, जासे मन विशुद्ध होजाय ।। ॐ ही विमलप्रम देवाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। भास्वद्गुणग्रामविभासनेन पौरस्त्यसंप्राप्तविभावितानं । संस्मृत्य कामं बहुलप्रभं तं समर्चये तद्गुणलब्धिलुब्धः ॥९९।। भाषा-दीप्तवंत गुण धारणहार, बहुलप्रभ पूजों हितकार । आतम गुण जासों प्रगटाय, मोहतिमिर क्षणमें विनशाय ।। ॐ हीं बहुलप्रभदेवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। नीराभ्ररत्नानि सुनिर्मलानि प्रवाद एषोऽनृतवादिनां वै । येन द्विधा कर्ममलो निरस्तः स निर्मलः पातु सदर्चितो माम् ।।१००।। भाषा- जलनभरत्न विमल कहवाय, सो अभूत व्यवहार वसाय । भाव कर्म अठकर्म महान, हत निर्मल जिन पूजू जान ।। ॐ ह्रीं निर्मल जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मनोवचःकायनियंत्रणेन चित्राऽस्ति गुप्तिर्यदवाप्तिपूर्तेः । तं चित्रगुप्ताह्वयमर्चयामि गुप्तिप्रशंसाप्तिरियं मम स्यात् ।।१०१।। भाषा- मनवचकाय गुप्ति धरतार, चित्रगुप्ति जिन हैं अविकार । पूजूं पग तिन भाव लगाय, जासें गुप्तित्रय प्रगटाय ।। ॐ ह्रीं चित्रगुप्ति जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अपारसंसारगतौ समाधिर्लब्धो न यस्माद् विहितः स येन । समाधिगुप्तिर्जिनमर्चयित्वा लभे समाधिं त्विति पूजयामि ।।१०२॥ भाषा- चिरभव भ्रमण करत दुख सहा, मरण समाधि न कबहूं लहा। गुप्ति समाधि शरणको पाय, जजत समाधि प्रगट हो जाय ।। ॐ ह्रीं समाधिगुप्ति जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। स्वयं विनाऽन्यस्य सुयोगमात्मस्वशक्तिमुद्भाव्यनिजस्वरूपे । व्यक्तो बभूवेतिजिनः स्वयंभूर्दध्यात् शिवं पूजनयानयार्थ्यः ।।१०३।। भाषा- अन्य सहाय बिना जिनराज, स्वय लेंय परमातमराज । नाथ स्वयंभू मग शिवदाय, पूजत बाधा सब टल जाय ।। ॐ ह्रीं स्वयंभू जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ७२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदर्पनाम स्मरसद्भटस्य मुधैव नामेति तदर्दनोद्घः । प्रशस्तकंदर्प इयाय शक्तिं यतोऽर्चयेऽहं तदयोगबुद्धयै ।।१०४|| भाषा- मदनदर्पके नाशनहार, जिनकंदर्प आत्मबलधार । दर्प अयोग बुद्धिके काज, पूजू अर्घ लिये जिनराज || ॐ ही कंदर्प जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अनेकनामानि गुणैरनंतैर्जिनस्य बोध्यानि विचारवद्भिः । जयं तथा न्यासमथैकविंशमनागतं संप्रति पूजयामि ॥१०५॥ भाषा- गुण अनन्त ते नाम अनन्त, श्रीजयनाथ धरम भगवंत । पूनूं अष्टद्रव्य कर लाय, विघ्न सकल जासे टल जाय ॥ ॐ ह्रीं जयनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। अभ्यर्हितात्मप्रगुणस्वभावं मलापहं श्रीविमलेशमीशं । पात्रे निघायार्घ्यमफल्गुशीलोद्धरप्रशक्त्यै जिनमर्चयामि ॥१०६॥ भाषा- पूज्य आत्म गुणधर मलहार, विमलनाथ जय परम उदार । शील परम पावनके काज, पूजू अर्घ लेय जिनराज || ॐ ह्रीं विमल जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अनेकभाषा जगति प्रसिद्धा परंतु दिव्यो ध्वनिरर्हतो वै । ___ एवं निरूप्यात्मनि तत्त्वबुद्धिमभ्यर्चयामो जिनदिव्यवादं ॥१०७।। भाषा- दिव्यवाद अर्हन्त अपार, दिव्यध्वनि प्रगटावनहार | आत्मतत्त्वज्ञाता सिरताज, पूजू अर्घ लेय जिनराज || ॐ हीं दिट्यवाद जिनाय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा। शक्तेरपारश्चित एव गीतस्तथापि तद्व्यक्तिमियर्ति लब्ध्या । ___ अनंतवीर्यं त्वमगाः सुयोगात्त्वामर्चये त्वत्पदघृष्टमूर्ना ॥१०८।। भाषा- शक्ति अपार आत्म धरतार, प्रगट करें जिन योग सम्हार । __ वीर्य अनन्तनाथको ध्याय, नत मस्तक पूजूं हरषाय ॥ ॐ ह्रीं अनन्तवीर्य जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । . काले भाविनि ये सुतीर्थधरणात् पूर्वं प्ररूप्यागमे, विख्याता निजकर्मसंततिमपाकृत्य स्फुरच्छक्तयः । तानत्र प्रतिकृत्यपावृतमखे संपूजिता भक्तितः, प्राप्ताशेषगुणस्तदीप्सितपदावाप्त्यै तु संतु श्रिये ॥१०९॥ भाषा- दोहा तीर्थराज चौबीस जिन, भावी भव हरतार | बिम्बप्रतिष्ठा कार्य में, पूजूं विघ्न निवार ।। ॐ हीं बिप्रतिष्ठोद्यापने मुख्यपूजार्हचतुर्थवलयोन्मुदितानागतचतुर्विंशतिमहापद्माद्यनंतदीयतिभ्यो जिनेभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [७३ ___ 2010_05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवें वलय में बीस विदेह तीर्थंकर पूजा सीमंधरं मोक्षमहीनगर्याः श्रीहंसचित्तोदय भानुमंतं । यत्पुंडरीकाख्यपुरस्वजात्या पूतीकृतं तं महसार्चयामि ॥११०।। भाषा - छंद सृग्विणी मोक्ष नगरीपति हंस राजासुतं, पुंडरीकी पुरी राजते दुखहंतं । श्रीमंधर जिना पूजते दुखहना, फेर होवे न या जगत में आवना ।। ॐ हीं सीमंधर जिनाय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा। युग्मंधर धर्मनयप्रमाणवस्तुव्यवस्थादिषु युग्मवृत्तेः । संधारणात् श्रीरुहभूपजातं प्रणम्य पुष्पांजलिनार्चयामि ||१११।। भाषा- धर्मद्वय वस्तु द्वय नय प्रमाणद्वयं, नाथ जुगमंधरं कथितं व्रत द्वयं । भूपश्री रुह सुतं ज्ञानकेवल गतं, पूजिये भक्तिसे कर्मशत्रू हतं ॥ ॐ हीं जुगमंधर जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सुग्रीवराजोद्भवमेणचिन्हं सुसीमपुर्यां विजयाप्रसूतं । बाहुं त्रिलोकोद्धरणाय बाहुं मखे पवित्रेऽर्चितमर्पयामि ॥११२।। भाषा- भूपसुग्रीव विजयासे जाए प्रभू, एणचिन्हं धरे जीतते तीन भू । स्वच्छ सीमापुरी राजते बाहुजिन, पूजिये साधुको राग रुष दोष बिन ॥ ॐ हीं बाहु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। निःशल्यवंशाभ्रगभस्तिमंतं सुनंदया लालितमुग्रकीर्तिं । अबंध्यदेशाधिपतिं सुबाहुं तोयादिभिः पूजितुमुत्सहेऽहं ||११३॥ भाषा- वंशनभ निर्मलं सूर्यसम राजते, कीर्तिमय बंध्यविन क्षेत्र शुभ शोभते । मात सुन्दर सुनन्दा सुतं भवहतं, पूजते बाहु शुभ भवभयं निर्गतं । ॐ ह्रीं सुबाहु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीदेवसेनात्मजमर्यमांकं विदेहवर्षेप्यलकापुरिस्थं । संजातकं पुण्यजनुर्धरत्वात् साख्यिमर्चेऽत्र मखे जलाद्यैः ॥११४॥ भाषा- जन्म अलकापुरी देवसेनात्मजं, पुण्यमय जन्मए नाथ संजातकं । पूजिये भावसे द्रव्य आठों लिये, और रस त्यागकर आत्मरस को पिये ॥ ॐ ह्रीं संजातक जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । स्वयंकृतात्मप्रभवत्वहेतोः स्वयंप्रभुं सद्धृदयस्वभूतं । सन्मंगलापूःस्थमनुष्णकांतिचिह्नं यजामोऽत्र महोत्सवेषु ।।११५|| ७४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- जन्मपुर मंगला चन्द्र चिह्न धरे, आपसे आप ही भव उदधि उद्धरे । प्रभस्वयं पूजते विघ्न सारे टरे, होय मंगल महा कर्मशत्रू डरे ॥ ॐ ह्रीं स्वयंप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीवीरसेना प्रसवं सुसीमाधीशं सुराणामृषभाननं तं । ईशं सुसौभाग्यभुवं महेशमर्चे विशालैश्चरुभिर्नवीनैः ।।११६।। भाषा- वीरसेना सुमाता सुसीमापुरी, देवदेवी परमभक्ति उरमें धरी । देव ऋषभाननं आननं सार है, देखते पूजते भव्य उद्धार है ।। ॐ हीं ऋषभानन देवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । यस्यास्ति वीर्यस्य न पारमभ्रे तारागणस्येव नितांत रम्यं । अनंतवीर्यप्रभुमर्चयित्वा कृतीभवाम्यत्र मखे पवित्रे ॥११७|| भाषा- वीर्यका पार ना ज्ञानका पार ना, सुक्खका पार ना ध्यान का पार ना । आपमें राजते शांतमय छाजते, अन्तविन वीर्यको पूज अघ भाजते ॥ ॐ ह्रीं अनन्तवीर्य जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वृषांकमुच्चैश्चरणे विभाति यस्यापरस्ताद् वृषभूतिहेतुः । सूरिप्रभुं तं विधिना महामि वार्मुख्यतत्त्वैः शिवतत्त्वलब्ध्यै ॥११८॥ भाषा- अंकवृष धारते धर्म वृष्टी करें, भाव संतापहर ज्ञान सृष्टी करें। नाथ सूरिप्रभं पूजते दुखहनं, मुक्ति नारी वरं पादुपे निजधनं । ॐ ह्रीं सूरिप्रभ जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वीर्येशभूमीरुहपुष्पमिंद्रसल्लांछनं पुंडरपूस्तिरीटं । विशालमीशं विजयाप्रसूतामर्चामि तद्ध्यानपरायणोऽहं ।।११९|| भाषा- पुंडरं पुरवरं मात विजया जने, वीर्य राजा पिता ज्ञानधारी तने | जुग्म चरणं भजे ध्यान इकतान हो, जिन विशालप्रभं पूज अघहान हो ।। ॐ ह्रीं विशालप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा। सरस्वतीपद्मरथांगजातं शंखांकमुच्चैः श्रियमीशितारं । संमान्य तं वज्रधरं जिनेन्द्रं जलाक्षतैरर्चितमुत्करोमि ॥१२०॥ भाषा- वज्रधर जिनवरं पद्मरथके सुतं, शंख चिह्न धरे मान रुष भयगतं । मात सरसुति बड़ी इन्द्र सन्मानिता, पूजते जासको पाप सब भाजता ।। ॐ ह्रीं वाधर जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [७५ 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकवंशांबुधिशीतरश्मिं दयावतीमातृकमंक्यगावं । सत्पुडरीकिण्यवनं जिनेन्द्रं चन्द्राननं पूजयताज्जलाधैः ॥१२१॥ भाषा- चन्द्र आननजिनं चन्द्रको जयकरं, कर्मविध्वंसकं साधुजनशमकरं । मात करुणावती नगर पुंड्रीकिनी, पूजते मोहकी राज्यधानी छिनी ।। ॐ हीं चन्द्रानन जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीरेणुका मातृकमब्जचिह्न देवेशमुत्पुत्रमुदारभावं । श्रीचन्द्रबाहुं जिनमर्चयामि कृतुप्रयोगे विधिना प्रणम्य ॥१२२।। भाषा- श्रीमती रेणुका मात है जासकी, पद्मचिह्नं धरे मोहको मात दी । चन्द्रबाहुजिनं ज्ञानलक्ष्मीधरं, पूजते जासके मुक्तिलक्ष्मीवरं ।। ॐ हीं चन्द्रबाहु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । भुजंगमं स्वीयभुजेन मोक्षपंथावरोहाधृतनामकीर्तिम् । महानलक्ष्मीपतिपुत्रमर्चे चन्द्रांकयुक्तं महिमाविशालं ॥१२३|| भाषा- नाथ निज आत्मबल मुक्ति पथ पग दिया, चन्द्रमा चिह्न धर मोहतम हर लिया। बलमहाभूपती हैं पिता जासके, गमभुजं नाथ पूगे न भवमें छके । ॐ हीं भुजंगम जिनाय अर्घ्यम् निर्यपामीति स्वाहा | ज्वालाप्रसूर्येन सुशांतिमाप्ता कृतार्थतां वा गलसेनभूपः । सोऽयं सुसीमापतिरीश्वरो मे बोधिं ददातु त्रिजगद्विलासां ।।१२४।। भाषा- मात ज्वाला सती सेन गल भूपती, पुत्र ईश्वर जने पूजते सुरपती । स्वच्छ सीमानगर धर्मविस्तारकर, पूजते हो प्रगट बोधिमय भासकर || ॐ हीं ईश्वर जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। नेमिप्रभं धर्मरथांगवाहे नेमिस्वरूपं तपनांकमीडे । वाश्चन्दनैः शालिसुमप्रदीपैः धूपैः फलैश्चारुचरुप्रतानैः ।।१२५।। भाषा- नाथ नेमिप्रभं नेमि हैं धर्मरथ, सूर्यचिह्न धरे चालते मुक्तिपथ । अष्टद्रव्यं लिये पूजते अघ हने, ज्ञानवैराग्य से बोधि पार्वे घने ॥ ॐ ह्रीं नेमिप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । श्रीवीरसेनाप्रभवं प्रदुष्टकर्मारिसेनाकरिणे मृगेंद्रः । यः पुंडरीशं जिनवीरसेनं सद्भूमिपालात्मजमर्चयामि ॥१२६।। - ७६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- वीरसेना सुतं कर्मसेना हतं, सेनशूरं जिनं इन्द्र से वंदितं । पुंडरीकं नगर भूमि पालक नृपं, हैं पिता ज्ञानसूरा करूं मैं जपं ॥ ॐ हीं वीरसेना जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। यो देवराजक्षितिपालवंशदिवामणिः पूर्विजयेश्वरोऽभूत् । उमाप्रसूनो व्यवहारयुक्त्या श्रीमन्महाभद्र उदय॑तेऽसौ ॥१२७|| भाषा- नग्र विजया तने देव राजा पती, अर उमा मातके पुत्र संशय हती । जिन महाभद्रको पूजिये भद्रकर, सर्व मंगल करै मोह संताप हर ।। ॐ ह्रीं महाभद्र जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। गंगाखनिस्फारमणिं सुसीमापुरीश्वरं वै स्तवभूतिपुत्रं । स्वस्तिप्रदं देवयशोजिनेंद्रमर्चामि सत्स्वस्तिकलांछनीयं ॥१२८॥ भाषा- है सुसीमा नगर भूप भूतिस्तवं, मात गंगा जने द्योतते त्रिभुवं । लांक्षणं स्वस्तिकं जिन यशोदेव को, पूजिये वंदिये मुक्ति गुरु देव को ॥ ॐ ह्रीं देवयशो जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कनकभूपतितोकमकोपकं कृततपश्चरणार्दितमोहकं । अजितवीर्यजिनं सरसीरूहविशदचिह्नमहं परिपूजये ॥१२९।। भाषा- पद्मचिह्नं धरे मोहको वश करे, पुत्र राजा कनक क्रोधको क्षय करे | ध्यान मण्डित महावीर्य अजितं धरे, पूजते जासको कर्म-बंधन टरे ॥ ॐ ह्रीं अजितवीर्य जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। एवं पंचमकोष्ठपूजितजिनाः सर्वे विदेहोद्भवा । नित्यं ये स्थितिमादधुः प्रतिपतत्तन्नाममंत्रोत्तमाः ।। कस्मिंश्चित्समयेऽभ्रषट्विधुमितं पूर्णं जिनानां मतं । ते कुर्वन्तु शिवात्मलाभमनिशं पूर्णार्घसंमानिताः ॥१३०॥ भाषा दोहा राजत वीस विदेह जिन, कबहिं साठ शत होय । पूजत बंदत जासको, विघ्न सकल क्षय होय ।। ॐ हीं बिम्बप्रतिष्ठाध्वरोद्यापने मुस्टयपूजाह पंचमवलयोटमुदित विदेहक्षेत्रेसुषष्ठिसहितैकशतजिनेश संयुक्तनित्यविहरमाण विंशतिजिनेभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___JainEducation International 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) छठे वलय में आचार्य परमेष्ठी के ३६ गुणों की पूजा मोहात्ययादाप्तट्टशोः स पंचविंशातिचारत्यजनादवाप्तां । सम्यक्त्वशुद्धिं प्रतिरक्षतोऽर्चे आचार्यवर्यान् निजभावशुद्धान् ॥१३१।। भाषा भुजंगप्रयात छन्द हटाए अनन्तानुबन्धी कषाये, करणसे हैं मिथ्यात तीनों खपाए । अतीचार पच्चीसको हैं बचाए, सु आचार दर्शन परम गुरु धराए । ॐ ह्रीं दर्शनाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । विपर्ययादिप्रहृतेः पदार्थज्ञानं समासाद्य परात्मनिष्ठं । दृढ़प्रतीतिं दधतो मुनींद्रानः स्पृहाध्वंसनपूर्णहर्षान् ॥१३२।। भाषा- न संशय विपर्यय न है मोह कोई, परम ज्ञान निर्मल धरे तत्त्व जोई । स्वपरज्ञानसे भेदविज्ञान धारे, सु आचार ज्ञानं स्व अनुभव सम्हारे ।। ॐ ह्रीं ज्ञानाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । आत्मस्वभावे स्थितिमादधानांश्चरित्रचारुव्रतधौर्यधर्तृन् । द्विधा चरित्रादचलत्वमाप्तानार्यान् यजे सद्गुणरत्नभूषान् ॥१३३॥ भाषा- सुचरित्र व्यवहार निश्चय सम्हारे, अहिंसादि पांचों व्रत शुद्ध धारे । अचल आत्ममें शुद्धता सार पाए, जजूं पद गुरु के दख अष्ट लाए । ॐ ह्रीं चारित्राचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । बाह्यांतरद्वैधतपोऽभियुक्तान् सुदर्शनाद्रिं हसतोऽचलत्वात् । __ गाढावरोहात्मसुखस्वभावान् यजामि भक्तया मुनिसंघपूज्यान् ॥१३४|| भाषा- तपें द्वादशों तप अचल ज्ञानधारी, सहें गुरु परीषह सुसमता प्रचारी। परम आत्म रस पीवते आपही तें, भजू में गुरु छूट जाऊं भवों तें ॥ ॐ हीं तपाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । स्वात्मानुभावोद्भटवीर्यशक्ति दृढा भियोगावनतः प्रशक्तान् । परीषहापीडनदुष्टदोषागतौ स्ववीर्यप्रवणान् यजेऽहं ॥१३५!। भाषा- परम ध्यान में लीनता आप कीनी, न हटते कभी घोर उपसर्ग दीनी । सु आतम बली वीर्यकी ढाल धारी, परम गुरु जजू अष्ट द्रव्ये सम्हारी ।। ॐ हीं वीर्याचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। चतुर्विधाहारविमोचनेन द्वित्र्यादिघस्रेषु तृषाक्षुधादेः । अम्लानभावं दधतस्तपस्थान मि यज्ञे प्रवरावतारान् ॥१३६।। ७८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- तपः अनशनं जो तपें धीरवीरा, तजें चारविध भोजनं शक्ति धीरा ।। कभी मास पक्षं कभी चार त्रय दो, सु उपवास करते जजूं आप गुण दो ॥ ॐ हीं अनशनतपोयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। __ त्रिभागभोज्ये क्षितिवेदवह्निग्रासाशने तुष्टिमतो मुनींद्रान् ।। ध्यानावधानाधभिवृद्धिपुष्टान् निद्रालसौ जेतुमितान् यजामि ॥१३७|| भाषा- सु ऊनोदरी तप महा स्वच्छ कारी, करे नींद आलस्य का नहिं प्रचारी । सदा ध्यानकी सावधानी सम्हारे, जजूं मैं गुरु को करम धन विदारें ॥ ॐ हीं अवमोदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। श्रृंगाग्रलग्नं वसनं नवीनं रक्तं नीरीक्ष्यैव भुजिं करिष्ये । __ इत्यादिवृत्तौ निरतानलक्ष्यभावान् मुनींद्रानहमर्चयामि ॥१३८॥ भाषा- जमी भोजना हेतु पुरमें पधारें, तभी दृढ़ प्रतिज्ञा गुरु आप धारें । यही वृत्तिपरिसंख्य तप आशहारी, भजूं जिन गुरु जो कि धारे विचारी ॥ ॐ ह्रीं वृत्तिपरिसंख्यानतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मिष्टाज्यदुग्धादिरसापवृत्तेः परस्य लक्ष्येऽप्यवभासनेन । त्यागे मुदं चेष्टितमत्ययोगाद् धर्तृन् गणेशाधिपतीन् यजामि ||१३९|| भाषा- कभी छः रसों को कभी चार त्रय दो, तजें राग वर्जन गुरु लोभजित हो । धरें लक्ष्य आतम सुधा सार पीते, जजूं मैं गुरु को सभी दोष बीते ॥ ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । दरीषु भूघ्रोपरिषु श्मशाने दुर्गे स्थले शून्यगृहावलीषु । शय्यासने योग्यदृढासनेन संधार्यमाणान् परिपूजयामि ।।१४०।। भाषा- कभी पर्वतों पर गुहा बन मशाने, धरें ध्यान एकांत में एकताने । धरें आसना दृढ़ अचल शांति धारी, जजूं मैं गुरु को भरम तापहारी ॥ ॐ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। ग्रीष्मे महीधे सरितां तटेषु शरत्सु वर्षासु चतुष्पथेषु । योगं दधानान् तनुकष्टदाने प्रीतान् मुनींद्रान् चरुभिः प्रणामि ॥१४१।। भाषा- ऋतू उष्ण पर्वत शरद्रितु नदी तट, अधोवृक्ष वर्षात में या कि चउ पथ । करें योग अनुपम सहें कष्ट भारी, जजूं मैं गुरु को सु सम दम पुकारी ॥ ॐ ह्रीं कायक्लेशतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिन्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। संभाव्य दोषानुनयं गुरुभ्य आलोचनापूर्वमहर्निशं ये । तच्छुद्धिमात्रे निपुणा यतीशा संत्वर्धदानेन मुदंचितारः ॥१४२।। भाषा- करें दोष आलोचना गुरु सकाशे, भरै दंड रुचिसों गुरु जो प्रकाशे । सुतप अंतरंग प्रथम शुद्ध कारी, जजूं मैं गुरुको स्व आतम विहारी ॥ ॐ हीं प्रायश्चिततपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [७९ 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दर्शनशानचारित्ररूप प्रभेदतश्चात्मगुणेषु पंच - पूज्येष्वशल्यं विनयं दधानाः मां पातु यज्ञेऽर्चनया पटिष्ठाः ॥१४३।। भाषा- दरश ज्ञान चारित्र आदी गुणों में, परम पदमई पाँच परमेष्ठियों में । विनय तप धरें शल्य त्रयको निवारें, हमें रक्ष श्रीगुरु जजूं अघु धारें ॥ ॐ ह्रीं विनयतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निपामीति स्वाहा । दिक्संख्यसंघे खलु वातपित्तकफादिरोगक्लमजार्तिसंघौ । दयार्द्रचित्तान्मुनिपेंगितज्ञांस्तद् दुःखहंतूनहमाश्रयामि ॥१४४।। भाषा- यती संघ दस विध यदी रोग धारे, तथा खेद पीड़ित मुनि हों विचारे । करें सेव उनकी दया चित्त ठाने, जजूं मैं गुरु को भरम ताप हाने । ॐ हीं वैय्यावृत्यतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। श्रुतस्य बोधं स्वपरार्थयोर्वा स्वाध्याययोगादवभासमानान् । आम्नायपृच्छादिषु दत्तचित्तान् संपूजयामोऽर्घविधानमुख्यैः॥१४५।। भाषा- करें बोध निज तत्त्व पर तत्त्व रुचिसे, प्रकाशें परम तत्त्व जगको स्वमतिसे । यही तप अमोलक करमको खपावे, जजूं मैं गुरुको कुबोधं नशावे ॥ ॐ ह्रीं स्वाध्यायतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । विनश्वरे देहकृते ममत्वत्यागेन कायोत्सृजतोपि पद्मा सनादियोगानवधार्य चात्मसंपत्सु संस्थानहमर्चयामि ||१४६|| भाषा- अपावन विनाशीक निज देह लखके, तजें सब ममत्वं सुधा आत्म चखके । करें तप सु व्युत्सर्ग संतापहारी, जजूं मैं गुरुको परम पद विहारी ॥ ॐ ह्रीं ट्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । . येषां मनोऽहर्निशमातरौद्रभूमेरनंगीकरणाद्धि धर्म्य । शुक्लोपकंठे परिवर्तमानं तानाश्रये बिंबविधानयज्ञे ॥१४७|| भाषा- जु है आरौिद्रं कुध्यानं कुज्ञानं, उन्हे नहिं धरे ध्यान धर्म प्रमाणं । करें शुद्ध उपयोग कर्मप्रहारी, जजूं मैं गुरुको स्व अनुभव सम्हारी ।। ॐ ह्रीं ध्यानावलम्बननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । येषां भ्रवः क्षेपणमात्रतोऽपि शक्रस्य शक्रत्वविधातनं स्यात् । एवंविधा अप्युदिताधार्ती क्षमां भजते ननु तान् महामि ॥१४८।। भाषा- करै कोय बाधा वचन दुष्ट बोले, क्षमा ढाल से क्रोध मनमें न कुछ लें। धरै शक्ति अनुपम तदपि शाम्यधारी, जजूं मैं गुरु को स्व धर्मप्रचारी ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिम्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। न जातिलाभैश्यविदंगरुपमदाः कदाचिज्जननं प्रयांति । _येषां मृदिम्ना गुरुणार्द्रचित्तास्ते दधुरीशाः स्तवनाच्छिवं में ॥१४९।। ८०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- धरै मद न तप ज्ञान आदी स्व मनमें, नरम चित्तसे ध्यान धारें सुवन में। परम मार्दवं धर्म सम्यक् प्रचारी, जजूं मैं गुरु को सुधा ज्ञान धारी ॥ ॐ हीं उन्तममार्दवधर्मधुरंधराचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। सर्वत्र निश्छद्मदशासु वल्लीप्रतानमारोहति चित्तभूमौ । तपोयमोद्भूतफलैरबंध्या शाम्यांबुसिक्ता तु नमोऽस्तु तेभ्यः ॥१५०॥ भाषा- परम निषकपट चित्त भूमी सम्हारे, लता धर्म वर्धन करें शांति धारें । करम अष्ट हन मोक्ष फलको विचारें, जजूं मैं गुरु को श्रुतज्ञान धारें ।। ॐ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मपरिपुष्टाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । भाषासमित्या भयलोभ मोहमूलंकषत्वादनुभूतया च । हितं मितं भाषयतां मुनीनां पादारविंदद्वयमर्चयामि ॥१५१॥ भाषा- न रुष लोभ भय हास्य नहिं चित्त धारें, वचन सत्य आगम प्रमाणे उचारें। परम हितमितं वाणी प्रचारी, जजूं मैं गुरु को सु समता विहारी ।। ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्मप्रतिष्ठिताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । न लोभरक्षोऽभ्युदयो न तृष्णागृद्धी पिशाच्यौ सविधं सदेतः । तस्मात् शुचित्वात्मविभा चकास्ति येषां तु पादस्थलमर्चयेऽहं ॥१५२।। भाषा- न है लोभ राक्षस न तृष्णा पिशाची, परम शौच धारें सदा जो अजाची । करें आत्म शोभा स्व सन्तोष धारी, जजूं मैं गुरु को भवातापहारी ।। ॐ हीं उत्तमशौचधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मनोवचःकायभिदानुमोदादिभंगतश्चेंद्रियजंतुरक्षा । वर्वर्ति सत्संयमबुद्धिधीरास्तेषां सपर्याविधिमाचरामि ||१५३।। भाषा- न संयम विराधे करें प्राणिरक्षा, दमैं इन्द्रियों को मिटावें कुइच्छा । निजानन्द राचे खरे संयमी हो, जजूं मैं गुरु को यमी अर दमी हो । ॐ ह्रीं उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । . तपोविभूषा हृदयं विभर्ति येषां महाघोरतपोगुणाय्याः । इंद्रादिधैर्यच्यवनं स्वतस्त्यं तया युता एव शिवैषिणः स्यु ॥१५४|| भाषा- तपो भूषणं धारते यति विरागी, पाम सेवी गुणग्राम त्यागी । करें सेव तिनकी सुइन्द्रादि देवा, जजूं मैं चरण को लहूं ज्ञान मेवा ॥ ॐ हीं उन्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । समस्तजंतुष्वभयं परार्थसंपत्करी ज्ञान सुदत्तिरिष्टा । धर्मौषधीशा अपि ते मुनीशास्यागेश्वरा द्रांतु मनोमलानि ।।१५५|| भाषा- अभयदान देते परम ज्ञान दाता, सुधौषधी वाटते आत्म त्राता। परम त्याग धर्मी परम तत्व मर्मी, जजूं मैं गुरु को शमूं कर्म गर्मी ।। ॐ ही उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८१ 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मस्वभावादपरे पदार्था न मेऽथवाऽहं न परस्य बुद्धिः । येषामिति प्राणयति प्रमाणं तेषां पदार्चा करवाणि नित्यं ॥१५६।। भाषा- न पर वस्तु मेरी न सम्बन्ध मेरा, अलख गुण निरंजन शमी आत्म मेरा। यही भाव अनुपम प्रकाशे सुध्यानं, जजूं मैं गुरु को लहूं शुद्ध ज्ञानं ।। ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्मसयुंक्ताचार्यपरमेष्ठिन्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ___ रंभोर्वशी यन्मनसोविकारं कर्तुं न शक्ताऽत्मगुणानुभावान् । शीलेशतामादधुरुत्तमार्थां यजामि तानार्यवरान् मुनींद्रान् ॥१५७|| भाषा- परम शील धारी निजाराम चारी, न रम्भा सु नारी करे मन विकारी । परम ब्रह्मचर्या चलत एकतानं जज मैं गरु को सभी पापहानं ॥ ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यमहानुभावधर्ममहनीयाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । संरोधनान्मानसभंगवृत्तेः विकल्प संकल्प परिक्षयाच्च । शुद्धोपयोगं भजतां मुनीनां गुप्तिं प्रशंस्यात्र यजामहे तान् ।।१५८॥ भाषा- मनः गुप्तिधारी विकल्प प्रहारी, परम शुद्ध उपयोग में नित विहारी । निजानन्द सेवी परम धाम बेबी, जजूं मैं गुरु को धरम ध्यान टेवी ।। ॐ ह्रीं मनोगुप्तिसंपन्नाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । धर्मोपदेशात्तदृते कथाया अभाषणात् संभ्रमतादिदोषैः । वियोजनाद् ध्यानसुधैकपानाद् गुप्तिं वचोगामटितान् यजामि ॥१५९|| भाषा- वचन गुप्तिधारी महा सौख्यकारी, करें धर्म उपदेश संशय निवारी। सुधा सार पीते धरम ध्यान धारी, जजूं मैं गुरु को सदा निर्विकारी ।। ॐ ह्रीं वचनमुप्तिधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। वन्याः समिद्भीरचितां दृषत्सूत्कीर्णामिवांगप्रतिमां निरीक्ष्य । कंडूतिनांगानि लिहंत्ति येषां धाराग्रमर्पण यजामि सम्यक् ॥१६०।। भाषा- अचल ध्यान धारी खड़ी मूर्ति प्यारी, खुजावें मृगी अंग अपना सम्हारी । धरी काय गुप्ति निजानन्द धारी, जजूं मैं गुरु को सु समता प्रचारी ॥ ॐ ह्रीं कायगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । सामायिकं जाहति नोपदिष्टं त्रिकालजातं ननु सर्वकाले । रागक्रुधोर्मूलनिवारणेन यजामि चावश्यककर्मधातॄन् ।।१६१॥ भाषा- परम साम्य भावं धरें जो त्रिकालं, भरम राग रुष द्वेष मद मोह टाल । पि0 ज्ञानरस शान्ति समता प्रचारी, जजूं मैं गुरु को निजानन्द धारी ।। ॐ ह्रीं सामायिकावश्यककर्मधारिभ्यः आचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । सिद्धश्रुतिं देवगुरुश्रुतानां स्मृतिं विधायापि परोक्षजातं । सबंधनं नित्यमपार्थहानं कुर्वंति तेषां चरणौ यजामि ॥१६२।। ८२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- करें वन्दना सिद्ध अरहन्तदेवा, मगन तिन गुणों में रहें सार लेवा । उन्हीं सा निजातम जु अपने विचारें, जजू मैं गुरु को धरम ध्यान धारें । ॐ हीं वन्दनावश्यकनिरतिचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। तेषां गुणानां स्तवनं मुनींद्रा वचोभिरुद्भूतमनोमलाकैः । कुर्वंति चावश्यकमेव यस्मात् पुष्पांजलिं तत्पुरतः क्षिपामि ॥१६३।। भाषा- करें संस्तवं सिद्ध अरहन्तदेवा, करें गानगुणका लहें ज्ञान मेवा । करे निर्मलं भाव को पाप नाशें, जजूं मैं गुरु को सु समता प्रकाशे || ॐ ह्रीं स्तवनावश्यकसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा । मलोत्सृजादौ क्वचनाप्तदोषं प्रतिक्रमेणापनुदंति वृद्धं । साधुं समुद्दिश्य निशादिवीर्यदोषान् जहत्यर्चनया धिनोमि ॥१६४।। भाषा- लगे दोष तन मन वचनके फिरनसे, कहें गुरु समीपे परम शुद्ध मन से । करे प्रतिक्रमण अर लहें दण्ड सुख से, जजूं मैं गुरु को छुटूं सर्व दुःख से ॥ ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकनिरताचार्य परमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । स्वो नाम चात्माऽध्ययते यदर्थः स्वाध्याययुक्तो निजभानुबुद्धः । श्रुतस्य चिन्ताऽपि तदर्थबुद्धिस्तामाश्रये स्वाभिमतार्थसिद्ध्यै ॥१६५।। भाषा- करें भावना आत्म की ज्ञान ध्यावै, पढ़े शास्त्र रुचि से सुबोध बढ़ावे। यही ज्ञान सेवा करम मल छुड़ावे, जजूं मैं गुरु को अबोधं हटावे ।। ॐ ह्रीं स्वाध्यायावश्यककर्मनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । भुजप्रलंबा दिविधिज्ञतायाः पौरस्त्यमाप्याधिगमं वहंतः । व्युत्सर्गमात्रा वशिनः कृतार्था अस्मिन् मखे यांतु विधिज्ञपूजां ।।१६६।। भाषा- तजें सब ममत्वं शरीरादि सेती, खड़े आत्म ध्यावें घुटे कर्म रेती । __ लहैं ज्ञानभेदं सु व्युत्सर्ग धारें, जजूं मैं गुरु को स्व अनुभव विचारें ।। ॐ ही ट्युत्सर्गावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । गुणोद्देशा देषा प्रणिधिवशतोऽनंतगुणिनां । कृता ह्याचार्याणामपचितिरियं भावबहुला । समस्तान् संस्मृत्य श्रमणमुकुटानर्घमलघु । प्रपूर्तं संदृब्धं मम मखविधिं पूरयतु वै ।।१६७|| भाषा दोहा गुण अनन्त धारी गुरु, शिवमग चालन हार । संघ सकल रक्षा करें, यज्ञ विघ्न हरताल ॥ ॐ हीं अस्मिन्प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्ठवलयोहमुदित आचार्यपरमेष्ठिभ्यस्तद्गुणेभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८३ _ 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें वलय में स्थापित उपाध्याय परमेष्ठी के २५ गुणों की पूजा आचारांगं प्रथमं सागारमुनीश चरणभेदकथं । अष्टादशसहस्रपदं यजामि सर्वोपकार सिद्धयर्थं ॥ १६८ ॥ द्रुतिविलम्बित छन्द भाषा - प्रथम अंग कथत आचार को, सहस अष्टादश पद धारतो । पढ़त साधु सु अन्य पढ़ावते, जजूं पाठक को अति चावसे ॥ ॐ ह्रीं अष्टादश सहस्रपदकाचारांगज्ञात्रे उपाध्यायपरमेष्ठीभ्यो अर्ध्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सूत्रकृतांग द्वितीयं षट्त्रिंशत्सहस्रपदकृतमहितं । स्वपरसमयविधानं पाठकपठितं यजामि पूजा || १६९ || भाषा - द्वितीय सूत्रकृतांग विचारते, स्वपर तत्त्व सु निश्चय लावते । पद छत्तीस हजार विशाल हैं, जजूं पाठक शिष्य दयालु हैं ॥ ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्सहस्रपदसंयुक्त कृतांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | स्थानांग द्विकचत्वारिंशत्पदकं षडर्थदशसरणेः । एकादिसुभेदयुजः कथंकं परिपूजये वसुभिः || १७० || भाषा - तृतीय अंग स्थान छः द्रव्यको, पद हजार बियालिस धारतो । एक द्वै त्रय भेद बखानता, जजूं पाठक तत्त्व पिछानता ॥ ॐ ह्रीं द्विचत्वारिंशत्पदसंयुक्तस्थानांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । समवायांग लक्षैकं चतुरितषष्ठीसहस्रपदविशदं । द्रव्यादिचतुष्टयेन तु साम्योक्तिर्यत्र पूजये विधिना ॥ १७९॥ भाषा- द्रव्य क्षेत्र समय अर भावसे, साम्य झलकावे विस्तार से । लख सहस चौसठ पद धारता, ज्जूं पाठक तत्त्व विचारता || ॐ ह्रीं एकलक्षचतुःषष्ठि पदन्याससहस्रसमवायांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । व्याख्याप्रज्ञप्त्यंगं द्विलक्षसहिताष्टविंशतिसहस्रपदं । गणधर कृतषष्टिसहस्रप्रश्नोक्तिर्यत्र पूज्यते महसा ||१७२ || भाषा - प्रश्न साठ हजार बखानता, सहस अठविंशति पद धारता । द्विलख और विशद परकाशता, जजूं पाठक ध्यान सम्हारता ॥ ॐ ह्रीं द्विलक्षाष्टविंशतिसहस्रपदरंजितव्याख्याप्रज्ञप्त्यंगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । ज्ञातृधर्म कथांगं शरलक्षसषट्कपंचाशत् । पदसहितं वृषचर्चाप्रश्नोत्तरपूजितं महये || १७३ || भाषा - धर्म चर्चा प्रश्नोत्तर करे, पाँच लाख सहस छप्पन धरे । पद सु मध्यम ज्ञान बढ़ावता, जजूं पाठक आतम ध्यावता ॥ ॐ ह्रीं पंचलक्षषट्पंचाशत्सहापदरंजितव्यारव्याप्रज्ञप्त्यंगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] ८४ ] 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक पाठक शिवलक्षससप्ततिसहस्रपदभंगं । व्रतशीलाधानादि क्रियाप्रवीणं यजामि सलिलाद्यैः ।।१७४।। भाषा- व्रत सुशील क्रिया गुण श्रावका, पद सुलक्ष इग्यारह धारका। सहस सप्तति और मिलाईये, जजू पाठक ज्ञान बढ़ाईये ।। ॐ ह्रीं एकादशलक्षसप्ततिसहप्रपदशोभितोपासकाध्यनांग धारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । अंतकृदंगं दश दश साधुजनोपसर्ग कथकमधितीर्थम् । तेषां निःश्रेयसलंभनमपि गणधरपठितं यजामि मुदा ॥१७५।। भाषा- दश यती उपसर्ग सहन करे, समय तीर्थंकर शिवतिय वरे । सहस अठाइस लख तेइसा, पद यजूं पाठक जिन सारिसा ।। ॐ ह्रीं त्रिविंशतिलक्षाष्टविंशतिसहापदशोभितांतकृतदशांग धारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व, स्वाहा । उपपादानुत्तरकं द्विचत्वारिंशल्लक्षसहस्रपदं । विजयादिषु नियमेन मुनिगतिकथकं यजामि महनीयं ॥१७६।। भाषा- दश यती उपसर्ग सहन करे, समय तीर्थ अनुत्तर अवतरे | सहस चव चालिस लख बानवे, पद धरे पाठक बहुज्ञान दे । ॐ ह्रीं द्विनवतिलक्षचतुश्चत्वारिंशत्पदशोभितानुत्तरोपपादिकांग धारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्रश्नव्याकरणांगं त्रिनवतिलक्षाधिषोडशसहस्रपदं । नष्टोद्दिष्टंसुखलाभगतिभाविकथं पूजये चरुफलाद्यैः ।।१७७।। भाषा- प्रश्न व्याकरणांग महान ये, सहस सोलह लाख तिरानवे | पद धरे सुख दुःख विचारता, जजू पाठक धर्म प्रचारता ॥ ॐ हीं ब्रिनवतिलक्षषोडशसहापदशोभितप्रश्नव्याकरणांग धारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । अंगे विपाकसूत्रं कोट्येकचतुरशीतिसहसपदं । कर्मोदयसत्त्वानानोदीर्णादिकथं यजनभागतोऽर्चामि ||१७८।। भाषा- सहस चवरसि कोटी एक पद, धरत सूत्रविपाक सुज्ञान प्रद । करम-बंध उदय सत्त्वादि कथ, जजू पाठक निज रुचि ठानकर ।। ॐ हीं एककोटिचतुरशीतिसहनपदशोभितविपाकसूत्रांग धारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्व. स्वाहा । उत्पाद पूर्वकोटीपद पद्धति जीव मुखषट्कं । निजनिज स्वभावघटितं कथयत्प्रांचामि भक्तिभरः ॥१७९।। भाषा- सुनय दुर्नय आदि प्रमाणता, नवति छः कोटी पद धारता । पूर्व अग्रायण विस्तार है, जजू पाठक निज रुचि ठानकर ॥ ॐ हीं उत्पादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा। अग्रायणीयपूर्वषण्णवतिकोटिपदं तु यत्र तत्त्वकथा । सुनयदुपर्णयतत्स्वप्रामाण्यप्ररूपकं प्रयजे ॥१८०॥ प्रय [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- सुनय दुर्नय आदि प्रमाणता, नवति छः कोटी पद धारता । पूर्व अग्रायण विस्तार है, जजू पाठक भवदधि तार है । ॐ ह्रीं अग्रायणीयपूर्वाधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वीर्यानुवादमधिसप्ततिलक्षपादं द्रव्यस्वतत्त्वगुण पर्ययवादमर्थ्यं । तत्तत्स्वभाव गतिवीर्यविधानदक्षं संपूजये निजगुणप्रतिपत्तिहेतोः ॥१८१।। भाषा- द्रव्य गुण पर्यय बल कथत है, लाख सत्तर पद यह धरत है। पूर्व है अनुवाद सु वीर्यका, जजू पाठक यतिपद धारका ॥ ॐ ह्रीं वीर्यानुवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। नास्त्यस्तिवादमधिषष्ठिसुलक्षपादं सप्तोद्धभंगरचनाप्रतिपत्तिमूलं । स्याद्वादनीतिभिरुदस्तविरोधमात्रं संपूजये जिनमतप्रसवैकहेतुम् ।।१८२।। भाषा- नास्ति अस्ति प्रवाद सुअंग है, साठ लख मध्यम पद संग है। सप्तभंग कथत जिन मार्गकर, जजू पाठक मोह निवारकर ।। ॐ हीं अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ज्ञानप्रवादमभिकोटिपदं तु हीनमेकेन वाणमितभानविवर्णनांकं । कुज्ञानरूपतिमिरौघहरं समर्चे यत्पाठकैः क्षणमिते समये विचार्यम् ।।१८३।। भाषा- ज्ञान आठ सुभेद प्रकाशता, एककम कोटीपद धारता । सतत ज्ञान प्रवाद विचारता, जजू पाठक संशय टारता ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा। सत्यप्रवादमधिकं रसपादजातैः कोटिपदं निखिलसत्यविचारदक्षं । श्रोतृप्रवक्तृगुणभेदकथापि यत्र तं पूर्वमुख्यमभिवादय उक्तमंत्रैः ।।१८४।। भाषा- कथत सत्त्य असत्त्य सुभावको, कोटी अरु पदधारी पूर्वको । पढ़त सत्यप्रवाद जिनागमा, जजू पाठक ज्ञाता आगमा ।। ॐ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । आत्मप्रवादरसविंशतिकोटिपादान् जीवस्य कर्तृगुणभोक्तृगुणादिवादान् । शुद्धतरप्रणयतत्कथनं तु येषु वन्दामहे तदभिलाष्यगुणप्रवृत्त्यै ॥१८५।। भाषा- सकल जीव स्वरूप विचारता, कोटि पद छव्वीस सुधारता । पढ़त आत्मप्रवाद महानको, जजू पाठक दुर्मति हानको ॥ ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कर्मप्रवादसमये विधुसंख्यकोटीसंख्यानशीतिलयुतान् वसुकर्मणां च । सत्त्वापकर्षणनिधत्तिमुखानुवादे पद्यान् स्थितानमितपूजनया धिनोमि ।।१८६।। भाषा- कर्मबंध विधान वखानता, कोटि पद अस्सीलाख धारता । पठत कर्म प्रवाद सुध्यानसे, जजू पाठक शुद्ध विधानसे ॥ ॐ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । प्रत्याहृतेश्चतुरशीतिसुलक्षपद्यान् निक्षेपसंस्थितिविधानकथप्रसिद्धान् । न्यासप्रमाणनयलक्षणसंयुजोऽर्चे यागार्चने श्रुतधरस्तवनोपयुक्तान् ॥१८७।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- नयप्रमाण सुन्यास विचारता, लाख पद चौरासी धारता । पूर्व प्रत्याहार जु नाम है, जजू पाठक रमताराम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याहारपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । विद्यानुवादभुवि चन्द्रसुकोटिकाष्ठालक्षाः पदा यदधिमंत्रविधिप्रकारः । संरोहिणीप्रभृतिदीर्घविदां प्रसंगस्तं पूजये गुरुमुखांबुजकोशजातं ॥१८८॥ भाषा- मंत्र विद्याविधिको साधता, लक्ष दशकोटि पद धारता । पूर्व है अनुवाद सुज्ञानका, जजू पाठक सन्मति दायका | ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कल्याणवादमननश्रुतमंगमुख्यं षड्विंशतिप्रमितकोटिपदं समर्चे । यत्रास्ति तीर्थकरकामबलत्रिखंडिजन्मोत्सवाप्तिविधिरुत्तमभावना च ॥१८९।। भाषा- पुरुष वेशठ आदि महानका, कथत वृत्त सकल कल्याणका । कोटि छव्विस पदको धारता, जजू पाठक अघ सब टारता । ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । प्राणप्रवादमभिवादयतां नराणां विश्वप्रमाणमितकोटिपदाभियुक्तं । काऽऽर्तिर्भवेन्निरयघोरभवस्य चायुर्वेदादिसुस्वरभृतंपरिपूजयामि ॥१९०॥ भाषा- कथत भेद सुवैद्यक शास्त्रका, कोटि तेरह पदका धारका । पूर्व नाम सुप्रमाण प्रवाद है, जजू पाठक सुर नत पाद है ॥ ॐ ही प्राणप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । क्रियाविशालं नवकोटिपधैर्युक्तं सुसंगीतकलाविशिष्टं । छन्दोगणाद्याननुभावयंतमध्यापकानत्र विधौ यजामि ॥१९१॥ भाषा- कथत छन्दकला संगीतको, कोटि नव पद मध्यम रीतको । पूर्व नाम सुक्रिया विशाल है, जजू पाठक दीनदयाल है । ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । त्रैलोक्यविंदौ शिवतत्वचिंता साद्धी सुकोटी द्विदशप्रमाणाः । पदास्त्रिलोकीस्थितिसद्विधानमत्रार्चये भ्रांतिविनाशनाय ॥१९२।। भाषा- तीन लोक विधान विचारता, कोटी अर्द्ध द्वादश धारता । पूर्वबिन्दु त्रिलोक विशाल है, जजू पाठक करत निहाल है । ॐ ह्रीं त्रैलोक्यबिन्दुपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । इत्थं श्रीश्रुतदेवतां जिनवरांभोध्युद्गतामृद्धिभृन्मुख्यैपॅथनिबंधनाक्षरकृतामालोकयंती त्रयं । लोकानां तदवाप्तिपाठनधियोपाध्यायशुद्धात्मनः कृत्वाराधनसद्विधिं धृतमहाLणार्चये भक्तितः ॥१९३।। भाषा- दोहा-अंग इकादश पूर्वदश, चार सुज्ञायक साध । __ जजू गुरुके चरण दो, यजन सु अव्याबाध ।। ॐ हीं अस्मिन् बिम्बप्रतिष्ठोत्सव सद्विधानेमुख्यपूजाहसप्तमवलयोटमुदित द्वादशांग श्रुतदेवताभ्यस्तदाराधकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८ 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आठवें वलय में स्थापित साधु परमेष्ठी के २८ गुणों की पूजा जीवाजीवद्विरधिकरणव्याप्तदोषव्युदासात् सूक्ष्मस्थूलव्यवहृतिहतेः सर्वथात्यागभावात् । मूर्धन्यासं सकलविरतिं संदधानान्मुनींद्रा-नाहिंसाख्यव्रतपरिवृतान् पूजये भावशुद्ध्या ॥१९४।। नाराच छंद भाषा तजे सु रागद्वेष भाव शुद्ध भाव धारते, परम स्वरूप आपका समाधि से विचारते ।। करें दया सुप्राणि जंतु चर अचर बचावते, जजों यती महान प्राणिरक्ष व्रत निभावते ।। ॐ ह्रीं अहिंसामहावतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। मिथ्याभाषासकलविगमात् प्राप्तवाक्शुद्धयुपेतान् स्याद्वादेशान् विविधसनयैर्धर्ममार्गप्रकाशम् । संकुर्वाणानतिचरणधीदूरगानात्मसंवित्-सम्राज्जस्तांश्चरुफलगणैः पूजयाम्यध्वरेऽस्मिन् ॥१९५|| भाषा- असत्य सर्व त्याग वाक् शुद्धता प्रचारते, जिनागमानुकूल तत्त्व सत्त्य सत्त्य धारते । अनेक नय प्रकार से वचन विरोध टारते, जजों यती महान सत्यव्रत सदा सम्हारते ।। ॐ ह्रीं अनृतपरित्यागमहतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा। आकर्तव्ये (ध्वनि?) शिवपदगृहे रंतुकामाः पृथकत्वं देहात्मीयं करगतमिवाध्यक्षमादर्शयंतः। __प्राणग्राहं तृणमपि परैरप्रदत्तं त्यजंत-स्त्रायंतां मां चरणवरिवस्याप्रशक्तं मुनींद्राः ॥१९६।। भाषा- अचौर्यव्रत महान धार शौच भाव भावते, न लेत है अदत्ततृण जलादि राग भावते । सुतृप्त हैं महान आत्मजन्य सौख्य पावते, जजों यती सदा सुज्ञान ध्यान मन रमावते | ॐ ही अचौर्यमहतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । तिर्यग्मामरगतिगता याः स्त्रियः काष्ठचित्रा-लेप्याश्मान्याश्चिदचिदुदधिस्थास्तवस्तास्त्रियोगं । स्वप्ने जाग्रद्दिशि कतिचिदप्यर्तिमुद्राः स्मरंतो (?) ये वै शीलं परिदृढमगुस्तान्यजेऽहं त्रिशुद्धया ॥१९७|| भाषा- सु ब्रह्मचर्य व्रत महान धार शील पालते, न काष्ठमय कलत्र देव भामनी विचारते । मनुष्यणी सु पशुतिया कभी न मन रमावते, जजों यती न स्वप्नमाहिं शीलको गमावते || ॐ ही ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। रागद्वेषधभिकृतपरावृत्तदोषांतरंगा ये बाह्या अप्युदितदशधा ते ह्यकिंचन्यभावात् । नापि स्थैर्य दधुरुरुगुणाग्राहिणी स्वांतमध्ये ग्रंथा येषां चरणधरणिं पूजयाम्यादरेण ||१९८॥ भाषा- न रागद्वेष आदि अंतरंग संग धारते, न क्षेत्र आदि बाह्य संग रंक भी सम्हारते । धरें सुसाम्यभाव आय पर पृथक् विचारते, जजों यती ममत्त्व हीन साम्यता प्रचारते ॥ ॐ हीं परिग्रहत्यागवतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। ईपिंथास्तिमितचकितस्तब्धदृष्टिप्रयोगा-भावाच्छुद्धोयुगमितधरालोकनेनापि येषां । वर्षाकालावनियवसभूजंतुजातिं विहाय तीर्थश्रेयोगुरुनतिवशाद् गच्छतोऽर्चे यतींद्रान् ।।१९९।। ८८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- सुचार हाथ भूमि अग्र देख पाय धारते, न जीवघात होय यत्न सार मन विचारते । सुचार मास वृष्टि काल एक थाल विराजते, जजू यती सु सन्मती जो ईर्या सम्हारते ॥ ॐ हीं ईर्यासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिन्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। लोभक्रोधाद्यरिगणजयाद् भीतिमोहापमर्दा-निःशल्याद्यान् जिनबचिसुधाकंठपानप्रपुष्टान् । याथातत्थ्यं श्रुतनिगमयोर्जानतः प्रश्नकर्तु-र्वाभिप्रायं वचनसमितिर्धारकान् पूजयामि ॥२००|| भाषा- न क्रोध लोभ हास्य भय कराय साम्य धारते, वचन सुमिष्ट इष्ट मित प्रमाण ही निकारते । यथार्थ शास्त्र ज्ञायका सुधा सु आत्म पीवते, जजू यतीश द्रव्य आठ तत्त्व माहिं जीवते ॥ ॐ ही भाषासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिम्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । षट्चत्वारिंशदतिचरणामेडितत्यागयोगात् दोष्नां चातुर्दशमलभुवां हापनात् कायहानिं । अय्यासीनाममृतधिषणाभ्यासतोग्रे कृतार्थां (?) मन्वानास्तेऽशनविरतयः पातु पादाश्रितं मा ॥२०१॥ भाषा- महान दोष छयालिसों सुटार ग्रास लेत हैं, पड़े जु अन्तराय तुर्त ग्रास त्याग देत हैं। मिले जु भोग पुण्यसे उसीमें सब्र धारते, जजू यतीश काम जीत रागद्वेष टारते ॥ ॐ हीं एषणासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। वस्तुग्राहं त्व परिणामाद्दाननिक्षेपयोगा (?) - भावः पूर्वं दृढपरिचयाद्विद्यते शुद्ध एव । पिच्छाकुंडीग्रहणमपि ये रक्षणाचारहेतोः कुर्वतोऽप्यत्र निहितदृशस्तान्यजे सत्समित्यै ॥२०२।। भाषा- धरें उठाय वस्तु देख शोध खूब लेत हैं, न जंतु कोय कष्ट पाय इम विचार लेत हैं। ____ अतः सु मोर पिच्छिका सुमार्जिका सुधारते, जजू यती दया निधान जीव दुःख टारते ॥ ॐ ही आदाननिक्षेपणसमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । व्युत्सर्गाख्यां समितिमघृणां नासिकानेत्रपायू - पस्थस्थानान् मलत्दृतिविधौ सूत्रमार्गानुकूलं । रक्षतोऽन्यानपि सदयतां पोषयंतोप्युदयां, धन्या दांतोद्रियपारकरा आददंत्वर्चनां में ॥२०३।। भाषा- धरें जु अंग नेत्र नासिकादि मल सु देखके, न होय जंतु घात थान शुद्धता सुपेखके । परम दया विचार सार व्युत्सर्ग साधते, जंजू यतीश चाह दाह शांति पय बुझावते ॥ ॐ ही ट्युत्सर्गसमितिपालकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । उष्णः शीतो मृदुलकठिनौ स्निग्धरुक्षौ गुरुर्वा, स्तोकः स्पर्शोष्टतय उदितस्पर्शनात् सप्रमाद । रागद्वेषावपि न दधतश्चेतनाचेतनेषु, किं च स्त्रीणां वपुषि विषये तान्यजेहं मुनींद्रान् ॥२०४॥ भाषा- न उष्ण शीत मृदु कठिन गुरु लघू सपर्शते, न चीकने रु रुक्ष वस्तुसे मिलाप पावते । न रागद्वेष को करें समान भाव धारते, जजूं यती दमे सपर्श ज्ञान भाव सारते ॥ ॐ ह्रीं स्पर्शनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिन्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । मिष्टस्तिक्तो लवणकटकामम्ल एवं रसज्ञाग्राही प्रोक्तो रसनविषयस्तत्र रागक्रुधोर्वा । त्यागात्सर्वप्रकृतिनियतेः पुद्गलस्य स्वभावं, संजानंतो मुनिपरिवृढाः पातु मामर्चितास्ते ॥२०५॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८९ 2010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- न मिष्ट तिक्त लौण कटुक आत्म स्वाद चाहते, करत न रागद्वेष शौच भावको निवाहते। सुजानके सुभाव पुद्गलादि साम्य धारते, जजू यती सदा जू चाह दाहको निवारते ।। ॐ ह्रीं रसनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वातद्वेषस्तुहिनविकृतेरुष्णताद्वेष ऊष्म्य-व्याप्तांगस्य प्रकृतिनियमात् सुप्रसिद्धोऽप्रतर्व्यः । साम्यस्वामी ह्यशुभसुभगद्वैधगंधौ विजानन्, वस्तुग्राहं भजति समतां तं यतींद्रं यजेऽहं ॥२०६।। भाषा- जगत पदार्थ पुद्गलादि आत्म गुण न त्यागते, सुगन्ध गन्ध दुःखदाय साधु जहाँ पावते। न रागद्वेष धार घ्राणका विषय निवारते, जजू यतीश एक रूप शांतता प्रचारते ॥ ॐ ह्रीं घ्राणेदियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । यद्यदृश्यं नयनविषये तेषु तेष्वात्मना वै, जन्माग्राहि त्रिजगदभितश्चक्रमावर्तपातात् । कृष्णे पीते हरिदरुणयोरर्जुने पौद्गलेक्ष्णोापारोऽसन्निति परिणतः पूज्यतेऽसौ मयात्र ।।२०७।। भाषा- सफेद लाल कृष्ण पीत नील रंग देखते, स्वरूप ओ कुरूप देख वस्तु रूप पेखते। करें न रागद्वेष साम्य भावको सम्हारते, जजू यती महान कर्ण रागद्वेष टारते ।। ॐ ह्रीं चक्षुरिदियविकार विरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ___ एकः स्तोत्रं रचयितु मुदा गद्यपद्यानवद्यैर्वाक्यैरन्यः श्वपच जननी तेऽद्य भार्या ममेति । श्रुत्वा शब्दं श्रवसि जडतामेत्य तोषं न कोपं, धत्ते शक्तोऽप्यमरमहितस्तस्य पूजां विदध्मः ।।२०८।। भाषा- करे थुती बनाय एक गद्य पद्य सारते, कहे असभ्य बात एक क्रूरता प्रसारते । न रोष तोष धारते पदार्थ को विचारते, जजू यती महान कर्ण रागद्वेष टारते ॥ ॐ ह्रीं श्रोत्रंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिग्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । साम्यं यस्य स्फुरति हृदये निळलीकं कदाचि, दायातेऽपि ध्रुवमशुभसमयाबद्धपाकावतारे (?) घोरापीडासदसि वपुषि स्पृड्मृतिं संदधानो, बाहुभ्यामंबुधिमिव तरत्येष साधुर्मयार्थ्यः ॥२०९।। भाषा- धरें महान शांतता न रागद्वेष भावते, चलें नहीं सुयोग से विराट कष्ट आवते ।। तरें समुद्र कर्म को जहाज ध्यान खेवते, यजूं यती स्वरूप मांहि बैठ तत्त्व बेवते ॥ ॐ हीं सामायिकावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । स्मारं स्मारं प्रकृतिमहिमानं तु पंचेश्वराणां, प्रत्यक्ष वा मननविषयं वंदमानस्त्रिकालं । कर्मव्यूहक्षपणमसमं चर्करीत्यात्मवंतं, शुद्धस्फारं गमयति शिवं तं महांतं यजामि ॥२१०|| भाषा- करें त्रिकाल बन्दना सुपूज्य सिद्ध साधुको, विचार वार वार आत्म शुद्ध गुण स्वभावको। करें जु नाश कर्म जो कि मोक्षमार्ग रोकते, यजूं यती महान माथ नाथ नाय ढोकते ॥ ॐ ह्रीं वंदनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । चेतोरक्षःप्रसरणनिराकर्मणो तीर्थनाथ -पादाब्जेषु प्रतिगुणगणे दत्तचित्तो मुनींद्रः । तेषां स्तोत्रं पठति परमानंदमात्मानुभावं, किं वा शुद्धं सृजति स मया पूज्यते तद्गुणाप्त्यै ॥२११॥ ९०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- करें सुगान गुण अपार तीर्थनाथ देवके, मन पिशाचको विडार स्वात्मसार सेवके । बनाय शुद्ध भाव माल आत्मकण्ठ डारते, जजू यती महान कर्म आठ चूर डारते ॥ ॐ हीं स्तवनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिम्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । दोषाभावोऽप्यथ निशिदिवाहारनीहारकृत्ये ज्ञाताज्ञातप्रमदवशतो जंतुरभ्यर्दितः स्यात् । नित्यं तस्य प्रतिभयलवं व्युत्सृजानः स्वयं यो दोषवातैर्नहि जुडति तं धीरवीरं यजामि ॥२१२।। भाषा- करें विचार दोष होय नित्य कार्य साधते, क्षमा कराय सर्व जन्तु जाति कष्ट पावते । ___ आलोचना सुकृत्यसे स्वदोषको मिटावते, जजू यती महान ज्ञान अम्बुमें नहावते ॥ ॐ ही प्रतिक्रमणावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। नित्यं चेतःकपिरचलतां नैति तयंत्रणार्थं स्वाध्यायाख्यैः प्रगुणनिगडैबधमानीय भद्रे । मार्गे युंज्याच्छुतपरिणतात्मीयमोदावधानो वृत्तिं शुद्धां श्रयति स महानय॑तेऽनर्घ्यबुद्धिः ।।२१३।। भाषा- रखें सुबांध मन कपी महान है जु नटखटा, बनाय सांकलान शास्त्र पाठ में जुटावता। __ धरै स्वभाव शुद्ध नित्य आत्मको रमावने, जजू यती उदय महान ज्ञानसूर्य पावते ।। ॐ हीं स्वाध्यायावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । आमे भांडे कुथितकुणपे यादृशी नश्यहेय बुद्धिः काये सततनियता वीतरागेश्वराणां । व्यक्तीकर्तुं शिखरिविपिनांतस्तनोर्निर्ममत्त्वे कायोत्सर्गं रचयति मुनिः सोऽत्रपूजां प्रयातु ॥२१४।। भाषा- तसें ममत्व कायका इसे अनित्य जानते, जू कांच खण्ड मृत्तिका सु पिण्ड सम प्रमाणते । खड़े बनी गुफा महा स्वध्यान सार धारते, जजू यती महान मोह रागद्वेष टारते ॥ ॐ ही कायोत्सर्गावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । पूर्वं हर्ये मणिगणचितानेकपर्यंकशायी सोऽयं घोरस्वनमृगपतित्रस्तनागेंद्रकारे । भूध्रग्रावोपरितनभुवि स्वप्नवत्किंचिदात्त-निद्रो यस्य स्मरणमपि संहति पापं स मेऽाः ।।२१५|| भाषा- करै शयन सु भूमि में कठोर कंकड़ानि की, कभी नहीं चितारते पलंग खाट पालकी। एक भी गमावतें कुनींद में, जजू यतीश सोवते सु आत्म तत्त्व नींद में । ॐ ह्रीं भूशयननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा। ग्रीष्मे रेणूत्करविकरणव्यग्रवातप्रसर्पद-धूलिपुंजे मलिनवपुषि त्यक्तसंस्कारवांछः । अस्नानत्वं विजनसरसीसंनिधानेऽपि यैषां तेषां पादांबुजयुगमहं पारिजातैरुदर्चे ।।२१६|| भाषा- करैं न ही नहान सर्व राग देहका हते, पसेव ग्रीष्ममें पड़े न शीत अम्बु चाहते । बनी प्रबल पवित्र और मन्त्र शुद्ध धारते, जजू यतीश शुद्ध पाद कर्म मैल टारते ॥ ॐ हीं अस्नाननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वाल्कं फालं वसनमुपसंव्यानकोपीनखण्ड-कादाचित्केऽप्युपधिसमये नैव वांछंस्तपस्वी । दैगंबर्यं परमकुशलं जातरूपप्रबुद्धं, संधार्यैवं नयति परमानंदधात्रीं तमर्चे ॥२१७|| [ प्रतिष्ठा-प्रदीप] [९१ _ 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- करैं नहीं कबूल छाल वस्त्र खण्ड धोवती, दिगानि वस्त्र धार लाज संग त्याग रोवती । बने पवित्र अंग शुद्ध बालसे विचार हैं, जजू यतीश काम जीत शील खड्ग धार हैं । ॐ ह्रीं सर्वथावस्त्रत्यागनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। क्षौरं शस्त्रोज्जनिपराधीनतापात्रमेव (?) जूडा मूर्धन्यतुलकृमिदा भूतशीर्षाकृतिस्था ।। दोषोयैवेति विहितकचोत्पाटनो मुष्टिमात्रात्, साक्षान्मोक्षाध्वनिधृतिपदः पूज्यते श्रौतकर्मा ।।२१८॥ भाषा- करें सु केशलोंच मुष्टि मुष्टि धैर्य भावते, लखाय जन्म जन्तुका स्व केश ना बढ़ावते। ममत्व देहसे नहीं न शस्त्रसे नुचावते, जजू यती स्वतन्त्रता विहार चित रमावते ।। ॐ ह्रीं कृतकेशलोचनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। एकद्वित्रिप्रभृतिदिवसप्रोषधादिप्रकर्तु-रास्यम्लानिर्भवति नितरां दंतशुद्धिं विनाऽत्र । दौगंध्यांधुं वपुषमकृतस्थैर्यमापन्निदानं, जानन् योगं मलिनयति नो तं समर्चे मुनींद्रम् ।।२१९|| भाषा- करें न दन्तवन कभी तजा सिंगार अंगका, लहें स्व खानपान एकावार साध्य अंगका । __ तथापि दंत कर्णिका महान ज्योति त्यागती, जजू यतीश शुद्धता अशुद्धता निवारती ॥ ॐ हीं दंतधावनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। यांचादैन्योदरविघटनादींगितादीनि येषां, निर्मूलंतो मनसि च मनालाभलाभांतराये । तुल्या दृष्टिस्तदपि सकृदेकाह्निभुक्तिप्रमाणं, तेषां धावगमसुगमत्वाय पादौ यजामि ॥२२०|| भाषा- धरै न चाह भोग रोगके समान जानते, शरीर रक्ष काज एक बार भक्त ठानते । सकल दिवस सु ध्यान शास्त्र पाठमें वितावते, जजूं यती अलाभ अन्न लाभ सा निभावते ॥ ॐ ह्रीं एकभक्तनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। यावद्देहं स्थितिधृतिधराशक्तिमंगीकरोति, यावज्जंघाबलमचलतां नोज्जिहीते मुनित्वे । यावत्स्थाप्ये तदपगमने भोजनत्याग एवं, सन्यासस्य ग्रहणमिति यद् यस्य नीतिस्तमर्चे ||२२१॥ भाषा- खड़े रहें सुलेय अन्न देह शक्ति देखते, न होय बल विहार तब मरण समाधि पेखते । करें सु आत्मध्यान भी खड़े खड़े पहाड़ पर, जजू यती विराजते निजानुभव चटान पर ।। ॐ ह्रीं आस्थितभोजननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अष्टाविंशतिसद्गुणग्रथितसद्रत्नत्रयाभूषणं, शीलेशित्वतनुत्ररक्षितवपुः कामेषुभिर्नाहतं । आर्हत्यादिपदस्य वीजमनघं येषां परं पावनं, साधूनां समुदायमुत्तमकुलालंकारमाशाश्महे ॥२२२।। भाषा - दोहा अठविंशति गुण धर यती शील कवच सरदार । रत्नत्रय भूषण धरें टारें कर्म प्रहार ॥ ॐ ह्रीं अस्मिने बिम्बप्रतिष्ठोत्सवे मुख्य पूजार्ह अष्टमवलयोठमुद्रित साधुपरमेष्ठिम्यस्तढमूलगुण ग्रामेभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। ९२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) नौमें वलय में स्थित ४८ ऋद्धिधारी मुनीश्वरों की पूजा त्रैलोक्यवर्तिसकलं गुणपर्ययाढ्यं यस्मिन्करामलकवत् प्रतिवस्तुजातं । आभासते त्रिसमयप्रतिबद्धमर्चे कैवल्यभानुमधिपं प्रणिपत्य मूर्ना ||२२३|| भाषा - दोहा लोकालोक प्रकाशकर, केवलज्ञान विशाल । जो धारें तिन चरणको, पूजूं नम निज भाल | ॐ हीं सकललोकालोकप्रकाशकनिरावरणकैवल्यलब्धिधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ___वक्रर्जुभावघटितापरचित्तवर्तिभावावभासनपरं विपुलर्जुभेदात् । ज्ञानं मनोऽधिगतपर्ययमस्य जातं तं पूजयामि जलचन्दनपुष्पदीपैः ।।२२४॥ भाषा- वक्र सरल पर चित्त गत, मनपर्यय जानेय । ऋजू विपुलमति भेद धर, पूजूं साधु सुध्येय ।। ॐ ह्रीं ऋजुमतिविपुलमतिमनःपर्ययधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । देशावधिं च परमावधिमेव सर्वावध्यादिभेदमतुलावमदेशपृक्तं । ज्ञानं निरूप्य तदवाप्तियुतं मुनींद्रं संपूज्य चित्तभवसंशयमाहरामि ||२२५|| भाषा- देश परम सर्वा अवधि, क्षेत्र काल मर्याद । द्रव्य भावको जानता, धारक पूजूं साध ।। ॐ हीं अवधिधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अन्योपदेशमनपेक्ष्य यथा सुकोष्ठे वीजानि तद्गृहपतिर्विनियुज्यमानः । ___ग्रंथार्थवीजबहुलान्यनतिक्रमाणि संधारयन्नृषिवरोऽर्च्यत उवस्थमत्रैः ।।२२६|| भाषा- कोष्ठ धरे वीजानिको, जानत जिम क्रमवार । तिम जानत ग्रंथार्थको पूजूं ऋषिगण सार ।। ॐ ही कोष्ठबुद्धयार्द्धप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । एकं पदार्थमुपगृह्य मुखांतमध्यस्थानेषु तच्छुतसमस्तपदग्रहोक्तिम् । पादानुसारिधिषणाद्यभियोगभाजां संपूज्य तन्मतिधरं तु समर्चयामि ॥२२७।। भाषा- ग्रंथ एक पद ग्रह कहीं, जानत सब पद भाव । बुद्धि पाद अनुसारि धर, जजू साधु धर भाव ॥ ॐ हीं पादानुसारिबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। कालादियोगमनुसृत्य यथाप्तमत्र कोटिप्रदं भवति वीजमनिंद्रियादि । वीर्यांतरायंशमनक्षयहेत्वनेकपादावधारणमतीन् परिपूजयामि ॥२२८।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [९३ 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा - एक बीज पद जानके, कोटिक पद जानेय । बीज बुद्धि धारी मुनी, पूजूं द्रव्य सुलेय ॥ ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ये चक्रिसैन्यगजवाजिखरोष्ट्रमर्त्यनानाविधस्वनगणं युगपत् पृथक्त्वात् । गृह्णति कर्णपरिणामवशान्मुनींद्रास्तानर्घयामि कृतुभाग समर्पणेन ॥ २२९|| भाषा - चक्री सेना नर पशु, नाना शब्द करात । पृथक् पृथक् युगपत् सुने, पूजूं यति भय जात ॥ ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोत्रऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । दूरस्थितान्यपि सुमेरुविधुप्रभास्वत्सन्मण्डलानि करपादनखांगुलीभिः । संस्पर्शशक्तिसहितर्द्धिवशात् स्पृशंतस्तान् शक्तियुक्तपरिणामगतान् यजामि ||२३०|| भाषा- गिरि सुमेरु रविचंद्रको, कर पदसे छू जात । शक्ति महत् धारी यती, पूजूं पाप नशात || ॐ ह्रीं दूरस्पर्शशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । नास्वादयंति न च तत्सदने समीहा तत्रापि शक्तिरमितेति रसग्रहादौ । ऋद्धिप्रवृद्धिसहितात्मगुणान् सुदूरस्वादावभासनपरान् गणपान् यजामि ||२३१|| भाषा - दूरक्षेत्र मिष्टान्न फल, स्वाद लेन बल धार । ना बांछा रस लेनकी, जजूं साधु गणधार || ॐ ह्रीं दूरास्वादनशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ९४ ] उत्कृष्टनासिकहृषीकगतिं विहाय तत्स्थोर्ध्वगंधसमवायनशक्तियुक्तान् । उत्कृष्टभागपरिणामविधौ सुदूरगंधावभासनमतौ नियतान् यजामि ||२३२|| भाषा - घ्राणेंद्रिय मर्यादसे, अधिक क्षेत्र गंधान । जान सकत जो साधु हैं, पूजूं ध्यान कृपान | ॐ ह्रीं दूरघ्राणविषयग्राहकशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । निर्णीतपूर्णनयनोत्थह्यषीकवार्ता चक्रेश्वरस्य नियता तदधिक्यभावात् । दूरावलोकनजशक्तियुतान् यजामि देवेंद्रचक्रधरणींद्रसमर्चिताहिं ||२३३|| भाषा - नेत्रेंद्रियका विषय बल, जो चक्री जानन्त । तातें अधिक सुजानते, जजूं साधु बलवंत ॥ ॐ ह्रीं दूरावलोकनशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रोत्रेंद्रियस्य नवयोजनशक्तिरिष्टा नातः परं तदधिकावनिसंस्थशब्दान् । श्रोतुं प्रशक्तिरूदयत्यतिशायिनी च येषां तु पादजलजाश्रयणं करोमि ||२३४|| 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा - कर्णेद्रिय नवयोजना, शब्द सुनत चक्रीश । तातें अधिक श्रुशक्तिधर, पूजूं चरण मुनीश ॥ ॐ ह्रीं दूरश्रवणशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अभ्यासयोगविहृतावपि यन्मुहूर्तमात्रेण पाठयति दिप्रमपूर्वसार्थं । शब्देनचार्थपरिभावनया श्रुतं तच्छक्तिप्रभूनधियजामि मखस्य सिद्धयै ॥२३५॥ भाषा - बिन अभ्यास मुहूर्त में, पढजानत दश पूर्व । अर्थ भाव सब जानते, पूजूं यती अपूर्व ॥ ॐ ह्रीं दशपूर्वित्वऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । एवं चतुर्दशसुपूर्वगतश्रुतार्थं शब्देन ये ह्यमितशक्तिमुदाहरति । तानत्र शास्त्रपरिलब्धिविधानभूतिसंपत्तयेऽहमधुनार्हणया धिनोमि ||२३६|| भाषा - चौदह पूर्व मुहूर्त में, पढजानत अविकार । भाव अर्थ समझें सभी, पूजूं साधु चितार || ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्विवऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अन्योपदेशविरहेऽपि सुसंयमस्य चारित्रकोटिविधयः स्वयमुद्भवंति । प्रत्येकबुद्धमतयः खलु ते प्रशस्यास्तेषां मनाक् स्मरणतो मम पापनाशः ॥ २३७|| भाषा- बिन उपदेश सुज्ञान लहि, संयम विधि चालत | बुद्धि अमल प्रत्येक धर, पूजूं साधु महन्त ॥ ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धित्वऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । न्यायागमस्मृतिपुराणपठित्यभावेऽप्याविर्भवंति परवादविदारणोद्धाः । वादित्वबुद्धय इति श्रमणाः स्वधर्मं निर्वाहयंति समये खलु तान् यजामि ||२३८|| भाषा - न्याय शास्त्र आगम बहू, पढ़े विना जानन्त । परवादी जीतें सकल, पूजूं साधु महन्त ॥ ॐ ह्रीं वादित्यऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जंघाग्निहेतिकुसुमच्छदतंतुबीजश्रेणीसमाजगमना इति चारणांका: । ऋद्धिक्रियापरिणता मुनयः स्वशक्तिसंभावितास्त इह पूजनमालभंतु ॥२३९॥ भाषा - अग्नि पुष्प तंतू चलें, जंघा श्रेणी चाल । चारण ऋद्धि महान धर, पूजूं साधु विशाल ॥ ॐ ह्रीं जलजंघातंतुपुष्पपत्रबीजश्रेणीवहन्यादिनिमित्ताश्रयचारणमद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । आकाशयाननिपुणा जिनमंदिरेषु मेर्वाद्यकृत्रिमधरासु जिनेशचैत्यान् । बंदंत उत्तमजनानुपदेशयोगानुद्धारयति चरणौ तु नमामि तेषां ॥२४०|| प्रतिष्ठा प्रदीप ] 2010_05 ९५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- नभ में उड़कर जात हैं, मेरु आदि शुभ थान । जिन वन्दत भवि बोधते, जजूं साधु सुख खान ॥ ॐ ह्रीं आकाशगमनशक्तिचारणद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ऋद्धिः सुविक्रियगता बहुलप्रकारा तत्र द्विधाविभजनेष्वणिमादिसिद्धः । मुख्यास्ति तत्परिचयप्रतिपत्तिमन्त्रान् यायज्मि तत्कृतविकारविवर्जितांश्च ॥२४१।। भाषा- अणिमा महिमा आदि बहु, भेद विक्रिया रिद्धि । धरै करैं न विकारता, जजू यती समृद्धि । ॐ ही अणिमामहिमालघिमागरिमाप्राप्तिप्राकाम्यवशित्वेशित्वऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । अन्तर्दधिप्रमुखकामविकीर्णशक्तिर्येषां स्वयं तपस उद्भवति प्रकृष्टा । तद्विक्रियाद्वितयभेदमुपागतानां पादप्रधावनविधिर्मम पातु पाणिं ।।२४२॥ भाषा- अन्तर्दधि कामेच्छ बहु, ऋद्धि विक्रिया जान । तप प्रभाव उपजे स्वयं, जजू साधु अघहान ।। ॐ हीं विक्रियायां अन्तर्धानादिद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । षष्ठाष्टमद्विदशपक्षकमासमात्रानुष्ठेयभुक्तिपरिहारमुदीर्य योगं । आमृत्युमुग्रतपसा ह्यनिवर्तकास्ते पांत्वर्चनाविधिमिमं परिलंभयंतु ॥२४३॥ भाषा- मास पक्ष दो चार दिन, करत रहें उपवास । आमरणं तप उग्र धर, जजू साधु गुणवास ॥ ॐ ह्रीं उग्रतपसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। घोरोपवासकरणेऽपि बलिष्ठयोगान् दौगंध्यविच्युतमुखान् महदीप्तदेहान् । पद्मोत्पलादिसुरभिस्वसनान्मुनींद्रान् यायज्मि दीप्ततपसो हरिचन्दनेन ॥२४४॥ भाषा- घोर कठिन उपवास धर, दीप्तमई तन धार । सुरभि श्वास दुर्गंधविन, जजू यती भव पार । ॐ ह्रीं दीप्तऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वैश्वानरौघपतितांबुकणेन तुल्यमाहारमाशु विलयं ननु याति येषां । विण्मूत्रभावपरिणाममुदेति नो वा ते सन्तु तप्ततपसो मम सद्विभूत्यै ॥२४५॥ भाषा- अग्नि माहिं जल सम विलय, भोजन पय होजाय । मल कफ मूत्र न परिणमें, जजूं यती उमगाय ॥ ॐ हीं तप्ततपत्रसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । हारावलीप्रभृतिघोरतपोऽभियुक्ताः कर्मप्रमाथनधियो यत उत्सहते । ग्रामाटवीष्वशनमप्यतिपातयंति ते सन्तु कार्मणतृणाग्निचयाः प्रशांत्यै ॥२४६।। ९६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- मुक्तावली महान तप, कर्मन नाशन हेतु । करते रहें उत्साहसे, जजू साधु सुख हेतु ।। ॐ ह्रीं महातपत्रसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। कासज्वरादिविविधोग्ररुजादिसत्त्वेष्वप्यच्युतानशनकायदमान् श्मशाने । भीमादिगह्वरदरीतटिनीषु दुष्टसंक्लुप्तबाधनसहानहमर्चयामि ॥२४७|| भाषा- कास श्वास ज्वर ग्रसित हो, अनशन तप गिरि साध । दुष्टन कृत उपसर्ग सह, पूजूं साधु अबाध ॥ ॐ हीं घोरतपऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । पूर्वोदितासु विधियोगपरंपरासु स्फारीकृतोत्तरगुणेषु विकाशवत्सु । येषां पराक्रमहतिर्न भवेत्तमर्चे पादस्थलीमिह सुघोरपराक्रमाणां ॥२४८|| भाषा- घोर-घोर तप करत भी , होत न बलसे हीन । उत्तर गुण विकसित करें, जजूं साधु निज लीन ।। ॐ हीं घोरपराक्रमऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । दुःस्वप्नदुर्गतिसुदुर्मतिदौर्मनस्त्वमुख्याः क्रिया व्रतविघातकृते प्रशस्ताः । तासां तपोविलसनेन समूलकाषं घातोऽस्ति ते सुरसमर्चित शीलपूज्याः ।।२४९|| भाषा- दुष्ट स्वप्न दुर्मति सकल, रहित शील गुण धार । - परमब्रह्म अनुभव करें, जजू साधु अविकार ।। ॐ ह्रीं घोरब्रह्मचर्यगुणऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा | अन्तर्मुहूर्तसमये सकल श्रुतार्थसंचिंतनेऽपि पुनरुद्भटसूत्रपाठाः । स्वच्छा मनोऽभिलषिता रुचिरस्ति येषां कुर्यान्मनोबलिन उत्तममांतरं मे ॥२५०।। भाषा- सकल शास्त्र चिन्तन करें, एक मुहूर्त मंझार । घटत न रुचि मन वीरता, जजू यती भवतार ।। ॐ हीं मनोबलसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । जिह्वाश्रुतावरण वीर्यशमक्षयाप्तावंतर्मुहूर्तसमयेषु कृतश्रुतार्थाः । प्रश्नोत्तरोत्तरचयैरपि शुद्धकण्ठदेशाः सुवाक्यबलिनो मम पांतु यज्ञं ।।२५१।। भाषा- सकल शास्त्र पढ़ जात हैं, एक मुहूर्त मंझार । प्रश्नोत्तर कर कंठ शुचि, धरत यजूं हितकार ।। ॐ हीं वचनबलसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मेर्वादिपर्वतगणोद्धरणेषु शक्ता रक्षःपिशाच शतकोटि बलाधिवीर्याः । मासर्तुवत्सरयुगाशनमोचनेऽपि हानिन कायबलिनः परिपूजयामि ॥२५२।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [९७ 2010_05 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा- मेरु शिखर राखन बली, मास वर्ष उपवास । घटै न शक्ति शरीरकी, यजूं साधु सुखवास ।। ॐ ह्रीं कायबलसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । स्पर्शात्करांह्निजनिताद् गदशातनं स्यादामर्षजा यव इति प्रतिपत्तिमाप्तान् । येषां च वायुरपि तत्स्पृशतां रुजार्तिनाशाय तन्मुनिवराग्रधरां यजामि ॥२५३।। भाषा- अंगुली आदि स्पर्शते, श्वास पवन छू जाय । रोग सकल पीड़ा टले, जजू साधु सुख पाय ॥ ॐ हीं आमाँधिद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । निष्ठीवनं हि मुखपद्मभवं रुजानां शांत्यर्थमुत्कटतपो विनियोगभाजां । क्ष्वैलौषधास्त इह संजनितावताराः कुर्वंतु विघ्ननिचयस्य हतिं जनानां ॥२५४।। भाषा- मुखते उपजे राल जिन, शमन रोग करतार । परम तपस्वी वैद्य शभ, जजूं साधु अविकार || ॐ हीं क्ष्वेलौषधिसद्धिप्राप्तिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । स्वेदावलंबितरजोनिचयो हि येषामुत्क्षिप्य वायुविसरेण यदंगमेति । तस्याशु नाशमुपयाति रुजां समूहो जल्लौषधीशमुनयस्त इमे पुनन्तु ॥२५५|| भाषा- तन पसेव सह रज उड़े, रोगी जन छू जाय । रोग सकल नाशे सही, जजू साधु उमगाय ।। ॐ हीं जल्लौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा। नासाक्षिकर्णरदनादिभवं मलं यन्नैरोग्यकारि वमनज्वरकासभाजां । तेषां मलौषधसुकीर्तिजुषां मुनीनां पादार्चनेन भवरोगहतिर्नितांतं ॥२५६।। भाषा- नाक आँख कर्णादि मल, तन स्पर्श हो जाय । रोगी रोग शमन करें, जजू साधु सुख पाय ।। ॐ हीं मलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । उच्चार एव तदुपाहितवायुरेणू अंगस्पृशौ च निहतः किल सर्वरोगान् । पादप्रधावनजलं मम मूर्ध्निपातं किं दोषशोषणविधौ न समर्थमस्तु ॥२५७|| भाषा- मल निपात पर्शी पवन, रज कण अंग लगाय । रोग सकल क्षणमें हरे, जजू साधु अघ जाय ।। ॐ ह्रीं बिडौषधिसद्धिप्राप्तेभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा । प्रत्यंग दंतनखकेशमलादिरस्य सर्वो हि तन्मिलितवायुरपि ज्वरादि । कासापतानवमिशूलभगंदराणां नाशाय ते हि भविकेन नरेण पूज्याः ।।२५८।। भाषा- तन नख केश मलादि बहु, अंग लगी पवनादि ।। हरै मृगी शूलादि बहु, जजू साधु भववादि ।। ॐ ही सर्वौषधिसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ९८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येषां विषाक्तमशनं मुखपद्मयातं स्यान्निर्विषं खलु तदंह्निधरापि येन । स्पृष्टा सुधा भवति जन्मजरापमृत्युध्वंसो भवेत्किमु पदाश्रयणे न तेषाम् ।।२५९॥ भाषा- विष मिश्रित आहार भी, जहं निर्विष होजाय । चरण धरें भू अमृती, जजू साधु दुख जाय ॥ ॐ ह्रीं आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । येषां सुदूरमपि दृष्टिसुधानिपातो यस्योपरिस्खलति तस्य विषं सुतीव्र । अप्याशु नाशमयते नयनाविषास्ते कुर्वंत्वनुग्रहममी कृतुभागभाजः ॥२६०॥ भाषा- पड़त दृष्टि जिनकी जहां, सर्वहि विष टल जाय । आत्म रमी शुचि संयमी, पूजूं ध्यान लगाय ।। ॐ ह्रीं दृष्ट्यविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। ये यं ब्रुवंति यतयोऽकृपया म्रियस्व सद्यो मृतिर्भवति तस्य च शक्तिभावात् । येषां कदापि न हि रोषजनिर्घटेत व्यक्ता तथापि यजतास्यविषान् मुनींद्रान् ।।२६१॥ भाषा- मरण होय तत्काल यदि, कहें साधु मर जाव । तदपि क्रोध करते नहीं, पूजू बल दरसाव ।। ॐ ह्रीं आस्थविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । येषामशातनिचयः स्वयमेव नष्टोऽन्येषां शिवोपचयनात्सुखमाददानाः । ते निग्रहाक्तमनसो यदि संभवेयुर्दृष्ट्यैव हंतुमनिशं प्रभवो यजे तान् ॥२६२।। भाषा- दृष्टि क्रूर देखें यदी, तुर्त काल वश थाय । निज पर सुखकारी यती, पूजू शक्ति धराय ।। ॐ हीं दृष्टिविषमद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । क्षीराश्रवद्धि मुनिवर्यपदांबुजातद्वंद्वाश्रयाद् विरसभोजनमप्युदश्वित् । हस्तार्पितं भवति दुग्धरसाक्तवर्णस्वादं तदर्चनगुणामृतपानपुष्टाः ॥२६३॥ भाषा- नीरस भोजन कर धरे, क्षीर समान बनाय । क्षीरसावी ऋद्धि धरे, जजू साधु हरषाय ॥ ॐ ह्रीं क्षीरश्रावित्रसद्धिप्राप्तेभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा । येषां वचांसि बहुलार्तिजुषां नराणां दुःखप्रघातनतयापि च पाणिसंस्था । भुक्तिमधुस्वदनवत् परिणामवीर्यास्तानर्चयामि मधुसंश्रविणो मुनींद्रान् ।।२६४|| भाषा- वचन जास पीड़ा हरे, कटु भोजन मधुराय । मधुश्रावी वर ऋद्धि धरे, जजू साधु उमगाय ।। ॐ ह्रीं मधुश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । रूक्षान्नमर्पितमथो करयोस्तु येषां सर्पिःस्ववीर्यरसपाकवदाविभाति । ते सर्पिराश्रविण उत्तमशक्तिभाजः पापाश्रवप्रमथनं रचयंतु पुंसाम् ।।२६५।। भाषा- रूक्ष अन्न करमें धरे, घृत रस पूरण थाय । घृतश्रावी वर ऋद्धि धर, जजू साधु सुख पाय ॥ ॐ हीं घृतश्रावित्रसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [९९ 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषमाश्रवति यत्करयोघृतं सद् रूक्षं तथा कटुकमम्लतरं कुभोज्यं । __ येषां वचोऽप्यमृतवत् श्रवसोर्निर्धत्तं संतर्पयत्यसुभृतामपि तान् यजामि ॥२६६।। भाषा- रूक्ष कटुक भोजन धरे, अमृत सम हो जाय । अमृत सम बच तृप्ति कर, जजूं साधु भय जाय || ॐ हीं अमृतश्राविसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। यद्दत्तशेषमशनं यदि चक्रवर्तिसेनाऽपि भोजयति सा खलु तृप्तिमेति । तेऽक्षीणशक्तिललिता मुनयो दृगाध्वजाता ममाशु वसुकर्महरा भवंतु ॥२६७|| भाषा- दत्त साधु भोजन वचे, चक्री कटक जिमाय । तदपि क्षीण होवे नहीं, जजू साधु हरषाय ॥ ॐ ह्रीं अक्षीणमहानत्रसद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । यत्रोपदेशसरसि प्रसरच्युतेऽपि तिर्यग्मनुष्यविबुधाः शतकोटिसंख्याः । आगत्य तत्र निवसेयुरबाधमानास्तिष्ठति तान्मुनिवरानहमर्चयामि ॥२६८|| भाषा- सकुड़े थानकमें यती, करते वृष उपदेश । बैठे कोटिक नर पशु, जजू साधु परमेश ।। ॐ हीं अक्षीणमहालयऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्यपामीति स्वाहा। इत्थं सत्तपसः प्रभावजनिताः सिद्धयर्द्धिसंपत्तयो येषां ज्ञानसुधाप्रलीढ़हृदयाः संसारहेतुच्युताः । रोहिण्यादिविधाविदोदितचमत्कारेषु संनिःस्पृहा नो वांछंति कदापि तत्कृतविधिं तानाश्रये सन्मुनीन् ।।२६९।। भाषा- या प्रमाण ऋद्धीनको, पावत तप परभाव । चाह कछू राखत नहीं, जजू साधु धर भाव ।। ॐ ह्रीं सकलसद्धिसम्पन्नसर्वमुनिभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अत्रैव चतुर्विंशतितीर्थेशां चर्तुद्दशशतं मतं । सत्रिपंचाशता युक्तं गणिनां प्रयजाम्यहं ॥२७०|| भाषा - दोहा चौदासे त्रेपन मुनी, गणी तीर्थ चौबीस । जजू द्रव्य आठों लिये, नाय नाय निज शीस ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थेश्वराग्रिमसमावर्तिसत्रिपंचाशच्चतुर्दशशतगणधरमुनिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मदवेदनिधिद्व्यग्रखत्रयांकान्मुनीश्वरान् । सप्तसंघेश्वरांस्तीर्थकृत्सभानियतान्यजे ||२७१।। भाषा- अडतालीस हजार अर, उन्निस लक्ष प्रमाण । तीर्थंकर चौबीस यति, संघ यजूं धरि ध्यान ॥ ॐ ह्रीं वर्तमानचतुर्विंशतितीर्थंकरसभासंस्थायि एकोनत्रिंशल्लक्षाष्टचत्वारिंशत्सहम्प्रमितमुनीन्द्रेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। १००] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार कोने में स्थापित जिनप्रतिमा, मन्दिर, शास्त्र व जिनधर्म की पूजा अकृत्रिमाः श्रीजिनमूर्त्तयो नव सपंचविंशाः खलु कोटयस्तथा । लक्षास्त्रिपचाशमितास्त्रिसगुणाः कृष्णाः सहस्त्राणि शतं नवानां ॥ २७२॥ भाषा- दोहा नौसे पच्चिस कोटि लख, त्रेपन अट्ठाव ॥ सहस ऊन कर बावना, बिम्ब प्रकृत नम शीस ॥ ॐ ह्रीं नवशतपंचविशंतिकोटि त्रिपंचाशल्लक्षसप्तविंशति सहस्रनवशताष्टचत्वारिंशत् प्रमित अकृत्रिमजिन बिम्बेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । द्विहीनपंचाशदुपात्तसंख्यकाः प्रणम्य ताः पूजनया महाम्यहं । अष्टौ कोट्यस्तथा लक्षाः षट्पंचाशमितास्तथा । सहस्रं सप्तनवतेरेकाशीतिश्चतुःशतं ॥ २७३॥ एतत्संख्यान् जिनेन्द्राणामकृत्रिमजिनालयान् । अत्राहूय समाराध्य पूजयाम्यहमध्वरे || २७४ || भाषा- दोहा आठ कोड़ लख छप्पने, सत्तानवे हजार 1 चारि शतक इक असी जिन, चैत्य अकृत भज सार । ॐ ह्रीं अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहाचतुः शतएकाशीतिसंख्याकृत्रिमजिनालयेभ्यॊ ऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । यो मिथ्यात्वमतंगजेषु तरुणक्षुन्नुन्नसिंहायते एकांतातपतापितेषु समरुत्पीयूषमेघायते । श्वभ्रांधप्रहिसंपतत्सु सदयं हस्तावलंबायते स्याद्वादध्वजमागमं तमभितः संपूजयामो वयं || २७५ ॥ भाषा - चौपाई जय मिथ्यात्त्व नागको सिंहा, एक पक्ष जल धरको मेहा । नरक कूपते रक्षक जाना, भज जिन आगम तत्त्व खजाना || ॐ ह्रीं स्याद्वादांकितजिनागमायाऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जिनेन्द्रोक्तं धर्मं सुदशयुतभेदं त्रिविधया, स्थितं सम्यक्रत्नत्रयलतिकाऽपि द्विविधा | प्रगीतं सागारेतरचरणतो ह्येकमनघं दयारूपं बंदे मखभुवि समास्थापितमिमं ॥ २७६॥ भाषा - भुजंगप्रयात छन्द जिनेन्द्रोक्त धर्म दयाभाव रूपा, यही द्वैविधा संयम है अनूपा । यही रत्नत्रय मय क्षमा आदि दशधा, यही स्वानुभव पूजिये द्रव्य अठधा ॥ ॐ ह्रीं दशलक्षणोत्तमादित्रिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तथा मुनिगृहस्थाचारभेदेन द्विविध तथा दयारूपत्वेनैकरूपजिनधर्मायऽर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | यागमंडल समुद्धृता जिनाः सिद्धवीतमदनाः श्रुतानि च । चैत्यचैत्यगृह धर्ममागमं संयजामि सुविशुद्धिपूर्तये ॥ २७७॥ [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ १०१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं सर्वयागमण्डलदेवताभ्यः पूर्णाऽर्घ्यम् । शांतिः पुष्टिरनाकुलत्वमुदितभ्राजिष्णुताविष्कृतिः संसारार्णवदुःखदावशमनं निःश्रेयसोद्भूतिता । सौराज्यं मुनिवर्यपादवरिवस्याप्रक्रमो नित्यशो भूयादभ्रशराक्षिनायक महापूजाप्रभावान्मम ॥ २७८॥ भाषा - · दोहा अर्हत्सिद्धाचार्य गुरु, साधु जिनागम धर्म चैत्य चैत्य ग्रह देव नव, यज मण्डल कर सर्म ॥ भाषा अडिल्ल सर्व विघ्न क्षय जाय शांति बाढ़े सही, भव्य पुष्टता लहें क्षोभ उपजे नहीं । पंच कल्याणक होय सबहि मंगल करा, जासे भवदधि पार लेय शिवघर शिरा || इत्याशीर्वाद : पुष्पांजलि क्षिपेत् । फिर आचार्य - भक्ति, सिद्ध-भक्ति, श्रुत-भक्ति और चारित्र - भक्ति पढ़ें । वेदी एवं मंदिर, मान- स्तंभ प्रतिष्ठा ॐ जय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही, वर्धस्व वर्धस्व वर्धस्व, स्वस्ति स्वस्ति स्वस्ति, वर्द्धतां जिनशासनं। णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। चत्तारि मंगलं, अरिहंतामंगलं, सिद्धामंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि | वास्तु शान्तिः ॐ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ह्रौं सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं अक्षीणमहानस ऋद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अक्षीणमहालय ऋद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दशदिशातः आगत विघ्नान् निवारय निवारय सर्वं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । ॐ ह्रीं दुःमुहूर्त दुःशकुनादि कृतोपद्रव शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं परकृत मन्त्र तन्त्र शाकिनी डाकनी भूत पिशाचादि कृतोपद्रव शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाकारक यज्ञनायक सर्वसंघस्य शान्तिं, पुष्टिं, ऋद्धिं, वृद्धिं, समृद्धिं, अक्षीणद्धिं आयुवृद्धिं धनधान्य समृद्धिं धर्मवृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ क्षां क्षीं क्षं क्षं क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः नमोऽर्हते सर्वं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । ॐ ह्रीं क्रौं आं अनुत्पन्नानां द्रव्याणामुत्यादकाय उत्पन्नानां द्रव्याणां वृद्धिकराय चिंतामणि पार्श्वनाथाय नमः स्वाहा । १०२] पृथ्वी विकारात्सलिल प्रवेशादग्निविघातात्पवन प्रकोपात् चौर प्रयोगादशनेः प्रपाताच्चैत्यालयं रक्षतु सर्वकालम् ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं अ सि आ उ सा अनाहत विद्यायै णमो अरिहंताणं ह्रौं सर्व विघ्ननिवारणं कुरु कुरु स्वाहा । (पुष्पांजलिः) 2010_05 प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनायक यंत्र पूजा नोट- वेदी के सामने यंत्र विराजमान कर लेवें परमेष्ठिन् ! मंगलादित्रय विघ्नविनाशने । समागच्छ तिष्ठ तिष्ठ मम सन्निहितो भव ।।१।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुपरमेष्ठिन् ! मंगल! लोकोत्तम !! शरणभूत !!! अत्रावतर अवतर संवौषट् (आह्वाननं), अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापन) अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सनिधिकरणं)। स्वच्छैर्जलैस्तीर्थभवैर्जरापमृत्यूग्ररोगापनुदे पुरस्तात् । अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ।।२।। ॐ ह्रीं अघ बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा। सच्चंदनैर्गंधहृतालिवृन्दचितैर्हिमांशु प्रसरावदातैः । अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥३॥ ॐ ह्रीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सदक्षतैौक्तिक कांतिपाटच्चरैः सितैर्मानसनेत्रमित्रैः । __ अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ।।४।। ॐ ही अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वैदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।। पुष्पैरनेकैरसवर्णगंधप्रभासुरैर्वासितदिग्वितानैः अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ।।५।। ॐ हीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर देदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नैवेद्यपिंडैद्धृतशर्कराक्तहविष्यभागैः सुरसाभिरामैः । अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥६।। ॐ ह्रीं अघ बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। आरार्तिकैरत्नसुवर्णरुक्मपात्रार्पितैर्ज्ञानविकाशहेतोः अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥७॥ ॐ ह्रीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१०३ _ 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशासु यधूमवितानमृद्धं तै—पवृंदैर्दहनोपसः । अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ।।८।। ॐ ह्रीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।। फलैरसालैर्वरदाडिमाद्यैहृद्माणहार्यैरमलैरुदारैः अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ।।९।। ॐ ह्रीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवे जिनमंदिर देदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा । __द्रव्याणि सर्वाणि विधाय पात्रे ह्यनय॑मवितरामि भक्त्या । भवे भवे भक्तिरुदारभावाद्येषां सुखायास्तु निरंतराया ॥१०॥ ॐ ह्रीं अद्य बिंबप्रतिष्ठोत्सवै जिनमंदिर वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु मंगललोकोत्तमशरणेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अनादिसन्तानभवान् जिनेंद्रानहत्पदेष्टानुपदिष्टधर्मान् । द्वेधा श्रिया लिंगितपादपद्मान् यजामि वेदीप्रकृतिप्रसक्त्यै ।।११।। ॐ ह्रीं उद्भिन्नानंतहानगभस्तिसंदृष्ट लोकालोकानुभावान् मोक्षमार्ग प्रकाशनानहतचिदूपविलासान् अर्हत्परमेष्ठिनः संपूजयामि अर्घ्यम् स्वाहा। कर्माष्टनाशाच्युतभावकर्मोद्यूतीन् निजात्मस्वविलासभूपान् । __ सिद्धाननन्तांस्त्रिककालमध्ये गीतान् यजामीष्टविधिप्रशक्त्यै ॥१२॥ ॐ ह्रीं द्विविधकर्मतांडवापठोदविलसत्स्वाकारचिद् विलासवृत्तीन् निजाष्टगुणगोधूर्णान् प्रगुणीभूतानंत माहात्म्यान् लोकानशिवरावस्थायिनः सिद्धपरमेष्ठिनोऽर्चयामि-अर्घ्यम् स्वाहा । ये पंचधचारपरायणानामग्रेसरा दीक्षणशिक्षिकासु । प्रमाणनिर्णीतपदार्थसार्थानाचार्यवर्यान् परिपूजयामि ॥१३|| ॐ ह्रीं टयवहाराधाराचारदत्त्वायनेकगुणमणिभूषितोरस्कान् संघप्रतिसार्थवाहनाचार्यवर्यान् परिपूजयामि अर्घ्यम् स्वाहा। अर्थश्रुतं सत्यविबोधनेन द्रव्यश्रुतं ग्रन्थविदर्भनेन । येऽध्यापयंति प्रवरानुभावास्तेऽध्यापका मेऽर्हणया दुहन्तु ॥१४॥ ॐ हीं द्वादशांगश्रुतांबुनिधिपारंगतान् परिप्राप्तपदार्थस्यरूपान् उपाध्यायपरमेष्ठिनः पूजयामि अय॑म् स्वाहा । द्विधा तपोभावनया प्रवीणान् स्वकर्मभूमिविंध्रविखण्डनेषु । विविक्तशय्यासनहर्म्यपीठस्थितान् तपस्विप्रवरान् यजामि ||१५|| ॐ ह्रीं घोरतपश्चरणोधुलप्रयासभासमानान् स्वकारुण्यपुण्यपुण्यागण्यपण्परत्नालंकृतपदान् साधु परमेष्ठिनः पूजयामि अय॑म् स्वाहा | १०४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हन्मङ्गलमर्चे सुरनर विद्याधरैक पूज्यपदं । तोयप्रभृतिभिरथ्य विनीतमूर्ना शिवाप्तये नित्यं ।।१६।। ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलाय अर्घ्यम् । ध्रौव्योत्पादविनाशन रूपाखिलवस्तुबोधनार्थकरं । सिद्धं मंगलमिति वा मत्वार्चे चाष्टविधवस्सुभिः ॥१७|| ॐ ह्रीं सिद्धमंगलायाऽय॑म् । यदर्शनकतविभवाद रोगोपद्रवगणा मगा इव मगेंद्रांत । दूरं भजति देशं साधु श्रेयोऽर्च्यते विधिना ॥१८|| ॐ ह्रीं साधुमंगलायाऽय॑म् । केवलिमुखावगतया वाण्या निर्दिष्टभेदधर्मगणं । मत्वा भवसिंधुतरी प्रयजे तन्मंगलं शुद्धयै ।।१९।। ॐ ह्रीं केवलिपज्ञप्तधर्ममंगलायाऽय॑म् । लोकोत्तममथ जिनराड् पदाजसेवनममितदोषविलयाय । शक्तं मत्वां धृतये जलगंधैरीडितुं प्रभवः ॥२०॥ ॐ ह्रीं अर्हल्लोकोत्तमायाऽय॑म् । सिद्धाश्च्युतदोषमला लोकाग्यं प्राप्य शिवसुखं व्रजिताः । उत्तमपथगा लोके तानचे वसुविधार्चनया ॥२१।। ॐ हीं सिद्धलोकोत्तमायाऽय॑म् । __ इंद्रनरेंद्रसुरेंद्रैरर्थिततपसां व्रतैषिणां सुधियां । उत्तममध्वानमसावर्चेऽहं सलिल गंध मुखैः ।।२२।। ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमायाऽय॑म् ।। रागपिशाचविमर्दनमत्र भवे धर्मधारिणामतुलम् । उत्तममपगतकामो वृषमर्चे शुचितरं कुसुमैः ।।२३।। ॐ ह्रीं केवलिपज्ञप्तधर्माय लोकोत्तमायाऽय॑म् ।। अर्हच्छरणमथार्चेऽनंतजनुष्यपि न जातु संप्राप्तं । नर्तन गानादिविधिमुद्दिश्याष्टकर्मणां शांत्यै ।।२४।। ॐ ह्रीं अर्हच्छरणायाऽय॑म् । निर्व्याबाधगुणादिक प्राग्यं शरणं समेतचिदनंतं । सिद्धानाममृतानां भूत्यै पूजेयमशुभहान्यर्थम् ॥२५।। ॐ हीं सिद्धशरणायाऽय॑म् । चिदचिद्भेदं शरणं लौकिकमाप्यं प्रयोजनातीतं । त्क्त्वा साधुजनानां शरणं भूत्यैयजामि परमार्थम् ॥२६।। ॐ हीं साधुशरणायाऽय॑म् । केवलिनाथमुखोद्गतधर्मः प्राणिसुखहितार्थमुद्दिष्टः । तत्प्राप्त्यै तद्यजनं कुर्वे मखविघ्ननाशाय ॥२७|| ॐ हीं केवलिपज्ञप्तधर्मशरणायाऽय॑म् । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१०५ 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षिपर्युपासनम् औषधीरसबलर्द्धि तपःस्था क्षेत्रबुद्धिकलिताः क्रिययाढ्याः। विक्रयर्धिमहिताः प्रणिधानप्राप्तसंसृतितटा मुनिपूज्याः ॥२८॥ केवलावधिमनःप्रसरांगाः वीजकोष्ठमतिभाजनशुद्धाः । वीतरागमदमत्सरभावा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥२९।। यद्वचोऽमृतमहानदमना जन्मदाहपरितापमपास्य । निर्ववुः सुखसमाजतटेषु बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३०॥ श्रोतभिन्नमतयः पदपंथा दृष्टसंसृतिपदार्थविभावाः । तत्त्वसंकलितधर्म्यसुशुक्ला बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३१॥ स्पर्शनश्रवणलोकनबुद्धा घ्राणसंस्थरसनोपकृता ये । दूरतोऽप्यनुभवं समाप्ता बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३२।। छिन्नस्वर्यविधिना चतुर्दश दिग्सुपूर्वमतिना निमित्तगाः । वादिबुद्धकृतिनो मतिश्रमा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३३।। अष्टधोक्तदशधाभिदया ये बुद्धिवृद्धिसहिताः शिव यत्नाः । विण्मलादिगदहापनदेहा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३४॥ दृष्टिवक्त्रमनसां विषभक्तिप्रीणिताः श्रुतसरित्पतिपुष्टाः । लोकमंगलिषु संन्यसिता ये बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३५॥ वाक्यमानसबलेन समग्रा उग्रदीप्ततपसस्त्रिकगुप्ताः । घोरवीर्यगुणभावितचित्ता बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३६।। दुग्धमध्वमृतभोजनकृत्याः सर्पिषाश्रववचोऽभिनियुक्ताः । अण्वलाघववशित्वविदर्भा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३७|| कामरूपगुरुता प्रतिसर्पान्तर्द्धहीनवसतिगृहयुक्ताः । चारणा जलफलाग्निकसूत्रा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३८॥ आत्मशक्तिविभवागतसर्वपौद्गलीयममताश्च्युतवस्त्राः ।। सत्परीषहभटार्दनदास्ते बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३९।। ॐ ह्रीं अष्टप्रकारसकलऋद्धिप्राप्तेभ्यो मुनिभ्योऽय॑म् । आद्येशितुर्वृषभसेनपुरस्सरा ये, सिंहादिसेनपुरतोऽजिततीर्थभर्तुः । श्रीसंभवस्य किलचारुविसेनमुख्यास्तुर्यस्य वज्रधरमुख्यगणाधिराजाः ।।४०|| कोकध्वजस्य चमराधिपपूर्वगाः स्युः पद्मप्रभस्य कुलिशादिपुरः स्थिताश्च । श्रीसप्तमस्य बलमुख्यकृताः पुराणे चन्द्रप्रभस्य शमिनः खलु दत्तमुख्याः ॥४१|| १०६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकरांकितो गणभृतश्च विदर्भमुख्याः श्रीशीतलस्य गणया अनगारगण्याः । श्रेयो जिनस्य निकटे ध्वनि कुंथुपूर्वा धर्मादयो गणधरा वसुपूज्यसूनोः ॥४२।। मेर्वादयश्च विमलेशितुरुद्धबुद्धया जय्यार्यनामभरणाश्चतुर्दशस्य । धर्मस्य भांति शमिनः सदरिष्टमूलाश्चक्रायुधप्रभृतयः खलु शांतिभर्तुः ॥४३॥ कुंथुप्रभोर्यमभृतः कथिताः स्वयंभूवर्याः पुनन्त्वरविभोः स्मृतकुम्भमान्याः । मल्लेर्विशाखमुनयो मुनिसुव्रतस्य मल्लिप्रवेकगणपा नमिभर्तुरिष्टाः ॥४४।। सप्तर्द्धिपूजितपदाः सुप्रभासमुख्या नेमीश्वरस्य वरदत्तमुखा गणेशाः । पार्श्वप्रभो स्वयमितः सुभवोन्तनाम्ना वीरस्य गौतममुनींद्रमुखाः पुनन्तु ।।४५|| एभ्योऽर्घ्यपाद्यमिह यज्ञधरावनार्थं दत्तंमया विलसतां शुचिवेदिकायां । पुष्पांजलिप्रकरतुंदिलमाज्यपात्र मुत्तारयामि मुनिमान्यचरित्रभक्त्या ॥४६|| ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरगणधरेभ्यस्लिापञ्चाशत्सहित चतुर्दशशतसंस्टयेभ्योऽय॑म् स्वाहा । इन्द्रभूतिरग्निभूतिर्वायुभूतिः सुधर्मकः । मौर्यमौढ्यौ पुत्रमित्रावकम्पनसुनामधृक् ||४७|| ॐ ह्रीं गौतमादिएकादशमुनिभ्योऽय॑म् । अन्धवेलः प्रभासश्च रुद्रसंख्यान् मुनीन् यजे । गौतमं च सुधर्मं च जम्बुस्वामिनमूर्ध्वगम् ॥४८|| ॐ हीं अंत्यकेवलित्रयायाऽय॑म् । श्रुतकेवलिनोऽन्यांश्च विष्णुनंद्यपराजितान् । गोवर्धनं भद्रबाहुं दशपूर्वधरं यजे ॥४९॥ ॐ ह्रीं श्रुतकेवलिनेऽय॑म् । विशाखप्रोष्ठिलनक्षत्र जयनागपुरस्सरान् । सिद्धार्थधृतिषणाहौ विजयं बुद्धिबलं तथा ॥५०॥ गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु सुश्रुतान् । नक्षत्रं जयपालाख्यं पांडु च ध्रुवसेनकम् ॥५१॥ ॐ ह्रीं कतिचिदंगधारिभ्योऽय॑म् । कंसाचार्य पुरोगीयज्ञातारं प्रयजेन्वहं । सुभद्रं च यशोभद्रं भद्रबाहुं मुनीश्वरम् ॥५२।। लोहाचार्य पुरा पूर्वज्ञानचक्रधरं नमः । अर्हद्बलिं भूतबलिं माघनंदिनमुत्तमम् ॥५३|| धरसेनं मुनींद्रं च पुष्पदन्तसमाह्वयं । जिनचंद्रं कुंदकुंदमुमास्वामिनमर्थये ॥५४।। ॐ ह्रीं ऐदंयुगीनदीक्षाधरणधुरंधरनिग्रंथाचार्यवर्यान् वेदीप्रतिष्ठाने संस्थाप्याष्टविधार्चनं करोमि अय॑म् । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१०७ 2010_05 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथान् वकुशान् पुलाककुशलान् किंशीलनिग्रंथकान् । मूलस्वोत्तरसद्गुणावधृतसाः किंचित्प्रकारं गतान् । वंदित्वा जिनकल्पसूत्रितपदान् प्रध्वस्तपापोदयान् । वेदीशुद्धिविधिं वदंतु मुनयो ह्यर्पण संपूजिताः ॥५५॥ ॐ ह्रीं पुलाकदकुशकुशीलनिग्रंथस्नातकपदधरत्रिकन्यूनैक कोटिसंख्यमुनिवरेभ्योऽय॑म् । वेदी शुद्धि ॐ अद्य वेदी प्रतिष्ठायां तत् शुद्धयर्थं भावशुद्धथे पूर्व आचार्यभक्ति श्रुतभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् आचार्य व श्रुत भक्ति पाठ करें। ॐ नमोस्तु जिनेन्द्राच ॐ प्रज्ञाश्रवणे नमः । नमः केवलिने तुभ्यं नमोऽस्तु परमेष्ठिने ।। नानाभरणोज्ज्वलै वस्त्रैः किंकिणीतारकादिभिः । अर्धचन्द्र सुदंडाद्यैः वेदिकां च विभूषयेत् ।। प्रतिदिशं सुहस्तां च सुप्रशस्तां सुवेदिकाम् । सुप्रभाख्यां महापूतां जिनस्य स्थापयाम्यहम् ॥ (वेद्यां चन्द्रोपकादिषु पुष्पांजलिं क्षिपेत्) आयात कन्या जिन वेदि शुद्धयै सुवर्णरूपाभरणा भुजादया। छत्रत्रयाद्यष्ट सुद्रव्ययुक्ता जिनेन्द्र सेवार्थमुपागताश्च ।। ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी शान्ति पुष्टिदिक्कुमार्यः वेदी शुद्धयर्थं समागच्छत समा (आठ कन्यायें सर्वौषधि आदि से वेदी शुद्ध करें) इसी प्रकार आगे इन्द्र-इन्द्राणियों-देवियों से वेदी शुद्धि करावें । पूतमृत् कुंकुम द्वेधा चन्दन क्वाथ हस्तया । सन्माय॑ प्रोक्ष्य लेप्यासौ स्नातालंकृत कन्यया ।। चन्दनादि क्वाथेन वेदी शुद्धिं कुर्मः। कंकोलैलाजातिपत्रं लवंग श्रीखण्डोग्र कुष्टसिद्धार्थदौर्वाः । सर्वोषध्यावासितैस्तीर्थतोयैः कुम्भोद्गीणैः स्नापयाम्यहवेदीम् । इति सर्वौषधिना वेदी शुद्धिं कुर्मः। पूज्य पूजा विशेषण गोशीर्षेण हतालिना । देव देवाधि सेवायै वेदिकां चर्चयेऽधुना ॥ ॐ ह्रीं चन्दनेन वेदी शुद्धिं कुर्मः। कर्पूरागुरु काश्मीर चन्दनानां द्रवेण च । जिन यज्ञ विधानार्थं वेदीं संचर्चयाम्यहम् ।। ॐ हीं कर्पूरादिद्रवेण वेदी संचर्चयामः | १०८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरापगातीर्थेभ्यः उद्भवैः वारिसंचयैः । प्रक्षालयामि सद्वेदी तीर्थ कृद्भवने स्थिताम् ।। ॐ ह्रीं शुद्ध जलेन वेदी प्रक्षालनं कुर्मः। ॐ क्षांक्षी हूं क्षौं क्षः जलेन शुद्धिं कृत्वा वेदी प्रोक्षणं कुर्मः। नोट- यहाँ नागकुमार, वातकुमार, मेघकुमार और अग्निकुमार आदि देवों से वेदी शुद्धि कराई जाती है। उक्त देवों की स्थापना-मन्त्र पढ़कर पुष्प क्षेपण द्वारा उन पूजकों में कर दी जाती है और वे ही शुद्धि कार्यों को संपन्न करते हैं । यह प्रारंभ से परम्परा बनी हुई है। आयात भो वातकुमारदेवाः प्रभोर्विहारावसराप्त सेवाः । यज्ञांशमभ्येत सुगंधिशीतमृद्वात्मना शोधयताध्वरोर्वीम् ।। ॐ ह्रीं षण्णवति लक्षा वातकुमार देवा जिन वेदी महीं पूतां कुरु कुरु हूं फट् स्वाहा । (डाभ-कूची से वेदी पर हवा करें) आयात भो मेघकुमार देवाः प्रभोर्विहारावसराप्त सेवाः । गृह्णीत यज्ञांशमुदीर्णशम्पा गंधौदकैः प्रोक्षत यज्ञभूमिम् ॥ ॐ हीं मेघकुमार देवाः जिन वेदी प्रक्षालयत प्रक्षालयत अंहं सं वं झं यःक्षः फट् स्वाहा । (कूची से जल छिड़कें) आयात भो वह्निकुमार देवा आधानविध्यादिविधेय सेवाः । भजध्वमिज्यांशमिमां मखोर्वी ज्वालाकलापेन परं पुनीत || ॐ ह्रीं अग्निकुमार देवाः जिन वेदी भूमि शुद्धयर्थं ज्वलय ज्वलय अंहं संबं झंठं यः क्षः फट् स्वाहा | (कर्पूर जलाकर रकेबी में लेकर वेदी पर रखें) उद्भात भो षष्ठिसहस्रनागाः क्ष्माकामचारस्फुट वीर्य दर्पाः । प्रतृप्यतानेन जिनाध्वरोर्वी सेकासुधागर्वमृजामृतेन ॥ ॐ ह्रीं कौं षष्ठिसहस्रनागाः सर्वविघ्नविनाशनं कुरुत कुरुत अहँ नमः स्वाहा । षण्मासान्युवमेष्यतां नव दिवश्चाजग्मुषामर्हताम् । पित्रोः सौधमपीद्धमुत्सृजति मुतुः रैदो महेन्द्राज्ञया ।। स्वर्णागाव धुतामरद्रुमफला सारभ्रमं कुर्वतीम् । व्यक्तुं तामिह रत्न वृष्टि मुचितं मुंचामिपुष्पोच्चयम् ।। ॐ हीं रजत पुष्प रत्न स्थापनं कुर्मः; - (प्र. सार. ८७) संस्थाप्यं निश्चलं यन्त्रमधस्तात् प्रतिमां नयेत् । लेखनं स्वर्ण लेखिन्या यन्त्रं तस्य धरार्पितम् ।। पीठ संस्थापनं तासामतो वक्ष्ये यथागमम् । ॐ नमोऽहं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल लु, ए ऐ ओ औ अं अः, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ भ, य र ल व श ष स ह क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१०९ 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यनेन मूलनायक प्रतिमायाः अधोभागे मातृका यंत्रं अथवा मूलनायक यंत्रं स्थापयेत् । कोणेषु वेद्याश्चतुरस्रदेशे संस्थाप्य गाढं घनघात योगात् । सद्धीरकान् शंकुवदासितांश्च काष्ठाविमूढी शिथिली करोतु ।। इति वेद्याः कोणे हीरकं स्थापयामः । मूलेषु पारदं क्षिप्त्वा श्री खण्डं कुंकुमं तथा । प्रथमं स्थापयेद् गर्भे कोणे वेद्याः जिनस्य च ।। ॐ हीं वेद्याः कोणे पारदं स्थापयामः । (पारा स्थापित करें) स्वर्ण प्रवाल मधु किंशुक हंस नील-रत्नद्विरेफ सुरचापनिभा पताकाः । पूर्वादिदिक्षु विधिवत् रुचिरोरु वेद्याः संस्थापयेत्त्रिभुवनाधिपतेः जिनस्य । ॐ ह्रीं पूर्वादिदिशासु (पीत, हरित, शुक्ल, नील, श्याम) पंचवर्ण पताका स्थापनं कुर्मः। (८ध्वजा स्थापन करें) सिद्धार्थान् सर्व सिद्धार्थान् सिद्धार्थ प्रतिपत्तये । श्रीमहे वेदिकाग्रे च स्थापयामि प्रदक्षिणम् ।। इति जिन वेद्याम् सिद्धार्थ स्थापनाम् । वेद्या: मूले पंचरत्नोपशोभं कंठे लम्बान्माल मादर्शयुक्त माणिक्याभं कांचनं पूगदर्भ स्रग्वासोभं सद्घटं स्थापयामः ।। ॐ हीं अहं मंगलकलश स्थापनं कुर्मः। तीर्थाम्बु पूर्ण शरणोत्तम मंगलार्थं, संकल्पिताष्ट समलंकृत शुभ्र कुंभान् । वेद्यष्ट दिक्षु विनिवेश्य सपंचवर्ण - सूत्रेणत्रींश्चत्रिगुणंहि वृणोमि सिद्धयै ।। ॐ हीं वेद्यां जल परिपूर्ण लघु कलशाष्टक स्थापनं कुर्मः। । स्वादिष्टता सर्वरसस्य येन, चायेत सद्भाजन पूजितेन । लावण्य सिद्ध्यै लवणेन तेन वेदी विशिष्टामवतारयामि ।। ॐ ह्रीं वेद्यां लवणावतरणं कुर्मः । रुचिरदीप्तिकरं शुभ दीपकं सकल लोक सुखाकर मुज्जवलम् | तिमिर व्याप्ति हरं प्रकरं सदा स्थापयामि सुमंगलकं मुदा ॥ ॐ ह्रीं अज्ञान तिमिरहरं दीपकं स्थापयामः । सितेनपीतेन च लोहितेन धर्मानुरागात्प्रतिकल्पितेन । जिनस्य मंत्रेण पवित्रितेन सूत्रेण वेदीमवसूत्रयामि ।। ॐ नमो भगवते असिआउसाऐं ह्रीं द्रां द्रीं संवौषट् इति त्रिवर्ण सूत्रेण त्रिवारं वेदी वेष्टनम् । ॐ परब्रह्मणे नमोनमः स्वस्ति स्वस्ति जीव जीव नंद नंद वर्द्धस्व वर्द्धस्व विजयस्व विजयस्व अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं मांगल्यं मांगल्यं । ___ इति वेदी प्रतिष्ठा मंत्रेण पुष्पांजलिं क्षिपेत् । पश्चात् वेदी में यवनिका (पर्दा) लगावें। ११०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र भवन स्नपन एवं पूजन ॐ प्रबलतरोत्कृष्ट जठमांतर पुण्य पुण्यावलिलब्धात्यंत मानिर्मापितस्य पद्मरागाश्मगर्भवजवैडूर्य पदम रागेन्द्र नीलचन्द्र काठताश्म सूर्यकान्तोपल स्फटिक मणि निमापितोत्तुंग कूटस्य, नानाविध मणि निर्मित सोपान राजविराजितस्यवैनतेय गोपति रथांग नीलकण्ठ राजहंस मालांबर कमला चिह्न संशोभित ऊर्जस्वतरस्वतेजः समुद्यौतित दशदिग् विभागकनकाश्म जात स्वचित चाल चामीकर कुंभ श्रृंगस्य, मृगेन्द्र मातंगादि दशविध वैजयन्तिका विराजितस्य, कनक किंकणी नादबहुलीकृत स्थूलतर घंटानाद समाहत भट्यसमाहतस्य, विविध प्रकार भेरी पटह मृदंग कंसाल ताल डमरु डिडिम झर्झर वंश वीणा प्रमुख वाध निर्घोष दधिरीकृत सर्वलोकस्य, जय नन्द चिरंजीव वर्द्धस्वेति भटय मुखोत्पन्नस्तुतिपाठ समुद्भुत ध्वनि विशेष रागस्य, टयाकरण छन्दोलंकार साहित्य नाटक तर्कमीमांसा वेदान्त पातंजलि सांस्टय चार्वाक बौद्ध जैन समस्त शास्त्र पठन पाठन प्रवीणाचार्यवर्य टयास्टयानपूर्वक बोधित भटयजन निवास स्थलस्य, पंचविद्याशय निर्मितगगनलिहगोपुरोझासितस्य, मणिमुक्ताफल माला विराजित द्वार प्रदेश निवेशित चन्दनमालस्य काश्मीर चीनानेकदेशोद्भव बहुमूल्यक्षौम पट दुकूल कारापित नानालोक विराजितस्य, भागीरथी कालिन्दी सरस्वती गोदावरी नर्मदा सरोवापी कूप तडागायनेक जलाशय परागपुंज पिंजरित काश्मीर गंध सार कलापक घनसार सुगंधीकृत वारिपूर्णे कलशैः बुद्धिबलौषधि तपोरस विक्रिया क्षेत्र क्रियाधनेकर्द्धि मण्डित महर्षिवचनैरिवाभिषिक्तस्य मं वं इवीं क्ष्ची हं सः द्रां द्रीं क्लीं लूं सः अमृतश्राविणि श्रावय श्रावय सर्वकलुषापनोदिनि कलुषं स्फोटय स्फोटय ॐ ॐ ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हं सः अमृतं वर्षय वर्षय जिनेन्द्र भवनस्य मानस्तंभस्यवा नपानं करोमीति स्वाहा। (जलधारा) धन्योऽयं सर्वसंघः धन्यास्ते वीतरागाः । धन्याजिनवाणी धन्यं शासनं धन्यं पावनं कार्यम् धन्या जिनभवन निर्मातारः धन्या सर्वे आचार्याः धन्याः प्रेक्षकाः सर्वेभक्ताः। (पुष्पांजलिः) क्षीरोदनीर निकरै घनसार मित्रैः शृंगार नालिमुख निर्गत दिव्य धारैः । प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ॥१॥ ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । काश्मीर पंक निवहैर्हिमवालुकाढ्यैः । सद्गन्धसार सुभगैर्भमरावलीद्वैः ॥ प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ताफल प्रकर हारकरावदातैः । शालीयकैर्वरतरैः सुरसै सुरम्यैः ।। प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ॥३॥ ॐ हीं जिन प्रासादाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । संतान सौरभ मनोहर जातिपुष्पैः । मातंग यूथकरठोद्धत मान भृगैः ।। प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ॥४॥ ॐ हीं जिन प्रासादाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । शाल्यन्नकैः सुरस पायस दिव्य गव्यैः । पक्वान्न मोदक सुभक्ष्य सुपेय वगैः ।। प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमार्हत महं विधिनार्चयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। रत्नप्रभा प्रचुर पादभरैरनेकैः । -दीपै निराकृत तमोभरकै विचित्रैः ॥ प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ॥६।। ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कृष्णागुरुत्वघन धूम विराजमान - | धूपै मनोहरतरैर्मधुपावलीद्वैः । प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमाहत महं विधिनार्चयामि ||७|| ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । नारंग पूगफल मोच सुनारिकेलै-। द्राक्षा सुदाडिम मनोहर बीजपूरैः ।। प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमार्हत महं विधिनार्चयामि ||८|| ॐ हीं जिन प्रासादाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।। गंधाम्बु चंपक वराक्षत हव्य दीपैः । कनैः सुधूपनिचयैर्फलकै र्फलाढ्यैः । प्रोत्तुंग श्रृंग विनिवेशित हेमकुंभ- प्रासादमार्हत महं विधिनार्चयामि ॥९॥ ॐ ह्रीं जिन प्रासादाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कुंकुमैः केसरैः पकै : प्रासादं शोभयाम्यहं । कृते स्वस्तिक हस्तोथैर्बहिर्मध्ये मनोहरैः । इति कुंकुम कैशरेः स्वस्तिक करणम् मंदार जाति संतान चंपकाशोक पुष्पकैः । सृष्टया मालया चैत्यं विभूषयेत्मनोहरैः ।। (इति पुष्पमाला वेष्टनम्) श्वेत पीतारुणोद् भासि सूत्रः संवेष्टयाम्यहम् । जिनालयं जिनेशस्य स्वस्यसूत्रप्रवृद्धये ॥ इति त्रिवर्ण सूत्रेण त्रिवारं वेष्टनम् ११२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्याहवाचन करें लक्ष्मीः पुष्पफलं यशः प्रविशदं नैरोग्यमायुर्धनम् । तेजः शौर्यमनेकधाम विपुलां विद्यां सुशास्त्रागमम् ।। तुंगाश्वेभरथौघपद्म निकरान् सद्गोत्रजन्मोर्जितम् । प्रासादः सुतरां ददातु सततं प्रासाद संकीरनीः ।। इत्याशीर्वादः मन्दिर एवं मानस्तंभ शुद्धि नोट-मंदिर-मानस्तंभ-गंधकुटी की शुद्धि के लिए चैत्य भक्ति पाठ पढ़कर एक लम्बा दर्पण रखकर उसमें मन्दिर या मानस्तंभ का प्रतिबिम्ब देखते हुए अभिषेक व पूजन इन्द्र-इन्द्राणियों द्वारा करावें। नीचे तपेला या परात रखें। इसके पहले अष्टकदल कमल मांड करके इन्द्र पूर्व से शुरू कर ८१ कलश स्थापित कर देवें। इतने लघु कलश नहीं हों तो १० कलशों में जल भरकर क्रमशः मन्त्र बोलकर दर्पण में देखते हुए ८१ बार अभिषेक करा देवें। ८१ कलशों से शुद्धि ८१ कलशों के श्लोक और मन्त्र इस प्रकार हैं : कुम्भमिन्द्राह्वयं दिव्यमिन्द्र शस्त्रसमप्रभम् । ऐन्द्रपुष्पैः समर्चामि नवार्हद्भवनोत्सवे ॥१॥ ॐ हीं इन्द्रकलशेन मन्दिर (मानस्तंभ...) शुद्धिं करोमीति स्वाहा । अग्निज्वालासमानाभमग्न्याख्यं बहुलाक्षतैः । पूजयामि जिनागारस्नानाय सुखहेतवे ||२|| ॐ हीं अग्निकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । यमदण्डसमानाभमलौकिकमणिश्रितम् । यमाख्ययमदिक्पालमान्यं संचर्चयेऽनघम् ॥३|| ॐ हीं यमकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। नैऋत्याख्यं महाकुम्भं नैऋत्याधिपरक्षितम् । संशब्दये जिनागारं स्नानाय मधुरस्तवैः ।।४।। ॐ हीं नैत्रत्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । वरुणाख्यं घटं दिव्यं वरुणासुर रक्षितम् । संशब्दये जिनेन्द्रस्य वेश्मस्नानाय चम्पकैः ॥५॥ ॐ हीं वरुणकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [११३ 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवनामरसंसेव्यं पवनामर रक्षितम् । पवनाख्यं घटं नीर-गन्धप्रसूनशालिजैः ।।६।। ॐ हीं पवनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कुबेराख्यं घटं दिव्यं कुबेरगृहशोभितम् । जिनवेश्मप्लवायात्र समाह्वये कदम्बकैः ॥७।। ॐ हीं कुबेरकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । ईशानाख्यमुदाधारमीशादिदिग्विभासितम् । ॐ ह्रीं तिष्ठेद्विधानेन काश्मीरैस्तन्महे मुदा ॥८॥ ॐ हीं ईशानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। कुम्भं गारुन्मतावानं गरुन्मणिविनिर्मितम् । सरसैर्दिव्यपूजाध्यैः श्रये जैनमहोत्सवे ॥९॥ ॐ हीं गारुडमतकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कलशं सुन्दराकारं वैडूर्यमणिनिर्मितम् । दिव्यं मरकताभिख्यं स्थापयेऽर्हत्गृहोत्सवे ।।१०।। ॐ ह्रीं मरकतमणिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । गाङ्गेयनिर्मितं कुम्भं गाङ्गेयाख्यं महोन्नतम् । गङ्गधनरसापूर्णं पूजयेऽर्हत्सुवेश्मनि ॥११॥ ॐ ही गाङ्गेयकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । प्रतप्तहाटकैः स्पष्टं श्रीमद्धाटकसंज्ञकम् । कुम्भं तीर्थजलापूर्णमर्चयामि यथाविधि ॥१२॥ ॐ ह्रीं हाटककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। .. हिरण्याख्यं महाकुम्भं हिरण्येन समर्जितम् । लसत्पंकंजमालाढ्यं यजेऽर्हत्सद्मसंमहे ।।१३।। ॐ हीं हिरण्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कनत्कनकसंकाशं नानामणिविमण्डितम् । यजेऽर्हन्मन्दिरे कुम्भं शुद्धनीरसमाश्रितम् ॥१४॥ ॐ हीं कनककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। अष्टापदाख्यं सत्कुम्भं हेमभागविराजितम् । क्षीरोदवारि संपूर्णमर्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे ॥१५|| ॐ हीं अष्टापदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोनीति स्वाहा । महारजतनामादयं महारजतनिर्मितम् । तीर्थाम्बुपूरनिभृतमहद्गेहेऽर्चये मुदा ॥१६।। ॐ हीं महारजतकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्ददायकं दिव्यं सानन्दाख्यं मनोहरम् । नित्यं तीर्थजलैः पूर्ण स्थापये चैत्यसंमहे ॥१७॥ ॐ हीं आनन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । नन्दाख्यं नन्दतोत्कृष्टं प्रणन्दितगमं जितम् । कुम्भं समर्चये दिव्यं नानामणिविनिर्मितम् ॥१८॥ ॐ ह्रीं नन्दनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कुम्भं विजयनामानं विजयोर्जितविश्वकम् । पूर्णं तीर्थजलैर्दिव्यमर्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे ॥१९|| ॐ ह्रीं विजयकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । नानातीर्थजलाकीर्णं कुम्भं त्वजितनामकम् । मानये विविधार्हाभिः स्मरजिन्मन्दिरोत्सवे ॥२०॥ ॐ ह्रीं अजितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। अपराजितनामानं घटं काञ्चनसंनिभम् । संप्रतिष्ठापये चैत्यमहे जलसुमाक्षतैः ॥२१॥ ॐ ह्रीं अपराजितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। महोदरं शतानन्दनामधेयं प्रभास्वरम् । कलशं कमलैः पूर्णं प्रार्चयेऽर्हद्गृहोत्सवे ॥२२॥ ॐ ह्रीं शतानन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा | सह स्नानदसत्ख्यातिं पद्मादितीर्थसंभृतम् । पुष्पमालावृतं कुम्भं महाम्यहंद्गृहक्षणे ॥२३|| ॐ हीं स्नानदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। कुन्दाख्यं कुन्दपुष्पाढ्यं कुन्दसकप्रविराजितम् । प्रार्चये कुन्दपुष्पोथैः कुम्भं भव्यजिनालये ॥२४॥ ॐ हीं कुन्दकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । प्रस्फुटन्मल्लिकापुष्पसमूहामोदवासितैः ।। नीरैः पूर्ण यजे हेममल्लिकाख्यं महाघटम् ॥२५॥ ॐ हीं मल्लिकारख्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । अपूर्वचम्पकामोदप्रवासितजलै तम् । चम्पकाख्यं घटं दिव्यं सूत्रितं सम्यगर्चये ॥२६।। ॐ हीं चम्पककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोनीति स्वाहा । कदम्बरजसाव्याप्तकदम्बाख्यं महाघटम्। उपाक्षिप्तविधानेनार्चये जैनगृहाप्तये ॥२७।। ॐ हीं कदम्बकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [११५ 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दाराख्यं महाकुम्भं मन्दारसग्विभूषितम् । दिव्यैरर्चामि मन्दारैः प्रत्यग्रजिनमन्दिरे ॥२८॥ ॐ हीं मन्दारकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोनीति स्वाहा।। प्रत्यग्रपारिजातौघसमर्चितजलै तम् ।। पारिजाताभिधं कुम्भमर्चयामि पयोभरैः ॥२९॥ ॐ ह्रीं पारिजातकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । संतानपल्लवोत्फुल्लप्रसूननिकरार्चितम् संतानाख्यं जलैः पूर्ण संस्थाप्यापूजयेऽनिशम् ॥३०॥ ॐ ह्रीं सन्तानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। हरिचन्दनपुष्पाभं हरिचन्दनसंज्ञकम् । हरिचन्दनकर्पूरैः कुम्भं संप्रार्चये मुदा ॥३१॥ ॐ ही हरिचन्दनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कल्पवृक्षमहापुष्पप्रकरेण प्रसाधितम् । कल्पवृक्षाभिधं कुम्भं पूजनाय प्रकल्पये ॥३२॥ ॐ ही कल्पवृक्षकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। जपाख्यं जपदामाभं जपापुष्पाख्यबालकम् । यजे जगत्प्रभोर्नव्यचैत्यस्नानाय केवलम् ||३३।। ॐ ह्रीं जपाकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। विशालाख्यं घटं दिव्यं विशालं रत्ननिर्मितम् । विशालयामि पुष्पौषैः कुन्दमन्दारसंभवैः ॥३४।। ॐ हीं विशालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कुम्भं श्रीभद्रकुम्भाख्यं भद्रेभकुम्भसुन्दरम् । पारिभद्रप्रसूनौधैः शोभयामि मनोहरैः ॥३५।। ॐ ह्रीं भदकुंभकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा।। घटं श्रीपूर्णकुम्भाख्यं पूर्णकुम्भमिवोन्नतम् । क्षीरोदनीरसंपूर्णैः सुरत्नैर्वर्णयाम्यहम् ॥३६।। ॐ हीं पूर्णकुम्भकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । जयन्तं सर्वकुम्भानां जयनाख्यं महाघम् । विकसञ्जयपुष्पौघैः संजयामि तदुत्सवे ॥३७॥ ॐ ह्रीं जयन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। वैजयन्ताभिधं कुम्भं सत्यं विजयदायकम् । नव्यप्रासादचर्यार्थंचर्चयेऽहं वनादिभिः ॥३८॥ ॐ ह्रीं वैजायन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रकान्तमहारत्नविनिर्मितमहाघटम् । सूर्याख्यं कुम्भमुत्कृष्टैः प्रयजे तन्महार्घकैः ॥४०॥ ॐ ह्रीं सूर्यकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। लोकालोकप्रविख्यातं लोकालोकविधानकम् । कुम्भं संस्थापयाम्यत्र संपूज्य विविधार्चनैः ॥४१॥ ॐ हीं लोकालोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । त्रिकूटनामकं कुम्भं त्रिकूटाद्रिसमानकम् । समय॑ विविधार्पण स्थापये तन्महोत्सवे ॥४२।। ॐ ह्रीं त्रिकूटकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । उदयाख्यं महाकुम्भमुदयाचलसन्निभम् । स्थापयामि जिनागारेऽभिषवाय महोन्नतम् ।।४३।। ॐ ह्रीं उदयाचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । हिमवत्पर्वताभिख्यं हिमाचलसमुन्नतम् । कूटं निवेशयाम्यत्र स्नानाय नव्यवेश्मनः ॥४४।। ॐ हीं हिमाचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । निषधाद्रिसमोत्सेधं निषधाख्यं घटं वरम् । संविधायार्हणां दिव्यां स्थापयेऽर्हन्महोत्सवे ॥४५|| ॐ ह्रीं निषधकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। माल्यवत्कुम्भनामानं नानामालाविराजितम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं कुम्भं तत्र निवेशये ॥४६।। ॐ ह्रीं माल्यवत्कलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। सत्पारिपात्रकोत्सेधं सत्पारिपात्रकाह्वयम् । कलशं श्रीजिनागारस्नानाय पूजयेऽनघम् ।।४७|| ॐ ह्रीं सत्पात्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। - गन्धमादननामानं गन्धमादप्रपूरितम् । सम्पूजये जलाद्य(र्जिनौकः स्नानहेतवे ||४८।। ॐ हीं गन्धमादनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। सुदर्शनसमाह्वानं सुदर्शनगरिष्ठकम् । कलशं शुद्धये जैनवेश्मनः स्थापयेऽनघम् ॥४९।। ॐ हीं सुदर्शन कलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कलशं मन्दराकारं मन्दराख्यं महोन्नतम् । विधापयामि जैनेन्द्रभवन स्नान हेतवे ।।५०।। । ॐ ह्रीं मन्दरकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा | [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलेत्यधिना पूर्णमचलाख्यं घटं नवम् । आम्रपल्लवशोभादयं तदर्थं स्थापयाम्यहम् ॥५१॥ ॐ ह्रीं अचलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । विद्युन्मालासमाकारं विद्युन्माल्यभिधानकम् । कलशं स्थापये दिव्यं नानापूजनवस्तुभिः ||५२ || ॐ ह्रीं विद्यन्मालिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । चूड़ामण्याख्यमुत्तुंगं चूड़ामणिसमुन्नतम् । पूर्णं तीर्थोदकैः कुम्भं तदुत्सवे निधाये ॥ ५३ ॥ ॐ ह्रीं चूड़ामणिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । सद्धारगुलिकाभालं गुलिकाह्वयमुत्तमम् । कुम्भं निवेशयाम्यत्र जैनमन्दिर शुद्धये ॥ ५४ ॥ ॐ ह्रीं गुलिकाकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । दक्षिणावर्तनामानं दक्षिणावर्तसन्निभम् । घटं च घटितंलक्ष्म्या तत्कृते सन्निवेशये ॥५५|| ॐ ह्रीं दक्षिणावर्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कोकाख्यं कोकसंकाशं वारिजाश्मविनिर्मितम् । घटं निधापये जैन वेश्मनः शुद्धिहेतवे ॥५६॥ ॐ ह्रीं कोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । राजहंससमानाभं राजहंससमाह्वयम् । घटं तं जाघटीम्यत्र नवार्हद्वेश्मशुद्धये ॥ ५७|| ॐ ह्रीं राजहंसकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । 2010_05 कलशं हरिताभिख्यं हरिताश्मविनिर्मितम् । पूजयेदिव्यरत्नेन दिव्यगन्धाम्बुचम्पकैः ॐ ह्रीं हरितकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । ॐ ह्रीं मृगेन्द्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । मृगेन्द्राह्वयमुत्तुङ्गं समाह्वायार्चनादिभिः । मृगेन्द्रवत्प्रगर्जन्तं स्नानकालेषु वेश्मनः ॥५९॥ ॐ ह्रीं कोकनदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कुम्भं कोकनदाकारं श्रीमत्कोकनदाह्वयम् । त्रिभङ्गानीरसंपूर्णं घटयेऽस्मिन्महोत्सवे || ६०|| 119211 ॐ ह्रीं कालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । ११८] स्निग्धाञ्जनसमाकारमणि निर्मितमुत्तमम् । कालाख्यं कलशं हृद्यं तदुत्सवे निवेशये ॥ ६१ ॥ [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्माख्यं पद्मचक्राख्यं पद्मरागविनिर्मितम् । कुम्भं समाह्वये नव्यप्रासादस्नपनाय वै ॥६२।। ॐ हीं पद्मकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । अत्यन्तश्यामलाकारप्रस्तरैनिर्मितं घटम् । प्रासादस्नानकालेऽत्र महाकालं निवेशये ॥६३।। ॐ हीं महाकालकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । पञ्चप्रकारसद्रत्नविनिर्मित महोन्नतम् । कलशं सर्वरत्नाख्यं स्नानाय श्रीजिनौकसः ॥६४॥ ॐ ह्रीं सर्वरत्नकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। पाण्डुकाकारपाषाणनिर्मित पाण्डुकाह्वयम् । कुम्भं तीर्थोदसंपूर्णं निवेशये यथाविधि ॥६५॥ ॐ हीं पाण्डुककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। नैःसर्पकाङ्गलाकारमणिनिर्मितमुन्नतम् । कुम्भं स्थापयाम्यत्र तीर्थवारिप्रपूरितम् ॥६६।। ॐ हीं नैसर्पकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। मानवाख्यं घटं नव्यमानये तीर्थवा तम् । स्थापयेऽर्हन्महावेश्मस्नपनाय जलार्जितम् ॥६७|| ॐ हीं मानवकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। शवसंकाशरत्नौघ विनिर्मितमहोन्नतम् । संस्थाप्य पूजये दिव्यं शङ्खाख्यं जलचन्दनैः ।।६८।। ॐ ह्रीं शंखनिधिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। पिङ्गलाख्यं च पिङ्गाभं पिङ्गाश्मभिर्विनिर्मितम् । घटं तीर्थाम्बुसंपूर्ण तदर्थं सन्निधापये ॥६९॥ ॐ हीं पिङ्गलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। पुष्करावर्तनामानं कलशं रत्ननिर्मितम् । जिनोदवासितस्नानालोकं संकल्पयाम्यहम् ॥७०।। ॐ हीं पुष्कारावर्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। मकरध्वजनामानमिन्द्रनीलविधापितम् । कूटं गङ्गाम्बुपर्याप्तं पवित्र स्थापयेद्वरम् ॥७१।। ॐ ह्रीं मकरध्वजकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा। ब्रह्माभिख्यं चतुर्वक्त्रं कुम्भं ब्रह्मसमर्चितम् । ब्रह्मतीर्थजलैःपूर्ण स्थापयेनीरचन्दनैः ॥७२।। ॐ ह्रीं ब्रह्मकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [११९ 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्णनिर्मितं कुम्भं सुवर्णाख्यं महासुखम् । स्फुरद्रत्नचयं चारूं संस्थाप्याहं समर्चये ॥७३।। ॐ हीं सुवर्णकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कदलीपत्रसंकाशं नीलाश्मकमयं घटम् । स्थापयामीन्द्रनीलाख्यं संभृतंतीर्थवारिणा ।।७४।। ॐ ह्रीं इन्द्रनीलकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । अशोक कुसुमामोदवासिताम्भः प्रपूरितम् । अशोकाख्यंमहाकुम्भं निधापये जिनौकसाम् ॥७५।। ॐ हीं अशोककलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । पुष्पदन्त समानाभं पुष्पदन्त समाह्वयम् । कलशं सलिलैः पूर्ण संस्थापयेऽर्हन्मन्दिरे ॥७६।। ॐ हीं पुष्पदन्तकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । कुमुदाख्यं घटं नव्यं कुमुदस्रग्विराजितम् । कुमुदैरर्चये स्नाने संस्थाप्य श्रीजिनौकसः ॥७७।। ॐ हीं कुमुदकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । येषु दृष्टेषुभव्यानां सम्यक्त्वं प्रकटीभवेत् । दर्शनाख्यं महाकुम्भं संभावये जलादिभिः ||७८।। ॐ ह्रीं दर्शनकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । यस्य दर्शनमात्रेण धर्मोऽधर्मः प्रबुध्यते । कुम्भं ज्ञानाख्यमुत्तुंगं निवेशये जलैर्भूतम् ।। ॐ ह्रीं ज्ञानकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । दर्शनाद्यस्य भव्यानां वृत्ते मतिः प्रजायते । चारित्राख्यं वनैः पूर्णं कुम्भं संस्थापये मुदा ।।८०|| ॐ ह्रीं चारित्रकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । सर्वार्थसिद्धिकर्तारं सर्वार्थसिद्धिनामकम् । कुम्भं समर्चये जैनवेश्मनः स्नानहेतवे ॥८१|| ॐ ह्रीं सर्वार्थसिद्धिकलशेन मन्दिरशुद्धिं करोमीति स्वाहा । १२०.] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर शिखर शुद्धि मन्त्र शिखर के सामने लंबा दर्पण रखकर उसके प्रतिबिम्ब का ॐ क्षां क्षीं झू क्षः हां ह्रीं हूं हौं हः अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झौं झौं जिन मन्दिर शिवराभिषेकं करोमि। इस मन्त्र से २७ बार अभिषेक करावें। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ श्री वृषभादिवर्धमानांत तीर्थकरेग्यो नमः । इस मन्त्र को ९ बार पढ़कर सरसों शिखर पर क्षेपण करें। शिखर पर चारों ओर स्वस्तिक करावें और ३ प्रदक्षिणा दिलावें । मंदिर कलश प्रतिष्ठा १. मंगलाष्टक बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करें। २. नित्याप्रकंपाद्भुत केवलौघा इत्यादि ऋद्धि पाठ बोलकर कलश पर पुष्पांजलि क्षेपण करें। ३. विघ्नौघाः प्रलयं यांति इत्यादि श्लोक बोलकर पुष्पांजलि क्षेपें। ॐ हीं सम्यग्दर्शनशानचारित्र संयुक्तेभ्यः महर्षिभ्यो नमः । ॐ ह्रीं रत्नत्रयधारि मुनिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। पूजा वृषभोऽजितनामा च शंभवश्चाभिनन्दनः । सुमतिः पद्मभासश्च सुपार्यो जिनसप्तमः ।। चन्द्राभः पुष्पदन्तश्च शीतलो भगवान्मुनिः । श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमलद्युतिः ।। अनन्तो धर्मनामा च शान्तिः कुन्थुर्जिनोत्तमः । अरश्च मल्लिनाथश्च सुव्रतो नमितीर्थकृत् ।। हरिवंश समुद्भूतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वस्तोपसर्गदैत्यारिः पावॉ नागेन्द्रपूजितः ।। कर्मान्तकृन्महावीरः सिद्धार्थकुलसंभवः । एते सुरासुरौघेण पूजिता विमलत्विषः ।। पूजिता भरताद्यैश्च भूपेन्द्रैर्भूरिभूतिभिः । चतुर्विधस्य सङ्घस्य शान्तिं कुर्वन्तु शाश्वतीम् ।। (कलश पर पुष्प क्षेपण) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१२१ 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासुपूज्यस्तथा मल्लिर्नेमिः पाश्र्वोऽथ सन्मतिः । कौमारे पञ्च निष्क्रान्तास्तान्यजे विघ्नशान्तये । ॐ हीं पञ्चकौमारनिष्क्राठत जिनेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अर्हन् सिद्धस्तथा सूरिरुपाध्यायोऽथ सन्मुनिः । पञ्चैते गुरवो नित्यं समाराध्या घटोत्सवे ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्योऽय॑म् । शत्रवो निधनं यान्तु हतास्ते परिपन्थिनः । सुखमायुः सदा चैवं प्रतापोऽप्रतिमोऽस्तु च ॥ (पुष्पांजलि क्षे) अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । व्योमगङ्गाजलैः पूतैर्यजेऽहं कलशोत्सवे ॥१॥ ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो जलं।। अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । चन्दनमिश्रोदकाद्यैर्यजेऽहं कलशोत्सवे ।।२।। ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो चन्दनं । अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । सदृक्षरक्षतैर्दिव्यैर्यजेऽहं कलशोत्सवे ॥३॥ ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्योऽक्षतान् ।। अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ ।। कुन्दादिसमुदायैश्च यजेऽहं कलशोत्सवे ॥४॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो पुष्पं । अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । चरुभिः स्वर्णकस्थाल्यैर्यजेऽहं कलशोत्सवे ॥५॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नैवेद्यं । अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । प्रदीपैघृतपूराढ्यै यजेऽहं कलशोत्सवे ॥६।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो दीपं । अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । धूपैर्युपतिधूमाग्रैर्यजेऽहं कलशोत्सवे ॥७॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो धूपं । अर्हत्सिद्धमुनीनां च क्रमौ परमपावनौ । मोच चोचफलाद्यैश्च यजेऽहं कलशोत्सवे ।।८।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो फलं । १२२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलगन्धाक्षतैः पुष्पैश्चरुदीपसुधूपकैः । फलैर(महापूतैरहत्सिद्धमुनीन् यजे ॥९॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यम्। ॐ ह्रीं सर्वज्ञाः प्रिलोकेशाखिालोकमहितालिालोकमध्ये तीर्थकरा भगवन्तोऽर्हन्तः परमवृषभादयो भुवनायजानां तेजः प्रतापबलवीर्यलक्ष्मीभाग्यसौभाग्यकर भवन्तु | ह्रां ह्रीं हूं हौं हः अजरामरा भवन्तु सर्वशान्तिं तुष्टिं पुष्टिं च कुर्वन्तु स्वाहा। (पुष्पांजलि) (१) ॐ हीं षोडश जिनालयोभासित सुदर्शन मेरु संबंधि चूलिकायै अय॑म् । (२) ॐ हीं षोडश जिनालयोभासित विजय मेरु संबंधि चूलिकायै अर्घ्यम् । (३) ॐ ह्रीं षोडश जिनालयोभासित अचल मेरु संबंधि चूलिकायै अय॑म् । (४) ॐ ह्रीं षोडश जिनालयोभासित मन्दर मेल संबंधि चूलिकायै अर्घ्यम् । (५) ॐ ह्रीं षोडश जिनालयोभासित विद्युतमाली मेल संबंधि चूलिकायै अय॑म् । (६) ॐ ह्रां ही हं सः स्वाहा । ॐ स्वस्ति स्वस्ति जीव जीव नंद नंद वर्धस्व वर्धस्व विजयस्व विजयस्व अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं मांगल्यं मांगल्यं जय जय | (पुष्पांजलिः) (७) ॐ हूं धूं फट् इत्यादि मंत्र बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करें। (सिद्ध भक्तिपाठ करें) पूत मृद कुंकुम वृक्षत्वगादि क्वाथ हस्तया । सन्माय॑ प्रोक्ष्यलेप्यासौ स्नातालंकृत कन्यया ।। ॐ ह्रीं क्वायन कलश स्नपनं करोमि। कंकौलैलाजातिपत्र लवंगा श्री खंडोर कुष्टसिद्धार्थदौर्वाः । सर्वोषध्यावासितै तीर्थं कुंभोद्गीर्णैः स्नापयेतीर्थकुंभान् । ॐ ह्रीं सर्वोषधिना कलश स्नपनं करोमि | सुरापगासुतीर्थेभ्यः उद्भवैः वारिसंचयैः । प्रक्षालयामि सत्कुंभं तीर्थकृद्भवने स्थितम् । ॐ हीं शुद्धजलेन कलश स्तपनं करोमि । गंगाद्युत्तमतीर्थानां वारिभिः कलशस्थितैः । जिनेन्द्र भवने शंकु कलशं प्रक्षालयाम्यहम् ॥ ॐ ह्रीं श्रृंगारादि जलेन कलश प्रक्षालनं करोमि | पूज्यपूज्या विशेषेण गोशीर्षण हृतालिना । देवदेवस्य सेवायै कलशं चर्चयेऽधुना ॥ (इति चन्दन लेपः) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१२३ ___JainEducation International 2010_05 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दनैः चन्द्र संकाशैः कर्पूरादि विमिश्रितैः । जिन प्रासाद कुंभं वा स्वस्तिकेन विभूषये ।। (इति स्वस्तिकं करोमि) जिनांघ्रि स्पर्श मात्रेण त्रैलोक्यानुग्रहक्षमाः । तेषां पुण्य समूहेन वृत्ता धार्याः वरस्त्रजः ॥ (पुष्पमाला धारणम्) पंचवर्णमयैः सूत्रै स्तंतुभिः सप्तभिः वरैः । कुर्वे रक्षा विधानं तत् कुंभकस्य च वेष्टनम् ॥ (इति पंचवर्ण सूत्रेण त्रिवारम् कलश वेष्टनम् करोमि।) ॐ हीं अनाहत विद्यायै असि आ उ सा क्लीं स्वाहा।। (शांतिधारा) नाभेय प्रमुखाः सुपुण्यजनका सिद्धालये संस्थिताः । सिद्धाश्चाष्ट गुणैर्महर्षि पतयः सत्सूरयोऽभ्यर्चिताः ।। जीवाजीव विवेचनैक मनसः संपाठकाः साधवः ॥ ब्रह्मज्ञान परायणाश्च गुरवः सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः । (इत्यार्शीवादः) अंत में शान्तिपाठ करें कलश चढ़ाने की विधि आकरं च प्रभूतानां, यशसां संचयेन वा । प्रकल्पितं सुवृतं च शंकुं संस्थापयाम्यहम् ॥ ॐ हीं पर ब्रह्मणे मंदिरोपरि चिरस्थानाधिरूढ़ हे शंको ! स्थिरीभव स्थिरीभव (इति शंकुस्थापनम्) ॐ हूं धूं फट् इत्यादि मंत्र से दशों दिशाओं में सरसों क्षेपण करें। (१) सद्धेम कुंभ घटितस्य सुकुंभकस्य । धाम्ना सुदीर्घमधि पीठमलंकरिष्णुिः । देवाधि देवभवने प्रथमं सुकुंभम् । भद्रेति नामकमहं विनिवेशयामि ।। ॐ ही परब्रह्म मंदिरोपरि कूटशिरः प्रदेशे हेमचन्द्र कुंभ महापीठ चिरं स्थायी भव सर्वप्रजानां क्षेमायुरारोग्य वृद्धयर्थम् तिष्ठ तिष्ठ याजक यजमानादीनां सर्व सौख्य विधानार्थं प्रत्यूह ट्यूह प्रणाशनार्थं हेमादिवि अत्र शिखरोपरि प्रथम स्थाने कल्पांतस्थायी भव इति भदकुंभ स्थापनम् । (२) स्वर्णरूपा प्रदीप्ता च चक्रवच्चक्रिकाच सा। आदिपीठोपरिस्थाप्या स्वर्ण कुंभाधिरोहणे ॥ ॐ ह्रीं पर ब्रह्म मंदिरोपरि भद कुंभ स्थैर्यार्थ आदि पीठोपरि चक्रिकाधिरोहणं कुर्वे हे हाटक मय चक्रिके ! अत्र शिस्वर शिरः प्रदेशे द्वितीय स्थाने चिरं तिष्ठ। इति चक्रिका स्थापनम् । १२४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ध्वजा--- चूलिका - चक्रिका हेमकुम्भ चक्रिका दण्ड - -पद्माधिकुम्भ -चक्रिका -भद्रकुम्भ - ध्वज दण्ड एवं शिखर कलश - 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अशोकवसु दलैाप्तं, कनत्कांचन भासुरम् । सौवृतं सर्वतोभद्रंकुंभ पद्म दधाम्यहम् ।। ॐ ह्रीं पर ब्रह्म मंदिरोपरि कल्याणकलश स्थापनार्थं चक्रिकोपरि हेमपद्माधिरोहणं कुर्मः । हे जातरूपावृत षोडषदलालंकृत पद्मपीठ अन जिनेन्द्र भवनोपरि नित्योत्सर्वार्थ चिरं तिष्ठ तिष्ठ इति तृतीय स्थाने कुंभ पद्माधिरोहणम्। (४) वृत्तास्थूला सुशोभिता, नानारत्नैः समर्चिता । ___चक्रवच्चक्रिकारम्या, स्थाप्या कुंभाधिरोहणे ॥ ॐ ह्रीं पर ब्रह्मणे नमः जिनेन्द्रमन्दिरोपरि कुंभाधिरोहणे कुंभपद्मोपरि चतुर्थस्थाने हिरण्यरूपा चक्रिका विधेया। हे तपनीय प्रभाभासुरे चक्रिके अत्र जिनेश मंदिरोपरि कलश प्रतिष्ठापन विधौ जगतां विघ्नविनाशनार्थं चिरं तिष्ठ तिष्ठ इति चतुर्थस्थाने चक्रिका स्थापनम् । (५) वैडूर्यादि सुदीप्तरत्न रचिता भागेय रूपा शुभा । सौवर्णादिगुणान्विता, सुविधिना निर्मापिता मंजुला ॥ ॐ हीं पर ब्रह्म मंदिरोपरि मंगलकलश स्थिति करणार्थं चक्रिकोपरि पंचम स्थाने हेमकुंभस्थाल्यावरोहणं कुर्मः । हे कुंभ स्थालि अत्र जिनेन्द्र भवनोपरि नित्योत्सवार्थ चिरं तिष्ठ तिष्ठ इति चक्रिकोपरि पंचमस्थाने हेम कुंभ स्थाल्यधिरोहणम्। (६) भव्यात्मनां सकल विघ्न निवारणाय । श्रीमज्जिनेन्द्र भवनस्य शिरः प्रदेशे ॥ ___षष्ठे स्थले कनककुंभ सुचूलिकां च । संस्थापये परममंगल हेतु रूपाम् ।। ॐ हीं पर ब्रह्म मंदिरोपरिक्षेत्रे कल्याण कलशारोहणार्थं स्थाल्याः उपरितन भागे चामीकरमय चक्रिकाधिरोहणं कुर्मः । है चामीकरमय चक्रिके अत्र जिनेन्द्र भवनोपरि नित्योत्सवार्थं चिरं तिष्ठ तिष्ठ। (इति चक्रिका स्थापनम्) (७) व्योम्नि स्थापन लालसैक निपुणा मेरुरिवस्पर्धिधनी । प्रोन्नत्वेन विदूरदर्शनतया प्राप्तास्ति सौवर्णिकी ।। ज्योतिर्देव गतिस्खलं त्यवपि रुचाभास्वद्विभाव्यो मणिः । स्थाप्या कुंभ सुचूलिका जिन गृहे देवालयस्योपरि ॥ ॐ ह्रीं पर ब्रह्म मंदिर शिखरोपरि परम मंगलकलशारोहणार्थं चक्रिकोपरि सप्तमस्थाने शातकुंभमय चूलिकारोहणम्। हे चामीकरमयमूर्ते कलशाय निवासिनि अत्र जिनगृहोपरि कलश शिरः प्रदेशे सर्वजनानां शान्तिं सिद्धिं तुष्टिं पुष्टिं योग क्षेमादि सिद्धयर्थं आकल्पं चिरं तिष्ठ तिष्ठ स्थिरी भव भव इत्यनेन चूलिका स्थापनीया। नाभेयप्रमुखा सु पुण्यजनकाः सिद्धालये संस्थिताः । सिद्धश्चाष्ट गुणैर्महर्षिपतयः सत्सूरयोऽभ्यर्चिताः ।। जीवाजीव विवेचनैक मनसः संपाठकाः साधवः । ब्रह्मज्ञान परायणाश्च गुरवः सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः॥ इत्याशीर्वादः [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १२५ 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वज दण्ड शुद्धि मंदिर के ऊपर का ध्वजा दण्ड मंदिर के भीतर की ऊँचाई से अर्द्ध, तृतीय या चतुर्थ भाग ऊँचा अथवा शोभा के अनुसार होवे। शिखर पर जो कलश हो, उससे ध्वज दण्ड १ हाथ ऊँचा हो तो नीरोगता, २ हाथ हो तो पुत्र ऋद्धि, ३ हाथ हो तो शस्य सम्पत्ति, ४ हाथ ऊँचा हो तो शासक समृद्धि और ५ हाथ हो तो सुभिक्षराष्ट्र वृद्धि होती है। सित, रक्त, सित, पीत, सित, कृष्ण (नील) इस प्रकार पुनः-पुनः मन्दिर की दीर्घता के अनुसार रंगीन वस्त्र ध्वजा का तैयार करावें । नोट:- वर्तमान में ऊपर ध्वजा दण्ड सामान्यतः २ हाथ ऊँचा हो तथा बीच में धवल रखते हुए रक्त, पीत, हरित और नील वर्ण के वस्त्र की ध्वजा पंचपरमेष्ठी की प्रतीक बनवावें । सीसम, पीपल व आम की लकड़ी और उस पर तांबे का पतरा मड़वा देवें। ध्वजा के मजबूत कपड़े पर स्वस्तिक आदि दोनों ओर रहें। ध्वजा ५ से १० बिलस्त तक लम्बी और ११ अंगुल से २४ अंगुल तक चौड़ी हो । ध्वजा स्थान (मन्दिर के ऊपर शिखर के पीछे भाग में गोल खड्डा) की तीन पीठ चार ताल (१२ अंगुल) तीन ताल और दो ताल में से एक-एक पाद कम रहे । अर्थात् तीनों पीठ पत्थर या ईंट चूने की निर्माण करावें। बीच में स्तंभ की ऊँचाई से प्रथम पीठ ८ अंगुल, द्वितीय ६ अंगुल और तृतीय ४ अंगुल ऊँची रखें अथवा जितनी चौड़ी उतनी ही ऊँची रखें । मन्दिर के भीतर वेदी के कलशों से ऊँची ध्वजा १२ अंगुल लम्बी और ८ अंगुल से कम न हो। ध्वजा दण्ड के ऊपर २४ अंगुल लम्बा और १८ अंगुल चौड़ा पाटिया को दो मिहराप के माफिक एक ओर से कटवाकर निकलवा देवें । उसके दोनों ओर नीचे को मुखकर ५-५ कड़ियाँ, सांकल और छोटी घंटिकाओं को लटकाने के लिए लगवा देवें । सांकलों में घंटिकायें रहें । उक्त पाटिया के पीछे भाग में ६ कड़िया सीधा मुख करके लगवायें जिसमें ध्वजा बाँधने को पीतल की २४ अंगुल की छड़ लगा देवें । ध्वज दण्ड सामने रखकर नवदेव पूजा करें। चिद्रूपं विश्वरूपं व्यतिकरितमनाद्यन्तमानंद सांद्रम् । यप्राक्तैस्तैर्विवतॆव्यत दतिपतदुःख सौख्याभिमानैः ।। कर्मोद्रेकात्तदात्म प्रतिघमलभिदोभ्दिन्ननिः सीमतेजः । प्रत्यासीदत्परौजः स्फुरदिह परमब्रह्म यज्ञेऽर्हमाह्वम् ॥ स्वामिन् संवौषट् कृताह्वाननस्य, द्विष्ठांते नोदंकित स्थापनस्य । स्वं निर्नेक्तुं ते वषट्कार जाग्रत् सन्निध्यस्य प्रारभेयावष्टधेष्टिम् ।। ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेव समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । १२६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 '- Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांगेयोज्ज्वल मंगलात्मक महाश्रृंगार मालोद्गतैगंगाद्युत्तमतीर्थ सार सलिलै गंधात्तगब्रजैः ॥ चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेभ्यः ॥ जलम् ।। श्रीगंधैर्वरगंध सिंधुर मदोन्मत्तालिभिः स्नायके । पूर्वैः शीतलरश्मि धूलिकलितैः काश्मीर संमिश्रितैः ॥ चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेश्यः ॥ चन्दनम् ॥ श्रीमत्पार्वण शार्वरी शशि कर ज्वालोरु लीलाधरैः । पूतैः शीतलरश्मि गंध मधुरैः शाल्यक्षतैर्चर्चितैः ।। चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् || ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेभ्यः ॥ अक्षतान् ।। फुल्लैर्मल्लिमतल्लिका कुवलय श्रीकेतकी जातिसत्सौगंधकबंधु जीववकुलैर्माल्यैरतिश्लाघ्यकैः ॥ चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् । ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेभ्यः ॥ पुष्पं ॥ हव्यैर्नव्यघृतान्वितैर्जनमनः संव्यंजनै य॑जनै - भक्ष्यैरक्ष सुखप्रदैर्वरसुधा माधुर्य धौर्याय वै ॥ चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ।। ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेभ्यः ॥ नैवेद्यं ॥ चन्द्रार्कधुति तीर्थदुरित ध्वांतौघ विध्वंसकैः । संदिव्योत्तम भाव शुद्धि सदृशै रुद्यत् प्रदीप ब्रजैः ।। चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं चं चैत्यालयम् । ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेभ्यः ॥ दीपम् ।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१२७ 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रश्री हिमवालुकात्म विहितै धूपैरसै कर्णिकानासाकाभ्यकटाक्ष सौम्य सुरभि भ्राम्यैः सूधूम्याभरैः ।। चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेश्यः ॥ धूपम् ।। सद्योऽभीष्ट फल प्रदान मधुरैरद्यानवद्योत्तमैः । द्राक्षादाडिम जंबु जंभरुचकादीन्येवचोच्चैः फलैः ।। चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेश्यः ।। फलम् || ऊघेणार्ध्य महोभरारजत तन्वानादि संरंजितं । सिद्धार्थादि सुमंगलार्थवरवर्गाद्यनय॑श्रियै ॥ चायेऽहं जिन सिद्ध सूरि विमलान् सत्पाठकं साधवं । जैनेन्द्रोक्त सुधर्म मागममथ चैत्यं च चैत्यालयम् ।। ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेवेन्यः । अय॑म् । देवेन्द्र वृन्द मणि मौलि समर्चितांघ्रिः । देवाधिदेव परमेश्वर कीर्तिभाजः । पुष्पायुध प्रमथनस्य जिनेश्वरस्य । पुष्पांजलिः विरचितोऽस्तु विनेयशांत्यै ॥ (पुष्पांजलिः) ॐ ह्रीं सर्व भवनेन्द्रार्चिताकृत्रिम चैत्यालयेभ्यः अय॑म् । ॐ ह्रीं ट्यंतरेन्द्रार्चित समस्ताकृत्रिम चैत्यालयेभ्यः अय॑म् । ॐ ह्रीं सर्वाहणन्द्रार्चित समस्ताकृत्रिम चैत्याल्येभ्यः अर्घ्यम्। ॐ हीं विश्वेन्द्रार्चितमध्यलोकस्थित कृत्रिमा-कृत्रिम चैत्य चैत्यालयेभ्यः अय॑म् । ॐ ह्रीं विश्वचक्षुषे अय॑म् । ॐ हीं अनुचराय अय॑म् । ॐ ह्रीं ज्योतिर्मतये अय॑म् । (९ बार णमोकार मन्त्र जपना) ॐ हूं झुं फट् आदि मन्त्र से ध्वजादण्ड मंत्रित करें। १२८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ (सिद्ध आचार्य भक्ति पाठ) १. ॐ ह्रीं पब्रह्मणे नमोनमः स्वस्ति स्वस्ति नंद नंद वर्धस्व वर्धस्व विजयस्व विजयस्व अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं मांगल्यं मांगल्यं जय जय | इस मन्त्र से ध्वजा-दंड पर पुष्प क्षेपें । २. ॐ ह्रीं सर्वौषधिना ध्वजदंड शुद्धिं करोमि । ३. ॐ ह्रीं श्रीं नमोऽर्हते जलेन ध्वजदंड शुद्धिं करोमि । ४. ॐ ह्रीं ध्वज दण्डे स्वस्तिकं करोमि। ५. ॐ ह्रीं त्रिवर्ण सूत्रेण ध्वजदंडं परिवेष्टयामि । ॐ हीं दश चिह्नाष्ट गुटिकालंकृत ध्वजायै पुष्पम् । __शान्तिपाठ-विसर्जन मंदिर पर ध्वजा-दण्ड एवं ध्वजारोहण ध्वजदंड स्थापित करने के गर्त में जल से शुद्धि करके सुपारी, हल्दीगांठ, सरसों आदि मंगल द्रव्य क्षेपण करावें । तथा ॐ हूं डूं फट् आदि मन्त्र से मन्त्रित सरसों क्षेपण करें। ॐ णमो अरिहंताणं इस मन्त्र को २७ बार पढ़ें। रत्नत्रयात्मकतयाऽभिमतेऽत्र दंडे लोकत्रय प्रकृति केवल बोधरूपम् । संकल्प्य पूजितमिदं ध्वजमर्च्य लग्ने स्वारोपयामि सन्मंगल वाद्यघोषे ।। उक्त पद्य पढ़कर गर्त में ध्वजदंड स्थापित कराकर ॐ णमो अरिहंताणं स्वस्ति भदं भवतु सर्वलोकस्य शांतिर्भवतु स्वाहा इस मन्त्र द्वारा ध्वजदंड में ध्वजा लगावें। ध्वजा ध्वजदंड में नीचे से बाँध देवें । उस नाड़े की गड्डी नीचे डाल देवें ताकि अन्य परिवार जन उसे हाथ में लेकर ध्वजा चढ़ाने का लाभ ले सकें। ॐ ह्रीं अर्ह जिनशासन पताके सदोच्छ्रिता तिष्ठ तिष्ठ भव भव वषट् स्वाहा इस मन्त्र से ध्वजा फहरावें। __ध्वजा मंदिर के शिखर के पीछे भाग में रहती है-ध्वजदंड के पीछे भाग में ही फहराती है। ध्वजदंड का मुख पूर्व या ईशान कोण में रहता है। ध्वजा फहराने पर प्रथम ही पूर्व दिशा में वायुवेग से फहरे तो सर्वमनोसिद्धि, उत्तर में फहरे तो आरोग्य-सम्पत्ति, पश्चिम, वायव्य एवं ऐशान दिशा में फहरे तो वर्षा हो । शेष दिशा व विदिशा में फहरे तो शांति कर्म करना चाहिये। मन्दिर की वेदी में प्रतिमा विराजमान विधि वेंदी प्रतिष्ठा के समय जो सामग्री (कलश, दीपक, पर्दा आदि) स्थापित थी उसे वहाँ से बाहर ले जाकर वेदी स्वच्छ कर लेवें। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१२९ 2010_05 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवझायाणं, णमो लोए सव साहूणं । ऐसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥ मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमोगणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्याः जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।। विज्ञानं विमलं यस्य भाषितं विश्व गोचरम् । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय, सुरेन्द्राभ्यर्चिता ये ।। ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा। (पुष्पांजलिः) पुण्यवीजोर्जितं क्षेत्रं स्थानक्षेत्रं जगद्गुरोः । शोधनं शातकुंभोरु कुंभ संभृत वारिभिः ।। ॐ ह्रीं क्षीं भूः स्वाहा पवित्र जलेन वेदी-भूमि शुद्धिं करोमि स्वाहा । (जल से शुद्धि करें) ___ पांडुकाख्यां शिलां पूतं पीठमेतन्महीतले । स्थापयामि जिनेन्द्रस्य स्थापनाय महत्तरम् ॥ ॐ ह्रीं अर्ह आं ठः ठः स्वाहा । (पीठ स्थापन) ॐ ह्रां ही हूं हौं हः नमोऽहते भगवते श्रीमते पवित्रतर जलेन पीठ प्रक्षालनं करोमि स्वाहा । (पीठ पर जल क्षेपण) सारस्वतस्य सद्बीजं सर्वेषामप्यभीप्सितम् । अक्षतैः क्षतपापौघैः पीठे श्री वर्ण लेखनम् ।। (आगे श्री बनावे) मूलनायक के नीचे के यंत्र को या मातृका-यंत्र को स्पर्श करें। (वेदी में पूर्व स्थापित) पश्चात् ॐ ह्रीं भामंडलं स्थापयामि अथवा भामण्डल के स्थान में दीवाल पर स्वस्तिक लिखें। ॐ हीं छत्रत्रयं स्थापयामि। ॐ ह्रीं श्वेत चामर युग्मं स्थापयामि | ॐ ह्रीं अशोकवृक्षादि प्रातिहाणि स्थापयामि | ॐ ह्रीं अष्टमंगल द्रट्याणि स्थापयामि। (पुष्पांजलि क्षेपण करें) ॐ ह्रीं अर्ह नमः परमेष्ठिम्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमः परमात्मने स्वाहा । ॐ ह्रीं अहं नमोऽनादि निधनेभ्यः स्वाहा । ॐ हीं अहँ नमः सुरासुरनरेन्द्रादि पूजितेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत-ज्ञानेन्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्ह नमोऽनन्त दर्शनभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत वीर्येभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत सुखेभ्यः स्वाहा। (पुष्पांजलिः) १३०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमोऽर्हत केवलिने परमोगिने अनंत विशुद्ध परिणाम परिस्फुरच्छुक्लध्यानानि निर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानंत चतुष्टयाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादश दोष रहिताय स्वाहा । ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सवसाहूणं, परम हंसाय परमेष्ठिने हं सः हं हां हूं हैं हौं हः जिनाय नमः वेदिकोपरि जिनं स्थापयामि संवौषट्। (जिनप्रतिमा विराजमान करें) सिद्धा विशुद्धाः स्वगुणैः प्रबुद्धाः निर्धूत कर्म प्रकृति प्रसिद्धाः । प्राप्ताप्त संपत् स्वगुणेष्टि तुष्टाश्चतेऽध्वरायार्घमहं ददामि ॥ ॐ ह्रीं वेदिकोपरिविराजमान श्री जिनप्रतिमाभ्यः अर्घम् ।। बुद्धिं श्रियं धृतिर्कीर्ति कमलामप्यनश्वराम् । प्रयच्छन्तु जिनाः सर्वे भव कोटि निवारकाः ।। इत्याशीर्वादः वेदी पर कलश चढ़ाने का मन्त्र ॐ ह्रीं कलशारोहणाय इवीं क्ष्वी हं सं णमो सिद्धाणं स्वाहा । वेदी पर ध्वजा चढ़ाने का मन्त्र ॐ णमो अरहंताणं स्वस्ति भदं भवतु सर्वलोकस्य शान्तिर्भवतु । शान्ति यज्ञ (हवन) मंदिरवेदी में जिन प्रतिमा विराजमान होने के पश्चात् प्रतिष्ठा के प्रारम्भ में जो शान्ति मन्त्रों का जप किया था उनकी संख्या का दशांश तथा अन्य मन्त्रों की अग्नि में आहुतियाँ की जाती हैं । यह प्रतिष्ठा का अन्तिम कार्यक्रम है। (आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृ. १०९, श्लोक ३५५) के अनुसार बीच में चौकोर और आजू-बाजू गोल (उत्तर में) और त्रिकोण (दक्षिण में) कुंड ईंटों से निर्माण होता है। प्रत्येक कुंड एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा हो (इस गहराई में १२ अंगुल भूमि में गड्डा करके और शेष १२ अंगुल ऊपर हिस्से में बाहरी भाग में जिसे नीचे से तीन कटनी में क्रमशः ५, ४,३ अंगुल चौड़ाई और ऊँचाई वाला निर्माण होना है। यह भी नहीं हो तो सभी स्थंडिल निर्माण करा लेवें। इस प्रकार शान्ति यज्ञ में इन्द्र-इन्द्राणी तथा शान्ति जप में सम्मिलित व्यक्ति बैठेंगे, उनकी संख्या देखकर प्रत्येक स्थंडिल पर दोनों ओर मिलाकर कम-सेकम ४ व्यक्ति के अनुसार संख्या में स्थंडिल ५-७-९ या ११ तैयार करा लेवें । स्थंडिल याने आठ-आठ ईंटें रखकर ऊपर १-१ किलो सूखी पीली मिट्टी जमा देवें । उस पर कुंकुम व पिसी हल्दी से स्वस्तिक कर देवें और समिधा रखकर बिना कारीगर के संक्षेप में कार्य कर सकते हैं। हवन में घृत की आहुति लकड़ी के चाटू से जो १ हाथ लंबा होता है देवें । समिधा लाल चंदन, सफेद चंदन, अंगर-तगर की सूखी और निर्जीव होना चाहिये । धूप भी ताजा तैयार करा लेवें। दशांग धूप के पदार्थ सुगंध यंत्री ॥, सुंगुंधवाला १।, [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१३१ 2010_05 - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंध कोकिला ।।, छवीला २॥, कपूर काचरी ||I, जटामासी ॥, नागर मोथा ॥, गूगल ।।, लाल-सफेद चन्दन चूर्ण ५, यह न हो तो शुद्ध चन्दन चूरा की धूप बना लेवें । घृत व हवन द्रव्यों का कम-से-कम उपयोग करें । यह पूर्ण अहिंसा समर्थक शास्त्रोक्त शुद्ध विधि है। नोट :- हवन व पूजा में इन्द्र-इन्द्राणी साथ-साथ शामिल होते हैं परन्तु दोनों के गठजोड़ा व उसमें रुपये रखना उचित नहीं है। हवन का क्रम इस प्रकार है : आज तक पीले चावल से हवन की विधि कहीं भी देखने में नहीं आयी और न इसका कोई प्रमाण है। १. मंगलाष्टक २. सकलीकरण-शान्ति जप के समय की विधि संक्षिप्त रूप में। ३. मंगल (शांतिधारा) कलश जल भरा हुआ। स्थापन ॐ हीं शांतिधारा कलश स्थापनं करोमि इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । इस मन्त्र से प्रमुख व्यक्ति करे। ४. संकल्प जितने मन्त्र जप करने का किया हो उनके दशांश हवन का संकल्प सब मिलकर करें । संकल्प में सीधे हाथ में जल, सुपारी, हल्दी गांठ रखकर अपने सामने मन्त्रपूर्वक क्षेपें । संकल्प मन्त्र शान्ति जप के समय का देखें। ५. विनायक यंत्र पूजा। ६. ॐ क्षीं भूः शुध्यातु स्वाहा इस मन्त्र से सीधे हाथ में जल लेकर अपने सामने स्थंडिल की भूमि को शुद्ध करें। ७. समिधायें जलाकर घृत प्रत्येक स्थंडिल में पृथक्-पृथक् तपेली में गर्म कर देवें । प्रत्येक स्थंडिल में एक व्यक्ति कम-से-कम घृताहुती देवें शेष व्यक्ति सीधे हाथ से धूप क्षेपण करें । ८. अग्निसंधुक्षण मन्त्र जिनेन्द्र वाक्यैरिव सुप्रसन्नैः संशुष्क दर्भाग्रघृताग्नि कीलैः । कुंडस्थिते सेन्धन शुद्ध वह्नौ संधुक्षणं संप्रति संतनोमि ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्नि संधुक्षणं करोमि । इस मन्त्र से कर्पूर जलाकर स्थंडिल के मध्य भाग में क्षेप देवें। इसके पूर्व घृत समिधाओं में डाल देवें । शांति मन्त्रः ॐ हीं अर्ह अ सि आ उ सा सर्व शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा । इस मन्त्र की १०८ बार या कम-से-कम २७ बार आहुति दें। आहुति मन्त्र ॐ हां अर्हद्भ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ हूं आचार्येभ्यः स्वाहा । ॐ हौं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं जिन धर्माय स्वाहा । ॐ ह्रीं जिनागमाय स्वाहा । ॐ ह्रीं जिनालयेभ्यः स्वाहा । ॐ हीं सम्यग्दर्शनाय स्वाहा । ॐ हीं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा । १३२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्ह परमेष्ठिम्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मकेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्ह अनादिनिधनेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँनृसुरासुर पूजितेभ्यः स्वाहा । ॐ हीं संभवाय स्वाहा । ॐ हीं स्वयंप्रभाय स्वाहा । ॐ ह्रीं विश्वलोकाय स्वाहा । ॐ ह्रीं विश्वलोचनाय स्वाहा । ॐ हीं जगज्जेष्ठाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अवंधाय स्वाहा । ॐ ह्रीं सनातनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं प्रशांताय स्वाहा । ॐ ह्रीं वह्मितत्वाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अजाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अच्युताय स्वाहा । ॐ ही अपर्यायाय स्वाहा । ॐ ह्रीं दिटयभाषे स्वाहा । ॐ हीं निःकलंकाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अक्षोभाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अचलाय स्वाहा | ॐ ह्रीं भूतनाथाय स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय स्वाहा । ॐ ह्रीं गरिष्ठाय स्वाहा ! ॐ ह्रीं विशोकाय स्वाहा । आर्ष मन्त्राः ॐ ही दर्पमथनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं शील गंधाय स्वाहा | ॐ ह्रीं अक्षताय स्वाहा । ॐ ह्रीं विमलाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परम सिद्धाय स्वाहा । ॐ ह्री ज्ञानोद्योतनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रुतधूपाय स्वाहा । ॐ हीं अभीष्टफलदाय स्वाहा । पीठिका मन्त्राः ॐ ह्रीं सत्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ हीं परमजाताय स्वाहा । ॐ हीं अनुपमजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं स्यप्रधानाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अचलाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अक्षताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अटयावाधाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अनंत ज्ञानाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अनंतदर्शनाय स्वाहा । ॐ हीं अनंतवीर्याय स्वाहा । ॐ ह्रीं अनंतसुखाय स्वाहा । ॐ हीं नीरजसे स्वाहा । ॐ ह्रीं निर्मलाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अछेद्याय स्वाहा । ॐ ह्रीं अभेद्याय स्वाहा । ॐ ह्रीं अजराय स्वाहा । ॐ हीं अमराय स्वाहा । ॐ ह्रीं अप्रमेयाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अगर्भवासाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अक्षोभाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अविलीनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमधनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमकाष्ठायोग रूपाय स्वाहा । ॐ ह्रीं लोकाग्रनिवासिने स्वाहा । ॐ हीं परमसिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं केवलिसिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अंतकृत्सिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ही परंपरासिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दृष्टे आसन्नभट्यनिर्वाण पूजार्ह अग्नींदाय स्वाहा। सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । जाति मन्त्राः ॐ ह्रीं सत्यजठमनः शरणं प्रपद्ये स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जात्मनः शरणं प्रपद्ये स्वाहा । ॐ हीं अर्हठमातुः शरणं प्रपद्ये स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्ये स्वाहा । ॐ ह्रीं अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्ये स्वाहा । ॐ ही रत्नत्रयस्थ शरणं प्रपद्ये स्वाहा | ॐ हीं सम्यग्दृष्टज्ञानमूर्ते सरस्वति स्वाहा। सेवाफलं षट् परम स्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] { १३३ 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्तारक मन्त्राः ॐ हीं सत्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं षट्कर्मणे स्वाहा । ॐ ह्रीं ग्रामपतये स्वाहा। ॐ ह्रीं अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा । ॐ ह्रीं स्नातकाय स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रावकाय स्वाहा । ॐ ह्रीं देवब्रह्मणाय स्वाहा । ॐ ह्रीं सुब्रह्मणाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अनुपमाय स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दृष्टे निधिपते वैश्रवणाय स्वाहा। सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । ऋषि मन्त्राः ॐ ह्रीं सत्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं निर्ग्रन्थाय स्वाहा । ॐ ह्रीं वीतरागाय स्वाहा । ॐ ह्रीं महाखताय स्वाहा । ॐ ह्रीं त्रिगुप्ताय स्वाहा । ॐ ह्रीं महायोगाय स्वाहा। ॐ ह्रीं विविधयोगाय स्वाहा । ॐ ह्रीं विवद्धये स्वाहा । ॐ ह्रीं अंगधराय स्वाहा । ॐ ह्रीं पूर्वधराय स्वाहा । ॐ ह्रीं गणधराय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमविभ्यो नमो नमः स्वाहा । ॐ ह्रीं अनुपमजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दृष्टे भूपते नगरपते कालश्रमणाय स्वाहा । सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । सुरेन्द्र मन्त्राः ॐ हीं सत्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं दिव्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं दिट्यार्चिजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं नेमिनाथाय स्वाहा । ॐ ह्रीं सौधर्माय स्वाहा । ॐ ह्रीं कल्पाधिपतये स्वाहा । ॐ ह्रीं अनुचराय स्वाहा । ॐ ही परंपरेंदाय स्वाहा । ॐ ह्रीं अहमिंदाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमार्हताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अनुपमाय स्वाहा । ॐ ह्रीं सम्यग्दृष्टे कल्पपते दिव्यमूर्ते वजनामन् स्वाहा। सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा । परम राजादि मन्त्राः ॐ सत्यजाताय स्वाहा । ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ अनुपमेन्द्राय स्वाहा | ॐ विजयार्चिजाताय स्वाहा । ॐ नेमिनाथाय स्वाहा | ॐ परमजाताय स्वाहा । ॐ परमाहज्जाताय स्वाहा । ॐ अनुपमाय स्वाहा । ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजम दिशांजम नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा । सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु । परमेष्ठि मन्त्राः ॐ ह्रीं सत्यजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमजाताय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमार्हताय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमरूपाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमस्थानाय स्वाहा । ॐ हीं परमयोगिने स्वाहा । ॐ ह्रीं परमभाग्याय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमर्द्धये स्वाहा । ॐ ह्रीं परमप्रसादाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमकांक्षिताय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमविजयाय स्वाहा | ॐ ह्रीं परमविज्ञानाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमदर्शनाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमवीर्याय स्वाहा । ॐ हीं परमसुखाय स्वाहा । ॐ ह्रीं परमसर्वज्ञाय १३४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाहा । ॐ हीं अर्हत स्वाहा । ॐ हीं परमेष्ठिने स्वाहा । ॐ हीं परमनेत्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं त्रैलोक्यजिनेन्द्राय स्वाहा । ॐ हीं सिद्धक्षेत्राय स्वाहा । ॐ हीं सम्यग्दृष्टे त्रैलोक्यविजय धर्ममृर्ते स्वाहा। सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु स्वाहा | ऋद्धि मन्त्राः ॐ ह्रीं केवलबुद्धयर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं मनःपर्यय बुद्धयर्द्धिभ्यः स्वाहा | ॐ ह्रीं अवधिबुद्धयार्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं कोष्ठबुर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं बीजबुद्धयद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ही संभिन्न श्रोत्रर्द्धिभ्यः स्वाहा। ॐ हीं पादानुसारिणी बुद्धयर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दूरस्पर्शर्दिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दूरास्वादनभ्यिः स्वाहा । ॐ ह्रीं दूरगंधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दूरावलोकनर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दूरश्रवणर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ हीं दशपूर्वत्वर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्ववर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अष्टांगनिमित्तर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रवणर्द्धिभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं प्रत्येकबुध्यर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं वादित्वर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं जलचारणर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं जंघाचारणद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं तंतुचारणर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ हीं पुष्पचारणर्द्धिभ्यः स्वाहा। ___ॐ हीं पत्रचारणद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं बीजचारणर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रेणीचारणार्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अग्निचारणद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ही आकाशचारणर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अणिमाक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं महिमा वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं लघिमा वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं गरिमा वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं प्राप्ति वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं प्राकाम्य वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं ईशित्व वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं वशित्व वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अप्रतिघात वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अंतर्धान वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं कामरूपिणी वैक्रियर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं उग्रतपोतिशयद्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं तप्त तपोतिशयर्द्धिभ्यः स्वाहा | ॐ ह्रीं महातपोतिशयर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं घोरतपोतिशयद्धिभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं घोर पराक्रमतपोतिशयर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं घोर ब्रह्मचर्यतपोतिशयर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं मनोबलर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं वचोबलर्द्धिभ्यः स्वाहा | ॐ ह्रीं कायबलर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ही आमर्पोषधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं खेलौषधर्द्धिभ्यः स्वाहा। ॐ हीं जल्लोषधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं मलौषधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं विडौषधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं सौषधर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं आस्याविषौषधर्दिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दृष्टयविषौषधर्द्धिभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं आष्यविषरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं दृष्टिविषरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं मधुश्राविरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं क्षीरश्राविरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं सर्पिश्राविरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अमृतश्राविरसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ हीं अक्षीणमहानसर्द्धिभ्यः स्वाहा । ॐ हीं अक्षीण महालयर्द्धिभ्यः स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१३५ JainEducation International 2010_05 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिधारा ॐ त्रिलोकोद्योतनकरातीतकाल संजातनिर्वाणसागरमहासाधुविमलप्रभशुद्धप्रभ श्रीधर सुदत्तामल- प्रभोद्धराग्रिसंयमशिव - कुसुमांजलि शिवगणोत्साहज्ञानेश्वर परमेश्वर विमलेश्वर यशोधर कृष्णमति ज्ञानमति शुद्धमति श्रीभद्रशान्तेति चतुर्विंशति भूतपरमदेव भक्तिप्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु। ॐ सम्प्रतिकाल श्रेयस्कर स्वर्गावतरण जठमाभिषेक परिनिष्क्रमण केवलज्ञान निर्वाणकल्याणक विभूति विभूषित महाभ्युदय श्रीवृषभाजित-संभवाभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सुपार्श्वचद्रप्रभ पुष्पदंत शीतल श्रेयोवासुपूज्य विमलानन्तधर्मशांति कुन्थ्वरमल्लि मुनिसुव्रत नमिनेमिपार्श्व वर्द्धमानेति चतुर्विंशति वर्तमान परमदेव भक्तिप्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु।। ॐ भविष्यत्कालाभ्युदयप्रभवमहापद्मसूरदेवसुप्रभस्वयंप्रभसर्वायुधजयदेवोदयदेव प्रभादेवोदकदेव प्रश्नकीर्तिपूर्णबुद्धनिष्कषायविमलप्रभ बहलनिर्मलचित्रगुप्तसमाधिगुप्त स्वयंभू कन्दर्पजयनाथ विमलनाथ दिट्यवादानन्तवीर्येतिचतुर्विशति भविष्यत्परमदेव भक्तिप्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु। ॐ त्रिकालयर्ति परमधर्माभ्युदय सीमंधर युग्मधर बाहु सुबाहु संजातक स्वयंप्रभ ऋषभानन अनन्तवीर्य सूरिप्रभ विशालप्रम बजाधर चन्द्रानन चन्द्रबाहु मुंजमेश्वर नेमिप्रभ वीरसेन महाभद्ध देवयशोजित वीर्येति पञ्चविदेह क्षेत्र विहरमाण विंशतिपरमदेव भक्ति प्रसादात्सर्वशान्तिर्भवतु। ॐ वृषभसेनादि गणधर देवभक्ति प्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु। ॐ कोष्ठ बीजा पादानुसारिबुद्धि संभिन्नश्रोतृ प्रज्ञाश्रमण शक्ति प्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु । ॐ जल फल जंघा तंतु पुष्प श्रेणि पत्राग्नि शिरनाकाश चारण भक्ति प्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु। ॐ आहार रसवदक्षीण महानसालय भक्ति प्रसादात् सर्वशांतिर्भवतु । ॐ उग्रदीप्ततप्त महाघोरानुमतपोऋद्धि भक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । ॐ मनोवाक्कायवलिभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु। . ॐ क्रियाविक्रियाधारिभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु। ॐ मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलज्ञानि भक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । ॐ अंगांगबाह्यज्ञानदिवाकर कुन्दकुन्दाद्यनेकदिगम्बरदेवभक्तिप्रसादात्- सर्वशांतिर्भवतु । इदं वान्य नगरग्रामदेवतामनुजाः सर्वे गुलभक्ताः जिनधर्मपरायणाः भवन्तु । दानतपोवीर्यानुष्ठानं नित्यमेवास्तु। सर्वेषां धनधान्यैश्वर्यबलद्युतियशः प्रमोदोत्सवाः प्रवर्द्धन्ताम् । तुष्टिरस्तु | पुष्टिरस्तु | वृद्धिरस्तु । कल्याणमस्तु । अविघ्नमस्तु | आयुष्यमस्तु । आरोग्यमस्तु। कर्मसिद्धिरस्तु । इष्टसंपत्तिरस्तु । निर्वाणपर्वोत्सवाः सन्तु | पापानि शाम्यन्तु । पुण्यं वर्धताम् । श्री वर्धताम् । कुलं गोत्रं चाभिवर्धेताम् । स्वस्ति भदं चास्तु | इवीं क्ष्यी हं सः स्वाहा। श्रीमज्जिनेन्द्ध चरणारविदेष्वानंद भक्तिः सदास्तु । (जलधारा) १३६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] JainEducation International 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति पाठ शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं शीलगुणव्रत संयमपात्रम् । अष्टशतार्चितलक्षण गात्रं नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम् ॥१|| पञ्चमभीप्सित चक्रधराणां पूजित मिन्द्र नरेन्द्र गणैश्च ।। शान्तिकरं गणशान्ति मभीप्सुः षोडशतीर्थंकरं प्रणमामि ॥२॥ दिव्यतरुः सुरपुष्पसुवृष्टिर्दुन्दुभिरासन योजन घोषौ । आतपवारण चामर युग्मे यस्य विभाति च मण्डलतेजः ॥३।। तं जगदर्चितशान्तिजिनेन्द्र शान्तिकरं शिरसा प्रणमामि । सर्वगणाय तु यच्छतु शान्ति मह्यमरं पठते परमां च ।।४।। येऽभ्यर्चिता मुकुट कुण्डलहाररत्नैः शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुत पादपद्माः । ते मे जिनाः प्रवरवंश जगत्प्रदीपा स्तीर्थंकराः सततशान्तिकरा भवन्तु ॥५॥ संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रसामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्तिं भगवज्जिनेन्द्रः ।।६।। क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपालः । काले काले च मेघो विकिरतु सलिलं व्याधयो यान्तुनाशम् ।। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपिजगतां मास्म भूज्जीवलोके । जैनेन्द्रं धर्मचक्रं . प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥७।। प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञान भास्कराः । कुर्वन्तु जगतां शान्तिं वृषभाद्या जिनेश्वराः ॥८॥ इच्छामि भंते शांतिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं चउतीसातिसयविसेस संजुत्ताणं बत्तीसदेविंदमणिमउडमत्थयमहियाणं बलदेववासुदेव चक्कहर-रिसि-मुणि जदि अणगारोवगूढाणं थुइसयसहस्सणिलयाणं उसहाइवीरपच्छिम मंगलमहापुरिसाणं णिच्चकालं अच्चेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिनगुणसंपत्ती होउ मज्झं । आत्मपवित्रीकरणार्थं सकलदोष निराकरणार्थं सर्वमलातिचार विशुद्ध्यर्थं सर्वशान्त्यर्थं शान्तिभक्ति कायोत्सर्गं करोमि । विसर्जन जगतिशान्तिविवर्धनमंहसां, प्रलयमस्तु जिनस्तवनेन मे (ते) । सुकृतबुद्धिरलं क्षमया युतो जिनवृषो हृदये मम (तव) वर्तताम् ॥ मोहध्वान्त विदारणं विशद-विश्वोद्भासि दीप्तिश्रियम् । सन्मार्ग प्रतिभासकं विबुधसन्दोहामृतापादकम् ।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१३७ 2010_05 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपादं जिनचन्द्रशान्ति शरणं, सद्भक्तिमानेऽपि ते । भूयस्तापहरस्य देव भवतो भूयात्पुनदर्शनम् ॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः असि आ उ सा अहंदादि नवदेवानां (पूजाविधि) विसर्जनं करोमि अपराध क्षमापनं भवतु। जः जः जः। नोट :- वसुनंदि श्रावकाचार प्रतिष्ठा विधान, पृ. ११२, प्रतिष्ठा तिलक, पृ. २२०; जयसेन प्र., पृ. ३०६ एवं आशाधर प्र. १२२ पूजा में अर्हदादि नवदेवों के विसर्जन का मन्त्र उपलब्ध है। यज्ञदीक्षा चिन्ह विसर्जन यज्ञोचितं व्रत विशेष वृतोह्यतिष्ठन् । यष्टा प्रतीन्द्र सहितः स्वय मे पुरावत् ॥ एतानि तानि भगवज्जिनयज्ञ दीक्षा । चिह्नान्यथैषविसृजामि गुरोः पदाग्रे ॥ इति यज्ञोपवीतादि यज्ञ चिह्नानि गुरु समीपं संन्यस्य नमस्येत् । (यज्ञोपवीत पाटे पर रख देवें)। नोट:- प्रतिष्ठामंडप में विराजमान की गई पूर्व प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को शांतियज्ञ के पश्चात् रथयात्रा या वेदीजी के जुलूसपूर्वक विराजमान करना चाहिये । उक्त शांतियज्ञ वेदी कलश ध्वजा प्रतिष्ठा या बिंब प्रतिष्ठा के पश्चात् होता है। प्रतिष्ठा का महत्त्व अतो महाभाग्यवतां धन सार्थक्य हेतवे । नान्योपायो गृहस्थानां चैत्य चैत्यालयाद्विना ॥१॥ (जयसेन प्रतिष्ठा) पुण्यवान् गृहस्थों के लिए जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के सिवाय धन की सार्थकता का अन्य कोई साधन नहीं है। नित्य पूजा विधानार्थं स्थापयेन्मन्दिरे नवे । पुराणे वा तत्र भाण्डागारे संस्थापयेद् धनम् ।।२।। (जयसेन प्रतिष्ठा) अपने धन को नित्य पूजा के लिए, नवीन मन्दिर व प्राचीन मन्दिर जीर्णोद्धार हेतु तथा भंडार में देना चाहिये। अतो नित्य महाद्युक्तैर्निर्माप्यं सुकृतार्थिभिः । जिन चैत्यगृहं जीर्णमुद्धार्थं च विशेषतः ।।३।। (आशाधर प्र.) नित्यमह (बिंब प्रतिष्ठा) पूजा करने वालों को पुण्य हेतु नवीन जिन मन्दिर व जीर्ण मन्दिर का उद्धार विशेष रूप से करना चाहिये । धिग्दुष्षमाकालरात्रिं यत्र शास्त्रदृशामपि । चैत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो देवविशा मतिः ।।४।। (सा.ध.) इस निंदनीय दुषमा (पंचम) कालरूपी रात्रि में शास्त्रज्ञ लोगों को भी जिन प्रतिमा के दर्शन-पूजन रूप प्रकाश के बिना प्रायः परमात्मा के प्रति श्रद्धा का भाव दृढ़ नहीं हो पाता। १३८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति पाठ १. अथ सिद्धभक्तिः असरीरा जीवघना उवजुत्ता दंसणेय णाणेय । सायारमणायारा लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥१॥ मूलोत्तरपयडीणं बंधोदयसत्तकम्मउम्मुक्का । मंगलभूदा सिद्धा अट्ठगुणा तीदसंसारा ॥२॥ अट्ठवियकर्मविघडा सीदीभूता णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ||३|| सिद्धा णट्ठट्ठमला विसुद्धबुद्धि य लद्धिसब्भावा । तिहुअणसिरिसेहरया पसीयन्तु भडारया सव्वे ॥४॥ गमणागमणविमुक्के विहडियकम्मपयडिसंघारा । सासणसुहसंपत्ते ते सिद्धा वंदिमो णिच्चं ॥५।। जयमंगलभूदाणं विमलाणं णाणदंसणमयाणं । तहलोइसेहराणं णमो सदा सव्वसिद्धाणं ॥६।। सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव अवग्गहणं । अगुरुलघुअव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं ॥७॥ तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य । णाणम्मि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णमस्सामि ॥८॥ इच्छामि भंते सिद्धभक्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोंचेओ सम्मणाणसम्मदंसणसम्मचरित्तजुत्ताणं अट्ठविहकम्ममुक्काणं अट्ठगुणसंपण्णाणं उड्ढलोयमच्छयम्मि पयड्डियाणं तवसिद्धाणं णयसिद्धाणं संजमसिद्धाणं चरित्तसिद्धाणं सम्मणाणसम्मदंसणसम्मचरित्तसिद्धाणं तीदाणागदवड्डमाणकालत्तयसिद्धाणं सव्वसिद्धाणं वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ वोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। २. अथ श्रुतभक्तिः अर्हद्वक्त्रप्रसूतं गणधररचितं द्वादशांगं विशालं, चित्र बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमदिभः । मोक्षाग्रद्वारभूतं व्रतचरणफलं शेयभावप्रदीपं, भक्त्या नित्यं प्रवन्दे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥१॥ जिनेन्द्रवक्त्रप्रविनिर्गतं वचो यतींद्रभूतिप्रमुखैर्गणाधिपैः । . श्रुतं धृतं तैश्च पुनः प्रकाशितं द्विषट्प्रकारं प्रणमाम्यहं श्रुतं ।।२।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१३९ 2010_05 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटीशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतित्र्यधिकानि चैव । पंचाशदष्टौ च सहस्त्रसंख्यमेतच्छुतं पंचपदं नमामि ||३|| अंगबाह्यश्रुतोद्भूतान्यक्षराण्यक्षराम्नये । · पंचसप्लैकमष्टौ च दशाशीतिं समर्चये ॥४॥ अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं । पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा ||५|| इच्छामि भंते सुदभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंगपइण्णयपाहुडयपरियम्म सुत्तपढमाणिओग पुव्वगयचूलिया चेव सुत्तत्थयथुइधम्मकहाइयं सयाणिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ वोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । ३. अथ चारित्रभक्तिः संसारव्यसनाहतिप्रचलिता नित्योदयप्रार्थिनः, प्रत्यासन्नविमुक्तयः सुमतयः शांतैनसः प्राणिनः । मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपानमुच्चस्तरामारोहंतु चरित्रमुत्तममिदं जैनेन्द्रमोजस्विनः ॥१॥ तिलोए सव्वजीवाणं हियं धम्मोवदेसिणं । वड्ढमाणं महावीरं वंदिता सव्वदेसिणं ।।२।। घादिकम्मविघातत्थं घादिकम्मविणासिणा । . भासियं भव्वजीवाणं चारित्तं पंचभेददो ॥३॥ सामाइयं तु चारित्तं छेदोवडढावणं तहा । तं परिहारविसुद्धिं च संजमं सुहुमं पुणो ॥४॥ जहाखादं तु चारित्तं तहाखादं तु तं पुणे । किच्चाहं पंचहाचारं मंगलं मलसोहणं ।।५।। अहिंसादीणि उत्तानि महव्वयाणि पंच य । समिदीओ तदो पंच पंचइंदियणिग्गहो ॥६।। छन्भेयावासभूसिज्जा अण्हाणत्तमचेलदा । लोयत्तं ठिदिभुत्तिं च अदंतधावनमेव च ॥७|| एयभत्तेण संजुता रिसिमूलगुणा तहा । दसधम्मा ति गुत्तीओ सीलाणि सयलाणि च ॥८॥ सव्वे वि य परीसहा उत्तरोत्तरगुणा तहा । अण्णे विभासिया संता तेसिंहाणींमयेकया ॥९॥ १४०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] प 2010_05 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ रायेण दोसेण मोहेणाणादरेण वा । वंदित्ता सव्वसिद्धाणं संजदा सामुमुक्खुणा ||१०|| संजदेण मए सम्मं सव्वसंजमभाविणा । सव्वसंजमसिद्धीओ लब्भदे मुत्तिजं सुहं ॥ ११ ॥ धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसासंजमो तवो । देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ १२ ॥ इच्छामि भंते चारित्तभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणजोयस्स सम्मत्ताहिट्ठियस्स सव्वपहाणस्स णिव्वाणमग्गस्स संजमस्स कम्मणिज्जरफलस्स खमाहरस्स पंचमहव्वयसंपण तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिजुत्तस्स णाणज्झाणसाहणस्स समयाइवपवेसयस्स सम्मचारित्तस्स सदा णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ वोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिगुणसंपत्ति होउ मज्झं । [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] ४. अथ आचार्यभक्तिः देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुता । तुमं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थि मे णिच्चं ||१|| सगपरसमयविदण्डू आगमहेदुहिं चावि जाणित्ता । सुसया जिणवयणे विणसुत्ताणुरुवेण 11211 बालगुरुबुड्ढसेहे गिलाणथेरेयखवणसंजुता । अट्ठावयगाअण्णे दुस्सीले चावि जाणित्ता ||३|| वयसमिदिगुत्तिजुत्ता मुत्तिपहे ठावया पुणो अण्णे । अज्झावयगुणणिलये साहुगुणेणावि संजुत्ता ||४|| उत्तमखमाएपुढवी पसण्ण भावेण अच्छजलसरिसा । कम्मिंधणदहणादो अगणी वाऊ असंगादो 11311 गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरुव्व मुणिवसहा । एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो ॥६॥ संसार का पुण वंभममाणेहिं भव्वजीवेहिं । णिव्वाणस्स हु मग्गो लद्धो तुझं पसाएण ||७|| अविसुद्धलेस्सरहिया विसुद्धलेस्साहि परिणदा सुद्धा । रुट्ठे पुणचत्ता धम्मे सुक्के य सुंजुत्ता ॥८॥ उग्गहईहावायाधारणगुणसम्पदेहिं संजुत्ता । सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं वंदामि ||९|| तुम्हं गुणगणसंदि अजाणमाणेण जं मए वृत्तो । देउ मम वोहिलाहं गुरुभत्तिजुदत्थओ णिच्चं ॥१०॥ L 2010_05 [ १४१ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छामि भत्ते आइरियभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाणसम्मदसणसम्मचरित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आयरियाणं आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अच्चेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ वोहिलाओ सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। ५. अथ योगिभक्तिः थोस्सामि गणधराणं अणयाराणं गुणेहिं तच्चेहिं । अंजुलिमउलियहत्थो अहिवंदंतो स विभवेण ॥१॥ सम्मं चेव य भावे मिच्छाभावे तहे व बोद्धव्वा । चइऊण मिच्छभावे सम्मम्मि उवट्ठिदे वंदे ॥२।। दो दोसविप्पमुक्के तिदंडविरदे तिसल्लपरिसुद्धे । तिण्णियगारवरहिए तियरणसुद्धे णमस्सामि ॥३॥ चउविहकसायमहणे चउगइसंसारगमणभयभीए । पञ्चासवपडिविरदे पंचेदियणिज्जदे वंदे ॥४।। छज्जीवदयावण्णे छडायदणविवज्जिदे समिदभावे । सत्तभयविप्पमुक्के सत्ताणभयंकरे वंदे ॥५॥ णट्ठट्ठमयट्ठाणे पणट्ठकम्मठ्ठणठ्ठ संसारे । परमणिट्ठिमढे अट्ठगुणट्ठीसरे वंदे ॥६॥ णवबंभचेरगुत्ते णवणयसब्भावजाणगे वंदे । दसविहधम्मट्ठाई दससंजमसंजदे वंदे ॥७।। एयारसंगसुदसायरपारगे बारसंगसुदणिउणे । बारसविहतवणिरदे तेरसकिरयापडे वंदे ॥८॥ भूदेसु दयावण्णे चउ दस चउदस सुगंथपरिसुद्धे। चउदसपुव्वपगब्भे चउदसमलविज्जिदे वंदे ॥९॥ वंदे चउत्थभत्तादिजावछम्मासखर्वणपड्पुिण्णे । वंदे आदावंते सूरस्स य अहिमुहट्ठिदे सूरे ॥१०॥ वहुविहपडिमट्ठाई णिसेज्जवीरासणोज्झवासीयं । अणी/अकुडुंवदीये चत्तदेहे य णमस्सामि ।।११।। ठाणियमोणवदीए अब्भोवासी य रुक्खमूलीय । धुदकेसमंसु लोमे णिप्पडियम्मे य वंदामि ॥१२॥ जल्लमललित्तगत्ते बंदे कम्ममलकलुसपरिसुद्धे ।। दीहणहणमंसु लोये तवसिरिभरिए णमस्सामि ।।१३।। १४२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणोदयाहिसित्ते सीलगुणविहूसिये तवसुगन्धे । ववगयरायसुदट्टे सिवगइपहणायगे वंदे ॥१४।। उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे य घोरतवे। वंदामि तवमहंते तवसंजमइठिसम्पत्ते ।।१५।। आमोसहिएखेलोसहिएजल्लोसहिय तवसिद्धे । विप्पोसहिये सव्वोसहिये वंदामि तिविहेण ॥१६॥ अमयमहुधीरसप्पि सवी अक्खीण महाणसे वंदे । मणबलिवचणवलिकायवलिणो य वंदामि तिविहेण ॥१७॥ वरकुट्ठ वीयबुद्धी पदाणुसारीयसमिण्णसोदारे। उग्गहईहसमत्थे सुत्तविसारदे वंदे ॥१८॥ आभिणिबोहियसुदई ओहिणाणमणणाणि सव्वणाणीय । वंदे जगप्पदीवे पच्चक्खपरोक्खणाणीय ॥१९।। आयासतंतुजलसेढिचारणे जंघचारणे वंदे । विउवणइढिपहाणे विज्जाहरपण्णसमणे य ॥२०॥ गइचउरंगुलगमणे तहेव फलफुल्लचारणे वंदे । अणुवमतवमहंते देवासुरवंदिदे वंदे ॥२१॥ जियभयजियउवसग्गे जियइंदियपरिसहे जियकसाये। जियरायदोसमोहे जियसुहदुक्खे णमस्सामि ॥२२।। एवमए अभित्थुआ अणयारा रायदोसपरिसुद्धा । संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्खयं किंतु ॥२३।। इच्छामि भंते योगिभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अट्ठाइज्जजीव दो समुद्देसुपण्णरसकम्मभूमीसु आदावणरुक्खमूल अब्भोवासठाणमोणवीरासणेक्कवासकुक्कडासणचउद्दत्थ पक्खवणादिजोगजुत्ताणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। ६. अथ निर्वाणभक्तिपाठः अठ्ठावयम्मि उसहो चंपाए वासुपूज्य जिणणाहो । उज्जते णेमिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो ॥१॥ वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥२।। वरदत्तो य बरंगो सायरदत्तो य तारवरणयरे । । आहुट्ठयकोडीओ णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥३॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१४३ 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णेमिसामि पजण्णो संबुकुमारो तहेव अणिरुद्धो । बाहत्तरिकोडीओ उज्जंते सत्तसया सिद्धा ॥४॥ रामसुआ बेण्णि जणा लाडणरिंदाण पंचकोडीओ । पावागिरिवरसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥५|| पंडुसुआ तिण्णिजणा दविडणरिंदाण अट्ठकोडीओ। सत्तुंजयगिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥६।। संत्ते जे बलभद्दा जदुवणरिंदाण अट्ठकोडीओ । गजपंथे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ||७|| रामहणू सुग्गीवो गवयगवाक्खो य णीलमहाणीला । णवणवदीकोडीओ तुंगीगिरिणिव्वुदे वंदे ॥८॥ णंगाणंगकुमारा कोडीपंचद्धमुणिवरे सहिया । सुवण्णगिरिवरसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ।।९।। दहमुहरायस्स सुआ कोडी पंचद्ध मुणिवरे सहिया । रेवाउहय तडग्गे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१०॥ रेवाणइए तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूडे । दो चक्की दह कप्पे आहुट्ठयकोडिणिव्वुदे वंदे ।।११।। वड़वाणीवरणयरे दक्खिणभायम्मि चूलगिरिसिहरे । इंदजीयकुंभयणो णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१२॥ पावागिरिवरसिहरे सुवण्णभद्दाइमुणिवरा चउरो । चलणाणईतडग्गे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१३।। फलहोडीवरगामे पच्छिमभायम्मि दोणगिरिसिहरे । गुरुदत्ताइमुणिंदा णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१४।। णायकुमारमुणिंदो वालि महावाली चेव अज्झेया । अट्ठावयगिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१५।। अच्चलपुरवरणयरे ईसाणे भाए मेढगिरिसिहरे । आहुट्ठयकोडीओ णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१६॥ वंसत्थल वरणियरे पच्छिमभायम्मि कुन्थुगिरिसिहरे । कुलदेसभूसणमुणी णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१७|| जसहररायस्स सुता पंचसयाई कलिंगदेसम्मि । कोडिसिलाकोडिमुणी णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥१९।। पासस्स समवसरणे सहिया वरदत्तमुणिवरा पंच । रेसिंदि गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥२०॥ १४४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छामि भंते परिणिव्वाणभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं इमम्मि अवसप्पिणीए चउत्थसमयस्स पच्छिमे भागे आहुट्ठमासहीणे वासचउक्कम्मि सेसकालम्मि पावाए णयरीए कत्तियमासस्स किण्हचउद्दसिए रत्तीए सादीए णक्खत्ते, पच्चूसे, भयवदो महदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिंगदो/तीसुवि लोएसु, भवणवासियवाणविंतरजोइसिय कप्पवासियत्ति चउव्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण दिव्वेण पुप्फेण दिव्वेण धूवेण दिव्वेण चुण्णेण दिव्वेण वासेण दिव्वेण पहाणेण णिच्चकालं अच्चंति पुज्जंति वंदंति णमंसंति परिणिव्वाणमहाकल्लाणपुज्जं करंति अहमवि इहसंतो तत्थसंताइयं णिच्चकालं अंञ्चेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ वोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । ७. अथ तीर्थंकरभक्तिः चउवीसं तित्थयरे उसहाइवीरपच्छिमे वंदे । सव्वेसिं मुणिगणहरसिद्धे सिरसा णमंसामि ॥१॥ ये लोकेष्टसहस्त्रलक्षणधरा शेयार्णवांतर्गता । ये सम्यग्भवजालहेतु मथनाश्चन्द्रार्कतेजोधिकाः ॥ ये साध्विंद्रसुराप्सरोगणशतैतिर्पणुत्यार्चिताः । तान्देवान्वृषभादिवीरचरमान्भक्तया नमस्याम्हम् ॥२॥ नाभेयं देवपूज्यं जिनवरमजितं सर्वलोकप्रदीपं । सर्वशं सम्भवाख्यं मुनिगणवृषभं नंदनं देवदेवम् ।। कर्मारिघ्नं सुबुद्धिं वरकमलनिभं पद्मपुष्पाभिगन्धं । क्षांतं दांतं सुपार्श्व सकलशशिनिभं चंद्रनामानमीडे ॥३॥ विख्यांतं पुष्पदंतं भवभयमथनं शीतलं लोकनाथं । श्रेयांसं शीलकोशं प्रवर नरगुरूं वासुपूज्यं सुपूज्यम् ।। मुक्तं दान्तेन्द्रियाश्वं विमलमृषिपतिं सिंहसैंन्यं मुनींद्रं । धर्म सद्धर्मकेतुं शमदमनिलयं स्तौमि शांतिं शरण्यम् ||४|| कुन्थु सिद्धालयस्थं श्रमणपतिमरं त्यक्तभोगेषुचक्रम् । मल्लिं विख्यातगोत्रं खचरगणनुतं सुव्रतं सौख्यराशिम् ।। देवेन्द्रायँ नमीशं हरिकुलतिलकं नेमिचन्द्रं भवांतम् । पार्श्व नागेन्द्रवन्धं शरणमहमितो वर्धमानं च भक्त्या ।।५।। इच्छामि भंते चउवीसतित्थयरभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाणसम्पण्णाणं, अट्ठ महापाडिहेरसहियाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं, वत्तीसदेविंदमणिमउडमत्थयमहियाणं, वलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजइ अणगारोवगूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं, उसहाइवीरपच्छिम मंगलमहापुरिसाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसम्पत्ति होउ मञ्झं। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १४५ 2010_05 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अथ शांतिभक्तिपाठः न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्पादद्वयं ते प्रजाः । हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः संसारघोरार्णवः ।। अत्यन्तस्फुर दुग्र रश्मिनिकरव्याकीर्णभूमण्डलो । ग्रैष्मः कारयतीन्दुपादसलिलच्छायानुरागं रविः ॥१॥ कुद्धाशीविष दष्टदुर्जयविषज्वालावलीविक्रमो । विद्याभैषजमन्त्रतोयहवनैर्याति प्रशांतिं यथा ।। तद्वत्ते चरणारुणांबुजयुगस्तोत्रोन्मुखानां नृणाम् । विघ्नाः कायविनायकाश्च सहसा शाम्यंत्यहो विस्मयः ॥२॥ संतप्तोत्तमकांचनक्षितिधरश्रीस्पर्द्धिगौरद्युते । पुंसां त्वच्चरणप्रणामकरणात्पीडाः प्रयान्ति क्षयं ।।। उद्यद्भास्करविस्फुरत्करशतव्याघातनिष्कासिता । नानादेहिविलोचनद्युतिहरा शीघ्रं यथा शर्वरी ॥३|| त्रैलोक्येश्वरभंगलब्धविजयादत्यंतरौद्रात्मकान् । नानाजन्मशतांतरेषु पुरतो जीवस्य संसारिणः ।। को वा प्रख्खलतीह केन विधिना कालोग्रदावानलान्न स्याच्चेत्तव पादपद्मयुगलस्तुत्यापगावारणम् ।।४।। लोकालोकनिरंतरप्रविततज्ञानैकमूर्ते विभो । नानारत्नपिनद्धदण्डरुचिरश्वेतातपत्रत्रय ॥ त्वत्पादद्वयपूतगीतरवतः शीघ्रं द्रवन्त्यामयाः । दध्मिातमृगेन्द्रभीमनिनदाद्वन्या यथा कुंजराः ॥५॥ दिव्यस्त्रीनयनाभिरामविपुल श्री मेरु चूडामणे । भास्वद्वालदिवाकरद्युतिहर प्राणीष्टभामंडलम् ।। अव्याबाधमचिंत्यसारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतम् । सौख्यं त्वच्चरणारविंदयुगलस्तुत्यैव संप्राप्यते ॥६।। यावन्नोदयते प्रभापरिकरः श्रीभास्करो भासयं स्तावद्धारयतीह पंकजवनं निद्रातिभारश्रमम् ॥ यावत्वच्चरणद्वयस्य भगवन्नस्यात्प्रसादोदयस्तावज्जीवनिकाय एष वहति प्रायेण पापं महत् ।।७।। १४६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप 2010_05 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिं शान्तिजिनेन्द्र शांतमनसस्त्वपादपद्माश्रयात् । संप्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शान्त्यर्थिनः प्राणिनः ।। कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु। त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदतः शांत्यष्टकं भक्तितः ॥८॥ शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं शीलगुणव्रतसंयमपात्रं । अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं नौमि जिनोत्तम मंबुजनेत्रम् ।। पंचमभीप्सितचक्रधराणां पूजितमिन्द्रनरेन्द्रगणैश्च ॥ शांतिकरं गणशांतिमभीप्सुः षोडशतीर्थकरं प्रणमामि ।।९।। दिव्यतरुः सुरपुष्पसुवृष्टिर्दुन्दुभिरासनयोजनघोषौ । आतपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च मण्डलतेजः ।। तं जगदर्चितशांतिजिनेन्द्रं शांतिकरं शिरसा प्रणमामि । सर्वगणाय तु यच्छतु शांतिं मह्यमरं पठते परमां च ॥१०॥ येऽभ्यर्चिता मुकुटकुण्डलहाररत्नैः । शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः ॥ ते मे जिनाः प्रवरवंशजगत्प्रदीपाः । तीर्थंकराः सततशांतिकरा भवन्तु ॥११|| संपूजकानां प्रतिपालकानां यतींद्रसामान्यतपोधनानां । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः ।। क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धर्मिको भूमिपालः । काले काले च सम्यग् बिकिरतु मघवा व्याधयो यांतु नाशम् ।।१२।। दुर्भिक्षं चौरमारिःक्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके । जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ।। तद्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः स देशः । सन्तन्यतां प्रतपतां सततं स कालः ॥ भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण ।। रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षुवर्गे ॥१३॥ __ इच्छामि भंते शांतिभक्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाणसम्पण्णाणं, अठ्ठमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं, बत्तीसदेवेंदमणिमउडमत्थयमहियाणं, बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजदिअणगारोवगूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं, उसहाइवीरपच्छिममंगलमहापुरिसाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं । । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१४७ 2010_05 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. समाधिभक्तिः स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणं श्रुतचक्षुषा । पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञानचक्षुषा ॥१।। शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदार्यैः । सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् ॥ सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे । संपद्यतां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः ॥२।। जैन मार्गरुचिरन्यमार्गनिर्वेगता जिनगुणस्तुतौ मतिः । निष्कलंक विमलोक्तिभावनाः संभवन्तु मम जन्मजन्मनि ||३|| गुरुमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धांतवार्धिसद्धोषे ।। मम भवतु जन्मजन्मनि सन्यसनसमन्वितं मरणम् ॥४॥ जन्मजन्मकृतं पापं जन्मकोटिसमर्जितम् । जन्ममृत्युजरामूलं हन्यते जिनवन्दनात् ॥५|| आबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया । सेवासक्तविनेयकल्पलतया कालोद्ययावद्गतः ।। त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयाणक्षणे । त्वन्नामप्रतिबद्धवर्णपठने कण्ठोऽस्त्व कुण्ठो मम ॥६।। तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः ॥७|| एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गतिं निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ।।८।। पंचअरिञ्जयणामे पंचय गदि सायरे जिणे वंदे । पंच जसोयरणामे पंचम्मिय सीमन्दरे वंदे ॥९।। रयणत्तयं च वंदे चव्वीसजिणे च सव्वदा वंदे । पंचगुरुणं वंदे चारणचरणं सदा वंदे ॥१०॥ अर्हमित्यक्षरंब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ।। कर्माष्टकविर्निमुक्तं मोक्षलक्ष्मी निकेतनम् । सम्यक्त्वादि, गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥११॥ १४८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां । उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् ।। स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम् । पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥१३|| अनन्तानन्त संसार सन्ततिच्छेदकारणम् । जिनराजपदाम्भोजस्मरणं शरणं मम ॥१४॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।। तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥१५॥ नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ।।१६।। जिने. भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१७|| याचेहं याचेहं जिन तव चरणारविंदयोर्भक्तिम् । याचेहं याचेहं पुनरपि तामेव तामेव ॥१८॥ इच्छामि भंते समाहिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं रयणत्तयसरुवपरमप्पज्झाणलक्खणं समाहिभत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ वोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। .. भक्ति पाठ कौन कहाँ गर्भ-जन्म कल्याणक में - सिद्ध, चारित्र, शांति । दीक्षा कल्याणक में - सिद्ध, चारित्र, योगि, आचार्य, अर्हत्, शांति । ज्ञान कल्याणक में - सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, शांति । निर्वाण कल्याणक में - निर्वाण, शांति । ORD coodoo [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १४९ 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप द्वितीय भाग पंचकल्याणक व क्रियायें श्री विधिनायक ऋषभदेव तीर्थंकर के पंचकल्याणक में गर्भकल्याणक की पूर्व क्रिया रात्रि || बजे मंगलाचरण नमामि नाभिनंदनं भवादिव्याधि कन्दनम् । समाधि साध चंदनं शतिन्द वृन्द वंदितम् । अशेषक्लेशभंजनं मदादिदोषभंजनम् । मुनिंदकंजरंजनं दिनं जितं अमंदितम् ॥ अनंतकर्मछायकं प्रशस्त शर्मदायकम् । नमामि सर्वलायकं विनायकं सुवंदितम् । समस्त विघ्ननाशिये प्रमोद को प्रकाशिये । निहार मोहि दास से प्रभु करो अफंदितं ।। रात्रि को इन्द्रसभा दृश्य-१ १. सौधर्म- बोलिये श्रीभगवान् ऋषभदेव की जय । इन्द्राणी- स्वामिन् ! आज आपने यह जयघोष क्यों किया? मुझे आश्चर्य इसलिए हो रहा है कि आप कोई बात बिना कारण नहीं कहते । इसमें कोई गूढ़ रहस्य अवश्य है। सौधर्म- आज का दिन इस सुधर्मा सभा के लिए महान् हर्ष का है कि मध्यलोक में सभी द्वीपों के मध्य में स्थित जम्बुद्वीप भरत क्षेत्र आर्यखंड में इस अवसर्पिणी युग के तृतीय काल के अन्त में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव आज से १५ माह पश्चात् जन्म धारण करने वाले हैं। (कुबेर से)- प्रिय धनद! तुम सर्वप्रथम उस नगरी की सांगोपांग रचना करो, जहाँ तीर्थंकर प्रभु का जन्म होगा। कुबेर- स्वामिन् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । अपनी शक्ति अनुसार मैं सुन्दर नगरी की रचना करूँगा। सौधर्म- वह नगरी भारतवर्ष के कौशल देश में अयोध्या होगी, जहाँ १५वें कुलकर श्री नाभिराय और माता मरुदेवी के राजमहल के प्रांगण में ऋषभदेव के गर्भ में आने के छ: माह पूर्व से रत्नों की वर्षा करनी होगी। (देवियों से)- श्री ह्रीं धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, शांति और पुष्टि आदि अष्ट कुमारिका देवियो ! तुम्हें भी माता की सेवा के लिए तैयार रहना है। (देवियाँ खड़ी रहकर हाथ जोड़ते हुए कहती हैं) आपकी आज्ञा हमें शिरोधार्य है। १५०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप MMMME 3 . R 5 59 आचार्य या गुरु से विधि विधान और मंत्र सीखे बिना जो लोग स्वयं ही पढ़कर प्रतिष्ठाचार्य बन जाते है, उनकी क्रिया की निन्दनीय और उन्हें अक्षर म्लेच्छ तक कहा है। -आचार्य विद्यानन्द द्वितीय भाग 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ईशान- देवराज ! हमारी यह देव पर्याय पुण्य का फल अवश्य है परन्तु इस पर्याय में हमें आगामी भव के लिए भी पुण्य कार्य कर लेना चाहिये, जिससे हम तीर्थंकर के समान जगत् कल्याण करके संसार सागर से पार हो जावें। इन्द्राणी- स्वामिन् ! हम विमानवासी देवों और देवियों का परम सौभाग्य है कि हमें तीर्थंकर देव के पंचकल्याणक मनाने का अवसर प्राप्त होता रहता है। ३. सनतकुमार- मनुष्य लोक में पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह क्षेत्र हैं। इन कर्मभूमियों में ही तीर्थंकर होते हैं । भरत और ऐरावत में तीन कालवर्ती चौबीस तीर्थंकर होते हैं। और विदेह के पंचमेरु संबंधी बत्तीस देशों में सीमंधर आदि बीस तीर्थंकर कुल संख्या एक साथ १६० तक होती है। इन्द्राणी- हाँ, मेरा भी यह अनुभव है कि भरत ऐरावत के एक साथ १० मिलाकर कुल १७० तीर्थंकर तक हो सकते हैं। इन सबके पाँच कल्याणकों में से किसी के कोई, किसी के कोई कल्याणक होते रहते हैं। और हमें व श्री ह्रीं आदि देवियों को सभी स्थानों पर एक साथ उपस्थित रहना पड़ता है, जो विक्रिया से सहज ही हो जाता है। ४. महेन्द्र- यह सब तीर्थंकर होने वाली आत्मा के सातिशय पुण्य और पूर्व भवों में सम्यग्दर्शन के साथ सोलह कारण भावनाओं का प्रभाव है। बिना सम्यग्दर्शन के यह संभव नहीं है। इन्द्राणी- इस संसार के समस्त प्राणियों के कल्याण की भावना से ही तीर्थंकर नाम कर्म का बंध हुआ करता है। ऐसे वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग बताते हैं । ५. ब्रह्म इन्द्र- हमें इस काल के उत्सर्पिणी (उन्नति) और अवसर्पिणी (अवनति) इन दो भागों में प्रत्येक के ६-६ हिस्सों में से अवसर्पिणी काल के तृतीय हिस्से में उत्पन्न होने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के कल्याणक मनाना हैं। इन्द्राणी- ऋषभदेव तीर्थंकर जब भोगभूमि का अंतिम समय होता है और दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री में न्यूनता आ जाती है तब उस समय की जनता को मार्गदर्शन देने हेतु उत्पन्न होते हैं। ६. लांतव इन्द्र- ऋषभ तीर्थंकर के पिता चौदहवें कुलकर नाभिराय कल्पवृक्षों से भोजन सामग्री प्राप्त न होने से भूखी जनता को प्राकृतिक वृक्षों के फलों का उपभोग सिखाते हैं। इन्द्राणी- उन दिनों में लोगों के पास बर्तन आदि कुछ भी नहीं रहते । नाभिराय उन्हें हाथी के मस्तक पर मिट्टी के थाली आदि बर्तन बनाकर देते हैं व विधि बताते हैं । जन्म समय बालक की नाभि में नाल काटना भी वे सिखाते हैं। ७. महाशुक्र- ऐसे समय के लोग जंगली व असभ्य नहीं होते । वह समय परिवर्तन का है । जीवन निर्वाह के साधन अपूर्ण होने से कठिनाई हल करना आवश्यक होता है। इन्द्राणी- नाभिराय के पहले १३ कुलकरों में से प्रथम, कल्पवृक्षों के प्रकाश के कारण नहीं दिखने वाले चन्द्र-सूर्य को अकस्मात् उदय होता देखकर भयभीत जनता को निर्भय बनाते हैं, क्योंकि कल्पवृक्ष का प्रकाश मंद हो चुका था। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५१ _ 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सहस्रार इन्द्र- भोगभूमि में एक साथ उत्पन्न नर-नारी ही, पति-पत्नी के रूप में रहते हैं और उनकी उत्पत्ति के साथ ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती है । पीछे वे जीवित भी रहते हैं । उन दिनों सामाजिक प्रथा नहीं रहती। १३वें कुलकर विवाह पद्धति प्रारंभ करते हैं। ___इन्द्राणी- कल्पवृक्षों के अभाव में जीवन निर्वाह की वस्तुओं में कमी आने से परस्पर होने वाले विवाद और अपराध का हल उस काल में प्रथम पाँच कुलकरों द्वारा केवल 'हा' बोल देना बहुत समझा जाता था। आनत इन्द्र- और छठे से दशवें तक कुलकरों ने ‘हा मा' इन दो शब्दों का बोलना दण्ड रखा था। इन्द्राणी- अन्त के चार कुलकर 'हा, मा, धिक' इस तरह के दण्ड का विभाजन करते हैं । इन शब्दों के उच्चारण मात्र से अपराधियों को महान् पश्चात्ताप होता है। १०. प्राणत इन्द्र- कल्पवृक्ष वनस्पति की जाति के नहीं होते । वे पृथ्वी के परमाणुओं के होते हैं। इसी प्रकार जम्बूद्वीप में जंबू वृक्ष आदि तथा हिमवन आदि पर्वतों पर पद्म आदि तालाबों में कमल भी पृथ्वी रूप हैं। ___इन्द्राणी- भोग भूमि के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई २२०० हाथ होती है। धीरे-धीरे कम होकर भगवान् आदिनाथ के समय २००० हाथ रह जाती है। आगे तीर्थंकर वर्द्धमान के समय ७ हाथ रह जाती है। ११. आरण इन्द्र- भोग भूमि में मनुष्य की आयु भी ८४ लाख पूर्व की होती है उससे फिर धीरेधीरे कम होती जाती है। इदाणी- अब भगवान् ऋषभदेव माता मरुदेवी के गर्भ में आने वाले हैं। इस तीसरे काल की समाप्ति में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी हैं। १२. अच्युत इन्द्र- हमें तीर्थंकर देव के कल्याणक मनाने का कारण यह प्रतीत होता है कि हम से श्रेष्ठ मनुष्य हैं, क्योंकि देव पर्याय में तीर्थंकर नहीं बनते? इन्द्राणी- देव पर्याय में पुण्य का वैभव अवश्य है। किन्तु पुण्य की सीमा है । पुण्यवान् को कभी कर्माधीन दुःख तो भोगने ही पड़ते हैं । पुण्य का अन्त होने पर यह जीव नीच गति में उत्पन्न होता है। २. ईशान इन्द्र- आपका कथन सत्य है । पुण्य-पाप से रहित वीतराग भाव ही इस प्राणी को शाश्वत सुख प्राप्त करा सकते हैं। ३. सनतकुमार- यह वीतराग भाव मनुष्य पर्याय में ही प्राप्त होता है । मुनि व्रत के बिना वीतरागता संभव नहीं। ४. महेन्द्र इन्द्र- श्रावक और मुनि दशा मनुष्य पर्याय में ही प्राप्त होती है। हम देव तो व्रत धारण कर ही नहीं सकते । मुनि व्रत की बात तो दूर, श्रावक तक नहीं बन सकते । १५२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ब्रह्म इन्द्र- इस चर्चा से तो यही सार निकलता है कि मनुष्य ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसीलिए कहा है 'मानुष्यं दुर्लभं लोके । ६. लांतव इन्द्र- मनुष्य की यह विशेषता है कि वह सप्तम नरक तक का पाप और सर्वार्थ सिद्धि तक पुण्य बन्ध कर उन स्थानों तक पहुँच सकता है। ७. महाशुक्र- मनुष्य पर्याय की इसीलिए प्रशंसा की जाती है किन्तु देवों में सर्वार्थसिद्धि, अनुत्तर विमानवासी, लौकांतिक देव क्या कम हैं, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं और मनुष्य जन्म लेकर मुक्ति पाते हैं। ८. सहस्रार इन्द्र- सौधर्म आदि दक्षिणेन्द्र व लोकपाल भी मुक्ति के अधिकारी होते हैं । इससे ज्ञात होता है कि सातिशय पुण्य सम्यग्दर्शन के साथ होता है। पुण्य की यही महिमा है। ९. आनत इन्द्र- अच्छा तो अब हमें भगवान् ऋषभदेव, जो १५वें कुलकर होंगे, उनका गर्भ कल्याणक मनाने की तैयारी करना चाहिये। १. सौधर्म- भगवान ऋषभदेव के गर्भ कल्याणक हेतु मध्य लोक में चलने को जिन-जिन को आज्ञा दी है वे सब अपना नियोग पूरा करें। कुबेर- नगर की रचना करें, रत्नवृष्टि करें। आठ व छप्पन कुमारी देवियाँ माता की सेवा में उपस्थित रहें। १०. प्राणत इन्द्र- हमारी इस चर्चा का उद्देश्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, ये पंचकल्याणक सम्यग्दर्शन के साधन हैं। ११. आरण इन्द्र- सम्यग्दृष्टि का अनन्त संसार शांत हो जाता है । जब तक वह संसार में रहता है तब तक उत्तमगति में रहकर वह उत्तम पदों को प्राप्त करता रहता है। १२. अच्युत इन्द्र- सम्यग्दृष्टि का जीवन पवित्र होता है वह 'जगमाहिं जिनेश्वर का लघुनंदन' है। गर्भ कल्याणक (पूर्व क्रिया) दृश्य-२ (कुबेर सिंहासन पर मंजूषिका स्थापित करें । अष्ट कुमारी देवियाँ सेवा में तत्पर दिखालाई जावें) यहाँ भवनवासी देवियों द्वारा नृत्य कराया जाये। १. श्री देवी को पूर्व दिशा में चमर हाथों में देकर स्थापित करें। मन्त्र- ॐ महति महसां श्री देवि ऐं ह्रीं श्रीं हैं नित्यै स्वं सं क्लीं इवीं स्वां ला झौं तीर्थंकर सवित्रीं स्नापय स्नापय गर्भ शुद्धिं कुरु कुरु वं मं हं सं सं तं पं श्रीदेट्यै स्वाहा । (पुष्प क्षेपण कर स्थापित करें) २. ह्रीं देवी, आग्नेय दिशा में, छत्र हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ३. धृति देवी, दक्षिण दिशा में, सिंहासन हाथ में (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कीर्ति देवी, नैऋत्य दिशा में, छड़ी हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ५. बुद्धि देवी, पश्चिम दिशा में दर्पण हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ६. लक्ष्मी देवी, वायव्य दिशा में, नंद्यावर्त हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ७. शांति देवी, उत्तर दिशा में, सुप्रतिष्ठ (ठोणा) हाथ में (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ८. पुष्टि देवी, ईशान दिशा में, कलश हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ५६ कुमारिकायें तेरहवें रुचिकवर द्वीप में, रुचिकगिरि पर जो ८४ हजार योजन ऊँचा और ४२ हजार योजन चौड़ा है, निवास करने वाली ये भवनवासिनी कुमारिकायें माता की सेवा में उपस्थित होती हैं। ८ पूर्व दिशा की देवियाँ झारी लिये हुए। ८ दक्षिण दिशा की देवियाँ दर्पण लिये हुए। ८ पश्चिम दिशा की देवियाँ छत्र लिये हुए। ८ उत्तर दिशा की देवियाँ चमर लिये हुए। शेष विदिशा की देवियाँ जातकर्म करती हुई इन पर 'जिनमातरंपरिचरतपरिचरत' कहकर पुष्प क्षेपण करें। क्रमशः १६ स्वप्न दिखलावें। १. ऐरावत हाथी, २. सफेद वृषभ, ३. धवल सिंह, ४. सिंहासन पर लक्ष्मी को हाथी की सूंड द्वारा स्नान कराते हुए, ५. दो पुष्पमाला, ६. पूर्ण चन्द्र, ७. उदित सूर्य, ८. जल से पूर्ण दो कलश कमल-पत्र से ढके हुए, ९. दो मीन सरोवर में क्रीड़ा करती हुई, १०. कमल-हंसयुक्त सरोवर, ११. तरंगित सागर, १२. सुवर्ण सिंहासन, १३. रत्नमय स्वर्ग विमान, १४. पृथ्वी से उठता हुआ नागेन्द्र भवन, १५. रत्नराशि, १६. धूम रहित अग्नि। नोट:- एक पर्दा जिसमें माता शयन करती हुई, चारों ओर १६ स्वप्नों का बनाया जावे अथवा पृथक्पृथक् भी बनाये जा सकते हैं। नृत्य (गर्वा) का गीत टेबल पर मंजूषा स्थापित करें मात तोहि सेवके सुतृप्तिता हमें भई । राग द्वेष टार वीतराग बुद्धि परिणई ॥ तूं ही लोक मांहि श्रेष्ठ भार्या सुभाग है । इन्द्र तोरि भक्ति में प्रवीण किये राग है । धन्य धन्य हस्त यह सफल भयो आज ही। अंग अंग धन्य है कृतार्थ भये आज ही॥ धन्य धन्य देवि पुण्य आतमा विशाल हो । पुण्य का सुलाभ हो सुधर्म का प्रचार हो॥ १५४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गर्भ कल्याणक - - आवश्यक सामग्री - + अष्ट कुमारियाँ । अष्ट मंगल द्रव्य + सोलह स्वप्न - विधिनायक प्रतिमा + गर्भ मंजूषा (काँच पेटी) + चन्दन पाटा + षट्कोण शिला + मातृका यंत्र + चौबीस तीर्थंकर यंत्र + त्रैलोक्य सार यंत्र * सफेद मलमल कपड़ा + छैनी + हथोड़ी + पुष्प, काढ़ा (सर्वौषधि, पलाशादि) - दिव्यौषधि, चन्दनादि क्वाथ तीर्थ मिट्टी चमर वाधघोष + झारी दर्पण + छत्र - 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भकल्याणक मन्त्र संस्कार (टंकिकारारोपण एवं संस्कार) ॐ नमः श्री तीर्येशाय सर्वविघ्न विनाशाय नमोऽर्हत स्वाहा। इस मन्त्र से षट्कोण शिला पर विधिनायक मूर्ति स्थापित करें। ॐ ह्रां अर्हद्भ्यो नमः, ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः, ॐ हूं सूरिभ्यो नमः, ॐ ह्रौं पाठकेभ्यो नमः, ॐ ह्रः सर्वसाधुभ्यो नमः। (१०८ बार इस मन्त्र का जप करें) ॐ नमः केवलिने तुभ्यं नमोऽस्तु परमात्मने नयन्तु वन भूधरा फट् वषट् स्वाहा । (इस मन्त्र से सभी मूर्तियों को हथोड़ी का स्पर्श करावें ॐ नमोऽहते ह्रीं क्लीं क्रौं स्वाहा । (इस मन्त्र से मूर्तियों को टांकी का स्पर्श करावें) ॐ नमो निजगनाथाय चक्रेश्वर वंदिताय विमल हंसाय पादादिदोषौघ निवारकाय झौ झौं स्वाहा । (पुष्पांजलि क्षेपण करें) प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा च स्थापनं तत्प्रतिक्रिया । तत्समानात्म बुद्धित्वात्तत्भेदः स्तवनादिषु ॥ वसुनंदि प्रति. १४-६४ भक्त्यार्हत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृत्रिमा सदा । यतस्तद् गुण संकल्पात् प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्ह अमुक बिंबस्य अर्हद्गुण संकल्पात् मन्त्र संस्कारात् तत्समानात्मबुद्धिर्भवतु भट्यवृन्दैक मान्यतां यातु सम्यक्त्व हेतुरस्तु सर्व प्रजाजन कल्याणं कुरु कुरु स्वाहा। इस प्रकार सभी प्रतिमाओं को स्पर्श करें। (पुष्पांजलि क्षेपण करें) ॐ णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्वसाहूणं । ॐ जय जय जय नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु नंद नंद नंद अनुसाधि अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनीहि पुनीहि मांगल्यं मांगल्यं मांगल्यं शान्तिरस्तु । (इस मन्त्र से वेदी पर पुष्प क्षेपण करें)। __ ॐ ह्रीं मरुदेवी, विजया, सुषेणा, सिद्धार्था, सुमंगला, सुसीमा, पृथिवी, लक्ष्मणा, रमा, नन्दा, विष्णुश्री, जयावती, सुषमा, सुरजा, सुब्रता, ऐरा, श्रीमती, मित्रा, पद्मा, श्यामा, विनता, शिवा, वामा, त्रिशलेति, चतुर्विंशति, जिनमातरोऽत्र सुप्रतिष्ठिता भवन्तु स्वाहा। (मंजूषिका पर पुष्प क्षेपण करें) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५५ 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वर्तुजानि फलपुष्पविलेपनानि गंधासनोपकरणानि पवित्रितानि । संस्थापयंत्वधिगृहं जिनमातृकाया भोगोपभोग रुचिराणि मनोहराणि ।। वस्त्राभूषण मंडन सर्वर्तुज फल चन्दन मालासनादि मनोहर द्रव्याणि स्थापयामि । (पुष्पांजलिः) ॐ ह्रीं श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी शांति पुष्ट्यादि दिक्कुमार्य अत्रागत्य जिन मातृसेवां कुरुत कुरुत स्वाहा। (पुष्पांजलिः) इन्द्रादि दिक्पति नियोग कृतावनानि । स्थानानि यस्य परितः सुपरिष्कृतानि ।। तद्राजसद्मनि पुरन्दर दत्त शिष्टा । रत्नानि वर्षयतु गुह्यक राजराजः ॥ ॐ ही धनाधिपते राजप्रासादे रनवृष्टिं मुञ्चतु स्वाहा । (रत्न वर्षा करावें) ॐ ह्रीं भूर्भुवः श्रीं अर्ह मातृ गर्भाशय पवित्रं कुरु कुरु इवीं क्ष्वी हां ही हूं हौं हः स्वाहा । (इस मन्त्र से मंजूषा को इन्द्राणी व देवियों द्वारा सर्वौषधि से शुद्ध करावें व उसमें स्वस्तिक लिखें) मंजूषा में मातृका यंत्र स्थापित करें। नीचे लिखे मन्त्र को २७-२७ बार पढ़ लेवें। ॐ नमोऽहं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ दध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ही क्लीं क्रौं स्वाहा । ॐ हां वषट् णमो अरहंताणं संवौषट् ओं ढलूं क्ली द्रां द्रीं ह्रीं क्रौं ओं सः अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ही नमः स्वाहा। यहाँ सिद्ध, चारित्र, शान्ति भक्ति पाठ करें। नोट:- विधिनायक प्रतिमा को षट्कोण शिला पर स्थापित कर विधि करें। धूली कलशाभिषेक व आकार शुद्धि गोश्रृंगाद्गजदंताच्च तोरणात् कमलाकरात् । नगाद्वा सिद्धतीर्थाच्च महासिन्धु तटात् शुभात् ।। आनीय मृत्तिकां क्षिप्त्वा कुंभे तीर्थांबु : संभृते । तेन कुर्याज्जिनाचार्या धूलीकुंभाभिषेचनम् ।। (वसुनंदि प्रति. ७०-७१) गोग- कुदाली, गजदंत- कुश द्वारा तीर्थमृत्तिका व जल से मूर्ति की शुद्धि करें। प्रतिमाओं की चार कलश से शुद्धि १. कलश- शमी, पलाश, आम्र, अशोक के सूखे पत्र । २. कलश- सहदेवी, अडूसा, शतावरी, गिलोय। ३. कलश- चंदन, अगर, तगर, अगुरु । ४. कलश- कंकोल, लौंग, जायफल, इलायची | १५६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट:- इन्हें कूट कर गर्म जल में मिलावें और छान कर कलशों में भर लेवें। १. ॐ ह्रीं पलाशादि पादप पल्लव कलशैः जिन बिंब शुद्धिं करोमि । २. ॐ ह्रीं सहदेव्यादिदिव्यौषधि कलशैः जिन बिंब शुद्धिं करोमि । ३. ॐ ह्रीं चन्दनादि सुगंधित कलशैः जिन बिंब शुद्धिं करोमि । ४. ॐ हीं कंकोलादि सुगंधित द्रव्य क्वाथ कलशैः जिन बिंब शुद्धिं करोमि । ___ (वसुनंदि प्रति. १४९, श्लो. ७३) लवंगैलावचाकुष्ठं कंकोलजाति पत्रिका । सिद्धार्थ नंदनाद्यैश्च गंध द्रव्य विमिश्रितैः ।। तीर्थाम्बुनिभृतैः कुंभैः सर्वौषधि समन्वितैः । मंत्राभिमंत्रितैर्जेनी प्रतिमामभिषिंचयेत् ।। (वसुनंदि ८४-८५) सर्वौषधि द्वारा प्रतिमाओं की शुद्धि करें "ॐ उसहाय दिव्यदेहाय सज्जोजादाय महप्पण्णाय अणंतचउट्ठयाय परमसुहपइट्ठियाय णिम्मलाय सयंभुवे अजरामरपरम पद पत्ताय चउमुह परमेट्ठिणे अरहंताय तिलोयणाणाय तिलोयपूजाय अट्ठदिव्वदेहाय देवपरिपूजिताय परमपदाय मम इत्थिभिसण्णिहिदाय स्वाहा ॥” इस मन्त्र को ७ बार बोलते हुए ७ बार ही सौधर्मेन्द्र से प्रतिमाओं को स्पर्श करावें। "ॐ अर्हद्भ्यो नमः । केवललब्धिभ्यो नमः । क्षीर स्वादुलब्धिभ्यो नमः । मधुरस्वादुलब्धिभ्यो नमः । संभिन्न श्रोतृभ्यो नमः । पादानुसारिभ्यो नमः । कोष्ठ बुद्धिभ्यो नमः । बीज बुद्धिभ्यो नमः । सर्वोषधिभ्यो नमः । परमावधिभ्यो नमः । ॐ ह्रीं वल्गु-वल्गु निवल्गु निवल्गु सुश्रवण महाश्रवण ॐ ऋषभादि वर्धमानांतेभ्यो वषट् संवौषट् स्वाहा।" (उक्त जिन मन्त्र को बार बोलकर प्रतिमाओं को स्पर्श करावें) ॐ क्षीरसमुद्रवारि पूरितेन मणिमयमंगल कलशेन भगवदर्हत् प्रतिकृति स्नापयामः । (उक्त मन्त्र से प्रतिमाओं को शुद्ध जल से धोयें) ॐ नमो वृषभाय सर्वजन हितंकराय परमपुनीताय घे घे स्वाहा। (उक्त मन्त्र से चन्दन का लेप प्रतिमाओं पर करावें) ॐ नमोऽहंत परमेष्ठिभ्यः अप्रतिचक्रे फट विचकाय झौं शौं ब्रज ब्रज स्वाहा। उक्त मन्त्र से स्वच्छ वस्त्रों से सर्व बिंबाच्छादन करावें। निम्नलिखित मन्त्र से मंजूषिका में विधिनायक प्रतिमा स्थापित करावें ॐ नमोऽस्तु केवलिने परमयोगिने अनंत विशुद्ध परिणाम परिस्फुरच्छुक्लध्यानाग्नि निर्दग्ध कर्म बीजाय प्राप्तानंत चतुष्टयाय 'सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादश दोष रहिताय स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५७ 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातः गर्भ कल्याणक का उत्तर क्रिया दृश्य (१) नोट- प्रतिष्ठा चबूतरे पर भीतर एक परदा लगावें (जिसमें सिंहासन पर यज्ञनायक - यज्ञनायिका विराज रहे हों) और बाहर सभासद बैठे हों । बीच में छोटे सिंहासन पर मंजूषिका रख देवें । मंगलाचरण - (प्रातःकाल देवियों द्वारा मंगलगीत) अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधुपद वन्दन करें । निर्मल निजात गुण मनन कर पाप ताप शमन करें | अब रात्रितम विघटा सकल यह प्रात होत सुकाल है । भानु उदयाचल से आया नभ किया सब लाल है || पक्षी मनोहर शब्द बोले गंध पवन चलात है । चहुं ओर है भगवान सुमरण वह प्रफुल्लित गात है | बाजे बजें रमणीक माता गीत मंगल हो रहे । है कर्म नाशन समय सुंदर लाभ निज सुख लीजिये ॥ नोट- पूर्व रात्रि को देवियों का जो दृश्य था वही यहाँ दिखलाया जावे । १६ स्वप्नों का उल्लेख कर प्रतिष्ठाचार्य द्वारा क्रमशः उनका फल बतलाया जावे । नोट- महाराज व मरुदेवी का पार्ट यज्ञनायक व यज्ञनायिका कर सकते हैं, परन्तु वे माता ने या महाराज ऐसा कहा, ऐसा कह देवें । अन्य को प्रतिष्ठाचार्य समझा देवें । १५८ ] जिये शयन उठ जगत प्यारी, बिनती हम कर रहे ॥ है समय सामायिक मनोहर ध्यान आतम कीजिये । महारानी मरुदेवी ने महाराज से इस प्रकार कहा नाथ ! पिछली रात में हम सुपन सोलह देखिया । गज, बैल, सिंह, सुदेवि कमला न्हवन करत हि पेखिया ।। द्वय पुष्पमाल, सुचन्द्र पूरण, सूर्य, सुवरण कलश दो । युग मीन सरवर कमल युत सागर सु सिंहासन भलो || रमणीक स्वर्ग विमान उतरत नाग भवन सु आवतो । सुरतन राशि सुक्रांति पूरण अगनिधूम न पावनो ॥ तब अन्त में इक वृषभ मेरे मुख प्रवेश करत भया । इनको सुफल कहिये प्रभु मुझ दीन पर करके दया || महाराजा नाभिराय ने महारानी मरुदेवी से स्वप्नों के फल इस प्रकार कहे गज देखने से देवि तेरे पुत्र उत्तम होयगा । वर वृषभ का है फल यही वह जगतगुरु भी होयगा ॥ पुष्पमाला से वह उत्तम तीर्थ करता होयगा । कमला हवन का फल यही सुर गिरिन्हवन सुरपति करें | 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर पूर्ण शशि के देखने से जगत् जन सब सुख करें। वर सूर्य से वह हो प्रतापी कुंभ युग से निधिपति ॥ सुर को देखने से सुभग लक्षण धार होवे जिनपति । युगमीन खेलते देखने से हे प्रिये चित धर सुनो ।। होवे महा आनन्दमय वह पुत्र अनुपम गुण सुनो । सागर निरखते जगत् का गुरु सर्वज्ञानी होयगा ।। वर सिंह आसन देखने से राज्य स्वामी होयगा । अर सुर विमान सुफल यही वह स्वर्ग से चय होयगा ।। नागेन्द्र भवन विशाल से वह अवधिज्ञानी होयगा । बहुरत्न राशि दिखाव से वह गुण खजाना होयगा । वर धूप रहित जू अग्नि से वह कर्म ध्वंसक होयगा । वर वृषभ मुख परवेश फल, श्रीवृषभ तुझ वपु अवतरे । हे देवि तू पुण्यात्मा आनन्द मंगल नित भरे ।। (प्र.सं.) देवियों व माता के प्रश्नोत्तर नोट :- माता की जगह वही मंजूषा पहले से ही टेबिल पर स्थापित करें । प्रतिष्ठाचार्य प्रश्नों का उत्तर समझा देवें । देवियों से प्रश्न कहलावें- (ध्यान रखें कोई पलंग पर सचेतन माता बनाकर न बैठावें।) १. श्री देवी- प्रश्न : माता इस संसार में शरण भूत है कौन । __मम शंका वारण करो खोल आपको मौन ॥ उत्तर : निश्चै निज आतम शरण, अर्हदादि उपचार । आन न दूजो है शरण, यह मन में निरधार ।। २. ही देवि- प्रश्न : माता इस संसार में कौन अपूरव चीज। भव भय नाशक है, कहो मंगलकारी बीज ।। उत्तर : वीतराग विज्ञान है आत्मधर्म सुखमूल । स्वसंवेदन के जहाँ खिले मनोहर फूल ।। ३. धृति देवी- प्रश्न : जिसके हो वह सम्पदा पुत्र पौत्र परिवार । क्या वो सुखिया है नहीं, भोगे भोग अपार ।। उत्तर : इन्द्रधनुष सी सम्पदा स्वारथ मय परिवार। राग मूर्छा रहित ही, है सुखिया संसार । ४. कीर्ति देवी- प्रश्न : माने रिपु को मित्र समान ऐसा जग में कौन अजान । उत्तर : मोही जन परिवार लखाय, माने हितू सदा सुखदाय । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५९ _ 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. बुद्धि देवी- प्रश्न : जग में सुभट कौन है माय ? उत्तर : जे नर जीते विषय कषाय । ६. लक्ष्मी देवी-प्रश्न : कौन हने त्रय जग वश होय। उत्तर : मोह हने त्रय जग वश होय । ७. शान्ति देवी-प्रश्न : जग में कौन रतन है सार । उत्तर : सम्यग्दर्शन रतन अपार । ८. पुष्टि देवी- प्रश्न : जैनी कौन कहावे माय ? उत्तर : जे नर जीते विषय कषाय । प्रश्नोत्तर १. प्रश्न-कौन मात जग को वश करै? उत्तर : हित मित मिष्ट वचन उच्चरै । २. प्रश्न-मात कौन रोगी नहीं होय? उत्तर : जो विवेक से भोगी होय । ३. प्रश्न-मात कौन गुणों की खान? उत्तर : तीर्थकर सुत जने महान् । ४. प्रश्न-कौन धनी जग में सुखपाय ? उत्तर : संतोषी धनी सुखदाय । ५. प्रश्न- महिषी बतलाओ जिनवर क्या दे सकते हैं सुख दुःख नहीं ? जब तन है तो फिर है लगती क्या उन्हें भूख और प्यास नहीं ? उत्तर : होता अपना स्वामी निज ही भले बुरे का हर प्राणी । जब वीतराग हो गये कहाँ फिर भूख प्यास उनको मानी ।। ६. प्रश्न- हे महारानी ये प्राणी क्यों पाते हैं नाना क्लेश यहाँ ? दारिद दुःख सहकर भी क्यों नहीं जगता ज्ञान विवेक यहाँ ? उत्तर : है पूर्व पाप से मोही बनकर अगणित दुःख ये सहते हैं । बिन आत्म दृष्टि सद्ज्ञान नहीं सर्वज्ञ देव यह कहते हैं । ७. प्रश्न- हे मरुदेवी ! क्या हमें अभी मिल सकता मुक्ति प्रसंग नहीं । क्या मुक्ति प्रदायक तप कर, सकती भव का भंग नहीं । उत्तर : देवी देह में आई हो पायी नारी पर्याय यहाँ । समझो इन सर्व बबूलों से मिल सकते चंपक फूल कहाँ ।। १६०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ कल्याणक पूजा (हिन्दी) नोट :- सामने विनायक यंत्र व चौवीसी मंडल स्थापित करें । स्थापना छप्पय रतनवृष्टि सो करत, धनद सुरपति आज्ञा सिर । मास अगाऊ षट् सो, अर नव मास लगा झिर ॥ जनक-सदन लछमी निधि सोहत, उपमा किन मति ? जननि सुपन लख विमल गरभमें आये श्रीपति ॥ इहि विधि अनन्त महिमा धरन, सुख- समुद्र आनंद करन । दुख हरन स्थापन कर भविक, मन वच तन पूजत चरन ॥ ॐ ह्रीं श्री वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतिजिनसमूह गर्भकल्याणक प्राप्त अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इत्याह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतिजिनसमूह गर्भकल्याणक प्राप्त अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | (इति स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्री वृषभादिवीरान्त चतुर्विंशतिजिनसमूह गर्भकल्याणकप्राप्त अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (इति सन्निधीकरणम् ) अष्टक गीतिका छन्द शुचि कनक कुंभ लीयो सो भरकरि, नीर उज्ज्वल छानकैं । निरवारने तिरषा सु कारन, कुमति उर बिच भान | छप्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानि ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री गर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । शीतल सु चन्दन दुखनिकन्दन, मलयगिरि मनभावनो । केशर कपूर मिलाय श्रीजिनराज पूजन लावनो ॥ छप्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ||२|| ॐ ह्रीं श्री गर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। सुन्दर प्रकाश उजास अक्षत, चन्द्रज्योति प्रकाशते । मोती समान अखंड धोकर, पूँज पावत भाषते ॥ छप्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानि । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ||३|| ॐ ह्रीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ १६१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्टसों उत्कृष्ट पहुप, सुगंध सरस सुहावने । अरु कामको निर्मूल कारन, चढ़त श्रीजिन पावने ॥ छप्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकै ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । रस रसत सरस सुहात नेत्रन, अमल शुद्ध पिछानकैं । जिनराज चरन चढ़ाय प्रीतम, क्षुधा भागत जानकैं ।। छप्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ||५|| ॐ हीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्दपामीति स्वाहा। , दीपक प्रकाश सुहात सुन्दर, पात्र में धर नायकैं । अज्ञान-तिमिर विनाश कारन, करत आरति गायकैं । छ प्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ।।६।। ॐ ह्रीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । चन्दन सु अगर सुगंध सुन्दर, मलय धूप दशांक सो | खेवहुँ सु पावक माहिं जिन तट, जरत कर्म कुसंग सो ॥ छ प्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकै । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ।।७।। ॐ ह्रीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । खारक बदाम सो लायची, लोंगादि पुंगीफल सुधे । जिनराज चरन चढ़ाय अनुक्रम, मुकति-फल पावत बुधे ।। छ प्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिक । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ।८।। ॐ ह्रीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिवीरान्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । जल गंध अक्षत पुष्प नेवज, दीप धूप सु फल भले । ये द्रव्य अरघ बनाय रुचिकर, चढ़त श्रीजिन अघ टले ।। छ प्पन सो देवी करत सेवा, सरस उत्सव ठानिकैं । हरषायकर जिनचरन पूजत, सरब आरत हानिकैं ।।९।। ॐ हीं श्रीगर्भकल्याणकप्राप्तेभ्यो वृषभादिदीरान्तेभ्यो अनर्घपदप्राप्तयेऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । १६२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक पूजा चौपाई दोज अषाढ़ कृष्ण पखवारा, सरवारथसिधिसों अवतारा । नाभिराय के घर सुखदाये, मरुदेवी के उर में आये ॥१|| ॐ हीं आषाढकृष्णद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीऋषभदेवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जेठ अमावस वदि दिन सारा, विजय विमान त्याग अवतारा। जितशत्रू घर त्रिय सुखधामा, विजया कूख बसे अभिरामा ॥२॥ ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णाऽमावस्यायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअजितजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । फागुन सुदी आठे दिन खासा, ग्रैवेयक को तजकर वासा । नृप जितारि रमणी गुण सारे, नाम सुसेना गर्भ पधारे ||३|| ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लाष्टम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसम्भवजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । विजय विमान त्याग थिति भाना, सुदि वैशाख षष्टमी ठाना। संवरराय त्रिया गुन खरे, सिद्धार्था के उर अवतरे ॥४॥ ॐ हीं वैशाखशुक्लषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीअभिनन्दनजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । सावन सुदि दोयज दरसाये, विजय विमान त्यागकर आये। नृपति मेघप्रभ तिय सुखकारा, नाम मंगला उर अवतारा ।।५।। ॐ हीं श्रावणशुक्लद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा | माघ बदी छठ दिन अभिरामा, ऊरध ग्रैवेयक तज धामा । धारनीश राजा सुख पाये, मात सुसीमा के उर आये ॥६॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपप्रभजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा | भादव सुदि छठ मंगलकारी, सुप्रतिष्ठत राजा गुणधारी । माता पृथ्वी के उर आए, मध्यम ग्रैवेयक तैं चाए ॥७॥ ॐ ही भाद्रपदशुक्लषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा । चैत वदी पंचमी शुभ थानै, वैजयंत तजिकैं सो विमानै । मात सु लक्ष्मणा के उर आए, महासेन राजा मन भाए ॥८॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । आरनसे तजकर परजायो, रामादेवी के उर जायो । नृप सुग्रीव महा उतसायो, फागुनवदि नवमी दिन गायो ।।९।। ॐ हीं फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । चैत्र वदी आट तिथि खासी, अच्युत स्वर्ग तजकें सुखरासी। दृढरथ भूप सुनंदा देवी, उपजे कूख सबन सुख लेवी ॥१०॥ ॐ हीं चैत्रकृष्णाष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१६३ _ 2010_05 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहन विमल नृपति उपकारी, विमलादेवी गुण आचारी । पुष्पोत्तर तजि जनम सो लीनो, जेठ वदी छठ दिन शुभ कीनो ॥११॥ ॐ ही ज्येष्ठकृष्णषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । तजत भए महाशुक्र सु नाका, दिन आषाढ़ वदि छठ हित ताका । राजा श्रीवसुपूज्य पियारे, देवी विजया कूख सिधारे ॥१२॥ ॐ हीं आषादकृष्णषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । जेठ वदी दशमी दिन भारी, स्वर्ग तजो बारम सहस्रारी । कृतवर्मा राजा त्रिय पाये, श्यामा नाम कूख पधराये ॥१३॥ ॐ ही ज्येष्ठकृष्णदशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक वदि परमा दिन खासा, पुष्पोत्तर को तजकै बासा । सिंहसेन बड़भागी ताता, कूख बसे जयश्यामा माता ॥१४॥ ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णप्रतिपहिवसे गर्भमंगलमंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा राजा भानु भयो उत्साहा, सुवृतादेवी सती सु आहा । ता उर सर्वारयतें आये, आठे सुदि वैशाख बताये ॥१५॥ ॐ ही वैशास्वशुक्लाष्टम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । भादव वदि सातें व्रत भारी, सर्वारथसिधि तज गुणधारी । विश्वसेन राजा अति प्यारी, आइराउर आये सुखकारी ॥१६॥ ॐ ही भादपदकृष्णसप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । सावन वदि दशमी जग जाने, सरवारथसिधितें सु प्रयाने । सूरसेन राजा गुणरासा, श्रीमति मातु कूख सुख वासा ||१७|| ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णदशम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथ जिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अपराजित विमान तज आए, माता मित्रा कूख बसाए । फागुन सुदी तीज सुखकारी, नृपति सुदर्शन महिमा भारी ॥१८॥ ॐ ही फाल्गुनशुक्लतृतीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । राजा कुम्भराय व्रतवानी, तासु प्रिया सुप्रभावति रानी । अपराजित विमान तज डेरा, चैत्र सुदी परमा शुभ वेरा ॥१९॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपहिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । प्रानत स्वर्ग त्याग जिनराजा, सावन वदी दोज सुखसाजा । तात सुमित्र सु विजया माई, जनन लयो त्रिभुवन के साई ॥२०॥ ॐ हीं श्रावणकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । १६४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयराज शोभत नृप ज्ञानी, आश्विन वदि शुभ दोज बखानी। अपराजित विमान तज आए, विप्रा देवी कूख बसाए ॥२१॥ ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णद्वितीयायां गर्भावतरणमंगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । कार्तिक सुदि छठ सब शुभ माने, आए तज सुजयंत विमाने । समुदविजय शिवदिव्या रानी, ता उर जनम लियो निज ज्ञानी ।।२२।। ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठ्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । प्रानत स्वर्ग त्यागकर आए, वदि वैशाख दोज गुण गाए । विश्वसेन घर वामा रानी, ता उर ज्ञान बसे सुखकानी ॥२३।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा | तजकर पुष्पोत्तर बड़भागी, तिथि आषाढ़ सुदी छठ लागी । सिद्धारथ राजा सुख पाए, प्रियकारिनी देवी उर आए ॥२४|| ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । गीतिका छंद मन वचन काय त्रि शुद्ध करकें, चतुर्विशति जिन जजों । श्रीगर्भकल्याणक सु महिमा, बार बारहिं उर भजों ॥ जिन जजत पाप समूह नाशें, सुखनिधान सु पावहिं । सब दुख निवारन सेव जिनकी, होत मंगल भावहीं ॥२५|| ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो गर्भमंगलमंडितेभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला दोहा शोधन गर्भ सु वस्तुकर, षट् कुमारिका आद । बहु देवी सेवा करत, निशि दिन घर आल्हाद ।। पद्धरि छंद षट् मास अगाऊ करत सेव, छप्पन देवी उर भक्ति लेव । नित रत्नवृष्टि होवत विख्यात, सब जन आनंद कर भाँत भाँत ॥१॥ तब धनपति नगर सिंगार सार, बहु रतन हेममय रच अपार । षट् मास गए तब मात रैन, सुपने सोलह शुभ लखे ऐन ।।२।। पति पास गई फल पूछि सार, सुनि जाई घर आनंद अपार । फिर इन्द्रादिक आए न वार, करि कल्याणक गर्भावतार ||३|| उत्सव कीनो अति ही महंत, पुनि निज थानक पहुँचे तुरन्त । अब सुसों निर्मल मह प्रभाव, सेवत सुरंगना धर उछाव ||४|| 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुचि गर्भ स्थिति मह दीप्तिवान, त्रय ज्ञान सु भूषत गुण निधान । तन वज्रवृषभनाराच धरन, सुन्दर सरूप दुति सरम करन ||५|| शत आठ सु लक्षन रचत तास, नौ सै विजन सोहत विख्यात । सबके प्रियतम भविजन सु मात, जिनकी महिमा जग है विख्यात ।।६।। दरपन कोई इक लिये हाथ, कोई धर्म-कथा कहि नमत माथ । कोई झारी कोइक पहुपमाल, कोई गहत बीजना नमत भाल ||७|| बूझत केई मिलकर गूढ़ अर्थ, तिन ज्वाब कहत जननी समर्थ । परिजन पुरजन सुर हरष गात, जिन पुण्य महातम कहो न जात ||८|| सोरठा इहिविधि गर्भकल्याणको, को कवि वरनन करि सके । जाको पढ़त सुजान, विघन-हरन मंगल करन ॥९।। गीतिका छंद हरषाय गाय जिनेन्द्र पूजत, पंचकल्याणक भले । बहु पुण्य की बढ़वार जाके, विघन जात टले गले ।। जाके सुफल कर देह सुन्दर, रोग शोक न आवहीं । धन धान्य पुत्र सुरेन्द्र सम्पति, राजा निज सुख पावहीं ।।१०।। इत्याशीर्वादः (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।) भगवान् आदिनाथ के पूर्व भव नोट :- चित्र तैयार करवा कर दिखलाये जावें । चाहें तो रात्रि को सभा में दिखलायें । १. जयवर्मा (राजपुत्र)- मुनि दीक्षा लेकर तप करते समय सर्प ने डस लिया । शांत भाव से प्राण छोड़े। सम्यक्त्व की ओर पग बढ़ाया। २. महाबल नरेश- चार मंत्रियों से चर्चा करते हुए स्वयंबुद्ध मंत्री द्वारा संबोधित होकर मुनिदीक्षा । ३. ललितांग देव- देवांगनाओं के साथ भोग भोगते हुए आत्मदृष्टि स्वयंप्रभा देवांगना की विरक्ति । ४. राजावज्र जंघ और श्रीमती- स्वयंप्रभा स्वर्ग से चयकर श्रीमती हुई । ललितांग वज्रजंघ हुआ। मुनिदान दिया। ५. उत्तम भोग भूमि में युगल दंपत्ति- स्वयंबुद्ध मंत्री प्रीतंकर मुनि होकर चारण मुनि के साथ, इस दम्पत्ति युगल को संबोधा। ६. श्रीधरदेव और उसके द्वारा शतमति मंत्री (नरक में उत्पन्न) को उपदेश दना । १६६] प्रतिष्ठा-प्रदीप 2010_05 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधरदेव (वज्रजंघ का जीव) दूसरे स्वर्ग में देव श्रीमती का जीव वहीं स्वयंप्रभ देव हुआ, दोनों धर चर्चा करते हैं। ७. सुबिधि राजपुत्र धर्माराधन करते हुए- श्रीधरदेव सुसीमा नगर का राजपुत्र श्रीमती का जीव (स्वयंप्रभ देव) उन्हीं के केशव नामक पुत्र ने श्रावक व्रत व मुनिव्रत लेकर सल्लेखना की। ८. अच्युत स्वर्ग में इन्द्र प्रतीन्द्र- वज्रजंघ का जीव इन्द्र-इन्द्राणी के साथ भोग भोगते हुए श्रीमत का जीव (केशव) वहीं प्रतीन्द्र । दोनों धर्म चर्चा करते हुए। ९. वज्रनाभि चक्रवर्ती और धनदेव गृहपति-वज्रजंघ का जीव १६वें स्वर्ग से चयकर विदेह क्षेत्र में वज्रसेन राजा व श्रीकांता रानी का पुत्र वज्रनाभि, श्रीमती का जीव गृहपति धनदेव हुआ । वज्रनाभि अपने भाइयों के साथ मुनि हुए। वज्रसेन तीर्थंकर के पादमूल में सोलह कारण भावना भायी। १०. सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र- वज्रजंघ का जीव अहमिन्द्र हुआ । अन्य अहमिन्द्रों के साथ चच करते हुए। ११. ऋषभदेव तीर्थंकर (वज्रजंघ का जीव हुआ)। जन्म कल्याणक नोट- पर्दा खोलने व जन्म बताने के पूर्व की क्रियायें। मंजूषा में से बाहर निकालकर विधिनायक के वस्त्र दूर करके चौकी पर विराजमान करना, नीचे वर्धमान यंत्र स्थापित करना । इसी प्रकार समस्त प्रतिमाओं के वस्त्र दूर करना । इस कार्य के लिए निम्नलिखित मन्त्र शुभे विलग्ने सुनवांके वा, जिनेन्द्र जन्म प्रबभूव यद्वत् । मंजूषिकांतर्गतमाशु बिंबम्, निष्कासयेदार्यवर : कराभ्यां । प्रतिमा को मंजूषा से बाहर निकाल लैवें देवानां नमयन् शिरांसि सुमनांस्याकंपयन्नासना न्यभ्रं निर्मलयन् सदिक्सुमनसो देवद्रुमैवर्षयन् ॥ जन्यन्शीत सुगंधि मन्दमनिलं यः सिंधु मुढेलयन् । आधुन्वन् स धराधरं च निरगात् कुक्षेः शुभेक्षैष सः ।। ॐ ह्रीं त्रैलोक्योद्धरण धीर जिनेन्द्रं भदासने उपवेशयामि स्वाहा। (प्रतिमाओं के वस्त्र निकाल लेवें) ॐ ह्रीं अहँ नमः परमेष्ठिभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं अहँ नमः परमात्मकेभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनादि निधनेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमो नृसुरासुर पूजितेभ्यः स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत ज्ञानेभ्यः स्वाहा। ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत दर्शनेभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत वीर्येभ्यः स्वाहा । ॐ ह्रीं अहँ नमोऽनंत सौख्येभयः स्वाहा। _ (पुष्पांजलि) ॐ ह्रीं धात्रे वषट् । ॐ उसहाय दिव्यदेहाय सज्जोजादाय महप्पण्णाय अणंत चउट्ठयाय परमसुह पइट्ठिर णिम्मलाय सयंभवे अजरामर परमपदपत्ताय मम इत्थविसण्णिहिदाय स्वाहा । इस मन्त्र से ७ बार प्रतिमाओं को इन्द्र से स्पर्श करावें । ॐ ह्रां ही हूं हौं हः श्री सिद्ध चक्राधिपतये अष्टगुण समृद्धाय फट् स्वाहा | (पुष्प क्षेपण) जिनमन्त्र ॐ अर्हद्भ्यो नमः। नव केवललब्धिभ्यो नमः । क्षीर स्वादुलब्धिभ्यो नमः । मधुर स्वादुलब्धिभ्यो नमः । संभिन्न श्रोतृभ्यो नमः । पादानुसारिभ्यो नमः । कोष्ठ बुद्धिभ्यो नमः । बीज बुद्धिभ्यो नमः | सर्वावधिभ्यो नमः । परमावधिभ्यो नमः । ॐ ह्रीं वल्गु वल्गु निवल्गु निवल्गु सुश्रवण महाश्रवण ॐ वृषभादि वर्धमानांतेभ्यो वषट् संवौषट् । (७ बार प्रतिमाओं का स्पर्श करें) वर्धमान यंत्र ॐ णमो भयवदो वड्डमाणस्स रिसहस्स जस्स चक्कं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जूये वा विवाए वा रणंगणे वा गमणे वा थंभणे वा मोहणे वा सव्वजीवाणं अपराजिदो भवदु मे रक्ख रक्ख स्वाहा। इस मन्त्र को ७ बार बोलें, प्रत्येक प्रतिमाओं का स्पर्श करें। सिद्ध, श्रुत, चारित्र, शान्ति भक्ति पाठ करें धूली पल्लव मंगलौषधि फल त्वरमूल सौषधी । संपृक्ता बिल तीर्थवारि सुभृतैर्मन्त्रातिपूतैर्घटैः ॥ अष्टाभिः स्वपदे स्थितं स्थिर मुदा वेद्यांचलं चारु तद् । बिंबं चाकर शुद्धि सेचनमिदं तज्जात कर्पिये ।। उक्त मन्त्र बोलकर क्वाथ युक्त चार कलशों पर पुष्प क्षेपण करें। (प्र.सा., पृष्ठ ९६) ॐ ह्रीं मंगल द्रव्यौषधि क्वाथेयुक्त कलशैः जिन प्रतिमाभिषेकं कुर्मः । ॐ ह्रीं क्षीर समुद्रवारि पूरितेन मणिमय मंगल कलशेन भगवदर्हत् प्रतिकृति स्नापयामः । १६८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्रीं ह्रीं अं वं मं हं सं तं पं झ्वी क्ष्वी हं सः नमोऽर्हते स्वाहा। उक्त चार मन्त्रों से अभिषेक व पुष्प क्षेपण करें। पश्चात् कल्पवासी देवों के यहाँ घंटा ज्योतिषियों के यहाँ सिंहनाद, व्यंतरदेवों के यहाँ ढोल एवं भवनवासियों के यहाँ शंखनाद तथा बाजे बजाने को माइक में संकेत करते हुए बाहर का पर्दा हटा देवें । जय जयकार हो और (ऋषभदेव के जन्म की घोषणा करें।) (बाहर का पर्दा लगावें) मंगलाचरण जय जय जिन स्वामी अन्तरयामी, परमातम सब दोष हरें । निजज्ञान प्रकाशें भ्रमतम नाशें, शुद्धातम शिवराज करें । तुम अनुभव सागर अमृत गागर, जो भरकर निजकंठ धरें । सो सुख निज पावें क्षोभ मिटावें, कर्मबंध का नाश करें । इन्द्र सभा सौधर्म- अहो ! आज यह मेरा सिंहासन क्यों कंपायमान हो रहा है ? मुझे अवधिज्ञान द्वारा विदित हो रहा है कि मध्यलोक में भगवान् ऋषभदेव का जन्म हो गया है। (बोलिये भगवान् ऋषभदेव की जय) सिंहासन से नीचे उतरकर सात पग आगे जाकर जय जयकार करते हैं। (कुबेर से)- कुबेर ! मध्यलोक में जाने के लिये शीघ्र ही तैयारी करो और ऐरावत हाथी को सजाओ। कुबेर- स्वामिन् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । मैं शीघ्र ही सभी प्रकार की सेना तैयार करता हूँ। १. सौधर्म इन्द्राणी- आज हम बड़े पुण्यशाली हैं कि धर्मतीर्थकर्ता प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुआ है। २. ईशान इन्द्र- हमें तीर्थंकर प्रभु के जन्म-कल्याणक मनाने का नियोग पूरा करना है। इसमें हमारा हिस्सा भी कम नहीं है। ईशान इन्द्राणी- इन्द्रों के साथ इन्द्राणियाँ भी भाग लेती हैं, यह क्या कम पुण्य की बात है। ३. सनतकुमार इन्द्र- भगवान् का जब जन्म होता है तब तीनों लोकों में उसका प्रभाव छा जाता है। नरक तक में क्षणभर नारकियों को शांति का अनुभव होता है। सनतकुमार इन्द्राणी- भगवान् असाधारण पुरुष होते हैं, जिनके शरीर में भी विशेषता होती है। ४. महेन्द्र इन्द्र- सत्य है उनके शरीर में पसीना, मल, मूत्र नहीं होता । आहार तो होता है, नीहार नहीं। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १६९ ___ JainEducation International 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेन्द्र इन्द्राणी- उनके शरीर का रुधिर भी सफेद होता है और शरीर का आकार समचतुरस्र संस्थान का होता है । ५. ब्रह्म इन्द्र- भगवान् के शरीर का संहनन वज्रवृषभ-नाराच होता है अर्थात् उनके शरीर की हड्डियाँ वज्रमय और वेष्टन व कीली भी वज्र सहित होती है । ब्रह्म इन्द्राणी- परन्तु हम देवों के शरीर में रस, रक्त, हड्डी, मांस आदि सात धातु न होने से संहनन नहीं होते । ६. लांव इन्द्र- हम लोग वैक्रियिक शरीर वाले हैं। हमारा बिना धातु का शरीर तो होता ही है, परन्तु हम आहार भी नहीं करते । इन्द्राणी - हमें भूख अवश्य लगती है परन्तु इच्छा होते ही तत्काल कंठ तृप्ति हो जाती है । अमृत झर जाता है और ७. महाशुक्र इन्द्र- भगवान् का रूप अनुपम होता है जिसको देखने के लिए हम तरसते हैं। इन्द्राणी - भगवान् के शरीर में सुगंध आती है और १००८ शुभ लक्षण होते हैं । ८. सहस्रार इन्द्र- हमें मिलकर जन्माभिषेक के लिए मध्यलोक जाना है, वहाँ महारानी मरुदेवी के पास से ऋषभदेव बालक को लाना होगा । इन्द्राणी - हम इन्द्राणियों में से प्रथम इन्द्राणी ही गर्भगृह में जाकर सोती हुई माता के पास से ऋषभदेव बालक को ला सकती हैं । ९. आनत इन्द्र- मेरु पर्वत की पूर्व दिशा के पांडुक वन की पांडुक शिला में भगवान् को विराजमान कर १००८ कलशों से अभिषेक होगा । इन्द्राणी - जन्माभिषेक इन्द्रगण पाँचवें समुद्र क्षीरसागर के जल से करते हैं । १०. प्राणत इन्द्र- अढ़ाई द्वीप के आगे मनुष्य नहीं जा सकते इसलिये उस समुद्र का जल इन्द्र ही लाते हैं । इन्द्राणी - हम इन्द्र-इन्द्राणी ही आठवें द्वीप नंदीश्वर में जाकर वहाँ ५२ अकृत्रिम चैत्यालय की पूजा करते हैं । ११. आरण इन्द्र- भगवान् का जन्म कल्याणक मनाने के लिए ऐरावत हाथी को लेकर हम जावेंगे। वह एक लाख योजन का है। उसकी रचना अपूर्व है । इन्द्राणी - देवों में इन्द्र, सामानिक आदि दश प्रकार की कल्पना होती है उनमें आभियोग्य जाति के देवों में ऐरावत है, जो ऐरावत हाथी बनकर सवारी के काम आता है । १२. अच्युत इन्द्र- यह सब पुण्य के वैभव की चर्चा है जो हम कर रहे हैं, परन्तु यह सब जिसके बल पर है उस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के महत्त्व को भी जानना चाहिये । १७० ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्राणी- हम तो भगवान् की भक्ति को ही सम्यग्दर्शन समझती हैं हमें उनकी मूर्ति की पूजा में भी अधिक आनन्द आता है। १३. ईशान इन्द्र- बाहर सच्ची शक्ति और पूजा भी वही करता है जिसे अपने हृदय के भीतर के परमात्मा के प्रति श्रद्धा हो चुकी है। इन्द्राणी- क्या हमारी यह बाहर की भक्ति व पूजा सार्थक और सफल नहीं मानी जायेगी ? १. सनतकुमार इन्द्र- यह पंचकल्याणक पूजा प्रतिष्ठा भी उन्हीं परमात्मा की है, जिन्होंने आत्मा में स्वरूप की अनुभूति या साक्षात्कार कर लिया है। इन्द्राणी- इसका मतलब यह हुआ कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मपना विद्यमान है, उसे मोहवश वह भूले हुए है। २. महेन्द्र इन्द्र- जब तक मोहरूपी अंधकार है, तब तक कोई भी संसारी प्राणी अपनी देह में रहने वाली चैतन्य शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इन्द्राणी- हमारा जीवन भोग-विलासमय होने से आत्मा दिव्यज्योति का प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकती। ३. ब्रह्म इन्द्र- आत्मज्योति के दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है ? जो सप्तम नरक तक में हो सकता है। नारी पर्याय में भी वह प्राप्त होता है। इन्द्राणी-इसीलिए भगवान् के पंचकल्याणक को मनाना सम्यग्दर्शन का मुख्य साधन माना गया है। ४. लांतव इन्द्र- जब सम्यग्दर्शन का प्रमुख साधन जिनेन्द्र पूजा-भक्ति है तो हमें श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिये। इन्द्राणी- जिनेन्द्र पूजा सांसारिक भोगों में लीन लोगों के लिए सबसे अधिक सुगम है। ५. महाशुक्र इन्द्र- अन्य सब शुभ कार्य हम लोगों के लिए बहुत कठिन हैं अतः यथाशक्ति उल्लासर्पूवक जिनेन्द्र भक्ति में चित्त लगाना चाहिये। इन्द्राणी- अकेले जिनेन्द्र-भक्ति ही जीवों को संसार की समस्त दुर्गतियों से बचाकर सुगति की ओर ले जाने में समर्थ है। ६. सहस्रार इन्द्र- पूर्व जन्मों में उपार्जित पाप कर्मों का नाश भी जिनेन्द्र पूजा-भक्ति से ही होता है। वर्तमान विपत्तियाँ भी इसी से दूर होती हैं। इन्द्राणी- शुद्ध जिनेन्द्र भक्ति संसार रूपी जाल को छिन्न-भिन्न कर अनंत सुख का स्थान मुक्ति को प्राप्त कराती है। ७. आनत इन्द्र- अरहंत परमात्मा की पूजा-भक्ति का साक्षात् समागम नहीं मिलने पर उनकी वीतराग प्रतिमा की पूजा भी वैसा ही फल देती है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१७१ 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्राणी- जिन प्रतिमा जिनेन्द्रदेव के आदर्श का प्रतीक है, अतः प्रतिदिन शुभ भावों से प्रतिमा की भक्ति, साक्षात् जिनेन्द्रदेव की भक्ति मानी जाती है। ८. प्राणत इन्द्र- जिन जीवों ने पूर्व भवों में वीतराग प्रभु की प्रतिमा की शुद्ध भाव और द्रव्य से उपासना की, वे ही आगे चलकर त्रैलोक्य पूज्य तीर्थंकर हुए हैं। इन्द्राणी- जिनेन्द्र पूजा से नारी-पर्याय भेदकर नारी नर-पर्याय को प्राप्त होती है। ९. आरण इन्द्र- जो प्रतिमा में लोकोपकारी तीर्थंकरों की स्थापना कर विधिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं, वे तीर्थंकर पद को पाकर संसार के समक्ष मोक्ष का मार्ग प्रस्तुत करते हैं। __इन्द्राणी- वास्तव में इस संसार में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु परमेष्ठी के सिवाय जीव का कोई अन्य शरण नहीं है। १०. अच्युत इन्द्र- अन्य सर्व की शरण को त्यागकर पंचपरमेष्ठी का शरण ग्रहण करने से ही शांति प्राप्त होती है, परन्तु इससे आगे बढ़ने पर अपने आत्मा की ही शरण करना पड़ता है। इन्द्राणी- हम देव पर्याय में हैं और कहा जाता है कि हम पुण्यवान् और सुखी हैं, परन्तु हम विषय चाह की दाह से जल रहे हैं, इसे हम स्वयं जान रहे हैं। सौधर्म- आइये, सर्वदेवगण भगवान् आदिनाथ के जन्म कल्याणक हेतु मध्यलोक में चलें । (परदा लगावें) अयोध्या में इन्द्रागमन मंडप (अयोध्या) में आकर इन्द्रों का हाथी पर बैठे-बैठे तीन या एक बार प्रदक्षिणा देना, तब तक देवियों द्वारा नृत्य। मंडप के सामने उतरकर जय जयकार करते हुए वेदी पर सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी का आना, इन्द्र का इन्द्राणी के प्रति देवी जाहु प्रसूतिघर, लावो तीर्थ कुमार । माता कष्ट न होय कछु, राखो यही विचार । परदे के भीतर इन्द्राणी का विनय सहित मंजूषा के पास मायामयी शिशु रखकर तीर्थंकर मूर्ति बाहर लाना और इन्द्र को सौंपना । इन्द्र का सहस्र नेत्र से दर्शन कर हाथी पर विराजमान करना, मेरू पर शोभायात्रा सहित जाना। ऐरावत- आभियोग्य जाति का देव । एक लाख योजन का उन्नत । १०० मुख ४८ दंत व उन पर सरोवर /००x१२५ कमलिनी पत्येक पर गणा २५ कमल व उन पर १०८ पत्र प्रत्येक पत्र पर अप्सरायें नृत्य करती हईं कुल अप्सरायें ६,७५,००,०००। प्रथम ही पांडक वन में पांडक शिला के ऊपर ईशान कोण में पूर्व मुख प्रभु को विराजमान करें । सौधर्म भगवान् को लेते हैं | ईशान छत्र लगाते हैं । सनतकुमार व महेन्द्र चमर ढोरते हैं। १७२] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जन्म कल्याणक - आवश्यक सामग्री - +काढा ४ प्रकार के क्वाथ + पुष्प + घंटा झालर + ढुंदुभि + ढोल आदि वाद्य यंत्र + मायामयी | शिशु वर्धमान यंत्र + मातृका यंत्र + चौवीस महाराज यंत्र + पूजा द्रव्य + पाण्डुक शिला सामग्री + अभिषेक जल + कलशे + अर्ध-चन्द्राकार शिला + विधिनायक प्रतिमा के २ जोड़ी वस्त्रआभूषण (हार, मुकुट, माला, कुंडल, तिलक, कलंगी) + हाथी + पंचवर्ण सूत्र (नाडा) + कर्पूर + माचिस + पूजा द्रव्य + दूध + सभी प्रतिमाओं के वस्त्र + पलना + गादी + तकिया + डोरी बाल क्रीड़ा खिलौने 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्माभिषेक व तत् सम्बन्धी क्रियायें पांडुक शिला को - ॐ ह्रीं श्रीं श्रीं भूः स्वाहा' मन्त्र द्वारा जल से शुद्ध करें । हाथी पर उसकी तीन प्रदक्षिणा देकर उस पर से इन्द्र भगवान् को पाण्डुक शिला पर लावें । ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठः ठः स्वाहा । मन्त्र से पीठ स्थापन करें । ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रजलेन पीठ प्रक्षालनं करोमि स्वाहा । मन्त्र से पीठ प्रक्षालन करें। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं श्रीलेखनं करोमि (श्रीलेखन) ॐ नमोऽर्हते केवलिने परम योगिने अनंत विशुद्ध परिणाम परिस्फुरत् शुक्ल ध्यानाग्नि निर्दग्ध कर्म बीजाय प्राप्तानंत चतुष्ट्याय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादश दोष रहिताय स्वाहा । ॐ त्रैलोक्योद्धरण धीरं जिनेन्द्रं भद्रासने उपवेशयामि स्वाहा । (भद्रासने प्रतिमा स्थापनम् ) अस्मिन् चित्रे जन्म-कल्याणकमारोपयामि | (पुष्पांजलिः) अभिषेक मन्त्र ॐ क्षीरसमुद्र वारि पूरितेन मणिमय मंगल कलशेन भगवदर्हत्प्रतिकृति स्नापयामः । ॐ श्रीं ह्रीं हं वं मं हं सं तं पं झवीं क्ष्वीं हं सः नमोऽर्हते स्वाहा । पहले १००८ कलशों से इन्द्रगण अभिषेक कर लेवें । पश्चात् अन्य पुरुष शुद्ध धोती, दुपट्टा पहनकर अभिषेक करें | अभिषेक का जल अधिक समय का होने पर छान लेना चाहिये । अभिषेक पश्चात् पर्दा लगाकर इन्द्राणी द्वारा प्रतिमा को 'ॐ झं वं हवः पः झवीं क्ष्वीं स्वाहा । मन्त्र से चन्दन लेप करावें । ॐ ह्रीं जिनांग विविध वस्त्राभरणैः विभूषयामः । (वस्त्राभूषण पहनावें) ॐ ह्रीं श्रीं तीर्थंकरांगुष्ठेऽमृतं स्थापयामि । (दुग्ध द्वारा अमृत स्थापन) दक्षिण पाद में वृषभ चिन्ह देखकर वृषभ चिन्ह प्रकट करें । आँखों में अंजन, कंकण बंधन । कर्णबध । आरती । (पर्दा खोल देवें) चाहें तो चौबीसी मण्डल मांडकर व यंत्र विराजमान कर जन्म कल्याणक पूजा इन्द्रों से करा लेवें । पश्चात् ऐरावत पर प्रतिमा विराजमान कर वापस शोभायात्रा मण्डप में लावें । मण्डप में वेदी पर प्रतिमा विराजमान कर इन्द्रों द्वारा तांडव नृत्य करावें । पुनः यहीं जन्म कल्याणक पूजा, यंत्र विराजमान कर चौबीस मण्डल मांडकर करावें । जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ २५९ में संस्कृत भाषा की हिन्दी का भाव इस प्रकार है कि माता-पिता की गोद अर्थात् मंडप की वेदी पर भद्रासन में प्रतिमा विराजमान करें । नोट- मण्डप में अन्य प्रतिमाओं पर विधि नायक के समान समस्त विधि करें । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ १७३ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म कल्याणक पूजा (हिन्दी) स्थापना गीता छन्द जिन नाथ चौविस पूजा करत हम उमगाय । जग जन्म लेके जग उधारो ज● हम चितलाय ।। तिन जन्म कल्याणक सु उत्सव इन्द्र आय सुकीन । हम हूं सुमर ता समयको पूजत हिये शुचि कीन । ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतितीर्थकराः जन्मकल्याणक प्राप्ताः अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । आहवाननम् । ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतितीर्थंकराः जन्मकल्याणक प्राप्ताः अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री पभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतितीर्थंकराः जन्मकल्याणक प्राप्ताः अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् सन्निधीकरणम्। छन्द चाली जल निर्मल धार कटोरी, पूजूं जिन निज करजोड़ी । पद पूजन करहूँ बनाई, जासे ' भवजल तरजाई ।। ॐ हीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । चंदन केशरमय लाऊं, भवकी आताप शमाऊं । पद पूजन करहुँ बनाई, जामे भवजल तरजाई ॥ ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्दपामीति स्वाहा । अक्षत शुभ धोकर लाऊं, अक्षय गुणको झलकाऊं । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भवजल तरजाई । ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेन्यो जहमकल्याणकप्राप्तेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। सुन्दर पुहपनि चुनि लाऊं, निज काम व्यथा हटवाऊँ । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भवजल तरजाई ॥ ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेन्यो जठमकल्याणकप्राप्तेभ्यो कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। पकवान मधुर शुचि लाऊं, हनि रोग क्षुधा सुख पाऊं । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भवजल तरजाई ॥ ॐ ही ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मकल्याणकप्राप्तेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय चलं निर्वपामीति स्वाहा। १७४ ] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपक करके उजियारा, निज मोह तिमिर निरवारा । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भवजल तरजाई । ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मकल्याणकप्राप्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्दपामीति स्वाहा। धूपायन धूर खिवाऊं , निज अष्ट करम जलवाऊं । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भव जल तरजाई ।। ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेग्यो जन्मकल्याणकप्राप्तेश्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। फल उत्तम उत्तम लाऊं, शिवफल जासे उपजाऊं । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भव जल तरजाई । ॐ ही ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मकल्याणकप्राप्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। सब आठों द्रव्य मिलाऊं, मैं आठों गुण झलकाऊं । पद पूजन करहुं बनाई, जासे भव जल तरजाई ।। ॐ ह्रीं ऋषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थंकरेन्यो जदमकल्याणकप्राप्तेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपानीति स्वाहा। प्रत्येक के २४ अर्घ्य वदी चैत नवमि शुभ गाई, मरुदेवी जने हरषाई । श्री रिषभनाथ युग आदी, पूजू भवमेटी अनादी ॥१॥ ॐ ह्रीं चैप्रकृष्णा नवम्यां श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जटमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । दसमी शुभ माघ वदी की, विजया माता जिनजी की । उपजे श्री अजित जिनेशा, पूजू मेटो सब क्लेशा ॥२॥ ॐ ह्रीं माघवदी दशम्यां श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय जटमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक सुदि पूरणमासी, माता सुसैन हुल्लासी । श्री संभवनाथ प्रकाशे, पूजत आपा पर भाशे ॥३।। ॐ हीं कार्तिकशुक्ला पूर्णमावस्यां श्रीसंभवनाथजिनेन्दाय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्व० स्वाहा। शुभ चौदस माघ सुदीकी, अभिनंदननाथ विवेकी । उपजे सिद्धार्था माता, पूजूं पाऊं सुख साता ॥४|| ॐ हीं माघशुक्ला चतुर्दश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय जठमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्व० स्वाहा। ग्यारस है चैत सुदीकी, मंगला माता जिनजीकी । श्री सुमति जने सुखदाई, पूजूं मैं अर्घ्य चढ़ाई ॥५।। ॐ हीं चैत्र शुक्ला एकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । तिला-दी।] [१७५ 2010_05 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वदि तेरसि जानो, श्री पद्मप्रभू उपजानो । है मात सुसीमा ताकी, पूजूं ले रुचि समताकी ||६|| ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णा त्रयोदश्यां श्रीपदाप्रभुजिनेन्द्राय जहमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। शुचि द्वादश जेठ सुदीकी, पृथ्वी माता जिनजीकी । जिननाथ सुपारश जाए, पूजूं हम मन हरषाए ॥७|| ॐ हीं ज्येष्ठ शुक्ला द्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जटमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । शुभ पूस वदी ग्यारसको, है जन्म चन्द्रप्रभु जिनको । धन्य मात सुलखनादेवी, पूजूं जिनको मुनिसेवी ॥८॥ ॐ ही पौष एकादश्यां श्री चंद्रप्रभजिनेन्दाय जठमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि एकम जाना, जिन मात रमा सुख खाना । श्री पुष्पदंत उपजाए, पूजत हूं ध्यान लगाए ॥९।। ॐ ह्रीं अगहन शुक्ला एकम् श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय जदमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । द्वादश वदि माघ सुहानी, नंदा माता सुखदानी । श्री शीतल जिन उपजाए, हम पूजत विघ्न नशाए ||१०|| ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ____फागुन वदि ग्यारस नीकी, जननी विमला जिन जीकी । श्रेयांसनाथ उपजाए, हम पूजत ही सुख पाए ||११|| ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा दशम्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । वदि फाल्गुन चौदसि जाना, विजया माता सुख खाना । श्री वासुपूज्य भगवाना, पूजूं पाऊं निज ज्ञाना ||१२।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ द्वादश माघ वदीकी, श्यामा माता जिनजीकी । श्रीविमलनाथ उपजाए पूजत हम ध्यान लगाए ।।१३।। ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जहमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । द्वादशि वदि जेठ प्रमाणी, सुरजामाता सुखदानी । जिननाथ अनन्त सुजाए, पूजत हम नाहिं अघाए ||१४|| ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा द्वादश्यां श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्राय जन्मकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहप तेरसि सुदि माघ महीना, श्रीधर्मनाथ अघ छीना । माता सुव्रता उपजाये, हम पूजत ज्ञान बढ़ाए ॥१५|| ॐ हीं माघशुक्ला त्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जटमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । १७६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010 05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वदि चौदस जेठ सुहानी, ऐरादेवी गुण खानी । श्रीशांति जने सुख पाए, हम पूजत प्रेम बढ़ाए ||१६|| ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा चतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनेदाय जठमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । पडिवा वैशाख सुदीकी, लक्ष्मीमति माता नीकी । श्रीकुन्थुनाथ उपजाए, पूजत हम अर्घ्य चढ़ाए ॥१७|| ॐ ही वैशाखशुक्ला एकम् श्रीकुन्थुनाथ जिनेन्द्राय जठमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि चौदस मानी, मित्रादेवी हरषानी । अर तीर्थंकर उपजाए, पूजे हम मन बच काए ॥१८॥ ॐ हीं अगहनशुक्ला चतुर्दश्यां श्रीअरतीर्थंकराय जहमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। अगहन सुदि ग्यारस आए, श्रीमल्लिनाथ उपजाए । है मात प्रजापति प्यारी, पूजत अघ विनशै भारी ||१९|| ॐ हीं अगहनशुक्ला एकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जठमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्व० स्वाहा । दशमी वैशाख वदी की, श्यामा माता जिवजी की । मुनिसुव्रत जिन उपजाए, हम पूजत पाप नशाए ॥२०।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा दशम्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेदाय जठमकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा | दशमी आषाढ़ वदीकी, विपुला माता जिनजीकी । नमि तीर्थंकर उपजाए, पूजत हम ध्यान लगाए ॥२१॥ ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा दशम्यां श्रीनमिजिनेदाय जदमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रावण शुक्ला छठि जानो, उपजे जिननेमि प्रमाणो । जननी सु शिवा जिनजीकी, हम पूजत हैं थल शिवकी ॥२२॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला षष्ठयां श्रीनेमिनाथजिनेदाय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । वदि पूष चतुर्दशि जानी, वामादेवी हरषानी । जिन पार्श्व जने गुणखानी, पूजें हम नाग निशानी ॥२३।। ॐ ही पौषकृष्णा चतुर्दश्यां श्रीपार्वजिनेन्द्राय जटमकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ चैत्र त्रयोदश शुक्ला, माता गुणखानी त्रिशला । श्री वर्द्धमान जिन जाए, हम पूजत विघ्न नशाए ॥२४॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला त्रयोदश्यां श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय जन्मकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । भुजंग प्रयात नमो जै नमो जै जिनेशा, तुम्ही ज्ञान सूरज तुम्ही शिव प्रवेशा । तुम्हें दर्श करके महामोह भाजे, तुम्हें पर्श करके सकल ताप भाजे ॥१॥ तुम्हें ध्यानमें धारते जो गिराई, परम आत्म अनुभव छटा सार पाई । तुम्हें पूजते नित्य इन्द्रादि देवा, लहैं पुण्य अद्भूत परम ज्ञान मेवा ॥२॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१७७ 2010_05 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारो जनम तीन भू दुःख निवारी, महामोह मिथ्यात हियसे निकारी । तुम्ही तीन बोधं धरे जन्मही से, तुम्हें दर्शनं क्षायिकं जन्मही से ||३|| तुम्हें आत्मदर्शन रहे जन्मही से, तुम्हें तत्त्व बोधं रहे जन्मही से । तुम्हारा महा पुण्य आश्चर्यकारी, स महिमा तुम्हारी सदा पापहारी ||४|| करा शुभ न्हवन क्षीरसागर सु जलसे, मिटी कालिमा पापकी अंग परसे। हुआ जन्म सफल करी सेव देवा, लहूं पद तुम्हारा इसी हेतु सेवा ||५|| . दोहा श्रीजिन चौविस जन्मकी, महिमा उरमें धार । पूज करत पातक टलें, बढ़े, ज्ञान अधिकार || ॐ हीं चतुर्विंशतिजिनेभ्यो जहमकल्याणकप्राप्तेश्यो महाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मन्त्र संस्कार ॐ ह्रीं इक्ष्वाकुकुले नाभिभूपतेर्मरुदेव्यामुत्पन्नस्यादिदेवपुरुषस्य वृषभदेव स्वामिनोऽत्र बिंबे वृषभांकितत्वात् तद्गुण स्थापनं तेजोमयं करोमि स्वाहा । ॐ अयं महानुभावः परमेश्वरो वृषभेश्वरो भवतु। वंश, जठमनगरी आदि का नाम भी उच्चारण करें। नोट- इसी प्रकार उक्त व नीचे के मन्त्र से अन्य प्रतिष्ठेय प्रतिमाओं का उनके प्रतिष्ठाकारकों द्वारा स्पर्श कराते हुए उक्त प्रकार नामादि मन्त्रोच्चारण कराया जावे। (जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ २५४) ॐ वृषभादिदिव्यदेहाय सद्योजाताय महाप्रज्ञाय अनंतचतुष्ट्ययाय परमसुखप्रतिष्ठिताय निर्मलाय स्वयंभुवे अजरामरपदप्राप्ताय चतुर्मुखपरमेष्ठिनेऽर्हते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यपूज्याय अष्टदिव्यनागप्रपूजिताय देवाधिदेवाय परमार्थ संनिहितोऽसि स्वाहा। (पुष्पक्षेपण व अंग स्पर्श करें) १. ॐ अस्मिन् जिन विवे निःस्वेदत्व गुणोविलसतु स्वाहा । २. ॐ अस्मिन् जिने विवे क्षीरवर्णरुधिरत्वगुणो विलसतु स्वाहा । ३. ॐ अस्मिन् जिन विवे मलरहितत्व गुणे विलसतु स्वाहा । ४. ॐ अस्मिन् जिन विवे समचतुरस्रसंस्थान गुणो विलसतु स्वाहा। ५. ॐ अस्मिन् जिन विवे वज्रवृषभनाराच संहनन गुणो विलसतु स्वाहा । ६. ॐ अस्मिन् जिन विवे अद्भुत रूप गुणो विलसतु स्वाहा । ७. ॐ अस्मिन् जिन विवे सुगन्ध शरीर गुणो विलसतु स्वाहा। ८. ॐ अस्मिन् जिन विवे अष्टोत्तर सहस्र लक्षण व्यंजनत्व गुणो विलसतु स्वाहा । ९. ॐ अस्मिन् जिन विवे अतुलबलवीर्यत्व गुणो विलसतु स्वाहा । १०. ॐ अस्मिन् जिन विवे हित मित प्रिय वचन गुणो विलसतु स्वाहा । नोट- पुष्प क्षेपण द्वारा अन्य प्रतिमाओं पर भी उक्त विधि करें। इसके पश्चात् शाम को ४ बजे से मंडप में झूला का कार्यक्रम किया जावे। १७८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्याभिषेक (राजमहल पद) (रात्रि को) विधि नायक प्रतिमा पहले टेबल पर ऊँची रखें । आजू-बाजू दो चौबदार | सामने टेबल पर जल कलश। इन्द्र वस्त्राभूषण उतारकर अभिषेक करें । पास ही सिंहासन पर विराजमान कर नये वस्त्राभूषण व मुकुट लगाकर कहें सर्वराज महाराज के, पालक दीनदयाल । तुमही हो जगपूज्य प्रभु, वृषभदेव भगवान् ।। नृत्य होवे । राजाओं द्वारा क्रम-क्रम से भेंट कराई जावे । गौड़, विदर्भ, केरल, आन्ध्र, पुन्नार, सौराष्ट्र, किरात, कौशल, कामरूप, मगध, कुरुजांगल, मल्ल, दशार्ण, चौल, अंग, बंग, कलिंग, कर्णाटक, पांड्य, सिंधु, काशी, कच्छ, गुर्जर, महाराष्ट्र पांचाल, मालव, राजस्थान, मध्यप्रदेश, असम, ब्रह्म, नेपाल, भूटान, तिब्बत, चीन, फ्रांस, ग्रीस, अरब, गांधार, मिस्र आदि। हरिवंश के नायक हरि, कुरुवंश के नायक सोमप्रभ, नाथवंश के अकंपन और उग्रवंश के काश्यप को नायक स्थापित करें। भरत-बाहुबली भी बैठा सकते हैं। राजनीति का उपदेश हो । योग्यता देखकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण की स्थापना । वैराग्य का प्रसंग ऊँची टेबल पर विधिनायक प्रतिमा विराजमान करें । सामने नीलांजना का नृत्य होते हुए उसका विलय और दूसरी का वहाँ नृत्य करते हुए बताना । भगवान् का वैराग्य, लौकांतिक देवों का आगमन और उनके द्वारा वैराग्य की सराहना । लौकांतिक-आठ ब्रह्मचारी या अविवाहित नवयुवक मंडप के बाहर से आकर बारह-भावना पढ़ें। स्वामिन्नद्य जगत्त्रये प्रसरतां मांगल्यमाला यतः । सर्वेभ्यः सुकृतं भविष्यति भवत्तीर्थामृतांभोधरात् ।। घोरापज्ज्वलनापनोदनमितो भव्यात्मनां जायतां । वैराग्यावगमस्त्वया परिचितस्तस्मै नमस्ते पुनः ॥ के वा वयं त्वदुपदेशविधानदक्षाः । स्वायंभवस्य सकलागमपूतदृष्टेः ॥ आत्मैव केवलमथो प्रतिबुद्धमार्गं । नीतः स्वयं न खलु भव्यगणोऽपि तात ।। अयं पितेयं जननी तवेति । लोका मुधार्थं व्यवहारयन्ति ॥ विश्वेशिता विश्वपितामहस्त्वं । मातासि सर्वप्रतिपालनेच्छुः ॥ अवाप्त संसारतटः स्वलब्ध्या । निमित्तमन्यत्समुपस्थितोऽसि ॥ स्वयं प्रबुद्धः प्रभविष्णुरीशः । कदापि नास्मत्स्तवनेन बुद्धः ॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१७९ ___ 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकांतिकों का जाना - भगवान् का चिन्तन हा हा धिक् धिक् है मुझे, इतना काल गंवाय । मोहराज्य पुत्रादि में, कर निज सुध विसराय ॥ अंब संयम धरना सही, जिस धारण बहु लोक । कर्मकाट शिवथल बसे, पाया निज सुख लोक ॥ दृढ़ोरुवैराग्य भरः स्वराज्यं । पुत्राय वा भूपतिसाक्षि दत्वा ।। यः क्षात्रधर्मं श्रितपंचभेदं । दिदेश साक्षाच्च स एष बिम्बः || यह पद्य पढ़कर भगवान् का भरत को राज्य देना (भगवान् का मुकट इन्द्र द्वारा उतारा जाना एवं भरत को पहनाना) | दीक्षोद्यमं मोक्षसुखैकसक्तं । यं स्नापयांचकुरशेष शक्राः || समेत्य सद्यः परया विभूत्या । तं स्नापयाम्यष्टशतेन कुंभैः ॥ ॐ जय जय जय अर्हन्तं भगवन्तं शुद्धोदकेन स्नापयामि । (स्नान करावें) ॐ सहज सौगन्ध वंधुरांगस्य गंध लेपनं करोमि । (चंदन लेप करें) ॐ ह्रीं श्री जिनांगं विविध वस्त्राभरणेन विभूषयामि । (वस्त्राभरण पहनावें) ॐ णमो भयवदो वमाणस्स रिसहस्स जस्स चक्कं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं भूयलं जूये वा विवाये वा रणंगणे वा थंमणे व मोहणे वा सव्व जीवसत्ताणं अपराजिदो भवदु में रक्ख रक्ख स्वाहा । (इस वर्धमान मन्त्र को ७ बार पढ़कर प्रभु पर पुष्प क्षेपण करें) दीक्षोन्मुखतीर्थंकरो जनेभ्यः । किमिच्छकं दानमहो ददौ यः । दानं च मुक्त्यंगमितीव वक्तुं । स एव देवो जिनबिम्ब एषः || ( यथायोग्य दान) महीतलायात जिनेश बिम्ब । शंकावहादीपमणिप्रभादया || जिनेन या श्रीशिविकाधिरूढा । दिव्यात्र साक्षादियमस्तु सैव ॥ (पालकी पर पुष्प क्षेपण) आपृच्छय बंधूनुचितं महेच्छः । किमिच्छकं दानविधिं विधाय || निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः । स एव देवो जिनबिम्ब एषः ॥ ॐ ह्रीं अर्ह धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह शिविकायां तिष्ठ तिष्ठेति स्वाहा | १८० ] 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप कल्याणक VAN CTION A E - आवश्यक सामग्री - + राज्याभिषेक की सामग्री + विधिनायक प्रतिमा वस्त्राभूषण + राजालोग श्रीफल भेंट सामग्री - लोकांतिक देव + वन-गमनपूर्व अभिषेक जल + हार-मुकुट + पालकी पीछी + कमण्डलु + परदा (सफेद कपड़ा) टेबिल + लोंग + घिसी हुई केसर + चाँदी की डब्बी + ४ बत्ती वाला दीपक • माचिस + बोधि समाधि यंत्र + पूजा की सामग्री 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् की पालकी इन्द्रों द्वारा लाना, उसमें विराजमान करते समय ४ भूमि गोचरी राजा व ४ विद्याधर राजाओं का क्रमशः उठाना । देवों और मनुष्यों से पालकी उठाते समय चर्चा । मनुष्य पहले इसलिये उठाते हैं कि वे भगवान् के साथ ही तप के अधिकारी हैं, जबकि देवता नहीं। पीछे पालकी देव उठावें । दीक्षावृक्ष- वट, सप्तच्छद, साल, प्रियंगु, श्रीखंड, नाग, पलाश, तेन्दु, पाटल, जम्बु, पिप्पल, दधिपर्ण, नंदि, तिलक, आम्र, अशोक, चंपा, मौलसिरी, बांस, धव इनमें से कोई भी हो। तपोवन की क्रियायें नोट- ऊपर चंदेवा, नीचे तख्त आदि जमा देवें। 'ॐ नीरजसे नमः' इस मन्त्र से भूमि शुद्ध करें। ॐ हीं णमो अरहंताणं वृषभजिनस्थ वटाख्य जिनदीक्षावृक्षोऽत्रावतरावतर संदौषट् । (दीक्षा वृक्ष पर पुष्पांजलिः) उदङमुखः पूर्वमुखोऽथवा यो । निविष्टवान् पूतशिलोपरिष्टात् ।। प्रवृज्यया निर्वृति साधनोत्कः । स एव देवो जिन बिंब एषः ।। ॐ ही धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्त्रिह सुरेन्द्र विरचित चन्द्रकान्त शिलातले तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा । (शिला पर भगवान् को पूर्व या उत्तरमुख विराजमान करें) (आचार्य व श्रुत भक्ति-पाठ करें) ॐ नमो भगवतेऽर्हते सामायिक प्रपन्नाय वस्त्राभूषणमपनयामि । (वस्त्राभूषण उतार कर थाली में रखें) “ॐ ह्रीं श्री क्लीं हां ही हूं हौं हः अ सि आ उ सा नमः" इस मन्त्र से भगवान् के मस्तक मे केशर का लेप कर उसमें लोंग लगा देवें फिर 'नमः सिद्धेभ्यः' कह कर केशरूप लोंगों को निकालकर एक डिब्बी में रख लेवें । आचार्य साधुत्व की दृष्टि से पास में पीछी कमण्डलु रख देवें। मन्त्र की आवश्यकता नहीं है (यहाँ केशलोंच क्रिया तक दर्शकों के समक्ष क्रिया करें) केशा वासांसि भूषाच्च पिटिकायां निधाय च । इन्द्रः स्वस्वस्थापनादि क्षेत्रे योग्यं समर्पयेत् ।। इस श्लोक के अनुसार इन्द्र भगवान् के वस्त्राभूषणों को पेटी में रखकर अपने स्थान को ले जावें । यस्यप्रभोः केशकलापमिन्द्रः, सम्पूज्य निक्षिप्य च रत्ना पात्रं । निक्षेपयामास पयः पयोधौ, स एव देवो जिनबिम्ब एषः । इसको पढ़कर भगवान् और केशों की पेटी पर पुष्पक्षेपण करें। और फिर केशों को जुलूसपूर्वक क्षीरसागर (किसी नदी या कूप) में क्षेपें। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१८१ 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोटः- भगवान् के लिए 'अहं सर्व सावद्य विरतोऽस्मि' यह कह कर अर्हत - सिद्ध भक्ति का पाठ करें तप कल्याणक की यथाविधि पूजा करें। चार दीपक प्रज्ज्वलित कर यह घोषणा करें कि भगवान् को मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया है । ॐ ह्रीं अर्हं णमो असिआउंसा मन:पर्ययज्ञान प्राप्ताय नमः । ( जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ २७५) नोट- यहाँ यदि आगे लिखी पूजा करना हो तो कर लें पश्चात् परदा डाल दें और सूचित कर देवें कि भगवान् ध्यान में लीन हैं; इस अवसर पर वैराग्य पर प्रवचन होता रहे और किसी व्यक्ति द्वारा प्रतिमा छिपाकर बाहर ले जावें ओर मण्डप में विराजमान कर देवें । थोड़ी देर बाद परदा हटाकर यह घोषणा कर देवें कि भगवान् विहार कर गये। पीछी - कमण्डलु भी वहाँ से हटा लें । तीर्थंकर के पास कमण्डलु नहीं रहता, क्योंकि उन्हें मल-मूत्र की बाधा नहीं होती । जीव बाधा नहीं होने से तीर्थंकर के पास पीछी भी नहीं रहती । (जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ २७१) १८२ ] किन्तु आहार के समय पीछी - कमण्डलु साथ में ले जाना चाहिये । पंचकल्याणकारोपण (अथवा अर्हन्तभक्ति पाठ) यद्गर्भावतरे गृहे जनयितुः प्रागेव शक्राज्ञया, षण्मासान्नव चानु रत्नकनकं वित्तेश्वरो वर्षति । भात्युर्वी मणिगर्भिणी सुरसरिन्नीरोक्षिता षोडश, स्वप्नेक्षामुदितां भजंति जननीं श्रीदिक्कुमारयोसि सः ॥ प्रच्छन्नं जननीमुपास्य शयनादानीय शच्यार्पितं, यं तत्वास चतुर्णिकायविबुधः श्रीमत्करीन्द्रश्रितः । सौधर्मोक निवेशितं सुरगिरिं नीत्वाभिषिच्यांवया, संयोज्योपचरत्यजस्रमसमैर्भोगै स भास्येष नः 11 किं कुर्वाण सुरेन्द्ररुद्र विषयानन्दा द्विरक्तस्तुतो, यो लौकान्तिक नाकिभिः शिविकया निष्क्रम्य गेहान्महैः ॥ दिव्यैः सिद्धनतीद्वयावनतरुं पूत्वा परा दीक्षया, भुंक्ते शुद्ध निजात्मसंविदमृतं स त्वं स्फुरस्वेष नः || सम्यग्दृष्टि कृशाकृशव्रत शुभोत्साहेषु तिष्ठन् क्वचित् । धर्मध्यानबलादयत्नगलितामायुस्त्रयः सप्त यः 11 दृष्टि प्रप्रकृतीसमातपचतुर्जाति त्रि निद्रा द्विधा । श्वभ्रस्थावर सूक्ष्मतिर्यगुभयोद्योतान्कषायाष्टकम् 11 क्लैव्यं स्त्रैणमथादिमेन नव मे हास्यादिषट्कं नृतां । क्षिप्त्वोदीचि पृथक्रुधादि दशमे लोभं कषायाष्टकं ॥ निद्रासप्रचलामुपान्त्यसमये दृग्धीघ्न विघ्नाश्चतुर्द्धिः पंच क्षिपते परेण चरमे शुक्लेन सोर्हन्नसि ॥ 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] न्नर्थव्यंजनभंगगीरपि 11 द्रव्यं भावमथातिसूक्ष्ममधियन्युक्ता वितर्के स्फुरपृथक्त्वेनापि संक्रामता 11 कर्मांशान्नवमस्थितेन मनसा प्रोढार्भकोत्साहवत् 1 कुंठेन द्रुभिवाणुशः परशुना छिंदन् यतिष्वध्यसि ॥ क्षुण्णे मोहरिपौ भजन्नुरु यथाख्याताधिराज्यश्रियं । शुद्धस्वात्मनि निर्विचार विलसत्पूर्वोदितार्थश्रुतः स्वच्छन्दो छलदुत्कलोज्वलचिदानंदैक भावोलसच्छेषारिव्रज वैभवः स्फुटमसि त्वं नाथ निर्ग्रन्थराट् ॥ विश्वैश्वर्यविघातिघातिदितिजो छेदो गतानंतदृक् । संविद्वीर्यसुखात्मिकां त्रिजगदाकीर्णै सदस्या स्थितः || जीवन्मुक्तिमृषीन्द्र चक्रमहितस्तीर्थं चतुस्त्रिंशता । कुर्वाणोतिशयैः पुनात्यपि पशून् सम्प्रातिहार्याष्टकैः ॥ देवव्यक्ति विशेषसंव्यवहृति व्यक्त्युल्लसल्लांछनश्रीमत्त्वत्क्रम पद्म युग्मसततोपास्तौ नियुक्तं शुभैः ॥ यक्षद्वन्द्वमवश्यमेतदुचितैः प्राच्यै रिदानीन्तनैः I देवेन्द्रैरपि मान्यते शिवमुदोऽप्येष्यभ्दिरीशिष्यते ॥ द्वौ गंधौ रसवर्ण वंधनवपुः संघातकान्पंचशः । षट्षट्संहननाकृतीः शुभगतिः स्वस्वानुपूर्व्यामुभे ॥ खज्ये परघातकागुरु लघूच्छ्वासोपघातायशो । नादेयं शुभसुस्वरस्थिर युगैः स्पर्शाष्टकं निर्मितं ॥ त्रयांगोपांगमपूर्ण दुर्भगयुगे प्रत्येक नीचैः कुले । वेद्यं चान्यतर द्विसप्ततिमुपान्त्येऽमूरयोगं क्षणे ॥ आदेयं सनिजानुपूर्व्य नृगति पंचाक्षजोर्तिक्षयः पर्याप्तत्रसबादराणि सुभगं मर्त्यायुरुच्चैः कुलं 11 वेद्येनान्यतरेण तीर्थकुमार अग्रादशाप्यन्तिमे | निष्कृत्य प्रकृतीरनुत्तर समुच्छिन्न क्रियध्यानतः ॥ यः प्राप्तो जगदग्रमेकसमयेनोर्ध्वं गमात्माष्टभिः । सम्यक्त्वादिगुणैर्विभाति स भवानत्रार्थितोऽर्च्याज्जगत् ॥ मुक्ति श्रीपरिरंभनिर्भरचिदानंदेन येनोज्झितं 1 देहं द्राक्स्वयमस्तसंहतितडिद्दामेव मायामयं || कृत्वाग्नीन्द्रकिरीटपावकयुतैः श्रीचन्दनात्तैर्मुदा I संस्कृत्याभ्युयंति भस्म भुवनाधीशाः स जीयात्प्रभु एतत्पठित्वा पंचकल्याणकारोपणार्थं प्रतिमोपरि पुष्पांजलिः । 2010_05 : || (आशा प्र.अ. ४) [ १८३ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भगवान् की तपकल्याणक की पूजा (हिन्दी) गीता छंद श्री रिषभदेव सु आदि जिन श्रीवर्द्धमान जु अंत हैं । वंदहुं चरण वारिज तिन्होंके जपत तिनको संत हैं । करके तपस्या साधु व्रत ले मुक्ति के स्वामी भए । तिन तपकल्याणक यजनको हम द्रव्य आठों हैं लए ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादि वर्द्धमानजिना अनावतरतावतरत संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री ऋषभादि वर्द्धमानजिना अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री ऋषभादि वर्द्धमानजिना अन्न मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । छंद चाली शुचि गंगाजल भर झारी, रुज जन्म मरण क्षयकारी । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा। शीतल चंदन घसि लाऊं, भव का आताप शमाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो चंदन निर्दपामीति स्वाहा । अक्षत ले शशि दुतिकारी, अक्षयगुण के करतारी । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो अक्षतं जलं निर्वपामीति स्वाहा । बहु फूल सुवर्ण चुनाऊं, निज काम व्यथा हटवाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । चरु ताजे स्वच्छ बनाऊं, निज रोग क्षुधा मिटवाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ हीं मषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो चरु निर्वपामीति स्वाहा। दीपक ले तम हरतारा, निज ज्ञानप्रभा विस्तारा । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए ॥ ॐ ह्रीं मषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूपायन धूप खिवाऊं, जिन आठों कर्म जलाऊं । ___तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा । १८४] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल सुन्दर ताजे लाऊं, शिवफल ले चाह मिटाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ हीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेन्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ आठों द्रव्य मिलाऊं, करि अर्घ परम सुख पाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । प्रत्येक अर्घ्य नौमी वदि प्रमाणी, वृषभेष तपस्या ठानी । निजमें निज रूप पिछाना, हम पूजत पाप नशाना ॥१|| ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां श्रीवृषभजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | ___ दसमी शुभ माघ वदीको, अजितेश लियो तप नीको । जगका सब मोह हटाया, हम पूजत पाप भगाया ॥२॥ ॐ हीं माघकृष्णादशम्यां श्री अजितनाथाय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मगसिर सुंदि पूरणमासी, संभव जिन होय उदासी । कचलोच महातप धारो, हम पूजत भय निरवारो ॥३॥ ॐ हीं अगहनशुक्लापूरणमास्यां श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । द्वादश शुभ माघ सुदीकी, अभिनंदन बन चलनेकी । चित ठान परम तप लीना, हम पूजत हैं गुण चीन्हा ॥४॥ ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्री अभिनंदननाथाय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। नौमी वैशाख सुदीमें, तप धारा जाकर वनमें । श्री सुमतिनाथ मुनिराई, पूजूं मैं ध्यान लगाई ॥५॥ ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक वदि तेरसि गाई, पद्मप्रभु समता भाई । वन जाय घोर तप कीना, पूजें हम सम सुख भीना ॥६।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपप्रभुजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सुदि द्वादश जेठ सुहाई, बारा भावन प्रभु भाई । तप लीना केश उखाड़े, पूजूं सुपार्श्व यति ठाड़े ||७|| ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । एकादश पौष वदीको, चंद्रप्रभु धारा तपको । वनमें जिन ध्यान लगाया, हम पूजत ही सुख पाया ॥८॥ ॐ ही पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचंद्रप्रभुजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । अगहन सुदि एकम जाना, श्री पुष्पदंत भगवाना । तप धार ध्यान निज कीना, पूजूं आतम गुण चीन्हा ॥९|| ॐ हीं अगहनशुक्लाएकं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १८५ 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश वदि माघ महीना, शीतल प्रभु समता भीना । तप राखो योग सम्हारो, पूजें हम कर्म निवारो ॥१०॥ ॐ हीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । वदी फाल्गुन ग्यारस गाई, श्रेयांसनाथ सुखदाई । हो तपसी ध्यान लगाया, हम पूजत हैं जिनराया ।।११।। ॐ ह्रीं फाल्गुणकृष्णाएकादश्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वदि फाल्गुन चौदसि स्वामी, श्री वासुपूज्य शिवगामी । तपसी हो समता साधी, हम पूजत धार समाधी ॥१२॥ ॐ हीं फाल्गुणकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वदि माघ चौथ हितकारी, श्री विमल सु दीक्षा धारी । . निज परिणतिमें लय पाई, हम पूजत ध्यान लगाई ॥१३॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। . द्वादशि वदि जेठ सुहानी, वन आए जिन त्रय ज्ञानी । धर सामायिक तप साधा, पूजू अनंत हर बाधा ॥१४॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । तेरस सुदि माघ महीना,. श्री धर्मनाथ तप लीना । वनमें प्रभु ध्यान लगाया, हम पूजत मुनिपद ध्याया ॥१५॥ ॐ हीं माघशुक्लाप्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । चौदस शुभ जेठ वदीमें, श्री शांति पधारे वनमें । तहं परिग्रह तज तप लीना, पूजूं आतमरस भीना ।।१६।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपानीति स्वाहा । करि दूर परिग्रह सारी, वैसाख सुदी पड़िवारी । श्री कुंथु स्वात्मरस जाना, पूजन से हो कल्याणा ॥१७|| ॐ ह्रीं वैशास्वशुक्ल प्रतिपदायां श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि दशमी गाई, अरनाथ छोड़ गृह जाई । तप कीना होय दिगंबर, पूजें हम शुभ भावों कर ।।१८।। ॐ हीं अगहनशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअरनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि ग्यारस कीना, सिर केशलोच हित चीन्हा ।। श्री मल्लि यति व्रत धारी, पूजें नित साम्य प्रचारी ॥१९॥ ॐ ह्रीं अगहनशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वैसाख वदी दशमीको, मुनिसुव्रत धारा व्रतको । समता रसमें लौ लाए, हम पूजत ही सुख पाए ॥२०॥ ॐ ह्रीं वैशास्वकृष्णादशम्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । १८६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमी आषाढ वदीकी, नमिनाथ हुए एकाकी । वनमें निज आतम ध्याए, हम पूजत ही सुख पाए ॥२१॥ ॐ ह्रीं आषाढकृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । छठि श्रावण शुक्ला आई, श्री नेमिनाथ वन जाई । करुणाधर पशू छुड़ाए, धारा तप पूजूं ध्याए ॥२२।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठयां श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । लखि पौष इकादशि श्यामा, श्री पार्श्वनाथ गुणधामा । तप ले वन आसन ठाना, हम पूजत शिवपद पाना ||२३|| ॐ ही पौषकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अगहन वदि दशमी गाई, बारा भावन शुभ भाई ।। श्री वर्द्धमान तप धारा, हम पूजत हों भव पारा ॥२४।। ॐ ही अगहनकृष्णादशम्यां श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला भुजंगप्रयात छंद नमस्ते नमस्ते नमस्ते मुनिन्दा । निवारें भली भांतिसे कर्म फंदा || संवारे सु द्वादश तपं वन मंझारी । सदा हम नमत हैं तिन्हें मन सम्हारी ॥१॥ त्रयोदश प्रकारं सु चारित्र धारा । अहिंसा महा सत्य अस्तेय प्यारा ॥ परम ब्रह्मचर्य परिग्रह तजाया । सुधारा महा संयम मन लगाया ॥२॥ दया धार भू को निरखकर चलत हैं । सुभाषा महा शुद्ध मीठी वदत हैं | करें शुद्ध भोजन सभी दोष टालें । दयाको धरे वस्तु लें मल निकालें ॥३॥ वचन काय मन गुप्तिको नित्य धारें । धरम ध्यानसे आत्म अपना विचारें ॥ धरें साम्य भाव रहें लीन निजमें । सु चारित्र निश्चय धरें शुद्ध मनमें ||४|| ऋषभ आदि श्री वीर चौविस जिनेशा । बड वीर क्षत्री गुणी ज्ञान ईशा || खड़ग ध्यान आतम कुबल मोह नाशा । जजें हम यतनसें स्व आतम प्रकाशा ||५|| दोहा धन्य साधु सम गुण धरें, सहें परीसह धीर । पूजत मंगल हों महा, टलें जगत जन पीर ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादि वीरांतचतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो तपकल्याणकप्राप्तेभ्यो महाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । 卐5) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१८७ 2010_05 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार दान व पूजा (ज्ञान कल्याणक के दिन प्रातः ९|| से १०|| तक में यह क्रिया करें) आहार देने के लिए इक्षु का रस तैयार किया जावे व पूजन की सामग्री हो । एक स्थान आहार देने को व एक स्थान पहले भगवान् को विराजमान कर पूजा करने को रहे । कोई दो गृहस्थों को राजा सोम व श्रेयांस स्थापित किया जावे। राजा सोम व श्रेयांस शुद्ध धोती- दुपट्टा पहनें, मस्तक ढकें । उनकी दोनों स्त्रियाँ भी शुद्ध वस्त्र पहनें। चारों नारियल से ढका पानी का कलश लेकर अपने निवास के आगे ही द्वारा - प्रेक्षण के निमित्त खड़े हों। आहारदाता की बोली न बोलें । आचार्य विधिनायक प्रतिमा को लेकर मंडप के बाहर से सिर पर धर कर लावें, उस समय सर्व सभाजन जय जयकार शब्द कहें। अब गृह के पास प्रभु आ जावें तब राजा सोम कहे- 'हे स्वामिन् ! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोस्तु अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ आहार जल शुद्ध है। जब मुनिराज वहाँ ठहर जावें तब तीन प्रदक्षिणा देकर फिर आचार्य भगवान् को उच्च आसन पर विराजमान करें । दातार राजा सोम अपने पैर धोने के बाद भगवान् के चरणों को शुद्ध जल से धोवें और गन्धोदक लगावें । हाथ धोकर अष्ट द्रव्य से निम्न प्रकार पूजन करें । मुनिराज के ठहरते ही जयकार बन्द होकर शांति बनी रहे (पूजा आगे है) पूजन करके नमस्कार करें, फिर सिद्धभक्ति पढ़े । भगवान् को आचार्य उठाकर दूसरे उच्च आसन पर विराजमान करें तब राजा सोम इक्षुरस की धारा भगवान् के हाथ के पास क्षेपण करें और आहार-दान की क्रिया की जावे । मुनिराज के मुख या हाथ पर आहार न रखकर पास ही दिखलाते हुए क्रिया की जावे । आहार दान के समय पूजा जयजय तीर्थंकर गुरु महान्, हम देख हुए कृत कृत्य प्राण ॥ महिमा तुम्हरी वरणी न जाय, तुम शिव मारग साधत स्वभाव ॥ जय धन्य धन्य ऋषभेश आज, तुम दर्शन से सब पाप भाज ॥ हम हुए सु पावन गात्र आज, जय धन्य धन्य तप सार साज ॥ तुम छोड़ परिग्रह भार नाथ, लीनो चरित्र तप ज्ञान साथ ॥ निज आतम ध्यान प्रकाशकार, तुम कर्म जलावन वृत्तिधार || जय सर्व जीव रक्षक कृपाल, जय धारत रत्नत्रय विशाल ॥ जय मैनी आतम मननकार, जगजीव उद्धारण मार्ग धार ॥ हम गृह पवित्र तुम चरण पाय, हम मन पवित्र तुम ध्याय ध्याय ॥ हम भये कृतारथ आप पाय, तुम चरण सेवने चित्त बढ़ाए || ॐ ह्रीं श्री ऋषभनाथ मुनिराज अत्र अवतर- अवतर । ॐ ह्रीं श्री ऋषभनाथ मुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्रीं श्री ऋषभनाथ मुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् । १८८ ] 2010_05 [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दर पवित्र गंगाजल लेय झारी, डाळं त्रिधार तुम चरणन अग्र भारी । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा ॥ ॐ ह्रीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। श्री चन्दनादि शुभ केशर मिश्रलाये, भव ताप उपशम करण निज भाव ध्याए । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा || ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। शुभश्वेत निर्मल सुअक्षत धार थाली, अक्षय गुणा प्रकट कारण शक्तिशाली । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा ।। ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । चम्पा गुलाब इत्यादि सुपुण्य धारे, है काम शत्रु बलवान तिसे बिदारे । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा || ॐ ह्रीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । फेणी सुहाल बरफी पकवान लाए, क्षुदरोग नाशने कारण काल पाए । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा || ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । शुभदीप रत्न ममलाय तमोपहारी, तम मोह नाश मम होय अपार भारी । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजूं सुमंगल करण सब पाप हरणा ।। ॐ ह्रीं मषभनाथ मुनीन्द्राय मोहअन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सुन्दर सुगंधित सुपावन धूप खेऊ, अरु कर्म काठको बाल निजात्म सेउं । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा ॥ ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। द्राक्षा बदाम फल साथ भराय थाली, शिव लाभ होय सुख से समता संभाली । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा || ॐ ह्री ऋषभनाथ मुनीन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। .. शुभ अष्ट द्रव्य मम उत्तम अर्घ लाया, संसार खार जलतारण हेतु आया । श्री तीर्थनाथ वृषभेश मुनिंद चरणा, पूजू सुमंगल करण सब पाप हरणा ।। ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय अनर्घ्य पदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला जय मदा रूप तेरे सदा दोष ना, ज्ञान श्रद्धान पूरित धरै शोक ना । राज को त्याग वैराग्यधारी भये, मुक्ति का राज लेने परम मुनि भये ॥ आत्म को जान के पाप को भान के, तत्व को पायके ध्यान उर आन के । क्रोध को हान के मान को हान के, लोभ को जीत के मोह को भान के ॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१८९ 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म मय होयके साधते मोक्ष को, बाधते मोक्ष को जीतते द्वेष को । शांतता धारतें सभ्यता पालते, आप पूजन किये सर्व अघ टालते ।। धन्य है आज हम दान सम्यक् करें, पाप उत्तम महापाप के दुख हरें । पुण्य सम्पत भरें काज हमरे सरें, आप सम होय के जन्म सागर तरें ॥ ॐ हीं ऋषभनाथ मुनीन्द्राय महाऽध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। आहार हो जाने पर आचार्य कहें- धन्य यह दान, धन्य यह पात्र श्रीतीर्थंकर ऋषभदेव, धन्य यह दातार । चारों तरफ खूब जय जयकार शब्द हो । फिर शुद्ध जल से हाथों को धोकर कपड़े से पोंछ दें। आचार्य प्रतिमा को दूसरे आसन पर विराजमान करें और दान का माहात्म्य समझावें तथा उस समय राजा सोम व श्रेयांस धर्मपत्नी सहित हाथ जोड़ें। प्रभु के सम्मुख खड़े रहें तथा चार दान व विद्या-दानार्थ कुछ रकम की घोषणा करावें तथा आचार्य अन्य लोगों को भी दान की प्रेरणा करें। इधर आचार्य भगवान् को लेकर मण्डप में ले जाकर भजन के साथ वेदी पर विराजमान करें।) नोट-पहले अपने अंगों पर नीचे के अंकों की स्थापना कर लेवें । नक्शे में देखें। (अंक न्यास विधि) मन्त्र संस्कार ॐ अं नमः ललाटेः । ॐ आं नमः मुख वृत्ते । इं ई क्रमशः दक्षिण वामनेत्रयोः । उ ऊं दक्षिण वाम कर्णयोः । ● ● दक्षिण वामनासिकयोः । लूं लूं दक्षिण वामकपोलयोः । एं ऐं ऊर्ध्वाधः ओष्ठ्योः । ओं औं ऊधिः दन्तयोः । अं अः मूर्ध्नि । कं खं दक्षिण बाहुदंडे । गं घं दक्षिण करांगुलिषु । चं छं वामबाहुदण्डे । जं झं वाम हस्तांगुलिषु । अं वाम हस्ताग्रे । टं ठं दक्षिण पाद मूले । डं ढं दक्षिण पादगुल्फे । णं दक्षिण पादाग्रे । तवर्ग वाम पादे । पवर्ग पाश्र्वादि कुक्ष्यन्तं । यं हृदि । रं दक्षिण स्कंधे। लं ककुदि (गला) । वं वामस्कंधे । शं हृदादि दक्षिण करे । षं हृदादि वाम करे। सं हृदादि दक्षिण पादे । हं हृदादि वामपादे । क्षं हृदादि जठरे न्यसेत् । गुल्फ-टिकून्या (चित्र देखें)। मन्त्र संस्कार __ षट्कोण शिला पर विधिनायक प्रतिमा को विराजमान कर मातृका मन्त्र जपें- 'ॐ नमोऽहं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल लूं ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष ह क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा' को २७ बार जपें व सभी प्रतिमाओं पर जलधारा करावें । ॐ णमो अरहताणं से धम्मं सरणं पव्वज्जामि झौं झौं स्वाहा । इस मन्त्र को २७ बार जपें । सर्व प्रतिमाओं पर पुष्प क्षेपण करें। निम्नलिखित ४८ संस्कार मन्त्र पढ़कर सर्व प्रतिमाओं पर पुष्प क्षेपण करें। ॐ ह्रीं इहार्हति सद्दर्शन संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१॥ इतना कहकर पुष्प क्षेपें । इस तरह पुष्प क्षेपते जायें। ॐ ह्रीं इहार्हति सज्ज्ञान संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।२।। १९०] . [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अं अः अ पृष्ठ पुंदे प-फ पृष्ठ पुदे ब-भ Nho 06%3D खड्गासन प्रतिमा अंकन्यास 2010_05 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - पृष्ठ पुंदे प-क “पृष्ठ पुदि ब-भ पद्मासन प्रतिमा अंकन्यास 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं इहार्हति सच्चारित्र संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।३।। ॐ ह्रीं इहार्हति सत्तपः संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥४॥ ॐ ह्रीं इहार्हति सद्वीर्य संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥५॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अष्टप्रवचनमातृका संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।६।। ॐ ह्रीं इहार्हति शुद्ध्यष्टकावलंभ संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥७|| ॐ ह्रीं इहार्हति परिषहजय संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥८॥ ॐ ह्रीं इहार्हति त्रियोगेन संयमाच्युति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥९॥ ॐ ह्रीं इहार्हति कृतकारितानुमोदनैरतिचार विनिवृत्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१०॥ ॐ ह्रीं इहार्हति शील संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥११॥ ॐ ह्रीं इहार्हति दशासंयमोपरम संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१२॥ ॐ ह्रीं इहार्हति पंचेन्द्रियनिर्जय संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।१३|| ॐ ह्रीं इहार्हति संज्ञाचतुष्टय निग्रह संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१४॥ ॐ ह्रीं इहार्हति उत्तमक्षमादि दशविधधर्मधारण संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१५॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अष्टादशसहसील परिशलन संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||१६|| ॐ ह्रीं इहार्हति चतुरशीतिलक्षोत्तरगुणसमाश्रय संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१७|| ॐ ह्रीं इहार्हति अतिशय विशिष्ट धर्मध्यान संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१८॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अप्रमत्तसंयम संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥१९॥ ॐ ह्रीं इहार्हति सुदृढ़ श्रुततेजोवाप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२०॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अप्रकंपक्षपकश्रेण्यारोहण संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।२१।। ॐ ह्रीं इहार्हति अनंतगुण विशुद्धि संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२२॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अधःकरणप्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२३॥ ॐ ह्रीं इहार्हति पृथक्त्ववितर्कवीचारप्रणिधि संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२४॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अपूर्वकरणप्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२५॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अनिवृत्तिकरणप्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२६।। ॐ ह्रीं इहार्हति बादरकषायचूर्णन संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।।२७।। ॐ ह्रीं इहार्हति सूक्ष्मकषायचूर्णन संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२८॥ ॐ ह्रीं इहार्हति सूक्ष्मसाम्परायचारित्र संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥२९|| ॐ ह्रीं इहार्हति प्रक्षीणमोह संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥३०॥ ॐ ह्रीं इहार्हति यथाख्यातप्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥३१॥ ॐ ह्रीं इहार्हति एकत्ववितर्कवीचारध्यान संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥३२॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १९१ 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं इहार्हति घातिघात समुद्भूत कैवल्यावगम संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥३३॥ ॐ ह्रीं इहार्हति धर्मतीर्थप्रवृत्तसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||३४|| ॐ ह्रीं इहार्हति सूक्ष्मक्रियाशुक्लध्यान परिणतत्व संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||३५|| ॐ ह्रीं इहार्हति शैलेशीकरण संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||३६|| ॐ ह्रीं इहार्हति परमसंवर संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||३७|| ॐ ह्रीं इहार्हति योगचूर्णकृति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥ ३८ ॥ ॐ ह्रीं इहार्हति योगायुतिभाक्त्व संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥३९॥ ॐ ह्रीं इहार्हति समुच्छिन्न क्रियावत्वसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४०|| ॐ ह्रीं इहार्हति निर्जरायाः परमकाष्ठारूढत्व संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥ ४१ ॥ ॐ ह्रीं इहार्हति सर्वकर्मक्षयावाप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥४२॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अनादि भवपरावर्तनविनाश संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४३|| ॐ ह्रीं इहार्हति द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावर्तन निष्क्रांति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४४॥ ॐ ह्रीं इहार्हति चतुर्गति परावृत्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ॥४५॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अनन्तगुणसिद्धत्वप्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४६॥ ॐ ह्रीं इहार्हति अदेहसहजज्ञानोपयोग चारित्र संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४७|| ॐ ह्रीं इहार्हति अदेहसहोत्थ दर्शनोपयोगैश्वर्य प्राप्ति संस्कारः स्फुरतु स्वाहा ||४८ || निम्न प्रकार पूजा करें - बाह्याभ्यन्तरभेदतो द्विविधता तत्रापि षट्भेदकं, बाह्यान्तरभेधितस्वविभव प्रत्यूह निर्णाशनात् । भक्ष्याभावतदूनताव्रतपरीसंख्यानषट् स्वादना मोहैकान्तशयासनांगकदनान्येवं तु बाह्यं तपः ॐ ह्रीं अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश षट्प्रकार बाह्यतपोधारकाय जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । १९२] || अन्त्ये दोषविसंगतो न भवति प्रायश्चितानां क्रमो । नो वा यंत्र विनेयता व्युपरमादौपाधिकस्योद्भवः ॥ नान्यत्र स्थितिमस्तु साधुषु तथा वैयावृत्तेः प्रक्रमः 1 नो वा शास्त्र सुशीलनं त्विति परंपार्येण बोध्यं जिने ॥ व्युत्सर्गं प्रतिवासरं प्रसरतो ध्यानं स्वमाध्यायतः 1 आख्यामात्रमुपाचरत्प्रतिकृतेमार्ग प्रलंभावनात् ॥ 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाढोत्कृष्टसुसंहनस्य जनपस्यास्येति संरुढितः 1 क्लृप्तं तच्छुचि नाम तत्फल गणैः संपूजयाम्यादरात् ॥ ॐ ह्रीं प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायय्युत्सर्गध्यान षट्प्रकारान्तरंगतपो निष्ठाय जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | यहाँ ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः असिआउसा श्रीं हैं ममेष्टं शुभं कुरु कुरु अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स क्ष पं वं क्षिं स्वाहा । इस बोधि समाधि मन्त्र की बोधि समाधि यंत्र पर २७ बार जलधारा देवें । ॐ ह्रीं अप्रमत्तगुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं अपूर्वकरण गुणस्थानारूढ़ जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं अनिवृत्तिकरण गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं क्षीणकषाय गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं यथाख्यातचारित्रधारकाय जिनायार्घ्यम् | ॐ ह्रीं मोहनीयज्ञानदर्शनावणांतराय निर्णाशकाय जिनायार्घ्यम् । तिलक दानविधि I पिंगा - प्रियंगु फलदध्यमृतप्रदूर्वा - सिद्धार्थका हिममहागुरुरत्नसिक्तं तीर्थाम्बुकानकघटोद्धृतदुग्धधारा- सम्पन्नमाशु विदधीत निजाभिषिक्त्यै ॥ स्नात्वा कुसुंभवसनाधृत हेमभूषा, सन्मौक्तिकोद्धृत चतुष्कविराजमाना । मन्त्रं ह्यनादिनिधनं परिजप्य शुद्धा, यष्टी सुचंदनरसं परिषेचयेत्तु ॥ भत्रँचलाक्तवसनायुगकोणभासि, दीपावलीद्युति विशालिशिलोपरिष्टात् । संघृष्य चन्दनमनर्थ समूहनष्ट्यै, भाले विधातु सवितः कृत मण्डितस्य ॥ (जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. २७८ ) प्रतिष्ठोत्सव चबूतरे पर यज्ञनायक व उनकी पत्नी शिला - लोढी से सरसों, चंदन, अगुरु, घृत, दूध, जल मिलाकर घिसे और एक कटोरी में भरकर, दीपक जलाकर ९ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर यज्ञनायक सपत्नीक प्रतिष्ठाचार्य को उससे तिलक करें । आचार्य चारित्र भक्ति पढ़े । पश्चात - ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा एहि संवौषट् । ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रां ह्रीं हूं हौः हः अ सि आ उ सा अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । इन मन्त्रों से जिन प्रतिमाओं का आह्वानन आदि करें । ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं असि आ उ सा अप्रतिहत शक्तिर्भवतु ह्रीं स्वाहा । इस मन्त्रको १०८ बार जप कर सुवर्ण शलाका से प्रतिमाओं की नाभि में (हं) बीज स्थापित करें । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] [ १९३ 2010_05 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवासना मुखवस्त्र आगे जो विधि करें तथा सिद्ध प्रतिमा आदि में भी मातृका या अंगन्यास स्वयं करके पीछे प्रतिमा पर . कर लेवें ओं हां ललाटे, ओं ह्रीं वाम कर्णे, ओं हूं दक्षिण कर्णे, ओं ह्रौं शिरः पश्चिमे, ओं हूं मस्तकोपरि, ओ क्ष्मां नेत्रयोः, ओं क्ष्मीं मुखे, ओं क्ष्मू कंठे, ओं मौं हृदये, ओं क्ष्मः वाह्वोः, ओं क्रों उदरे, ओं ह्रीं कट्यां, ओं क्लूं जंघयोः, ओं झू पादयोः, ओं क्षः हस्तयोः। मातृका-यंत्र पर प्रतिमा विराजमान कर मातृका यंत्र को २७ बार जप कर जलधारा छोड़ें। इसी प्रकार अन्य प्रतिमाओं पर भी करें। नूनं निरावृति चमत्कृतिकारि तेजो, नो शक्यमीक्षितवतामपि भावुकानां । इत्येवमर्पितनयानयनेन शम्भो- रये मुखाग्रमहवस्त्रमुपाकरोमि ॥ __ ॐ ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं (मेनफल) सप्तधान्ययुतं यवमाला वलयं च जिमस्य मुखाग्रे यवनिकां (पर्दा) दत्वा जिनपादाग्रतः स्थापयामि। (जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. २८०) कंकण बंधन मन्त्र ॐ अट्ठविहकम्ममुक्को,. तिलोयपुज्जोय संथुओ भयवं । अमरणरणाहमहिओ, अणाइणिहणो सिवंदिसओ स्वाहा ॥ (यह पद्य पढ़कर प्रतिमा के आगे चाँदी के तार का कंकण रख देवें) सुगंधिशीतलैः स्वच्छैः साधुभिर्विमलै लैः, ... -अनंतज्ञानदृग्वीर्य सुखरूपं जिनं यजे । ॐ ही अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु जलं गृहाण गृहाण स्वाहा। .. काश्मीरचन्दनरसेन विलुब्ध शुम्भ- त्सौरभ्यमत्तमधुपावलि झंकृतेन । पीठस्थली जिनपतेरधिपादपद्मं, संचर्चयामि मुनिभिः परितः पवित्रां ॥ ॐ ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु चन्दनं गृहाण गृहाण स्वाहा । मुक्ताफलच्छविपराजित कामकांति- प्रोद्भूत मोहतिमिरैकफलौघहेतुं । शाल्यक्षतार्थ परिपूर्ण पवित्रपात्र, - मुत्तारयामि भवतो जिनपस्य पावें ॥ ॐ ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु अक्षतान् गृहाण गृहाण स्वाहा । सौरभ्य सांद्रमकरन्द मनोभिराम- पुष्पैः सुवर्णहरिचन्दनपारिजातैः । श्री मोक्षमानिवनिता परिलंभनाय, माल्यादिभिश्चरणध्तेरणिमुत्सृजामि || ॐ ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु पुष्पाणि गृहाण गृहाण स्वाहा। षष्ठोपवासविधये नवसर्पिषाक्त, नैवेद्यभाजनमिदं परिवर्त्य सप्त । वारं तदीय परिहृत्यभिधाप्रसिद्धयै, संस्थापयेज्जिनवराग्रिम भूतधात्र्यां ॥ ॐ हीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु नैवेद्यं गृहाण गृहाण स्वाहा। १९४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] JainEducation International 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्फूर्जन्मयूख विततिप्रहतांधकारं, दीपंघृतादिमणि रत्न विशाल शोभं । उद्भिन्नशुक्ल युगलान्तिमभागभाजो, देहद्युतिंद्विगुण कोटियुतां करोमि ॥ ॐ ह्रीं प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल अमिततेजसे दीपं गृहाण गृहाण स्वाहा | कर्पूर चन्दन पराग सुरम्यधूप- क्षेपोऽस्तु मे सकलकर्महतिप्रधानः । इत्येवभावमभिधाय हसंति काया, मुत्क्षेपयामि किल धूपसमूहमेनं ॥ ॐ ह्रीं सर्वतो दह दह तेजोऽधिपतये धूपं गृहाण गृहाण स्वाहा । कर्माष्टकापहरणं फलमस्ति मुख्यं तत्प्राप्तिसंमुखतया स्थितवानसि त्वं । यस्मादनेकगुण लास्यकलानिधान, धाम्नस्तवस्थलमदभ्रफलैर्यजामि ॐ ह्रीं आश्रितजनायाभिमत फलानि ददातु ददातु स्वाहा । || त्रैलोक्याभिपदं त्रिकाल पतिताशेषार्थपर्यायजा, नन्तानन्तविकल्पनस्फुटकरं संचारचक्रोत्तरं । ज्योतिः केवलनाम चक्रमवतो ध्यानावतान प्रभोः, योऽयं तुर्य विशंशनक्षणमहः कोऽप्येष जीयात्पुनः ॥ ॐ ह्रीं नमोऽर्हते भगवते द्वितीयशुक्लध्यानोपान्त्यसमय प्राप्तायार्घ्यम् । यस्याश्रयेण सकलाघतृणौघदाह - शक्तित्वमाप चरितं चरितं जनेन । तच्चारुपंचतयरूपमपास्य, चार-मन्त्यं यथाख्यमगमत्परिपूर्णतांगं || ॐ ह्रीं यथाख्यात चारित्रधारकाय जिनाय अर्घ्यम् । स्वस्त्ययन नोट :- यहाँ से दिगम्बर आचार्य मन्त्र संस्कार करें । आचार्येण सदा कार्यः क्रियां पश्चात् समाचरेत् । श्री मुखोद्घाटने नेत्रोन्मीलने कंकणोज्झने ॥ सूरमंत्रप्रयोगे चाधिवास च मुख्यतः I कृत्वैव मातृकान्यासं - विदध्याद्विधिमुत्तमम् || मातृकान्यास व अंगन्यास पहले लिखा जा चुका है। स्वस्त्ययन ॐ ह्रीं अर्हं अनाहत विद्यायै णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः, सम्यक्तपसे नमः स्वाहा । वृहत्सिद्धचक्र यंत्र के सामने १०८ बार इसे जप लेवें । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] इसी वृहत्सिद्धचक्र के सामने 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' मन्त्र पढ़कर जलधारा क्षेपण करते हुए निम्न पाठ पढ़ें ( जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. ११७-२८२) 2010_05 स्वस्तिश्रीऋषभो देवोऽजितः स्वस्त्यस्तु संभवः 1 अभिनंदननामा च स्वस्ति श्री सुमतिः प्रभु || [ १९५ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मप्रभः स्वस्ति देवः सुपार्श्वःस्वस्ति जायतां । चन्द्रप्रभः स्वस्ति नोऽस्तु पुष्पदंतश्च शीतलः ॥ श्रेयान् स्वस्ति वासुपूज्यो विमलः स्वस्त्यनंतजित् । धर्मो जिनः सदा स्वस्ति शांति कुंथुश्च स्वस्त्यरः ॥ मल्लिनाथः स्वस्ति मुनिसुव्रतः स्वस्ति वै नमिः । नेमिर्जिनः स्वस्ति पाश्र्ची वीरः स्वस्ति च जायतां ॥ भूतभाविजिनाः सर्वे स्वस्ति श्रीसिद्धनायकाः । आचार्याः स्वस्त्युपाध्यायाः साधवः स्वस्ति संतु नः ॥ (यह पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करें) श्री मुखोद्घाटन यथाख्यातं प्रान्तोदयधरणिधृन्मूर्द्धनि निजः । प्रकाशोल्लासाभ्यां युगपदुपयुंजस्त्रिभुवनं ॥ दधज्जोतिः स्वायंभवमपगतावृत्यपपथो । मुखोद्घाटं लक्ष्म्या ब्रजतु यवनीं दूरमुदयेत् ॥ ॐ उसहादिवड्ढमाणाणं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं महइमहावीरवड्ढमाणसामीणं सिज्जउ में महइमहाविज्ज अहमहापाडिहेरसहियाणं सयलकलाधराणं सज्जोजादरूवाणं चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं बत्तीसदेविंद मणिमउडमत्थयमहियाणं सयललोयस्स संतिपुट्ठिबुद्धिकल्लाणाओआरोग्यकराणं बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजदि अणगारोवगूढाणं उहयलोय सुहफलयराणं थुइसयसहस्सणिलयाणं परापरपरमप्पाणं अणादिणिहणाणं बलिबाहुबलि सहिदाणं वीरे वीरे ॐ ह्रां क्षां सेणवीरे वड्ढमाणवीरे णहसंजयंतवराईए वज्जसिलथंभमयाणं सस्सदबंभपइट्ठियाणं उसहाइवीरमंगलमहापुरिसाणं णिच्चकाल पइट्ठियाणं इत्थ सण्णिहिदा मे भवन्तु मे भवन्तु ठः ठः स्वाहा। (वस्त्रयवनिका दूर करें) ॐ सत्तक्खरग़ब्भाणं अरहंताणं णमोत्थि भावेण । जो कुणइ अणण्णमणो सो गच्छइ उत्तमं ठाण ।। यववलय आदि का अपसारण करें। कंकणमोचन भी इसी मन्त्र से करें। किन्तु इस मन्त्र में गम्भाणं के स्थान में सज्जाणं जोड़ें। (वसु नंदि प्रतिष्ठा) नयनोमीलन क्रिया एक सुवर्ण रकाबी में कर्पूर युक्त सुवर्ण की सलाई को रखें और दाहिने हाथ में लेकर 'सोऽहंः' मन्त्र को ध्याता हुआ तथा १०८ बार 'ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः' पढ़ें। फिर नयनोन्मीलन यंत्र का मन्त्र 'ॐ ह्रीं ठं ठं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क्लीं क्ष्वी हं सः वं पं स्वाहा' को २७ बार जपकर उसके सामने निम्न श्लोक व मन्त्र पढ़कर नेत्रों में सलाई फेरें [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sılılılılılı ज्ञान कल्याणक 2010_05 - • आवश्यक सामग्री + वर्धमान यंत्र + मातृका यंत्र + नयनोन्मीलन यंत्र + वृहत्सिद्ध चक्र यंत्र + आहार दान सामग्री मुजिराज, रजत कटोरी + स्वर्ण शलाका + सूत माला + सप्तधान मेनफल (मदन फल) जवमाला १०८ दाने की पंचवर्ण सूत्र (लच्छा) शिला-लोढी + चन्दन, अगर, सरसों पीली, घृत, दुग्ध, छत्र + चमर + पूजा सामग्री, पुष्प, समवसरण, गंधबुटी, दीपक । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येनाबद्धनिरुढकर्म विकृतिप्रालम्बिका निघृणं । छिन्नात्मानमजं स्वयंभुवमपूर्वीयं स्वयं प्राप्तवान् । सोऽयं मोक्षरमाकटाक्षसरणिप्रेमास्पदः श्रीजिनः । साक्षादत्र निरूपितः स खलु मां पायादपायात्सदा ॥ ॐ णमो अरहंताणं णाणदंसणचक्स्युमयाणं अमियरसायणविमलतेयाणं संति तुद्धि पुद्धि वरदसम्मादिट्ठीणं वं झं अमियवरसीणं स्वाहा। प्राणप्रतिष्ठाप्यधिवासना च, संस्कारनेत्रोद्धृति सूरि मंत्राः । मूलं जिनत्वाधिगमे क्रियाऽन्या, भक्तिप्रधाना सुकृतोद्भवाय ॥ (जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. १०८) प्राणप्रतिष्ठा, और सूरि मन्त्र आदि सर्वज्ञत्व प्राप्ति में मुख्य हैं। नोट:- यहाँ प्रत्येक प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा सूरि मन्त्र और अंत में केवलज्ञान की क्रिया करना चाहिये। यत्रारोपात् पंचकल्याणमंत्रैः सर्वज्ञस्थापनं तद्विधानैः । तत्कर्मानुष्ठाने स्थापनोक्तनिक्षेपेण प्राप्तये तत्तथैव ।। (जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. १५) प्राण प्रतिष्ठा मन्त्र 'ॐ ऐं आं क्रों ह्रीं श्रीं क्लीं असिआउसा अयं जीवः असौ चेतनः अस्मिन् स्थिताः सर्वेन्द्रियाणि इह स्थापय देहे वायुं पूरय पूरय संवौषट् चिरं जीवतु चिरं जीवतु । सूरि मन्त्र ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा अर्ह ओं ह्रीं स्म्ल्यूँ हल्ल्यूँ जम्ल्यूँ त्म्ल्यूँ ल्म्ल्यूँ म्ल्यूँ प्पल्ब्यूँ भम्ल्यूँ क्ष्म्ल्व्यूँ कम्ल्व्यूँ ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं ॐ हूं णमो आइरियाणं ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं ओं हः णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः । पहले १०८ बार जाप कर लें। फिर प्रतिष्ठा में विद्यमान दिगम्बर मुनि से यह मन्त्र प्रतिमा को दिलावें। केवल ज्ञान मन्त्र ॐ केवलणाणदिवायर किरणकलावप्पणासियण्णाणे । णव केवललझुग्गमसुजणिय परमप्पववएसो ॥ असहायणाणदंसण महिओ इदिकेवली होदि । जोयेण जुत्तो ति सजोगजिणो अणाहिणिहणारिसे वुत्तो ।। इत्येषोर्हन्साक्षादयतीर्णो विश्वं पाविति स्वाहा। (पुष्पांजलिः) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१९७ 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान कल्याणक कैवल्य सूचि शरसंख्यक वर्तिकाभिरारार्तिकं बहुलवाद्य निनाद पूर्वम् । श्रीमज्जिन प्रतिकृते शतयज्ञयज्वाचार्या विदध्युरमलं जयोघोषणाग्रम् ॥ समवशरण में मूलनायक प्रतिमा चतुर्मुख रूप में विराजमान कर मोक्षमार्ग यंत्र स्थापित करें। जय जय ध्वनि, वाद्यघोष, प्रत्येक प्रतिमा के समक्ष दीपक प्रज्ज्वलित कर अनंत दर्शन ज्ञान सुख वीर्य रूप अनन्त चतुष्ट्य, घातिक्षयजदश अतिशय स्थापन, समवशरण, अष्ट प्रातिहार्य स्थापन । निम्नलिखित अर्घ्य चढ़ावें ॐ ह्रीं अनंतज्ञानादिचतुष्ट्ययुक्तअर्हत् परमेष्ठिने अर्घ्यम् । ॐ ह्रीं केवलज्ञान संबंधिदशातिशय युक्त अर्हत् परमेष्ठिने अय॑म् । ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य संयुक्ताय तीर्थंकर देवाय अय॑म् । ॐ ह्रीं देवोपुनीत चतुर्दशातिशय सम्पन्नाय अर्हत्तीर्थंकर देवाय अय॑म् । ज्ञान-कल्याणक की हिन्दी पूजा गीता छन्द चौबीस जिनवर तीर्थकारी, ज्ञान कल्याणकं धरं । महिमा अपार प्रकाश जगमें, मोह मिथ्या तम हरं ॥ कीने बहुत भविजीव सुखिया, दुःखसागर उद्धरं । तिनकी चरण पूजा करें, तिन सम बने यह रुचि धरं ॥ ॐ हीं चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो पुष्पांजलि क्षिपेत् । (पुष्प डालें) छंद चामरा नीर ल्याय शीतलं महान मिष्टता धरे, गन्ध शुद्ध मेलिके पवित्र झारिका भरे । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं क रूं प्रमाद सर्व टालके । ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो जठमजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । श्वेत चंदनं सुगंधयुक्त सार लायके, पात्रमें धराय शांतिकारणे चढ़ायके । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके || ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपानीति स्वाहा । तंदुलं भले सुश्वेत वर्ण दीर्घ लाइये, पाय गुण सु अक्षतं अतृप्तिता नशाइये । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं क रूं प्रमाद सर्व टालके ॥ ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । वर्ण वर्ण पुष्प सार लाइये चुनायके, काम कष्ट नाश हेतु पूजिये स्वभाविके । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके । ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । १९८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर मोदकादि शुद्ध तुर्त ही बनाइये, भूखरोग नाश हेतु चर्ण में चढ़ाइये । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ हीं सपमादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेन्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपानीति स्वाहा। दीप धार रत्नमय प्रकाशता महान है, मोह अंधकार हार होत स्वच्छ ज्ञान है । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेश्यो मोहअन्धकारविनाशनाथ दीपं निर्वपानीति स्वाहा । धूप गंध सार लाय धूपदान खेइये, कर्म आठको जलाय आप आप वेइये । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके । ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । लौंग औ बदाम आम्र आदि पक्क फल लिये, सु मुक्तिधाम पायके स्व आत्म अमृत पिये। नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेन्यो मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपानीति स्वाहा । तोय गंध अक्षतं सु पुष्प चारु चरु धरे, दीप धूप फल मिलाय अर्घ्य देय सुख करे । नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विशतिजिनेन्द्रेश्यो अनर्घ्यपद प्राप्ताथ अर्यम् निर्वपामीति स्वाहा । छंद चाली एकादशि फागुन वदिकी, मरुदेवी माता जिनकी । हत घाती कैवल पायो, पूजत हम चित उमगायो ॥१॥ ॐ हीं फाल्गुनकृष्णा एकादश्यां श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। एकादशि पूष सुदीको, अजितेश हतो घातीको । निर्मल निज ज्ञान उपाये, हम पूजत सम सुख पाये ।।२।। ॐ हीं पौषशुक्ला एकादश्यां श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक वदी चौथ सुहाई, संभव केवल निधि पाई । भविजीवन बोध दियो है, मिथ्यामत नाश कियो है ।।३।। ॐ हीं कार्तिक कृष्णा चतुर्थां श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपानीति स्वाहा । चौदशि शुभ पौष सुदीको, अभिनंदन हन घातीको । केवल पा धर्म प्रचारा, पूजू चरणा हितकारा ॥४|| ॐ ही पौषशुक्ला चतुर्दश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपानीति स्वाह। एकादशि चैत सुदीको, जिन सुमति ज्ञान लब्धीको । पाकर भविजीव उधारे, हम पूजत भव हरतारे ॥५|| ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला एकादश्यां श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । - [प्रतिष्ठा-प्रदीप] _ 2010_05 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधु शुक्ला पूरणमासी, पद्मप्रभु तत्त्व अभ्यासी । केवल ले तत्त्व प्रकाशा, हम पूजत सम सुख भाशा ॥६॥ ॐ हीं चैत्रशुक्ला पूर्णमास्यां श्रीपापभुजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा । छठि फाल्गुन की अंधयारी, चउ घाती कर्म निवारी । निर्मल निज ज्ञान उपाया, धन धन सुपार्श्व जिनराया ॥७॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाष्ठयां श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । फाल्गुन वदि नौमि सुहाई, चंद्रप्रभ आतम ध्याई । हन घाती केवल पाया, हम पूजत सुख उपजाया ॥८॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा नवम्यां श्रीचंद्रप्रभुजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। कार्तिक सुदि दुतिया जानो, श्री पुष्पदंत भगवानो । रज हर केवल दरशानो, हम पूजत पाप विलानो ॥९॥ ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वितीयायां श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहप चौदसि वदि पौष सुहानी, शीतलप्रभु केवल ज्ञानी । भव का संताप हटाया, समता सागर प्रगटाया ॥१०॥ ॐ ही पौष कृष्णा चतुर्दश्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपानीति स्वाहा । वदि माघ अमावसि जानो, श्रेयांस ज्ञान उपजानो । सब जग में श्रेय कराया, हम पूजत मंगल पाया ॥११॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णा अमावस्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ दुतिया माघ सुदीको, पायो केवल लब्धीको । . श्री वासुपूज्य भवितारी, हम पूजत अष्ट प्रकारी ॥१२॥ ॐ हीं माघशुक्लाद्वितीयायां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । छठि माघ वदी हत घाती, केवल लब्धी सुख लाती । पाई श्री विमल जिनेशा, हम पूजत कटत कलेशा ॥१३॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णाष्ठयां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । चैत अमावस गाई, जिन केवलज्ञान उपाई । पूजू अनंत जिन चरणा, जो है अशरण के शरणा ॥१४॥ ॐ हीं चैत्रकृष्णां अमावस्यां श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । मासांत पौष दिन भारी, श्री धर्मनाथ हितकारी । पायो केवल सद्बोधं, हम पूजें छोड़ कुबोधं ॥१५|| ॐ ही पौषपूर्णम्यां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यन् निर्दपामीति स्वाहा । सुदि पूस इकादसि जानी, श्री शांतिनाथ सुखदानी । लहि केवल धर्म प्रचारा, पूजूं मैं अघ हरतारा ॥१६॥ ॐ ही पौषशुक्ला एकादश्यां श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । २००] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 , Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वदि चैत्र तृतीया स्वामी, श्री कुंथुनाथ गुण धामी । निर्मल केवल उपजायो, हम पूजत ज्ञान बढ़ायो ।१७।। ॐ हीं चैत्र कृष्णा तृतीयायां श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक सुदी बारस जानो, लहि केवल ज्ञान प्रमाणो । परतत्त्व निजत्त्व प्रकाशा, अरनाथ जजों हत आशा ||१८|| ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वादश्यां श्रीअरनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । वदि पूष द्वितीया जाना,श्री मल्लिनाथ भगवाना । हत घाती केवल पाए, हम पूजत ध्यान लगाए ॥१९।। ॐ ही पौषकृष्णाद्वितीयायां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । वैशाख वदी नौमीको, मुनिसुव्रत जिन केवलको । लहि वीर्य अनंत सम्हारा, पूजूं मैं सुख करतारा ॥२०॥ ॐ हीं वैशाखकृष्णा नवम्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि ग्यारस आए, नमिनाथ ध्यान लौ लाए । पाया केवल सुखदाई, हम पूजत चित हरषाई ॥२१॥ ॐ हीं अगहनशुक्ला एकादश्यां श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । पडिवा शुभ क्वार सुदी को, श्री नेमनाथ जिवजीको । इच्छो केवल सत ज्ञानं, हम पूजत ही दुख हानं ॥२२॥ ॐ ह्रीं आश्विनशुक्ला प्रतिपदायां श्रीनेमनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । तिथि चैत्र चतुर्थी श्यामा, श्री पार्श्वप्रभू गुण धामा । केवल लहि तत्त्व प्रकाशा, हम पूजत कर शिव आशा ॥२३॥ ॐ हीं चैत्रकृष्णाचतुर्थी श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । दशमी वैशाख सुदीको, श्री वर्धमान जिनजीको । उपजो केवल सुखदाई, हम पूजत विघ्न नशाई ॥२४॥ ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला दशम्यां श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला सृग्विणी छन्द-स्तुति जय ऋषभनाथजी ज्ञान के सागरा, घातिया घातकर आप केवल बरा । कर्मबन्धनमई सांकला तोड़कर, आपका स्वाद ले स्वाद पर छोड़कर |॥१॥ धन्य तू धन्य तू धन्य तू नाथजी, सर्व साधू नमें तोहिको माथजी । दर्श तेरा करें ताप मिट जात है, मर्म भाजें सभी पाप हट जात है ।।२।। धन्य पुरुषार्थ तेरा महा अद्भुतं, मोहसा शत्रु मारा त्रिघाती हतं । जीत त्रैलोकको सर्वदर्शी भए, कर्म सेना हती दुर्ग चेतन लए ।।३।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२०१ 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप सत् तीर्थ त्रय रत्नसे निर्मिता, भव्य लेवें शरण होय भवन भव रिता । कुशलसे तिरें संसृती सागरा, जाय ऊरध लहें सिद्ध सुन्दर धरा ||४|| यह समवशर्ण भवि जीव सुख पात हैं, वाणि तेरी सुनें मन यही भात हैं । नाथ दीजे हमें धर्म अमृत महा, इस विना सुख नहीं दुःख भवमें सहा ||५|| ना क्षुधा ना तृषा राग ना द्वेष है, खेद चिन्ता नहीं आर्ति ना क्लेश है । लोभ मद क्रोध माया नहीं लेश है, बंदता हूं तुम्हें तू हि परमेश है || ६ || ॐ ह्रीं श्रीऋषभादि वीरांत चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय महार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । निर्वाण भक्ति कैलाश पर्वत की रचना करके भगवान् ऋषभदेव को ध्यानस्थ बताया जा सकता है परन्तु वे अर्हन्त अवस्था में विहार कर दिव्य ध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देते रहते हैं । विधिनायक व मूलनायक प्रतिमा अर्हत अवस्था की होने से यहाँ निर्वाण भक्ति सामान्य रूप से पढ़ें, जिससे आत्मा से परमात्मा बनने की सर्वांग रूपरेखा दर्शकों को ज्ञात हो सके। अग्नि संस्कार करना उचित नहीं है । निर्वाण भक्तिरेव निर्वाण कल्याणारोपणं । साक्षात्तु न विधेयम् । मोक्ष कल्याणक हिन्दी पूजा त्रिभंगी जय जय तीर्थंकर मुक्तिवधूवर भवसागर उद्धार करं, जय जय परमातम शुद्ध चिदातम कर्मकलंक निवारकरं । जय जय गुणसागर सुखरत्नाकर आत्ममगनता सार धरं, जय जय निर्वाणं पाय सुज्ञानं पूजत पग संसार हरं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो पुष्पांजलिं क्षिपेत् | वसंत तिलका छंद (जयसेन प्रतिष्ठा, पृष्ठ ३०५) पानी महान भरि शीतल शुद्ध लाऊं । जन्मादि रोग हर कारण भाव ध्याऊं ॥ पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः जलं । केशर सुमिश्रित सुगंधित चन्दनादी । आताप सर्व भव नाशन मोह आदी || पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः चंदनं । चन्द समान बहु अक्षत धार थाली । अक्षय स्वभाव पाऊं गुण रत्नशाली || पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः अक्षतं । २०२ ] 2010_05 [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पा गुलाब मरुवा बहु पुष्प लाऊं । दुख टार काम हरके निज भाव पाऊं ।। पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः पुष्पं । ताजे महान पकवान बनाय धारे । बाधा मिटाय क्षुधारोग स्वयं सम्हारे ॥ पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं | पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः नैवेद्यं । दीपावली जगमगाय अंधेर घाती । मोहादि तम विघट जाय भव प्रपाती ।। पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः दीपं। चंदन कपूर अगरादि सुगंध धूपं । बालूं जु अष्ट कर्म हो सिद्ध भूपं ॥ पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः धूपं। मीठे रसाल बादाम पवित्र लाए । जासे महान फल मोक्ष सु आप पाए । पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ।। ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः फलं । आठों सुद्रव्य ले हाथ अरघ बनाऊं । संसार वास हरके निज सुक्ख पाऊं । पूजू सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः अर्घ्यम् । प्रत्येक अर्घ्य गीता चौदस वदी शुभ माघकी कैलाशगिरि निज ध्यायके । वृषभेश सिद्ध हुवे शचीपति पूजते हित पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ चैत सुदि पांचम दिना सम्मेदगिरि निज ध्यायके । अजितेश सिद्ध हुवे भविकगण पूजते हित पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥२॥ ॐ हीं चैत्रशुक्लापंचम्यां श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ माघ सुदि षष्ठी दिना सम्मेदगिरि निज ध्यायके । संभव निजातम केलि करते सिद्ध पदवी पायके ॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२०३ 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥३|| ॐ हीं माघशुक्लाषष्ठयां श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । वैशाख सुदि षष्ठी दिना सम्मेदगिरि निज ध्यायके । अभिनंदन शिव धाम पहुंचे शुद्ध निज गुण पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥४॥ ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठयां श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। शुभ चैत सुदि एकादशी सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री सुमतिजिन शिव धाम पायो आठ कर्म नशायके ।। हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥५|| ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ कृष्ण फाल्गुन सप्तमी सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री पद्मप्रभु निर्वाण हूवे स्वात्म अनुभव पायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मनमें भायके ॥६।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीपदाप्रभुजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ कृष्ण फाल्गुन सप्तमी सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्रीजिनसुपार्श्वस्वस्थान लीयो स्वकृत आनंद पायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥७॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां श्रीसुपावजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ शुक्ल फाल्गुन सप्तमी सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री चन्द्रप्रभु निर्वाण पहुंचे शुद्ध ज्योति जगायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥८॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला सप्तम्यां श्रीचंद्रप्रभुजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ भाद्र शुक्ला अष्टमी, सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री पुष्पदंत स्वधाम पायो, स्वात्म गुण झलकायके ।। हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥९॥ ॐ ह्रीं भादशुक्ला अष्टम्यां श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । २०४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन अष्टमी शुभ क्वार सुद, सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्रीनाथ शीतल मोक्ष पाए, गुण अनंत लखाय के ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१०॥ ॐ हीं आश्विनशुक्ला अष्टम्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। दिन पूर्णमासी श्रावणी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । जिन श्रेयनाथ स्वधाम पहुँचे, आत्म लक्ष्मी पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रावणपूर्णमास्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ भाद्र सुद चौदश दिना, मंदारगिरि निज ध्यायके । श्री वासुपूज्य स्वथान ली हो, कर्म आठ जलायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१२।। ॐ ह्रीं भादशुक्ला चतुर्दश्यां श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । आषाढ़ वद शुभ अष्टमी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । श्री विमल निर्मल धाम लीनो, गुण पवित्र बनायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१३॥ ॐ ह्रीं आषादकृष्णा अष्टम्यां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहप अम्मावसी वद चैत्र की, सम्मेदगिरि निज ध्यायके । स्वामी अनंत स्वधाम पायो, गुण अनंत लखायके ॥ हम धार अर्ध्य महान पूजा करें गुण मन लायके ।। सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१४।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यां श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। शुभ ज्येष्ठ शुक्ला चौथ दिन, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । श्री धर्मनाथ स्वधर्म नायक, भए निज गुण पायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥१५|| ॐ हीं ज्येष्ठ शुक्लाचतुयां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । शुभ ज्येष्ठ कृष्णा चौदसी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के [ श्री शांतिनाथ स्वधाम पहुँचे, परम मार्ग बतायके ॥ [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२०५ ___ 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके शुद्धात्म मन में भायके ॥ १६ ॥ ॐ ह्रीं ज्यॆष्ठकृष्णा चतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | वैशाख शुक्ला प्रतिपदा सम्मेदगिरि निज ध्याय के । श्री कुंथुनाथ स्वधाम लीनो, परम पद झलकायके ॥ धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके || १७|| ॐ ह्रीं वैशास्वशुक्ला प्रतिपदायां श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अमावसी वद चैतकी, सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री अरहनाथ स्वधान लीनों, अमर लक्ष्मी पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके || १८ || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा अमावस्यां श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । - शुभ शुक्ल फाल्गुन पंचमी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । श्री मल्लिनाथ स्वथान पहुंचे, परम पदवी पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लाय । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके || १९|| ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला पंचम्यां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । फाल्गुण वदी शुभ द्वादशी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । जिननाथ मुनिसुव्रत पधारे, मोक्ष आनंद पायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके ||२०|| ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा द्वादश्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । वैशाख कृष्णा चौदसी, सम्मेदगिरि निज ध्याय के । नमिनाथ मुक्ति विशाल पाई, सकल कर्म नशायक के || हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके || २१ || ॐ ह्रीं वैशास्वकृष्णा चतुर्दश्यां श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । आषाढ़ शुक्ला सप्तमी, गिरनार गिरि निज ध्यायके । श्री नेमिनाथ स्वधाम पहुंचे, अष्ट गुण झलकायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके ||२२|| ॐ ह्रीं आषाढशुक्ला सप्तम्यां श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । २०६ ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ श्रावणी सुद सप्तमी, सम्मेदगिरि निज ध्यायके । श्री पार्श्वनाथ स्वथान पहुंचे, सिद्धि अनुपम पायके । हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके ॥२३॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला सप्तम्यां श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अम्मावसी वद कार्तिकी, पावापुरी निज ध्यायके । श्री वर्द्धमान स्वधाम लीनो, कर्म वंश जलायके ॥ हम धार अर्घ्य महान पूजा करें गुण मन लायके । सब राग द्वेष मिटायके, शुद्धात्म मन में भायके ॥२४॥ ॐ हीं कार्तिक कृष्णा अमावस्यां श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । भुजंग प्रथात छंद नमस्ते नमस्ते नमस्ते जिनंदा । तुम्हीं सिद्ध रूपी हरे कर्म फंदा ।। तुम्ही ज्ञान सूरज भविक नीरजोंको । तुम्हीं ध्येय वायू हरो सब रजोंको ||१|| तुम्हीं निष्कलंकं चिदाकार चिन्मय । तुम्हीं अक्षजीतं निजाराम तन्मय ।। तुम्ही लोक ज्ञाता तुम्हीं लोक पालं । तुम्ही सर्वदर्शी हतो मान कालं ॥२॥ तुम्ही क्षेमकारी तुम्हीं योगिराजं । तुम्हीं शांत ईश्वर किया आप काजं ॥ तुम्हीं निर्भयं निर्मलं वीतमोहं । तुम्हीं साम्य अमृत पियो पीतद्रोहं ।।३।। तुम्हीं भव उदधि पारकर्ता जिनेशं । तुम्हीं मोह तमके निवारक दिनेशं ॥ तुम्ही ज्ञाननीर भरे क्षीर सागर । तुम्ही रत्न गुणके सु गंभीर आकर ॥४॥ तम्हीं चंद्रमा निज सधाके प्रचारक । तुम्हीं योगियों के परम प्रेम धारक || तुम्हीं ध्यान गोचर सु तीर्थंकरों के । तुम्हीं पूज्य स्वामी परम गणधरों के ॥५॥ तुम्ही हो अनादि नहीं जन्म तेरा । तुम्हीं हो सदा सत् नहीं अंत तेरा ॥ तुम्ही सर्वव्यापी परम बोध द्वारा । तुम्ही आत्मव्यापी चिदानंद धारा ॥६|| तुम्ही हो अनित्यं स्व परिणाम द्वारा । तुम्ही हो अभेदं अमिट द्रव्य द्वारा ॥ तुम्ही भेदरूपं गुणानंत द्वारा । तुम्हीं नास्तिरूपं परानंत द्वारा ॥७॥ तुम्हीं निर्विकारं अमूरत अखेदं । तुम्हीं निष्कषायं तुम्हीं जीत वेदं ॥ तुम्ही हो चिदाकार साकार शुद्धं । तुम्हीं हो गुणस्थान दूरं प्रबुद्धं ॥८॥ तुम्हीं हो समयसार निज में प्रकाशी । तुम्हीं हो स्वचारित्र आतम विकाशी ॥ तुम्हीं हो निरास्रव निराहार ज्ञानी । तुम्हीं निर्जरा बिन परम सुख निधानी ।।९।। तुम्हीं हो अबन्धं तुम्ही हो अमोक्षं । तुम्ही कल्पनातीत हो नित्य मोक्षं ।। तुम्हीं हो अवाच्यं तुम्हीं हो अचिन्त्यं । तुम्हीं हो सुवाच्यं सु गणराज नित्यं ।।१०।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ ૨૦૭ 2010_05 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हीं सिद्धराजं तुम्हीं मोक्षराजं । तुम्हीं तीन भूके सु ऊरध विराजं ॥ तुम्हीं वीतरागं तदपि काज सारं । तुम्ही भक्तजन भावका मल निवारं ॥११॥ करैं मोक्ष कल्याणकं भक्त भीने । फुरै भाव शुद्धं यही भाव कीने ॥ नमे हैं जजे हैं सु आनन्द धारें । शरण मंगलोत्तम तुम्हीं को विचारें ॥१२॥ दोहा परम सिद्ध चौवीस जिन, वर्तमान सुखकार । पूजत भजत सु भावसे, होय विघ्न निरवार || ॐ हीं चतुर्विशतिवर्तमान जिनेन्द्रेश्यो मोक्षकल्याणकेप्राप्तेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । दोहा बिम्बप्रतिष्ठा हो सफल, नरनारी अघ हार । वीतराग विज्ञानमय, धर्म बढ़ो अधिकार ॥ इत्याशीर्वाद : पुष्प क्षेपें सर्वे येऽपि समाहूता जिनयज्ञमहोत्सवे । तान् सर्वान् संविसृजयेत भक्तिनम्रशिराः पुनः ॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा श्री अर्हदादि परमेष्ठिनः (पूजाविधि) विसर्जनं करोमि । जः जः जः अपराध क्षमापनं भवतु । भूयात्पुनदर्शनम्।। (आशाधर प्र. नि. २७) अन्त्य मंगल स्वस्तिस्ताज्जिनशासनाय महतां पुण्यात्मनां पंक्तये । राज्ञे स्वस्ति चतुर्विधाय बृहते संघाय यज्ञाय च । सद्धर्माय सधर्मिणऽस्तु सुकृतांभोवृष्टिरस्तु क्षणं । माभूयादशुभेक्षणं शुभयुजां भूयात्पुनदर्शनम् ॥ रथयात्रा या गजरथ का भी आयोजन मूलनायक विराजमान के पश्चात् होता है। अन्त में शांतियज्ञ व धन्यवाद कार्यक्रम संपन्न किया जावे। मंगल कामना कल्याणमस्तु कमलाभिमुखी सदास्तु, दीर्घायुरस्तु कुलगोत्र धनं सदास्तु । आरोग्यमस्तु अभिमतार्थ फलाप्तिरस्तु, भद्रं सदास्तु जिनपुंगवभक्तिरस्तु || २०८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লুলতা চত্মUp 2 तपोभूमि - आवश्यक सामग्री + पूजा सामग्री 2010_05 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप AA ....... SHESE SHE क TAVAT भगवान की दृष्टि और स्थान : भगवान् (मूर्ति) की दृष्टि द्वार के किस भाग पर टिकी है, यह देखना प्रतिष्ठाचार्य का आवश्यक कर्तव्य है। यदि मूर्ति की दृष्टि का केन्द्रस्थान शास्त्रानुकूल नहीं रखा गया, तो इसका परिणाम शुभ नहीं होगा। यह उस मन्दिर प्रतिष्ठाकारक और उस नगर के लिए अत्यन्त हानिकारक होगा। इसे स्पष्ट करें, तो कहना होगा कि मन्दिर प्रतिष्ठाकारक और उस नगर में कभी शान्ति और समृद्धि के दर्शन नहीं होंगे। सिद्ध क्षेत्र चौरासी, कल्याणक क्षेत्र हस्तिानापुर और अतिशय क्षेत्र श्रीनगर गढ़वाल) के मन्दिर इस बात के उदाहरण हैं। पहले इन मन्दिरों की दशा शोचनीय थी। ये आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। जब हम विहार करते हुए इन क्षेत्रों पर पहुंचे, तो वहाँ के पदाधिकारियों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया। हमारे सुझाव पर उन्होंने दरवाजा बदला तथा नाप तौलकर ऐसा दरवाजा लगवाया कि जिसकी वीतराग आय पर भगवान की दृष्टि पड़ने लगी। तबसे वहाँ और नगर में आर्थिक समृद्धि का दौर शुरू हो गया। इसके लिए स्पष्ट उल्लेख है कि-'आयमागर्मजेद्द्वार मष्टममूर्ध्वतस्त्यजेत् । सप्तमे दृष्टिवृषे सिंहे ध्वजे च गजे शुभा ॥ -प्रसाद मण्डन ४॥५.पृ.७३ तृतीय भाग 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान्की घष्टि का द्वार EXECASTGAGE CASAMANG.CONGO गज आय जिन अरिहंत दृष्टि । AVASTAVILOGGAWEZAGGA VYOT. CGILAGEGA VELOGO KONGEZEA USIASTAGSIOSNYSTRAALIA WINGINXVENT CENTRS - - देहली के ऊपर से लेकर उतरंग के नीचे भाग तक के बीच में आठ भाग करें। इनमें से ऊपर का आठवाँ भाग छोड़ कर उसके नीचे के सातवें भागके पुनः आठ भागकरें। इसके सातवें भाग में दृष्टि स्थान समझना। - 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप तृतीय-भाग । सिद्ध प्रतिमा प्रतिष्ठा विधि सिद्धप्रतिष्ठा यदि तत्र योगसंरोधनं पूज्यचतुर्घना कर्माणि संयोज्य चतुः प्रदीपानुत्तारयेत्तत्र शिवोर्ध्व गंतॄन् ॥ तत्राष्टगुणानां पूजा कार्या सम्यक्त्वमुख्यसुविधीनां । अन्यो विधिर्विधेयस्तावानेवात्र गुरुकुलाद् बुद्ध्वा ॥ कर्मदहन मण्डल मांडा जावे। सिद्ध यंत्र (वृहद् व लघु) प्रतिष्ठा में विराजमान करें । पूर्व मन्त्रों से सिद्ध प्रतिमा की आकर शुद्धि करें । आहवानन् ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्रागच्छ अत्रागच्छ । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणं) सिद्ध परमेष्ठी - पूजा करें अस उसा सिद्धाधिपतये नमः इस मन्त्र से तिलक विधि करें (जयसेन प्रतिष्ठा, पृष्ठ ३०७) ॐ ह्रीं सिद्धाधिपतये मुख वस्त्रं ददामीति स्वाहा । (परदा लगावें) ॐ ह्रीं मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा, ॐ ह्रीं सिद्धाधिपतये प्रबुद्धस्व प्रबुद्धस्व ध्यातृजनमनांसि पुनहि पुनीहि (नेत्रोन्मीलन करें) ॐ ह्रीं सिद्धाधिपतितीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा । (इति तीर्थोदकेन स्नपनम् ) आयुर्द्राघयतु व्रतं दृदयतु व्याधीन्व्यपोहत्वयं । श्रेयांसि प्रगुणीकरोतु वितनोत्वासिंधु शुभ्रं यशः ॥ शत्रून् शातयतु श्रियोभिरमयत्वश्रांतमुन्मुद्रयत्वानंदं भजतां प्रतिष्ठित इह श्रीसिद्धनाथः सताम् ॥ (पुष्पांजलिः) प्राण प्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र, केवलज्ञान मन्त्र के पश्चात् सिद्ध भक्ति पाठ, अष्टगुणारोपण करके मातृका मन्त्र ॐ अ आ से श ष स ह सिद्धचक्राधिपतयेनमः । इसका १०८ बार जाप करें । [ प्रतिष्ठा प्रदीप ] 2010_05 [ २०९ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टगुणारोपण जानातिबोधो यदनुग्रहेण द्रव्याणि सर्वाणि सपर्ययाणि । दुरागहत्यक्त निजात्म रूपं सिद्धेऽत्र सम्यक्त्व गुणं न्यसामि ॥१|| ॐ हीं परमावगादसम्यक्त्वगुणभूषिताय नमः (पुष्पम्) जानाति नित्यं युगपत्स्वतोऽन्यसर्वार्थ सामान्य विशेष सर्वम् । निर्वाधकं स्पष्टतरं च यस्तं सिद्धेऽत्र विज्ञान गुणं न्यसामि ||२| * ही अनंतज्ञानगुणभूषिताय नमः स्वात्मस्थसामान्यविशेषसर्वं साक्षात्करोत्येव समं सदा यः । सुनिश्चितासंभववाधवं : सिद्धेऽत्र दृष्ट्याख्यनुगं न्यसामि ||३|| ॐ हीं अनंतदर्शनभूषिताय नमः . अनंत विज्ञानमनंत दृष्टिं, द्रव्येषु सर्वेषु च पर्ययेषु । व्यापारयन्तं हतसंकरादि, सिद्धेऽत्र वीर्याख्यगुणं न्यसामि ||४|| ॐ हीं अनंतवीर्यगुणभूषिताय नमः अबाधकं मानमवाध्यमेव, निष्पीतसर्वार्थमसंगसंगम् । सर्वज्ञवेद्यं तदवाच्यमेव, सिद्धेऽत्र सूक्ष्माख्यगुणं न्यसामि ||५|| ॐ ह्रीं सूक्ष्मत्वगुणभूषिताय नमः एकत्र सिद्धात्मनि चान्यसिद्धा वसन्त्य-संवाधमनंतं संख्याः । यस्य प्रभावात्सुनयस्थितं तं, सिद्धेऽवगाहाख्य गुणं न्यसामि ॥६॥ ॐ हीं अवमाहनगुणभूषिताय नमः अधोनुपातोऽस्ति यथा शिलादेर्न तूलवद्वायुकृतेरणं च । सिद्धात्मना तेन सुयुक्तिसिद्धं गुणं न्यसामोऽगुरुलध्वभिख्यम् ||७|| ॐ हीं अनुरुलघुगुणभूषिताय नमः भवाग्निशान्त्यै विहितश्रमोऽव्यावाधात्मना यं परिणाममेति । स्वात्मोत्थसौख्यैकनिबंधनं तं सिद्धेऽत्र निर्बाधगुणं न्यसामि ||८|| * हीं अव्यावाधगुणभूषिताय नमः (पुष्पम्) सिद्ध पूजा आहूता इव सिद्धमुक्तिवनितां मुक्तान्यसंगा ययुः । तिष्ठंत्यष्टमभूमिसौधशिखरे सानन्तसौख्याः सदा ॥ साक्षात्कुर्वत एव सर्वमनिशं सालोकलोकं समं । तानद्धेद्ध विशुद्ध सिद्धनिकरानावाहनाधैर्भजे ॥ * मो सिद्धाणं सिद्धपोष्ठिन् अत्र एहि एहि संवौषट् । ॐहीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ हीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्रा मम सन्निहितो भव भव वषट् । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] २१०] 2010_05 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगादितित्थप्पहवप्पएहिं सग्गंधदाणिम्मलदापएहिं । अच्चमि णिच्चं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥१॥ ॐ हीं अर्ह श्रीसिद्धाधिपतये जलं निर्वपामीति स्वाहा। गंधेहि घाणाण सुहप्पएहिं समच्चयाणंपि सुहप्पएहिं । अच्चेमि णिच्चं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥२॥ ॐ ही अर्ह श्री सिद्धाधिपतये गन्धं निर्वपामीति स्वाहा । फेरंतछोणीसियकारणेहिं वरक्खएहिं सियकारणेहिं । अच्चमि णिच्चं परमठ्ठसिद्ध सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ।।३।। ॐ हीं अर्ह श्री सिद्धाधिपतये अक्षतं निर्दपामीति स्वाहा । पुप्फेहिं दिव्वेहिं सुवण्णएहिं कव्वे कऊसेहिं सुवण्णएहिं । अच्चेमि णिच्चं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥४॥ ॐ ह्रीं अहँ श्री सिद्धाधिपतये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । बब्भेहि णाणासुरसप्पएहिं भव्वाण णाणाइरसप्पएहिं । अच्वेमि णिच्वं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥५॥ ॐ ह्रीं अहँ श्री सिद्धाधिपतये चलं निर्वपामीति स्वाहा । देदिव्वमाणप्पहदीवएहिं संऊयआणं सिरिदीवएहिं । अच्चेमि णिच्चं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥६।। ॐ हीं अहँ श्री सिद्धाधिपतये दीपं निर्वपामीति स्वाहा । कालाअरुब्भूयसुहूवएहिं जीयाण पावाण सुहूवएहिं । अच्चेमि णिच्वं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ।।७।। ॐ हीं अहँ श्री सिद्धाधिपतये धूपं निर्वपामीति स्वाहा । अणग्घभूएहिं फलव्वएहिं भव्वस्स संदिण्णफलव्वएहिं । अच्चमि णिच्चं परमठ्ठसिद्धे सव्वट्ठसम्पादय सव्वसिद्धे ॥८॥ ॐ ह्रीं अहं श्री सिद्धाधिपतये फलं निर्वपामीति स्वाहा। णयेण णाणेण य दंसणेण तवेण उतॄण य संजमेण । सिद्धे तिकाले सु विसुद्धबुद्धे समग्घयामो सयलेवि सिद्धे ।। ॐ ह्रीं अर्ह श्री सिद्धाधिपतये अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । __स्तुतिः नमस्ते पुरुषार्थानां परां काष्ठामधिष्ठितं । सिद्धभट्टारकस्तोम निष्ठितार्थ निरंजनं ||१|| स्वःप्रदाय नमस्तुभ्यं अचलाय नमोस्तु ते । अक्षयाय नमस्तुभ्यं अव्याबाधाय ते नमः ॥२॥ नमस्तेऽनंतविज्ञानदृष्टिवीर्यसुखास्पदं । नमो नीरजसे तुभ्यं निर्मलायास्तु ते नमः ||३|| [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२११ 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छेद्याय नमस्तुभ्यं अभेद्याय नमो नमः । अक्षताय नमस्तुभ्यं अप्रमेय नमोस्तु ते ||४|| नमोस्त्वगर्भवासाय नमोऽगौरवलाघवं । अक्षोभ्याय नमस्तुभ्यमविलीनाय ते नमः || ५ || नमः परमकाष्ठात्मयोगरूपत्वमीयुषे । लोकाग्रवासिने तुभ्यं नमोऽनंतगुणाश्रयं ||६|| निःशेषपुरुषार्थानां निष्ठां सिद्धिमधिष्ठितं । सिद्धभट्टारकवात भूयो भूयो नमोस्तुते ||७|| विविध दुरित शुद्धान्यतत्वार्थबुद्धान् । परमसुख समृद्धान्युक्ति शास्त्राविरुद्धान् ॥ बहुविधगुणवृद्वान्सर्वलोकप्रसिद्धान् । प्रमितसुनयसिद्धान्संस्तुवे सर्वसिद्धान् ॥८॥ (शांतिपाठ एवं विसर्जन करें) गणधर - आचार्य, उपाध्याय साधु प्रतिमा व चरण प्रतिष्ठा मुक्त हुए तीर्थंकरों व गणधरादि की प्रतिमा एवं चरण चिह्न तथा शेष के चरणद्वय पाये जाते हैं। मंगलाष्टक, अंगशुद्धि, संकल्प ॐ हूं णमो आयरियाणं धर्माधिपतये नमः । ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं धर्माधिपतये नमः । ॐ ह्रः णमो लोए सव्व साहूणं धर्माधिपतये नमः । उक्त तीनों में जिनकी प्रतिष्ठा हो उनकी १० माला का जाप करें । याग मण्डल में से १७-३६-२५-२२ गुणों के अर्घ्य चढ़ावें । महर्षिपर्युपासन । आचार्य, चारित्र भक्ति पाठ । ॐ दर्शनाचाराय नमः, ॐ ज्ञानाचाराय नमः, ॐ चारित्राचाराय नमः, ॐ तपाचाराय नमः, ॐ प्रथमानुयोगाय नमः, ॐ करणानुयोगाय नमः, ॐ चरणानुयोगाय नमः, ॐ द्रव्यानुयोगाय नमः (अर्ध्य चढ़ावें) १. ॐ ह्रीं पलाशादि पादपपल्लव कलशेन आचार्य (उपाध्याय साधु) चरण शुद्धिं करोमि । २. ॐ ह्रीं सहदेव्यादि दिव्यौषधि कलशेन आचार्य (उपाध्याय साधु) चरण शुद्धिं करोमि । ३. ॐ ह्रीं चन्दनादि सुगंधित द्रव्य कलशेन आचार्य (उपाध्याय साधु) चरण शुद्धिं करोमि । ४. ॐ ह्रीं कंकोलादि क्वाथ कलशेन आचार्य (उपाध्याय साधु) चरण शुद्धिं करोमि । जिन मन्त्र ॐ अर्हद्भ्यो नमः । केवललब्धिभ्यो नमः । क्षीर स्वादुलब्धिभ्यो नमः । मधुर स्वादुलब्धिभ्यो नमः । बीजबुद्धिभ्यो नमः । सर्वावधिभ्यो नमः । परमावधिभ्यो नमः । संभिन्न श्रोतृभ्यो नमः । पादानुसारिभ्यो नमः । कोष्ठबुद्धिभ्योनमः । परमावधिभ्यो नमः । ॐ ह्रीं वल्गु वल्गु ॐ वृषभादिवर्धमानांतेभ्यो वषट् वषट् स्वाहा । ७ (सात) बार पढ़ते हुए चरण स्पर्श करें । २१२ ] 2010_05 [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोटनूरमलै (तमिलनाडु) में करीब २००० वर्ष पूर्व संस्थापित आचार्य श्री कुन्दकुन्द के चरणचिन्ह यह स्थान शहर से करीब १२५ कि.मी. दूरी पर एक छोटे से पहाड़ पर स्थित है। सन् १९८८-८९ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द को हुवे दो हजार वर्ष पूरे हुए हैं। वे इस युग के महान आध्यात्मिक संत थे । उनके एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य, पद्मनंदी और वक्रग्रीवाचार्य यह भी नाम थे। ११ वर्ष की अवस्था में ही दिगम्बरी दीक्षा धारण कर वे ९५ वर्ष तक आध्यात्मिक विचारों की पवित्र गंगा इस देश में बहाते रहे | पोन्नूरमलै यह स्थान उनकी तपोभूमि रही है | समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, रयणसार मूलाचार आदि महान आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना करके उन्होंने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। वे तिरुवल्लुवर नाम से भी जाने जाते थे। उनका तिरुक्कुरल यह नीतिग्रंथ विश्वविख्यात हो गया है । यह ग्रंथ विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२१३ 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर वलय (यंत्र विराजमान करें) जिनान् जितारातिगणान् गरिष्ठान् देशावधीन् सर्वपरावधींश्च । सत्कोष्ठबीजादि पदानुसारीन् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥१॥ संभिन्नश्रोत्रान्वितसन्मुनीन्द्रान् प्रत्येक सम्बोधित बुद्धधर्मान् । स्वयंप्रबुद्धांश्च विमुक्तिमार्गान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥२॥ द्विधामनःपर्ययचित्प्रयुक्तान् द्विपञ्चसप्तद्वय पूर्वसक्तान् । अष्टाङ्ग नैमित्तिकशास्त्र दक्षान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥३|| विकुर्वणाख्यर्द्धि महाप्रभावान् विद्याधरांश्चारण ऋद्धि प्राप्तान् ।। प्रज्ञाश्रितान्नित्यखगामिनश्च स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥४॥ आशीविषान् दृष्टि विषान्मुनींद्रानुग्रातिदीप्तोत्तमतप्ततप्तान् । महातिघोर प्रतपः प्रसक्तान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥५।। वन्द्यान् सुरैघौरगुणांश्च लोके पूज्यान् बुधैर्घोरपराक्रमांश्च । घोरादिसंसद् गुणब्रह्मयुक्तान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥६।। आमर्द्धिखेलर्द्धि प्रजल्लविट्प्रसर्वद्धि प्राप्तांश्च व्यथादिहंतृन् । मनोवचः कायबलोपयुक्तान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥७॥ सत्क्षीर सर्पिर्मधुरामृतीन् यतीन् वराक्षीण महानसांश्च ।। प्रवर्धमानस्त्रिजगत्प्रपूज्यान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥८॥ सिद्धालयान् श्रीमहतोऽतिवीरान् श्री वर्द्धमानर्द्धिबिबुद्धिदक्षान् ।। सर्वान्मुनीन् मुक्तिवरानृषीन्द्रान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥९॥ नृसुरखचरसेव्याविश्वश्रेष्ठर्द्धिभूषा, विविधगुण समुद्रा मारमातड्गसिंहाः । भवजलनिधिपोता वंदिता मे दिशन्तु, मुनिगण सकलाः श्री सिद्धिदाः सदृषीन्द्राः ॥१०॥ महर्षि पर्युपासन विधिः वृषभं वृषभसेनाद्याः सिंहसेनादयोऽजितम् । शंभवं चारुसेनाद्याः वज्रनाभिपुरः सराः ॥१|| कपिध्वजं चामराद्याः सुमतिं पद्मलांछनम् । ये वाचामराः प्रष्ठाः सुपार्श्वम् बलपूर्वकाः ॥२॥ चन्द्रप्रभं दत्तमुख्याःस्यु पुष्पदंतं समाश्रिताः । विदर्भाधाः शीतलेशमनगाराः पुरोगमा ॥३॥ कुन्थु प्रधानाः श्रेयांसं धर्माद्या द्वादशं जिनम् । विमलं मेरू पौरस्त्या जयाद्याश्चतुर्दशम् ॥४॥ २१४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मत्वरिष्टसेनाद्याः शांति चक्रायुधादयः । स्वयम्भू प्रमुखाः कुन्थु कुर्भाधास्त्वर प्रभुं ॥५॥ मल्लि विशाल प्रमुखाः मालयाद्या मुनिसुव्रतम् । नमीशं सुप्रभासाधा वरदत्ताग्रतः सुराः ।।६।। नेमिं पार्श्व स्वयम्भवाद्या गौतमाद्याश्च सन्मतिम् । तेभ्यो गणधरेशेभ्यो दत्तोऽयं पुनातु नः ॥७॥ ॐ ह्रीं चतुःषष्ठि सद्धि प्राप्त गणधर चरणेभ्योऽर्घ्य निर्वपानीति स्वाहा । ____ अर्थ- वृषभदेव के वृषभसेन आदि गणधर हुये । अजितनाथ के सिंहसेन आदि, संभवनाथ के चारुसेन आदि, कपि लांछन अभिनंदन के वजनाभि आदि, सुमतिनाथ के चामर आदि, पद्मलांछन वाले पद्यप्रभ के वज्रचामर आदि, सुपार्श्वनाथ के बलपूर्वादि, चन्द्रप्रभ के दत्त आदि, पुष्पदंत के विदर्भ आदि, शीतलनाथ के अनगार आदि, श्रेयांसनाथ के कुन्थु आदि, बारहवें वासुपूज्य भगवान् के धर्म आदि, विमलनाथ के मेल आदि, चौदहवें अनंतनाथ के जयार्या आदि, धर्मनाथ के अरिष्टसेन आदि, शांतिनाथ के चक्रायुध आदि, कुन्थुनाथ के स्वयंभू आदि, अरहनाथ के कुमार्य आदि, मल्लिनाथ के विशाल आदि, मुनिसुव्रतनाथ के माली आदि, नमिनाथ के सुप्रभास आदि, नेमिनाथ के वरदत्त आदि, पार्श्वनाथ के स्वयंभू आदि, और महावीर तीर्थंकर के गौतमादि गणधर थे । उन गणधरों के लिए यह अर्घ्य दिया जाता है, वे हमें पवित्र करें। षट्कोण चक्र निर्माण कराकर 'क्ष्मां, बीज लिखें । उस पर अहँ स्थापित करें। उसके दक्षिण या बायीं ओर ह्रीं तथा नीचे श्रीं स्थापित करें। ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचकाय झौं झौं स्वाहा । इसे दक्षिण से उत्तर तक वेष्टित करें। तिलकादि विधि पूर्ववत् करें ! इनकी पूजा करें। चारित्र भक्ति पाठ करें। आचार्यादि पूजा ये येऽनगारा ऋषयो यतीन्द्राः मुनीश्वरा भव्यभवव्यतीताः । तेषां समेषां पदपंकजानि संपूजयामो गुणशीलसिद्ध्यै ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशानचारित्रपवित्रतरगात्रचतुरशीतिलक्षगणधरचरणा अत्रागच्छत अप्रागच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। अत्र मम सठिनहिता भूत्वा रत्नत्रय विशुद्धिं कुरुत कुरुत वषट् । सुगंधिशीतलैः स्वच्छैः स्वादुभिर्विमलैर्जलैः । सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो जलं।। सार कर्पूर काश्मीरकलितैश्चंदनद्रवैः । सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥२।। ॐ हीं गणधरचरणेभ्यो चठदनं । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२१५ 2010_05 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षतैरक्षतैः सूक्ष्मैवलरुक्षसन्निभैः । सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥३॥ ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो अक्षतं । पुष्पैः . प्रसर दामोदाहूतपुष्पंधयावृतैः ।। सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥४॥ . ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो पुष्पं । हव्यैर्नव्य घृतापूयपायसैयंजनान्वितैः । सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥५॥ ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो चरूं। कर्पूरप्रभवैर्दीपैर्दीप्त्या दीपितदिङ् मुखैः ।। सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥६।। ॐ हीं गणधरचरणेभ्यो दीपं । दशांग धूपसद्धूमैर्दशाशापूर्ण सौरभैः ।। सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥७|| ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो धूपं । चोचमोचाम्र जंबीरफलंपूगादि सत्फलैः । सार्धद्वीप द्वयातीतभवद्भव्य यतीन्यजे ॥८॥ ॐ ह्रीं गणधरचरणेभ्यो फलं। गुणमणिगणसिंधून्भव्यलोकैकबंधून् प्रकटितनिजमार्गान्धवस्तमिथ्यात्वमार्गान् । परिचितनिजतत्वान्पालिताशेषसत्वान् । शमरसजितचंद्रानय॑यामो मुनींद्रान् ॥ ॐ हीं गणधरचरणेभ्यो अर्घ्यम्। स्तुति ये सर्वतीर्थप्रभवा गणेंद्राः, सप्तर्द्धयो ज्ञानचतुष्ट्याढ्याः । तेषां पदाब्जानि जगद्धितानां, वचोमनोमूर्द्धसु धारयामः ॥१|| तपोबलाक्षीणरसौषधर्झन् विज्ञानऋद्धीनपि विक्रियर्थीन् । सप्तर्द्धियुक्तानखिलानृषींन्द्रान्स्मरामि वंदे प्रणमामि नित्यम् ॥२।। सर्वेषु तीर्थेषु तदंतरेषु सप्तर्षयो ये महिता बभूवुः । भवांबुधेः पारमिताः कृतार्थाः, भवंतु नस्ते मुनयः प्रसिद्धाः ॥३।। ये केवलींद्राः श्रुतकेवलींद्राः ये शिक्षकास्तुर्यतृतीयबोधाः । सविक्रिया ये वरवादिनश्च सप्तर्षिसंज्ञानिह तान्प्रवंदे ॥४॥ प्रमत्तमुख्येषु पदेषु सार्धद्वीपद्वये ये युगपद्भवन्ति । उत्कर्षतस्तान्नव कोटिसंख्यान्वंदे त्रिसंख्यारहितान्मुनींद्रान् ॥५।। २१६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्ति पाठ - श्री पंचकल्याणमहाहणार्हाः वागात्मभाग्यातिशयैरुपेताः । तीर्थंकराः केवलिनश्च शेषाः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ||१|| ये शुद्धमूलोत्तरसद्गुणानामाधारभावादनगारसंज्ञाः । निग्रंथवर्या निरवद्यचर्याः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥२॥ ये चाणिमाद्यष्टसुविक्रियाढ्याः तथाक्षयावासमहानसाश्च । राजर्षयस्ते सुरराज्यपूज्याः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥३॥ ये कोष्ठबुद्ध्यादिचतुर्विधीः अवापुरामर्शमुखौषधर्टीः । ब्रह्मर्षयो ब्रह्मणि तत्परास्ते स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ||४|| जलादिनानाविधचारणा ये ये चारणाय्यांबरचारणाश्च । देवर्षयस्ते नतदेववृन्दाः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥५॥ सालोकलोकोज्ज्वलनैकतानं प्राप्ताः परं ज्योतिरनंतबोधम् । सर्वर्षिवंद्याः परमर्षयस्ते स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥६॥ श्रेणीद्वयारोहणसावधानाः कर्मोपशांति क्षपणप्रवीणाः । एते समस्ता यतयो महान्तः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥७॥ समग्र मध्यक्षमिताक्षदेश-प्रत्यक्षमत्यक्ष सुखानुरक्ताः । मुनीश्वरास्ते जगदेकमान्याः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ||८|| उग्रं च दीप्तं च तपोऽभितप्तं महच्च घोरं च तरां चरन्तः । तपोधना निर्वृतिसाधनोत्काः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥९॥ मनोवचः कायबलप्रकृष्टाः स्पष्टीकृताष्टांगमहानिमित्ताः । क्षीरामृतसाविमुखा मुनींद्राः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥१०॥ प्रत्येकबुद्धप्रमुखा मुनींद्राः शेषाश्च ये ये विविधर्द्धियुक्ताः ।। सर्वेऽपि ते सार्वजनीनयुक्ताः स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहन्तु ॥११॥ शापानुग्रह शक्तताधतिशयैरुच्चावचैरर्चिता : । ये सर्वे परमर्षयो भगवतां तेषां गुणस्तोत्रतः ।। एतत्स्वस्त्ययनादपैति सकलः संक्लेशभावः शुभः । भावः स्यात्सुकृतं च तच्छुभविधेरादाविदं श्रेयसे ॥१२॥ नोट - शांतिपाठ विसर्जन करें। यंत्र प्रतिष्ठा विधि पाटे पर सिद्ध यंत्र, विनायक यंत्र आदि को स्थापित कर संबंधित सिद्ध भगवान् व पंच परमेष्ठी आदि की पूजा करें। सर्वौषधि से अभिषेक करें। पुनः केशर लगाकर लौंग द्वारा १०८ बार यंत्र के मन्त्र का जप करें । फिर जल से शुद्ध करें | यंत्र चाँदी व ताम्र का शुद्ध लिखावें । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२१७ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र (जिनवाणी) प्रतिष्ठा विधि मन्त्र- ॐ अहँन्मुखकमल निवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुत ज्वाला सहस्र प्रज्वलिते सरस्वति अस्माकं पापं हन हन दह दह पच पच क्षां क्षीं दूं क्षौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे वं वं हूं हूं स्वाहा। यह पढ़कर शास्त्र विराजमान करें। श्रुतभक्ति, सरस्वती पूजा करें। रथ (गज या अन्य) यात्रा की विधि जहाँ से रथयात्रा प्रारंभ करना हो वहाँ यजमान व इन्द्रादि जिनाभिषेक व देवशास्त्र गुरुपूजा करके जिन की प्रतिमा को रथ में विराजमान करना हो, उनकी पूजा करें। फिर प्रतिमा, शास्त्र व पूजायंत्र, लघुसिद्ध यंत्र रथ में स्थापित करावें । सरसों द्वारा ९ बार णमोकार मन्त्र व ॐ हूं झुं फट् आदि मन्त्र को ९ बार जपकर ॐ क्षां क्षीं क्षों क्षौं क्षं क्षः स्वाहा इनको तथा ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं हैं हों हौं हं हः स्वाहा इन बीजाक्षरों को पढ़ते हुए दशों दिशाओं में सरसों फेंके । फिर एक थाली में दीप, धूप, धूपदान, हल्दी, सुपारी, अक्षत, पुष्प, सरसों, अगरबत्ती तथा बड़े कलश में जल मन्त्रितकर रख लेवें । रथ चलने पर जलधारा व सरसों क्षेपण दिशाओं में करते हुए धूपदान में मन्त्र पढ़ते हुए धूप क्षेपण करते रहें। रथ में प्रतिमा व यंत्र विराजमान हो जाने पर चैत्य भक्ति पाठ करें। जयति सुरनरेन्द्र श्रीसुधा निर्मुटिष्याः, कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः । प्रविपुल जिनधर्मानोकुहाग्र प्रवाल- प्रसरशिखर शुभत्केतनः श्रीनिकेतः ।। ॐ ह्रीं जंबुद्धीपे सुदर्शनमेरोीक्षणे आर्यखंडे... देशे... नगरे... चैत्यालयेभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा । रथयात्रा प्रारंभ करें | इसी अवसर पर निम्नलिखित मन्त्र जपते रहें - १. ॐ णमो भगवदो अरिझुणेमिस्स अरिठेण बंधेण बद्धाणि रक्वसाणं भूयाणं भेयराणं चौराणं डायिणीणं सायिणीणं महोरगाणं बग्घाणं अण्ण चेके वि दुट्ठा संभवंति तेसिं रक्खणं सवणं मणं मुहं कोहं दिद्धि गर्दि बंधामि धणु धणु महा धणु धणु स्वाहा। २. ॐ श्रीं ह्रीं हं कलिकुंड दंड स्वामिन् अतुलबल वीर्यपराक्रम आत्मविद्यां रक्ष रक्ष परविद्या छिंधि छिदिहूं फट् स्वाहा।। यथाकोटि शिलापूर्वं चालिता सर्वविष्णुभिः । चालयामि ततोत्तिष्ठ शीघंचल महारथ ॥ इति शीघ्र चालन मन्त्रः स्थापनं तच्चतुर्दिक्षु बादकादेर्निवेशनम् । यातो रथेन यानेन विहारस्त्रिजगत्प्रभोः ।। श्री बाहुबलि भगवान् की प्रतिष्ठा विधि १. ओं हां ही हूं हौं हः असि आ उ सा सर्व शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा इस मन्त्र के ११००० जाप करें। २१८] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ३. 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. याग मण्डल विधान ३. सिद्ध, अर्हत्, आचार्य, श्रुत, चारित्र भक्ति पाठ ४. सर्वौषधि, चन्दन, जल से प्रतिमा शुद्धि (मन्त्र पूर्व में लिखे हैं) ५. मातृका न्यास व संस्कार माला रोहण ६. तिलक दान ओं ह्रीं अर्हं असि आ उ सा अप्रतिशक्तिर्भवतु इस मन्त्र को १०८ बार जप कर नाभि में हैं लिखें । ७. औं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री बाहुबलि स्वामिने नमः इस मन्त्र का १०८ बार जप करें। ८. अधिवासना में मुख वस्त्रादि विधि पूर्ववत् ९. श्री मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राण-प्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र, केवलज्ञान मन्त्र, (पूर्व प्रतिष्ठा मन्त्रों के अनुसार) १०. बाहुबलि पूजा ११. शान्ति यज्ञ नोट - श्री बाहुबलि स्वामी की वीतराग पंच परमेष्ठी के अन्तर्गत प्रतिमा है, प्रतिमा पर बेल होने से साधु अवस्था की भी मान लेने पर वीतरागता पूज्यता में बाधा नहीं आती, किन्तु वे केवली अर्हत भी हुये हैं, अतः भगवान् पार्श्वनाथ की फण सहित प्रतिमा के समान उक्त नं. ५, ६, ८, ९ के अनुसार मन्त्र संस्कार किये जाना उचित है। ध्यान रहे कि वे तीर्थंकर पंचकल्याणक प्राप्त नहीं हैं। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के साथ इनकी प्रतिष्ठा प्रभावनार्थ विस्तार से प्रतिष्ठा हो, इसलिए की जाती है । शान्तियज्ञ के मन्त्रों का स्पष्टीकरण श्री आचार्य जिनसेन कृत महापुराण के ४० वें पर्व में शान्ति यज्ञ हेतु उल्लिखित मन्त्रों के संबंध में लिखा है कि - एतेषु पीठिका मंत्राः, सप्तज्ञेयाः द्विजोत्तमैः । एतैः सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादि क्रिया विधौ ॥७७॥ काम्य, निस्तारक, जाति, ऋषि, सुरेन्द्र, परमराज एवं परमेष्ठी, इन ७ पीठिका मन्त्रों का प्रयोग महापुराण के अनुसार विवाह आदि संस्कारों व प्रत्येक हवन के समय होता है । वे सिद्ध भगवान् के विशेषणरूप में है, यह उक्त श्लोक का आशय है । सिद्धचक्र मण्डल विधान की अन्तिम आठवीं पूजा के १०२४ मन्त्रों में जो सहस्रनाम के मन्त्र हैं, उनका व्याकरण के अनुसार जो अर्थ होता है वैसा ही अर्थ यहाँ भी है । यथा [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 [ २१९ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौधर्माय स्वाहा - उत्तम धर्म स्वरूप सिद्ध के लिए अग्नींद्राय स्वाहा - अधर्म के दहन करने वालों के स्वामी के लिए अनुचराय स्वाहा - परम्परारूप ज्ञान युक्त के लिए ग्रामपतये स्वाहा - प्राणी वर्ग के स्वामी जिनेन्द्र के लिए श्रावकाय स्वाहा - श्रवण आत्म गुणों के योग्य धारक के लिए षट्कर्मणे स्वाहा - जो षट्कमों का उपदेश दे चुके उनके लिए अहमिन्द्राय स्वाहा - मैं परम ऐश्वर्य रूप ज्ञान क्रिया युक्त हूँ ऐसा निजस्वरूप का निश्चय करने वाले के लिए नेमिनाथाय स्वाहा - धर्मचक्र की धुरा के स्वामी के लिए वज्रनामन् स्वाहा - कर्म पर्वतों के नाश करने वाले के लिए। नोट- उक्त अर्थ पं. कलप्पा भरमप्पा निटवे के मराठी महापुराण के अनुसार है। इसी प्रकार अन्य मन्त्र हैं । यहाँ तो उक्त कुछ संदेहात्मक मन्त्रों का स्पष्टीकरण बताया है। मूर्ति प्रशस्ति में सरस्वती गच्छ-बलात्कारगण अनावश्यक जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, मुंबई विक्रमाब्द २०१३ द्वारा विदित होता है कि गण एवं गच्छ पीछे एकार्थ में भी प्रयुक्त हुए हैं, ये पृथक्-पृथक् नहीं हैं । (पृष्ठ ६०) ___ मूल संघ के साथ नन्दि संघ का तथा बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का भी उल्लेख है । लेख नं. ५८५ में यह बताया है कि इस गण के आचार्य रूप में पद्मनंदि थे, जो कुन्दकुन्द आदि नाम से प्रसिद्ध थे। मूल संघ एवं कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ भी प्रयोग (लेख नं. १८० सन् १०४४) हुआ है और कोण्ड कुन्दान्वय का स्वतंत्र प्रयोग ८-९वीं शताब्दी में कई लेखों में हुआ है। मूलसंघ आचार्य कुन्द:कुन्द के पूर्व का है। बलात्कारगण को पूर्व यापनियों के बलगार स्थान विशेष से सम्बन्धित बताया है। पीछे १६वीं शताब्दी में पद्मनंदि आचार्य द्वारा सरस्वती को बलात्कार से बुलाया था इसलिये बलात्कार गण और सरस्वती गच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ । (पृष्ठ ६३) यापनीयवेश दिगंबर, सिद्धांत श्वेतांबर (संप्रदाय) । इस बलात्कार के आचार्यों की परम्परा में मुनि कुमुदचन्द्र भट्टारक तथा कुछ श्रेष्ठियों द्वारा उन्हें दान का उल्लेख है। (पृष्ठ ६३) यापनीय संघ के नंदि संघ को द्रविड़ संघ और मूल संघ ने अपनाया था | यापनियों में नंदिसंघ महत्वपूर्ण था । षट्खण्डागम पुस्तक १ में प्राकृत भाषा में नन्दि संघ की पट्टावली उपलब्ध है। (पृष्ठ ८७) २२०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख नं. ७०२ में पश्चिम भारत के बलात्कारगण सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दान्वय की भट्टारक परम्परा तथा उत्तर भारत लेख नं. ६१७ में बलात्कार गण के गच्छ की गुरु परम्परा (भट्टारिका) दी गयी है । (पृष्ठ ६५-६६) सारांश- उक्त उल्लेख से ज्ञात होता है कि मूर्ति प्रशस्ति में केवल दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दाम्नाय के सिवाय गण-गच्छ का कोई महत्त्व नहीं है। अन्य प्रतिष्ठा ग्रन्थों का परिचय प्रतिष्ठा सारोद्धार . (श्री पं. आशाधरजी) प्रथम अध्याय कर्णपिशाचिनी मन्त्र जपकर शुभाशुभ जान वेदी के नीचे बीच में सुवर्ण या चाँदी का मनुष्याकार पुतला घड़े में रखें। नींव की पूजा करें। पाँच शिला व ताम्र-कलश नींव में रखें । मन्दिर निर्माण कराने को पर्वत (खदान) से मूर्ति हेतु शिला लाकर उसे मन्त्र से शुद्ध करें। शिल्पी शुद्ध शाकाहारी हो । मूर्ति १२ दोष रहित हो । गृह चैत्य १२ अंगुल से अधिक न हो । प्रतिष्ठाचार्य (इन्द्र समान) यजमान, इनके दीक्षा गुरु साधु के लक्षण । इन्द्र प्रतीन्द्र व प्रतिष्ठा विधि । मण्डप निर्माण व आठ वेदी। द्वितीय अध्याय ऐदंयुगीन श्रुतभृद् धुरीणो प्राणपालकः । पंचाचाय्परो दीक्षा प्रवेशाप तयेयोर्गुरुः ॥११७।। जल यात्रा विधान | अंग न्यास, सकलीकरण, यज्ञदीक्षा मन्त्र विधि । इन्द्र दीक्षा मन्त्र (४३) - यज्ञ भूमि शुद्धि देवों के आह्वान द्वारा (वेदी मण्डप की)। तृतीय अध्याय यागमण्डल पूजा अव्युत्पन्न दृशः सदैहिक फल प्राप्तीच्छयार्चन्ति यान् (देवान्) (६६) अर्थ- अज्ञानी ऐहिक फल की प्राप्ति की इच्छा से देवी-देवताओं को पूजते हैं। चतुर्थ अध्याय सकलीकरण । गर्भ कल्याणक भद्रासन गर्भनिवेशितप्रतिमाये जिन मातृ पूजा (९०) जन्म कल्याणक व धूली कलशाभिषेक, अनेक द्रव्यों से अभिषेक तप कल्याणक-सिद्ध चारित्र-योगि-शान्ति भक्ति, संस्कार मन्त्र ४८, अंकन्यास । तिलक द्रव्य प्रतिमा को चढ़ावे। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ २२१ 2010_05 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवासना पूजा में जल नहीं-गंध से शुरू कर पुष्प तक पीछे जिनाग्रे मदन फल-सर्वधान्य-मुख वस्त्र-यवमाला-सप्तधान्य स्थापन-कंकण बंधन । पीछे नैवेद्य आदि से पूजा । १. स्वस्त्ययन, २. श्री मुखोद्घाटन, ३. नेत्रोन्मीलन।। अनंत चतुष्ट्य, दश अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, कंकण मोक्षण, केवलज्ञान । सिद्ध-श्रुत-चारित्र-शान्ति भक्ति पाठ। ___ पंचमाध्याय अभिषेक, विसर्जन, आशीर्वाद यक्ष दीक्षा विसर्जन (१२२) ध्वजा प्रतिष्ठा षष्ठोऽध्याय सिद्ध-आचार्यादि श्रुत-यक्ष प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा तिलक (श्री नेमिचन्द्रकृत) प्रथम परि. १. नित्य मह के अन्तर्गत बिम्ब प्रतिष्ठा। २. सौधर्मेन्द्र और यजमान के लक्षण और मन्त्र से उनकी स्थापना । दोनों के लिए एक ही मन्त्र । ३. यज्ञ दीक्षा का मन्त्र पृथक् है - ॐ वज्राधिपतये आं हां अः ऐं ह्रौं ह्रः अ॒हं यः इन्द्राय संवौषट् । इसे २१ बार पढ़ें। पृष्ठ ३ पर प्रतिष्ठाचार्य से भिन्न धर्माचार्य सूचना व उनकी पूजा का उल्लेख। ४. इन्द्र आदि पूजकों का सकलीकरण, जिनेन्द्र दर्शन-पूजन नवदेव पूजा । २४ शासन देवों की पूजा। द्वितीय परि. ५. प्रतिष्ठा विधि में अंकुरारोपण के दिन से प्रतिष्ठा कार्यों के दिन निश्चित किये गये हैं। अंकुरारोपण विधान में सर्वाणयक्षादिपूजा । तृतीय परि. ६. शान्ति होम चतुर्थ परि. ७. मण्डप, वेदी, अग्निकुण्ड निर्माण पंचम परि. ८. भेरीताडन, ध्वजारोहण षष्ठ परि. ९. जलयात्रा सप्तम परि. १०. यागमण्डल अष्टम परि. ११. सकलीकरण-गर्भकल्याणक, शचीपतिवधू (श्री आदिको)। विधि-नायक प्रतिमा को जलधिवासनं एवं बड़ी प्रतिमा को दर्पण दिखाकर घट के जल का छोड़ना । जिनमातृभाव स्थापनार्थं भद्रपीठ स्थापनं-सर्वकार्य इसी को लक्ष्य में लेकर करना, पंचगव्य से शुद्धि । २२२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ____ 2010_05 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परि. १२. जन्मकल्याणक । अभिषेक इन्द्रों ने किया। प्रोक्षण पुरन्ध्री (सौ. महिला) ने किया। चन्दन चर्चन, पंचगव्य व गोमय से अभिषेक (१३८) शुद्धि अनेक प्रकार से, आचमन । मेरु से वापस लाकर भद्रपीठ पर विराजमान करना - इसे ही माता की गोद बताया है । (१४७) इसी की स्तुति की है। दशम परि. १३. तप कल्याणक, सिद्ध, चारित्र, योगी भक्ति पाठ एकादश परि. १४. मन्त्र संस्कार - ४८ संस्कार, अंकन्यास, तिलक द्रव्यविधि बिंब पर। अधिवासन (मुखवस्त्र) दिव्य ध्वनि सप्तभंगी का प्रतीक, यवमाला सुभिक्ष का प्रतीक, मारणादि दोष निवारण का प्रतीक सप्तधान्य । स्वस्त्ययन विधि, नयनोन्मीलन कंकण मोक्षण, केवलज्ञान श्री मुखोद्घाटन, आशीर्वाद, विसर्जन, सिद्ध प्रतिष्ठा । यह सब अन्य प्रतिष्ठा-पाठों के समान हैं। इसमें प्रतिष्ठा की मध्यम व संक्षेप विधि बताई गई है। वसुनन्दि श्रावकाचार (प्रतिष्ठा विधान का अंश) १. इन्द्र (प्रतिष्ठाचार्य) लक्षण, मण्डप-चबूतरा निर्माण, धूली कलशाभिषेक, आकर शुद्धि । चन्दन तिलक प्रतिमा को, मन्त्र, न्यास, पूजा अष्ट द्रव्य से । २. प्रतिमा लक्षण । प्रतिमा दोष से हानि । धूलि कलशाभिषेक एवं आकर शुद्धि की विधि, प्रतिमा को तिलक करें (१५०) मदन फल, सर्वधान्ययुक्त-मुखवस्त्र । कंकण बंधन, श्री मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, कंकण-मोक्षण । विसर्जन। आचारादि गुणाधारो रागद्वेष विवजितः । पक्षपातो ज्झितः शांतः साधुवर्गाग्रणीर्गुणी ॥८॥ यह प्रतिष्ठा में दीक्षा-गुरु का लक्षण है। प्रतिष्ठासार संग्रह (ब्र. शीतल प्रसादजी) जप की विधि - मण्डप रक्षा, यागमण्डल गर्भकल्याणक - जन्मकल्याणक तपकल्याणक - ज्ञानकल्याणक में तिलक दान, अधिवासना, मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, मोक्षकल्याणक विधि, शान्तियज्ञ, सिद्ध आचार्यादि श्रुत प्रतिष्ठा विधि, चरण चिह्न । दश भक्ति पाठ। बिना मन्त्र माता-पिता बनाये हैं, जिनका शास्त्र प्रमाण नहीं है, इसमें प्रतिष्ठा संबंधी कार्य नाटक के रूप में है। गर्भकल्याणक में माताओं की पूजा [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२२३ 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा चन्द्रिका __संग्रहकर्ता - स्वर्गीय पंडित शिवजीरामजी पाठक, रांची। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधान संग्रह वि. सं. २०१७ । जहाँ से जो मिला उन सबका २८३ पृष्ठ में असंशोधित संकलन । भगवान् के मातापिता बनाने के ये और पं. दुर्गाप्रसादजी (प्रसिद्ध विद्वान्) भी विरोधी थे। मंदिर वेदी प्रतिष्ठा कलशारोहण विधि (श्री डॉ. पठनालालजी सा. आ.) प्रथम संस्करण (१९३१ ई.) में अंगन्यास, विनायक यंत्र पूजा, जप विधि, इन्द्रप्रतिष्ठा, जलयात्रा, अभिषेक पाठ, कलश-शुद्धि व कलशारोहण, मंदिर-शुद्धि, शिलान्यास, खातमुहूर्त, शांति-यज्ञ । तृतीय (ई. १९८७) पृष्ठ १३० में वास्तुविधान, मानस्तंभ पूजा आदि विशेष । भगवान् ऋषभदेव के सम्बन्ध में आयु - ८४ लाख पूर्व केवलज्ञान-फाल्गुन वदी ११ शरीर ऊँचाई - ५०० धनुष केवलज्ञान समय- पूर्वाह्न शरीर वर्ण - स्वर्ण वर्ण गणधर - वृषभसेनादि ८४ कुमारकाल - २० लाख पूर्व पूर्वधर ४७५० छद्मस्थकाल - १००० वर्ष शिक्षक - ४१५० दीक्षा - चैत्रवदी ९ अवधि ज्ञानी - ९००० दीक्षा नक्षत्र- उत्तराषाढ़ा केवली - २०००० पालकी -सुदर्शन विक्रिया धारी - २०६०० दीक्षा-वन - सिद्धार्थ मनः पर्ययज्ञानी- १२७५० दीक्षा-वृक्ष- न्यग्रोध (वट) वादी- १२७५० दीक्षा लेकर उपवास - छह मास आर्यिका - ३५०००० आहार - एक वर्ष बाद - इक्षुरस श्रावक - ३००००० पारणा - हस्तिनापुर श्राविका - ५००००० समवसरण- १२ योजन का निर्वाण - माघवदी १४ निर्वाण स्थल - कैलाश इतिहास जैन मन्दिर पौराणिक इतिहास की दृष्टि से भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर तीन चौबीसी के ७२ मंदिरों का निर्माण कराया था। वर्तमान इतिहास में बिहार में पटना के पास लोहानीपुर में मौर्यकालीन कलाकृतियों २२४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परम्परानुसार जैन मंदिर के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। यहाँ एक जैन मंदिर की नींव व ईंट, रजत-सिक्का तथा दो बिना शिर की मूर्तियाँ मिली हैं, जो पटना संग्रहालय में हैं । दक्षिण भारत- बादामी के पास ऐहोल का मेयूदी नामक मंदिर ईस्वी ६३४ में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय के राज्यकाल में रविकीर्ति द्वारा निर्मापित हुआ है । ई. ४७२ में राजशाही बंगाल के बहाड़पुर में पंचस्तूप निकाय के दिगम्बर आचार्य गुणनंदि जहाँ विराजमान रहे उस बिहार मंदिर का लेख मिलता है। देवगढ़ (झांसी) में शती आठवीं से बारहवीं तक के मंदिर हैं । देवालय नगर खजुराहो में सुन्दर शिखर युक्त जैन मंदिर हैं । ग्यारसपुर (ग्वालियर) में सातवीं-आठवीं शती के जैन वास्तुकला प्रदर्शक मंदिर हैं, जिनका जीर्णोद्धार किया गया है। दमोह के पास कंडलपर सिद्धक्षेत्र की पहाडी पर २५.३० मंदिर हैं जहाँ विशाल और प्राचीन बडे बाबा का मंदिर है। इसमें पद्मासन अति उन्नत (ऋषभदेवजी या महावीरजी) सातिशय मूर्ति विराजमान हैं। ऊनपावागिर सिद्धक्षेत्र में १२५८ की सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं। बड़वानी के समीप बावनगजा-चूलगिरि सिद्धक्षेत्र में ८४ फुट उन्नत खड्गासन, विश्व में सबसे ऊँची प्रतिमा ऋषभदेव की लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन है। ईस्वी १०३१ की प्रतिष्ठित प्रतिमाओं से युक्त आबू के जैन मंदिर कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं। राजस्थान के राणकपुर में सन् १४३१ का विशाल चतुर्मुखी श्वेताम्बर मंदिर चालीस हजार वर्ग फुट में बना हुआ दर्शनीय है। चित्तौड़ का कीर्ति-स्तम्भ १४८४ ईस्वी का है। गिरनार तीर्थक्षेत्र में सं. ११८५ का नेमिनाथजी मंदिर प्रसिद्ध है। इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करने पर प्राचीन मंदिरों के दर्शन होते हैं। मंदिरों के शिखर सामान्य रूप में तीन प्रकार के पाये जाते हैं। १. नागर- हिमालय से विन्ध्य तक प्रचलित हैं। इसका गोल आकार होता है। २. द्रविण- दक्षिण में कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक/स्तंभाकार/ऊपर की ओर क्रमशः सिकुड़ता हुआ। ३. वेसर- गोलाकार ऊपर चपटा-सा रहकर कोठी के आकार समान । जैन मूर्तियाँ कलिंग नरेश खारवेल के ईसा पूर्व द्वितीय शती के हाथी गुफा शिलालेख में बताया है कि ईसा पूर्व चौथी- पाँचवीं शती में एक जैन मूर्ति कलिंग नृप नंदराज ने अपहरण कर ली। दो तीन सौ वर्ष पश्चात् खारवेल उसे वापस ले आया। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्राप्त कुषाण मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में विद्यमान हैं । एक प्राचीन खंडित प्रतिमा मौर्यकाल की अनुमानित लोहानीपुर से प्राप्त हुई थी। सिंधु घाटी की खुदाई में मोहनजोदड़ो व हडप्पा से उपलब्ध सहस्रों वर्ष पूर्व की मूर्तियाँ भारतीय मूर्तिकला के महत्व का दिग्दर्शन कराती हैं | कुषाण कालीन मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में विद्यमान हैं । ईसा की चौथी शताब्दी से प्रारंभ हुए गुप्तकाल की प्रतिमाएँ भी उक्त स्थान पर विद्यमान हैं। तीर्थंकर मूर्तियों पर चिन्हों का प्रदर्शन ई. ८ वीं शती में प्रचार में आया है। शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा ईस्वी १४९० में प्रतिष्ठित [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ २२५ 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग एक लाख प्रतिमाएँ समस्त भारत में स्थान-स्थान पर पहुँचाई गई मिलती है । उक्त पाषाण की मूर्तियों के सिवाय धातु की मूर्तियाँ भी प्राचीन पाई जाती हैं । भगवान् पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय बम्बई में है, जो ईसा पूर्व १०० वर्ष की मौर्यकालीन है । गुप्तकाल की अनुमानित श्री आदिनाथ प्रतिमा चीता (बिहार) से प्राप्त हुई पटना के संग्रहालय में है । श्री बाहुबलि प्रतिमा बम्बई के उक्त संग्रहालय में ब्रोंज धातु की है। बादामी गुफा की बाहुबलि प्रतिमा लगभग सातवीं शती की साढ़े सात फुट ऊँची पद्मपुराणकार द्वारा उल्लिखित हैं ( प. प्र. ४, ७६-७७) एलोरा के जैन शिलालेख मंदिरों में ८ वीं शती की प्रतिमा उत्कीर्ण है । तीसरी प्रतिमा देवगढ़ शांतिनाथ मंदिर में ई. ८६२ की है | श्रवणबेलगोला की प्रतिमा सर्वविदित है । यह महामंत्री चामुंडराय ने १०-११ वीं शती में प्रतिष्ठित कराई थी। कारकल, बेलूर आदि में भी बाहुबलि प्रतिमाएँ हैं । उपलब्ध प्रतिष्ठा ग्रन्थ १. विक्रम १२ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आचार्य वसुनन्दि हुए हैं । ये आचार्य नयनन्दि के प्रशिष्य और आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य थे। इनका उपासकाध्ययन-श्रावकाचार प्राकृत भाषा में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित हो चुका है। उसी के अन्तर्गत संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधान संस्कृत भाषा में प्रकाशित है । २. आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य श्री जयसेन (वसुविन्दु) आचार्य ने दक्षिण कोकण देशस्थ रत्नगिरि शिखर पर ललाट नृप द्वारा निर्मापित चैत्य की प्रतिष्ठा हेतु दो दिन में प्रतिष्ठा पाठ की रचना की थी। इ मुद्रित ग्रन्थ का उत्तर प्रांत में प्रचार है । - ३. पंडित आशाधरजी ने विक्रम सं. १२८५ में परमार नरेश देवपाल के राज्यकाल में नलकच्छपुर (वर्तमान नालछा ) के नेमिनाथ चैत्यालय में प्रतिष्ठा - सारोद्धार ग्रन्थ की रचना आश्विन शुक्ला १५ को पूर्ण की थी। इस मुद्रित ग्रन्थ का अधिक प्रचार है । ४. प्रतिष्ठा - तिलक ग्रन्थ श्री नेमिचन्द्र देव की रचना है । ये ब्राह्मण कुलोत्पन्न ब्रह्मदेव के पौत्र और देवेन्द्र के पुत्र थे । इनके गुरु अभयचन्द एवं विजयकीर्ति थे । इस मुद्रित ग्रन्थ का प्रचार दक्षिण प्रांत में है । ५. हस्तिमल्ल का प्रतिष्ठा पाठ, अय्यपार्य का जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय, माघनंदि का प्रतिष्ठाकल्प, वादि कुमुद चन्द्र का प्रतिष्ठा पाठ (जिनसंहिता), ब्रह्मसूरि का प्रतिष्ठा तिलक, अकलंक भट्टारक का प्रतिष्ठाकल्प, भट्टारक राजकीर्ति का प्रतिष्ठादर्श, नरेन्द्रसेन का प्रतिष्ठा दीपक आदि ग्रन्थ हस्तलिखित लघुकाय, सरस्वती भवनों में उपलब्ध हैं । अन्य तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा में विधिनायक प्रतिमा का परिचय भगवान् नेमिनाथ सौराष्ट्र में शौर्यपुर के महाराज (अंधकवृष्टि के दश पुत्रों में सबसे बड़े) समुद्रविजय की महारानी शिवादेवी के गर्भ में कार्तिक सुदी ६ को आये और श्रावण सुदी ६ को जन्म हुआ । श्यामवर्ण, काश्यप गोत्र, १००० वर्ष की आयु, १० धनुष का शरीर । समुद्रविजय के सबसे छोटे भ्राता वसुदेव से श्रीकृष्ण और २२६ ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव हुए। कंस के चाचा देवसेन की पुत्री देवकी (बहन) से कृष्ण उत्पन्न हुए। कृष्ण ने उग्रसेन राजा की कन्या राजुलमती का विवाह नेमिनाथ से करने का प्रस्ताव रखा । नेमिनाथ का कुमारकाल ३०० वर्ष का है, बारात के मध्य में पशुओं को बाड़े में घिरा देखकर उनकी रक्षा हेतु वैराग्य ग्रहण कर लिया। श्रावण शुक्ला ६ को वैराग्य लिया । द्वारावती के राजा वरदत्त के यहाँ आहार हुआ। ५६ दिन तप कर आसोज कृष्ण १ को केवलज्ञान प्राप्त किया। गिरनार पर ही राजुलमती ने भी तप किया । नेमिप्रभु ने ६९९ वर्ष ९ माह ४ दिन विहार कर एक माह का योग ग्रहण कर मोक्षगमन किया । वैराग्य, पूर्व जन्म स्मृति से हुआ। पूर्वभव १. वनभील, २. अभिकेतु सेठ, ३. सौधर्म स्वर्ग, ४. चिंतामणि विद्याधर, ५. माहेन्द्र स्वर्ग में देव, ६. अपराजित राजा विदेह में, ७. अच्युत स्वर्ग में इन्द्र, ८. सुप्रतिष्ठराय हस्तिनापुर में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, ९. जयंत विमान में अहमिन्द्र, १०. भगवान् नेमिनाथ - हरिवंश में। व्रतोद्योतन श्रावकाचार में उल्लेख है कि चित्रवती ने समाधिगुप्त मुनि का व्रत खंडन किया उसके फलस्वरूप राजुलमती पति खंडन को प्राप्त हुई। भगवान् नमिनाथ से ५ लाख वर्ष पीछे नेमिनाथ हुए। -स्वस्तिस्ताक्ष्येऽरिष्ट नेमिः (वेद) भगवान् पार्श्वनाथ भगवान् नेमिनाथ के मोक्ष जाने के पश्चात् ८३००० वर्ष बाद भगवान् पार्श्वनाथ हुए । आज से लगभग पौने तीन हजार वर्ष पूर्व पार्श्वनाथ का जन्म हुआ । वाराणसी के महाराज विश्वसेन की महारानी ब्रह्मादेवी (वामा) के गर्भ से भगवान् का जन्म हुआ । गर्भ समय वैशाख कृष्णा २ तथा जन्म काल पौष वदी ११, श्यामवर्ण। दीक्षा तिथि पौष वदी ११ पूर्वाह्न, शरीर ऊँचाई ९ हाथ । आयु १०० वर्ष । काश्यप गोत्र, उग्र वंश । कुमारकाल ३० वर्ष । दीक्षा लेने साथ में ६०६ राजा, उपवास ४ दिन । केवलज्ञान चैत्र वदी १४ । मोक्ष श्रावण सुदी ७ । वैराग्य का कारण-अयोध्या नृप जयसेन भेंट लेकर आये उन्होंने ऋषभदेव का वर्णन किया। महिपाल नाना पंचाग्नि तप कर रहे थे। हाथी से उतर कर नाग-नागिनी (मरणासन्न) को णमोकार मन्त्र दिया । वे धरणेन्द्र-पद्मावती हुए । वह तापस (कमठ का जीव) संवर देव हुआ। मुनि पार्श्वनाथ पर ७ दिन तक उपसर्ग किया । धरणेन्द्र ने रक्षा की। पूर्वभव मरुभूति (कमठ का लघु भ्राता) मंत्रि पुत्र, २.वज्रघोष वनहस्ती- १२ व्रतपालन किये, ३. १२वें स्वर्ग में देव, ४. विद्याधरकुमार, ५. अच्युत स्वर्ग में देव, ६. वज्रनाभि चक्रवर्ती, ७. अहमिन्द्र, ८. आनन्दराय अयोध्या नृपति, सोलह कारण भावना भायी, ९. सहस्रार स्वर्ग में इन्द्र, १०. भगवान् पार्श्वनाथ । आयु का एक मास शेष रहा तब योग निरोध कर कर्मों का नाश कर शिखरजी से मुक्त हुए। खंडगिरि उदयगिरि (हाथी गुफा) में शिलालेख भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा फणवाली-समंतभद्र ने [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ २२७ 2010_05 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्फणामंडलमंडपेन । कल्याण मंदिर स्तोत्र । पार्श्वनाथ के ७ फण- सुपार्श्वनाथ के ५ फण मिलते हैं । न पार्श्वत् साधुतः साधुः, कमठात् जलतः ललः । स्तंभन, नागहृद, कलिकुंड, अहिच्छत्र, अंतरीक्ष, नवनिधि । भगवान् महावीर 1 भगवान् पार्श्वनाथ से २५० वर्ष बाद भगवान् महावीर हुए। विदेह देश में वैशाली के कुंडग्राम (कुंडलपुर) के महाराज सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के यहाँ आषाढ़ सुदी ६ को गर्भ में आये । चैत्र सुदी १३ को जन्म हुआ । हरिवंश, काश्यप गोत्र । सप्तखंड के महल में ऊपर जिन चैत्यालय । तीन ज्ञानधारी । राजा चेटक की पुत्री प्रियकारिणी (त्रिशला ) महावीर की माता थी । ७ हाथ शरीर की ऊँचाई । १. सर्प को वश में करना । २. दो ऋद्धिधारी चारण मुनियों का संदेह निवारण । ३. गज को वश में करना । ४. आजीवन ब्रह्मचारी रहना । ५. तीस वर्ष की उम्र में मुनि दीक्षा ग्रहण । ६ वर्ष १२ तक तप कर केवलज्ञान प्राप्त करना । ७. वैशाख सदी १० से श्रावण वदी १ तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी । ८. श्रावण वदी १ वीर शासन दिवस को दिव्यध्वनि ६६ दिन बाद विपुलाचल पर खिरना । गौतमादि ११ गणधर । विहार ३० वर्ष, सात्यकिरुद्र के उपसर्ग को सहना । वैराग्य पूर्वभव विचारने से हुआ । दीक्षा - ज्ञान खंड वन में ली । भगवान् बुद्ध की आयु ८० वर्ष भगवान् महावीर की ७२ वर्ष । चौथे काल के पूर्ण होने में ७५ वर्ष ३ माह शेष रहे तब भगवान् महावीर का जन्म हुआ । मोक्ष कार्तिक कृष्णा ३० के प्रारंभ व कार्तिक कृष्णा १४ के अंत में । श्रेणिक (बिंबसार) प्रमुख श्रावक । निर्वाण भूमि पावापुर (बिहार) उसी दिन गणधर गौतम को केवलज्ञान । पूर्वभव १. भीलराज मुनि सागरसेन को मारना चाहा कालिका स्त्री ने रोका, २. देवपर्याय, ३ . भरत पुत्र मारीच, भगवान् ऋषभदेव से अपने को भगवान् महावीर होना ज्ञात किया, ४. पंचम स्वर्ग का देव, ५. ब्राह्मण पुत्र जटिल, ६. प्रथम स्वर्ग का देव, ७ पुष्यमित्र ब्राह्मण- मिथ्या तप करने वाला हठयोगी, ८ . सानत्कुमार स्वर्ग में देव, ९. भारद्वाज विप्र पुत्र (संन्यासी), १०. देवपर्याय। इस प्रकार अनेक योनियों में भ्रमण करते हुए ११. राजगृह में विश्वभूति राजा का पुत्र विश्वनन्दी, १२. महाशुक्र १०वें स्वर्ग में देव, १३. त्रिपृष्ठ प्रथम नारायण, १४. सप्तम नरक में नारकी, १५. सिंह, १६. नरक । पश्चात् १. सिंह - गंगा तट पर सिंह ने अजितंजय मुनि के संबोधन से हिंसा छोड़ी, पूर्वभव की स्मृति आयी, २. सौधर्म स्वर्ग में देव ( हरिध्वज), ३. विदेह के विजयार्द्ध पर कनकध्वज विद्याधर नरेश, ४. लांतव स्वर्ग में देव, ५. उज्जयिनी के राजा हरिषेण, ६. महाशुक्र स्वर्ग में देव, ७. धातकीखंड पूर्व विदेह पुण्डरीकिणी के राजा सुमित्रचक्री के प्रिय मित्र पुत्र मुनिदीक्षा ली, ८. बारहवें सहस्रार स्वर्ग में देव (सूर्यप्रभ), ९. नन्दिवर्धन राजा का पुत्र नन्दन सोलह कारण भावना भा कर जिन दीक्षा ली, १०. सोलहवें अच्युत स्वर्ग इन्द्र, ११. भगवान् महावीर । - - 2010_05 - समवसरण में १२ कोठों में बैठने वाले १. गणधर व मुनि, २. कल्पवासिनी, ३. आर्यिका व श्राविका, ४. ज्योतिषिणी, ५. व्यंतरी, ६. भवनवासिनी, ७. भवनवासी, ८. व्यंतर, ९. ज्योतिषी, १०. कल्पवासी, ११ मनुष्य, १२ तिर्यंच । २२८ ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनबिम्ब पंचकल्याणक की संक्षिप्त विधि नये जिनमंदिर के पास ही प्रतिष्ठा मंडप निर्माण करावें उसमें २४ हाथ का लंबा-चौड़ा चबूतरा या तख्त लगाकर स्टेज बनाकर उसके ऊपर मध्य में ८ हाथ का एक याग मंडल चबूतरा और बनवावें । उस पर पीछे भगवान् विराजमान कराने का स्थान और आगे यागमंडल मंडवावें। प्रथम दिन शांतिजप ५१००० का संकल्प, नांदि कलश एवं इन्द्रप्रतिष्ठा कराकर भगवान् की प्रतिमा विराजमान करें, वहाँ झंडारोहण पूर्वक पंचपरमेष्ठी विधान या भक्तामर विधान प्रारंभ करें। उसी दिन दोपहर यागमंडल पूजा एवं मंदिर, वेदी, कलश, ध्वजादंड प्रतिष्ठा करावें । रात्रि में गर्भकल्याणक की पूर्व क्रिया, शास्त्र प्रवचन के पश्चात् करावें । दूसरे दिन प्रातः ६ से ७ तक गर्भकल्याणक में स्वप्न फल के बाद गर्भकल्याणक पूजा संपन्न करें। ७|| बजे भगवान् का जन्म बताकर इन्द्रों को मंडप की प्रदक्षिणा दिलाकर मंडप में या बाहर तख्ता पर चाँदी की पांडुक शिला पर जन्माभिषेक कराकर जन्मकल्याणक पूजा करावें । दोपहर को ३।। बजे से भगवान् का वैराग्य बताकर वहीं मुनिदीक्षा व तपकल्याणक पूजा करावें। तीसरे दिन प्रातः आहारदान, अंकन्यास व दोपहर २ बजे से ५ बजे तक मन्त्र संस्कार व ज्ञानकल्याणक में समवसरण व वहाँ पूजा करावें । चौथे दिन प्रातः निर्वाण भक्ति करके शुभ मुहूर्त में नवीन वेदी में भगवान् विराजमान व कलश-ध्वजारोहण करें। शांतियज्ञ भी उसके बाद करावें । नोट- उक्त विधि में बिंब प्रतिष्ठा संबंधी खास-खास विधि व मन्त्र संस्कार सभी हैं। जलयात्रा. इन्द्रों की शोभायात्रा, पांडुकशिला, वनगमन, रथयात्रा, हाथी के जुलूस, झूला, राजसभा बाहरी कार्य हैं तथा आमंत्रण-पत्रिका छपाकर यात्रियों को बुलाना, उनके ठहरने का प्रबंध, स्वयंसेवक, भोजन का चौका चलाना, विशेष बाजों का बुलाना आदि छोड़ देने से संक्षिप्त विधि हो जाती है। प्रतिष्ठा कार्यक्रम को स्थानीय मंदिरों पर लगाया जा सकता है। ऐसा आयोजन इन्दौर व दिल्ली में सफल हो चुका है। __ बाहुबली स्वामी की भी स्वतंत्र प्रतिष्ठा की जा सकती है। 'प्रतिष्ठा तिलक' व 'आशाधर प्रतिष्ठा' ग्रंथों में मध्यम और संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख है। दक्षिण में तो ऐसी प्रतिष्ठा होती रहती है। यह ८-९ दिन का कार्यक्रम ३-४ दिन में संपन्न हो जाता है। विश्वमैत्री का प्रतीक 'ओम्' या 'ॐ' ओकारं बिन्दु संयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नमः ।। ओं यह अक्षर ब्रह्म है। इसके स्मरण से परमात्मा की उपासना होती है। यह अक्षर याने अविनाशी ब्रह्म का प्रतीक है, जिसकी महिमा सभी शास्त्रों में बतायी गयी है। उक्त मंगलाचरण रूप पद्य में ओं में उसकी अनंत शक्ति का द्योतक बिन्दु अनुस्वार से है। इस बिन्दु से श्रीं, क्लीं, हीं आदि समस्त बीजमन्त्र सार्थक बनते हैं और उनमें सजीवता आती है। यह अभ्युदय और मुक्ति दोनों ही को प्रदान करने वाला है। इसलिये सभी ऋषि, मुनि, योगी एवं गृहस्थ इसका निरन्तर ध्यान करते हैं। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२२९ ___JainEducation International 2010_05 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओम् में अ, उ और म ये तीन अक्षर हैं। संस्कृत व्याकरण से अ और उ का ओ हो जाता है और म् का विकल्प रूप से अनुस्वार होकर ओं बनता है । उक्त तीनों अक्षरों में क्रमशः अज (ब्रह्म), उमेश (विष्णु) और महेश- ये तीनों सृष्टि, स्थिति और प्रलय के प्रतीक हैं, जो इसी ओं रूप परमात्मा में समाविष्ट हैं । ओं के यही अक्षर क्रम से अव्यय, उत्पाद और मध्य द्वारा व्यय, उत्पाद एवं ध्रौव्य से अनित्यनित्यात्मक पर्याय द्रव्य गुण के लक्षण सिद्ध होते हैं। विश्व रचना में लोक के अधो, ऊर्ध्व एवं मध्य ये तीन भेद इसी ओम् के अन्तर्गत हैं। क्योंकि ओम् मुक्ति (परमात्मा) रूप है, अतः उसका मार्ग, अवलोकन (सम्यग्दर्शन), उद्योतन (सम्यग्ज्ञान) और मौन (सम्यक्चारित्र); ये रत्नत्रय मिलकर माना जाता है। भगवान् ऋषभदेव (वैदिक मतानुसार अष्टम अवतार) से भगवान् महावीर तक तीर्थंकरों से सर्वज्ञ पद प्राप्त होने पर जो उनकी उपदेश रूप दिव्यध्वनि खिरी वह ओंकारात्मक थी, जिसमें संपूर्ण (१८ महाभाषा एवं ७०० लघभाषा) भाषायें गर्भित थीं और प्रत्येक भाषाभाषी श्रोता को अपनी भाषा में सुनाई देती थी। ओं यह वह चमत्कारपूर्ण मन्त्र है जिसे प्लुत (त्रिमात्रिक) रूप से उपांशु (अत्यन्त मंद उच्चारण) या मानस जपते रहने पर अन्तःकरण व समस्त शरीर में व्याप्त होकर भीतर की चंचलता और विकार दूर होते हैं तथा सर्वसिद्धियों के साथ परमानन्द रूप परमात्मा भाव की अनुभूति होती है। __ हम देखते हैं कि ओं के स्थान में ॐ का प्रचार अधिक है। इसका तात्पर्य भी महत्त्वपूर्ण है। यह (३) तीन अंक अनेकात्मक व्यवहार का सूचक है। उसके आगे . बिन्दु भेद व्यवहार का निषेधक, अभेदनिश्चय का द्योतक है। इन दोनों के मध्य में जो रेखा है, वह उक्त दोनों को मिलाकर सापेक्षता या समन्वय की सूचक है । सांख्य, वैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध आदि विभिन्न भारतीय दर्शनों में नित्य-अनित्य, भेदअभेद, एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी वादों की मान्यताओं का समन्वय इसी मध्य रेखा से, जिसे अनेकान्त कहते हैं, होता है। ॐ के ऊपर अर्धचन्द्रकार उक्त (ऊ) व्यवहार निश्चयात्मक सविकल्पक विषयों से ऊपर उठकर निर्विकल्पक आत्मानुभूति का बोधक है । उसके भी बिन्दु इन समस्त ज्ञान, साधना और अनुभूति के अंतिम फलस्वरूप मुक्ति का ज्ञान कराती है। कठोपनिषद् का यह प्रमाण रूप विशिष्ट पद्य ज्ञातव्य है - सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।। जिस पद को वेद मानते हैं, संपूर्ण साधनायें - जिसके लिए हैं और जिसकी कामना हेतु ब्रह्मचर्य रूप साधन का आचरण किया जाता है, वह पद समुच्चरूप में ओं ही है। ज्ञानार्णव में भर्तृहरि के भ्राता आचार्य शुभचन्द्र ने ओं को प्रणव (प्रपंच रहित या प्रकृष्ट रूप से २३०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तिदाता) कहा है । इसमें अ से अरहंत, अशरीर, आचार्य, उ से उपाध्याय एवं म् से मुनि, ये परमेष्ठी गर्भित हैं । इस परमेष्ठी वाचक मन्त्र के ध्यान से दुःखरूपी ज्वाला शांत होती है। ओं यह सर्वमान्य मन्त्र है। अतः यह एकता या संगठन का माध्यम है । इस परमात्म रूप ओं के श्रद्धावान् और आराधक परमात्मा रूप पिता की छत्रछाया में रहकर भ्रातृभाव को त्याग कर क्या परस्पर द्वेष या वैरभाव कर सकते हैं? यदि करते हैं तो उन्हें आस्तिक या सच्चा आराधक किस प्रकार कहा जा सकता है? वर्तमान में हम सबके लिए यह विचारणीय है। ओं यह वह ब्रह्म रूप समुद्र है जिसमें सर्वधर्म रूप नदियाँ आकर मिलती हैं । यह वह गुलदस्ता है जिसे विविध धर्म रूप पुष्प एक साथ गूंथ कर उसकी शोभा बढ़ाते हैं । अनेकता में एकता, द्वैत में अद्वैत एवं भेद में अभेद का साक्षात्कार इसी ओं द्वारा संभव है। यदि हम ओं का आराधन करना चाहते हैं, धर्मात्मा बनना चाहते हैं, तो सेवा का, प्रेम का, नैतिकता का और त्याग का व्रत लेवें । पड़ौसी की भलाई समझें । आज धर्म या दर्शन को चर्चा या विवाद का विषय बनाने के बजाय उनसे मनुष्यता और सदाचार का पाठ सीखना चाहिये । हम अहंकार या परस्पर घृणा का त्याग कर सबके साथ समभाव व प्रेमपूर्वक व्यवहार करेंगे, तभी हमारा यह देश, समाज और हम जीवित रह सकेंगे। हमें ये वाक्य हमेशा याद रखने होंगे - 'उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' 'मैत्रीभाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे ।' 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।' कुछ आवश्यक समाधान (१) व्यंगितां जर्जरां चैव पूर्वमेव प्रतिष्ठित्ताम् । पुनर्घटितसंदिग्धां प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥ जीर्णं चातिशयोपेतं तद्विंम्बमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्यं स्यात्प्रक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥ नासा मुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमंडले । स्थानेषु व्यंगितेष्वेव प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥ मानाधिका परिवार रहिता नैव पूज्यते । काष्ठ लेपायसंभूता प्रतिमा संप्रति न हि ॥ अंगरहित, जर्जर, पूर्व प्रतिष्ठित, दूसरी बार निर्मित,संदेहयुक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा न करें । जीर्ण हो किन्तु अतिशय वाली प्रतिमा भी पूज्य होती है। शिर रहित मूर्ति को गहरे जल में क्षेपण कर देवें । नासा, मुख, नेत्र, हृदय, नाभि रहित मूर्ति को न पूजें । उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित सौ वर्ष से ऊपर की क्षत अंग वाली मूर्ति भी पूज्य होती है। अधिक मान वाली व अष्ट प्रातिहार्य रहित मूर्ति पूज्य नहीं है और काष्ठ व मृत्तिका से निर्मित मूर्ति वर्तमान में नहीं बनाई जाती है। (उ. श्रा.) [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२३१ 2010_05 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) द्वारस्याष्टांग हीनः स्यात् स पीठः प्रतिमोच्छ्रयः । त्रिभागो भवेत् पीठं द्वौ भागौ प्रतिमोच्छ्रयः || मंदिर द्वार के आठ भागों में से ऊपर के आठवें भाग को छोड़ कर शेष सात भाग प्रमाण प्रतिमा (पीठिका सहित) की ऊँचाई होवे । सात भाग को तीन भाग में करके उनमें से एक भाग की पीठिका और दो भाग की प्रतिमा की ऊँचाई करें। यह खड्गासन प्रतिमा की है । पद्मासन हो तो दो भाग की पीठिका और एक भाग की मूर्ति बनवावें । (व.प्र.प्र.) अतीताब्दशतं यत्स्यात् यच्च स्थापित मुत्तमैः । तद्व्यंगमपि पूज्यं स्याद्विम्वं तन्निष्फलं न हि ॥ १०८ ॥ जिसको १०० वर्ष व्यतीत हो गये हैं, ऐसी सातिशय प्रतिमा किसी महान् पुरुष के द्वारा स्थापित की गयी हो, तो वह विकलांग भी पूज्य है । किसी के हाथ से प्रतिमा खंडित हो जावे तो ११० माला ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा सर्वशांति कुरु कुरु स्वाहा इस मन्त्र की जप कर चौसठ ऋद्धि विधान की पूजा करें । शक्ति देखकर उपवास व एकाशन करावें तथा उसी नाम की दूसरी प्रतिमा का १०८ कलशों से अभिषेक करें । खंडित प्रतिमा को गहरे जल में छोड़ें | I प्रतिमा चोर ले जावें और मिल जावे तो पंचपरमेष्ठी या चौबीस महाराज मंडल की पूजा करें । ११० माला उक्त शांति मन्त्र की जपें । अभिषेक मन्त्र से १०८ बार अभिषेक कर विराजमान करें । (ज्ञानानंद श्रावकाचार - ९७) प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा हुआ पाछे प्रतिमाजी के टांची लगावें नाहीं । दिगम्बर जैन मूर्ति प्राप्ति के कुछ स्थल १. नाटा मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, जयपुर-१ २. इन्द्र मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, तीसरा चौराहा, जयपुर- १ ३. मुरली मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, जयपुर- १ व्रतादि जैनतिथि की मान्यता अतस्तद्वयं निर्मलसमं बहुभिः कुलाद्रिमत माहत मित्यत - अनवच्छिन्न पारंपर्यात् तदुपदेशक बहुसूरि वाक्यच्च सर्व जन सुप्रसिद्धत्वात् रस (६) घटीमतं श्रेष्ठमन्यत् कल्पनोपेतं मतं सेन- नन्दि- देवा उपेक्षन्तेऽनाद्रियन्तेऽतः कुन्दकुन्दाद्युपदेशात् रस (६) घटिका ग्राह्या कार्याइत्यर्थः । आचार्य सिंहनंदि, व्रततिथि निर्णय पृष्ठ ७२; इस मत के द्वारा समर्थित निर्दोष परम्परा से प्राप्त तथा इस निर्दोष परम्परा के उपदेशक आचार्यों के वचनों से एवं सभी मनुष्यों में प्रसिद्ध होने से छः घटी प्रमाण तिथि का प्रमाण माना गया है । अन्य जो तिथि का मान कहा गया है, वह कल्पना मात्र है, समीचीन नहीं है । इसलिए इसकी सेनगण, नन्दिगण और देवगण 'आचार्य उपेक्षा अर्थात् अनादर करते हैं, अतएव I २३२ ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] 2010_05 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दादि आचार्यों के उपदेश से सभी मंतों की अपेक्षा (सूर्योदय से) छः घटी प्रमाण तिथि का मान ग्राह्य है। (२४ मि. एक घड़ी) नोट- पंचांग से देखकर उक्त निर्णय करना चाहिये। इसी नियम के अनुसार सन् १९३४ से 'जैनतिथि दर्पण इन्दौर' तैयार किया जाता है। श्री जिनबिंब पंचकल्याणक की द्वितीय विधि प्रतिष्ठा प्रदीप में आचार्य जयसेन के प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार प्रथम विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। प्रतिष्ठा की दूसरी विधि कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में अधिक प्रचलित है। पाठकों को यह जानकर हर्ष होगा कि सभी प्रतिष्ठा पाठों में गर्भ, जन्म, तप एवं ज्ञान कल्याणक के मन्त्र संस्कार समान पाये जाते हैं । गर्भ में पीठी (सिंहासन) या मंजूषा में जिनेन्द्र माता का स्थापना कर सम्पूर्ण विधि संपन्न की जाती है। (प्रतिष्ठा तिलक, पृष्ठ १२७) । जन्माभिषेक मेरु पर (हस्तिमल्ल प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ १३८) इन्द्रों द्वारा क्षीरसागर के जल से कराया जाता है। आकर शुद्धि आदि पृथक् की जाती है। प्रथम विधि के समान ही जन्म के मन्त्र, तप की विधि व ४८ संस्कार, अंकन्यास, तिलकदान, अधिवासना, स्वस्त्ययन, कंकणबंधन व मोचन, नेत्रोन्मीलन, केवलज्ञान के मन्त्र समान हैं। मृत्तिकानयन, अंकुरारोपण, भेरीताड़न (रात्रि में देवों का आह्वानन), जलयात्रा में जलदेवता (गंगा आदि) की पूजा, पंचामृताभिषेक, सचित्त पुष्प फलादि से पूजा, चतुर्णिकाय के देवताओं की पूजा व उनकी मूर्ति स्थापन, यागमंडल में विद्या देवता, जिनमाता, इन्द्र, यक्ष, शासनदेवता, द्वारपाल, दिक्पाल आदि की द्वितीय विधि में पूजा की जाती है। मंगलाष्टक का विशिष्ट पद्य देव्योऽष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्याधिका देवताः । श्री तीर्थंकर मातृकाश्च जनकाः यक्ष्यश्च यक्षेश्वराः ॥ द्वात्रिंशत्रिदशाधिकाः तिथिसुरा दिक्कन्यकाश्चाष्टधा । दिक्पाला दश चेत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु ते मंगलम् । उक्त पद्य में उल्लिखित देवताओं की प्रतिष्ठा में विघ्न निवारण हेतु पूजा की जाती है । अग्निपूर्वक शांति यज्ञ भी होते हैं। जल-होम प्रतिष्ठा में बताया है। 'श्री नेमिचन्द्र प्रतिष्ठा तिलक' के साथ 'श्री आशाधर प्रतिष्ठा सारोद्धार' का भी इस प्रतिष्ठा में उपयोग होता है, क्योंकि दोनों में क्रियाकांड संबंधी समानता है। सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों के प्रति आज से सात दशक पूर्व की सामाजिक स्थिति का जब हम अवलोकन करते हैं, उस समय धार्मिक क्रियाकाण्ड ब्राह्मण पंडितों के हाथ में था । दिगम्बर मुनिराज और विद्वानों के दर्शन दुर्लभ थे । परमपूज्य [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२३३ JainEducation International 2010_05 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य शान्तिसागरजी, गुरुवर गोपालदासजी एवं पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजी को यह श्रेय प्राप्त है कि वर्तमान में हमें अधिक संख्या में मुनिराज और प्रायः सभी विषयों के विद्वान् उपलब्ध हो रहे हैं। अपने सम्मानीय प्रतिष्ठाचार्यों से निवेदन करना चाहता हूँ - अपने पड़ौस से आये हिंसक क्रियाकाण्डों को अहिंसापूर्ण क्रियाओं में परिवर्तित कर आपने साहसिक प्रयासों द्वारा पडौस को अहिंसक बनाया है। अपनी श्रमण संस्कृति के रक्षक का भार ग्रहण कर व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय की आराधना के स्थल मन्दिर और मूर्तियों आदि की समृद्धि में अपना योगदान कर रहे हैं, एतदर्थ समस्त जैन समाज आपका कृतज्ञ है। क्योंकि आपके सहयोग से वह मिथ्या मार्ग में भटकने से बच रहा है। आशा है, आप अपने महत्वपूर्ण पद की गरिमा एवं पूज्यता का ख्याल कर अपने संस्कृत भाषा एवं उत्कृष्ट आचार-विचार के साथ उक्त सेवा कार्य करते रहेंगे। क्योंकि हमसे पूर्व कतिपय ऐसे भी प्रतिष्ठाचार्य थे जिन्हें शुद्धोच्चारण तक नहीं आता था. न ही प्रतिष्ठा संबंधी ज्ञान था. पर एरण्डोऽपिदमायते के अनुसार वे तत्कालीन समाज की धर्मांधता का लाभ उठा कर अश्रद्धा के पात्र बने थे। अब तो समाज प्रबुद्ध है । प्रतिष्ठा क्षेत्र में, गृहस्थाचार्य गुरु के न होने से बहुत कम विद्वान् दिखलाई दे रहे हैं। उन्हें विद्यावर्धन शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र इन्दौर में विधिवत् संस्कृत भाषा व प्रतिष्ठा विधि का शिक्षण-प्रशिक्षण लेकर समाज सेवा करना चाहिये। मूर्तियों में पूज्यता लाने की हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। पहले प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा संबंधी समस्त सामग्री अपने लिए ग्रहण कर लेते थे, समाज में जब असंतोष बढ़ा तो झूला का द्रव्य, सुवर्ण प्याला, शलाका, आभूषण व मेवा-गादी-रजाई आदि बन्द हो गये, परन्तु कहीं-कहीं दहेज के समान माँग एवं बोलियों से आय कराने का प्रलोभन देना अभी भी विद्यमान है, जिसे सीमित करना चाहिये। ध्यान रहे कि अब माता-पिता बनाना शास्त्रोक्त नहीं है। दिगम्बर गुरु से सूरिमन्त्र आदि चार मन्त्र संस्कार अनिवार्य हैं। २३४] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] 2010_05 . Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शिक्षण प्रशिक्षण शिविर 2010_05 10 जनमतक श्रमणसंस्कृति विद्या वर्द्धन ट्रस्ट इन्दौर शिक्षण प्रशिक्षण शिविर जनचतक आपका हार्दिक अभिनंदन है बायें से बैठे हुए प्रथम पंक्ति-शिविर संयोजक श्री गुलाबचंद बाकलीवाल, ट्रस्ट मंत्री इंजी. जैन कैलाश वेद, श्रीमती सुमन जैन, (धर्मपत्नी ट्रस्टी श्री दिग्विजयसिंह जैन) महिला रत्न प्रमुख अतिथि श्रीमती चन्द्रप्रभादेवी मोदी, प्रमुख संरक्षक 'पद्मश्री' श्री बाबूलाल पाटोदी, अध्यक्ष पं. श्री नाथूलाल जैन शास्त्री, ट्रस्टी : पं. श्री रमेशचन्द बांझल, श्री शांतिलाल दोशी, प्रो. रवि गंगवाल, श्री विमल लुहाड़िया। • बायें से द्वितीय पंक्ति में खड़े हुए-श्री हजारीलाल दोशी, पं. जयसेन जैन, पं. अमृतलाल शास्त्री-दमोह, पं. विजयकुमार शास्त्री, पं. बाबूलाल फणीश शास्त्री-ऊन, श्री शीलचंद जैन, ब्र. जिनेशकुमार शास्त्री जबलपुर, डॉ. महेशकुमार जैन-जयपुर, पं. प्रकाशचंद जैन शास्त्री, श्री कमलकुमार जैन-मुरैना, पं. जैनेन्द्रकुमार शास्त्री-सोलापुर, श्री राजेन्द्रकुमार जैन-उज्जैन। बायें से तृतीय एवं पीछे पंक्ति में खड़े हुए- श्री बाबूलाल जैन-इन्दौर, श्री धरमदास जैन-इन्दौर, श्री धीरेन्द्रकुमार जैन-जयपुर, पं. नन्हेभाई शास्त्री-सागर, पं. विरेन्द्रकुमार शास्त्री-सागर, श्री सनतकुमार जैनखिमलासा, पं. बाबूलाल शास्त्री-बड़ामलहरा, पं. मनोरंजन जैन शास्त्री-उदयपुर, ब्र. प्रदीपकुमार शास्त्री-वालियर, श्री प्रफुलल्लकुमार जैन-सागर, पं. पवनकुमार जैन, चक्रेश शास्त्री-शाहगढ़, ब्र. राजेशकुमार जैन-सम्मेदशिखर, ब्र. फूलचंद लुहाड़िया-इन्दौर, ब्र. मुकेशकुमार जैन-अशोकनगर, ब्र. विनोदकुमार शास्त्री-जबलपुर, पं. दयानंद शास्त्री-सतना। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा प्रदीप 虽5岁男 TATAVATATAN परिशिष्ट (उपयोगी यंत्र आदि के चित्र) 2010_05 | Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - kutta STATE - मन्दिर का शिखर, कलश, ध्वजा निर्माण के लिए 2010_05 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंच परमेष्ठी विधान मंडल - - चौबीसी मंडल विधान 2010_05 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंचपरमेष्टी मंडल विधान सिद्ध TA. अरिहंत आचार्य Be साधु htohe 2010_05 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ८५६९७४८१ अकृत्रिम जिन मन्दिर जिनागमा ॥ - IC - - ९२७५३२७९४८ अकृत्रिम जिन प्रतिमा जिन धर्मः। 8 वलय बनावें। सुन्दर कोठे इस तरह(१) में १७ (२) में २४ (३) में २४ (४) में २४ (७) में २० (६) में ३६ (७) में २७ (८) में २८ (8) में ४८ कोने में ४ कुल २५० । याग मंडल विधान -- 2010_05 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहूलोगुतमा अलिपण्णता / धमोलागुत्तमो/पटल लोगुत्तमा जाणतो अरहंता लाम लागुत्तमा पटवज्जामि/E: अरहंतेसरणं मालमधम्मो मंग | साहू केवलि मानि पत्यज्जामि शरण सिद्ध सरणं सा पव्यज्जामि सिदा | मगलम मं साहू सरण / मंगलम् पटवज्जामि अरहता धम्म सरण केवाल पण्णतं विनायक यन्त्र 2010_05 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अवगाहनत्व अनन्त सुख अव्या बाधत्व सूक्ष्मत्व / अनन्तदर्शन | . जगुरु लघुत्व ا عاديره कर्मदहन यन्त्र नंद्यावर्त साथिया 2010_05 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ XXXX XXXX श्रदाध पफाब ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ XXXX 의에 औ अं. ओइ xxxxx काखभ उगम ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ holder वावा . रम्ल्यू टाञ झ 1 ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ XXXX ठल ल्ट ड ए अ ष शव छ चल ऋाङ र XXXX ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ * AAXX ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ मातृका यन्त्र 2010_05 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अष्टदल कमल - (८१ कलश स्थापित करने हेतु मन्दिर एवं मानस्तम्भ शुद्धि हेतु) 2010_05 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 以 式亦可女志m坑一 农作平化节 中查 44 | 43 次岁到9虫 | छ 33 awa, | 如乐 49 中国当当图 eat E乐條 a5市长色而成 第四 | A-Wpr过此地母 1A4此 | 3.3 x甘比母 A44 लघु सिद्धचक्र यन्त्र 2010_05 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो लोए स लोए सव्वसाणं, सर णमो उवज्झायाणं 85 Hem हीं अई अनारन विधाओं अमोलए सब्दमादणंस 8: णमो आयरियाणा 5: अनारन अनारन विधाये. बामाबाबा विधायेत SA पारणं साहबम - 6:8:38:3: ANS 10.माव 8:38:38 29 कम दा जमोलाए विमरवण णमो नम्पाट वायसाहा ठः अई अनाहत विद्यादै BARCBr ठः ZPN Saxणमाआवरिया . 8 ठः ही जमो उक. मायाणका म. सम्यग्दर्शनाय स्वा ही अह अनाहत विधाये। यक दर्शनाय सम्यक है 3. MgaDEN माम म्वाहा। मो अरिहंताणं णमो सि श्री सम्यग्ज्ञा B कि BRcoE Sax यस्वाहा' काल ओौ लव.मा 2 अनाहत विधायक मिकाम्बाहा। 29:9:00 ही णमो आय. रियाणस्वाहा। ही सम्यकः HapANA 22 :.. गणो मि ही अह अनाहत विका स्वरमा अशानाय स्वाहा।। FREE san- 29 ज्ञानाय सम्यक , जमोसिस तपम स्वाम ॐही सम्बग्ण 10:9::09 अX: BKrena. IDRENRY Tush लियाये यOS 20209 तामा वाहासह.. 22 सम्यक चारित्राय सम्म करिनाबस्वाहा। DOg सशसह. सम्यकथा आहे. अनाहतविधान ट: 1 । अहं अनाहत विद्यारी . बाहा । ॐ ह्रीं अर्ह से सिद्ध चक्राधिपत श्री सिद्ध चक्र यन्त्र (वृहत्) 2010_05 | Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अहीली हीं ही स का ॐ हाला हो श्री ही ।।द्री लोक्यसार यन्त्र 2010_05 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं वर्द्धमान देवाय ॐ ह्रीं हैं वा थंभणे वा मोहण वा सव्वजीवसत्ताणु आवराजिदा भवदं मे रक्ख रक्ख वर्द्धमानाय ॐ ह्रीं हैं ॐ ह्रीं हैं 2010_05 | वर्द्धमानाय वर्द्धमानाय वाय ऋद्धि- वृद्धि-सम्पत्ति-विधायकाय वर्द्धमानाय स्वाहा तथ दधन पफ ब भ म य र ल व श ष सह / स्वाहा स्वाहा स्वाहा સ | वर्द्धमानाय ह्रीं हैं ॐ ह्रीं हैं स्वाहा कखगघङचञटठडढण तथ दधन ही हुआ यह । 19112 परमौदारिक शरीरस्थिाय शान्तिं पुष्टिं कुरु ॐ णमो भयवदो लृ एट अ अ: स्वाहा अअः रा ऐ ओ औ नट वह बल । अआइईउऊ ॐ ह्रीं हैं वर्द्धमानाय वर्द्धमानाय ॐ ह्रीं हैं ( वर्द्धमानाय वर्द्धमान यन्त्र स्वाहा ॐ ह्रीं हैं स्वाहा मष्ठिने नमः : सर्व साधुपरॐ ह्रीं हैं आयास पायाल लोयाण भूयाणं जूए वा विवादे वा रयणंगणे वा शंभणे वा मोहणे ॐ ह्रीं हैं सिध्दाय नमः स्वाहा स्वाहा नमः 191167 नमः ॐ ह्रीं हैं आचायाय उपाध्यायाय ॐ ह्रीं हैं Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर ही अहे णमोडही अहम जाने विष्पोसहिपता सम्बोमहिपत्ता पिता मनोबलोणं ही महगमोहीम सोही अहं गमो की नमोहीअनमो पतालोसहिपताल ॐहीबह गमोडी अनि बिदुपत्ताण उसपुप्पोनं / महंगमोही असा जामोसहिपतानवलोम सम्बो सो सम्मोहिनिणार्ग हंगो दह गयो । ॐa. जनमोहीमो. कराई गयो बिउसमारो PURAL बीमाहराव नमो परमोहिनिया हमको उम्पनी . हंगमोहीमहको ॐ ही वीही भी में हमो कोहली प्पिसको पश्चिम . नमो सिमा असा Patn महसयो / ति । बोहिण्या ॐही हममो होमो तयाणं घोरतमा पतंगबुदाणा ही भागातगामी ही अह नमो जिणाण गयो ही अहं गमो राण सटाण हणमा पादानुसारो। मोहीहंगो र भित्रमोदराणं । ही मह गमो Marway wwwnxx 8 | आमीविला मह गमोm रिट्टिविताणं ही हं जयो लोए सम्बनाइ गहमामालिका JANRAILeTV -/ammy Mainine राaadam दक्षिण गणधरवलय यन्त्र - 2010_05 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टण होता कीत थ द धन III । स्वाहा ॐहीट ठ डर । स्वाहा ॐहींचछजझस स्वाहा । स्वाहा जहांहीं हूं हौंहः असि आ उसा श्री हैं मम इष्ट शुभ कुरु कुरु स्वाहा ॐही पफस वं *कखग घड मम | अहीं यर स्वाहा ___ स्वाहा सरल व ॐॐहीं कर ॐ SESSULELE */ बोधिसमाधि यन्त्र 2010_05 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ हीं सम्म सम्यक चारित्राय जाउ सा | यग्ज्ञानाय नमः नमः नमः नहीं सम्य सा | ॐ असिओ सिआ उसा | ॐ माउसा | असि नमः या सिआ 3 सा | ॐ ॐहीं णमो अरहंताणं ॐ हीं णमो सिदाणं ॐ हीं णमो आइरियाणं ॐहीं णमो उवज्झायाणं ॐ ही णमो लोर सव्वसाहणं स्वाहा साउसा | जसि नमः नमः यग्दशनाय नमः ॐ हीं सम्यो VERSE मोक्षमार्ग यन्त्र 2010_05 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्ष्वीं 2010_05 ऊ ई उ PEPPER चिय आ ही वं वं वं वं हं १५ ऋ लृ ऋट ठठठ Su ठठठ पु लृ 360000 098922 点 अः ए अं नयनोन्मीलन यन्त्र ऐ ओ सः Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टं कुरु कुरु स्वाद क स्वाहां। इम मन्त्री पुष्टि ससि आउसावी मम शान्ति सिसि आउसाइवीं/ आउसा पंस * श्रीं श्रीं श्रीं श्री श्री स्वी असि आउन मन्त्रं जपतः सा श्री श्रीं श्रीं श्रीं स साउसाहअसि. उ माउसाहसि आ ति सर्व - सम्पतिः श्री श्री श्री श्री श्री ही आ. ह: पः हः अ ॐ| असि सिआउसा पः/त 珍珍处处透出 हैस्यात् । साहः | असिआ. ॐ बुं पं भवी असि आउ सान निर्वाण सम्पत्कर यन्त्र 2010_05 . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न - १. वृषभ-बैल २. हाथी ३. घोड़ा ४. वानर कोच ६.पद्म-कमल| ७. स्वस्तिक ८. चन्द्रमा ९. मगर १०. कल्पवृक्ष ११. गेंडर १२. भैंसा १३. सुअर १४. सेही १५. वज्र १६. हरिण १७. बकरा १८. मीन १९. कलश २०. कछुआ AANING २१, नीलकमल २२. शंख २३. सर्प २४. सिंह Waline bras org Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - pps Jpe | क्ष्वी क्लीं * . इवीं इवलें | लैं | वीं IXI श्री १००८ ऋषभनाथजी क्लीं इवी से क्ष्वी इवी 26]क्ष्वी ६वीं इवीं। श्री १००८ अजितनाथजी 2010_05 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Paps क्लीं क्ष्वी *OR Xल | eवीं इवी | लें | श्री १००८ संभवनाथजी pps year क्लीं इवीं | क्ष्वी इवीं क्ष्वी लँक्ष्वी इवीं श्री १००८अभिनन्दननाथजी XI 2010_05 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - plups pap 2वीं क्लीं इवीं - इवी | | लक्ष्वीं __ इवीं लX IXI श्री १००८ सुमतिनाथजी - 2k1वीं क्लीं इवीं | * इवी क्ष्वी स्वी इवी। श्री १००८ पद्मप्रभजी - 2010_05 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Pos ka क्ष्वीँ इवीं लँ क्ष्वीँ ka क्ष्वीं eto इवीँ MC 4 लँ क्ष्वीँ श्री १००८ सुपार्श्वनाथजी क्लीँ इवीँ लँ हँ सः श्री १००८ चन्द्रप्रभजी 3k jps ए ठ jps झवीँ लँ Rk वीँ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इवी ल | लैं| वीं | क्ष्वी क्ली इवीं| वी इवीं ____ X 1 लैं | वीं इवीं | ल IXI श्री १००८ पुष्पदंतजी - इवी। | लँ | क्ष्वी *क्ष्वी की इवीं | स श्ती इवीं | | क्ष्वी इवीं | लँ श्री १००८शीतलनाथजी 2010_05 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Rk वीँ वीँ वीँ jps लँ वीँ वीँ Ok Ok s क्लीँ लँ वीँ झैँ श्री १००८ श्रेयांसनाथजी क्लीँ झँ ऋ Zi. वीँ ی ऋ सः श्री १००८ वासुपूज्यजी इवा 2 वीँ 2k ips इवीँ लँ ka क्ष्वीं Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Pips वीँ इवीँ ठ लें वीँ वीँ Ok इवीँ Ok क्लीँ लँ वीँ comm इवीँ श्री १००८ विमलनाथजी क्लीँ हँ सः झँ हँ सः इवीँ श्री १००८ अनन्तनाथजी 2k ps वी 2k इवीँ 2. क्ष्वीँ * Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 वीँ वीँ ठ लॅ वीँ ps वीँ 杨枝 इवीँ Ok क्लीँ लँ क्ष्वीँ : डाँ श्री १००८ धर्मनाथजी क्लीँ S D झैँ इवीँ लँ ७) Bk. Jps श्री १००८ शान्तिनाथजी Bk क्ष्वीँ इवीँ इवीँ लँ Bk वीँ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 1 s वीँ इवीँ ठ वीँ इवीं Ok क्लीँ 布 लँ क्ष्वीँ ऽ वीँ श्री १००८ कुन्थुनाथजी क्लीँ ऽ •WS 布 हँ एं श्री १००८ अरनाथजी इवीँ लँ हँ सः Bk. Jes क्ष्वीं X डवी झ्वीँ लँ JP3 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 वीँ इवीँ लें वीँ वीँ डवीं Ok क्लीँ लँ क्ष्वीँ झँ श्री १००८ मल्लिनाथजी क्लीँ ह सः 布 इवीँ p हँ सः श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथजी 梁 इवा 3. क्ष्वीँ 2k yo झ्वीँ लँ Bk. वीँ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Pups Thb क्लीं क्ष्वी डवी Ok । ekst w इवीं। eat IXI श्री १००८ नमिनाथजी XI pape 153 क्लीं क्ष्वी इवीं k edil इवीज इवीं। ele लँ क्ष्वी - X श्री १००८ नेमिनाथजी - 2010_05 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ papa J8 | क्ष्वी क्लीं इवीं | * । इवीं इवीं क्ष्वी लक्ष्वी इवीं | लें | IXI श्री १००८ पार्श्वनाथजी XI |pp क्ष्वी ___ इवीं| A इवीं | क्ष्वी लँक्ष्वी झ्वी | लँ II श्री १००८ महावीरजी XI 2010_05 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॐ सर्वसाधवे Aॐ उपाध्याय - नमः नमः ॐ आचार्याय।। नमः sa ॐ जिन अर्हदभ्यो नमः नमः ॐ सिदाय * नित्याय जिन अर्हते. नमः । चैत्यालयाय ॐ |jan OE पूजा यन्त्र रथयात्रा में Pale अर امامها मन मल्लि मुनिसुवत 13RD अजित सुपाव Mahak EKBE वर्तमान चौबीसी मंडल यन्त्र 2010_05 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिविर के मार्गदर्शन हेतु पधारे विद्वज्जन दि.1जन से श्रमण संस्कृति विद्या वढनट्रस्टइन्दौर शिक्षण-प्रशिक्षणाशावर जन तक "आपका हार्दिक अभिनंदन है" सर्वश्री पं. नाथूलाल जैन शास्त्री, इन्दौर; पं. दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य, बीना; पं. नरेन्द्रप्रकाश, फरीदाबाद एवं पं. रमेशचन्द बांझल, इन्दौर 2010_05 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के निदेशक, १९३४ से जैन तिथि दर्पण का संपादन, खं. जैन हितेच्छु एवं १९७१ से १९८४ तक 'सन्मतिवाणी' के प्रधान सम्पादक, १९७९ में विद्वत् परिषद् के १३वें अधिवेशन की अध्यक्षता एवं वर्तमान में संरक्षक, वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फूलचन्द गोधा प्रकाशन समिति, विद्यार्थी सहायता कोष, श्रमण संस्कृति विद्यावर्धन ट्रस्ट के अध्यक्ष तथा भगवान् बाहुबलि दि. जैन अतिशय क्षेत्र गोम्मटगिरि के उपाध्यक्ष, मालवा प्रान्तीय सभा व इन्दौर दि. जैन समाज की अनेक संस्थाओं के संरक्षक, मन्त्री, अध्यक्ष एवं ट्रस्टी हैं। विधि-विधान के सद्प्रचार की दृष्टि से १९४६ में मथुरा तथा १९४७ में वर्णी-भवन सागर में शिविरों का आयोजन किया। जन १९९३ से श्रमण संस्कृति विद्यावर्धन ट्रस्ट द्वारा ५० विद्वानों को प्रतिष्ठा प्रशिक्षण प्रदान किया। सम्मान : सन् १९५१ में अ.भा. दि. जैन महासभा द्वारा हिन्दी जैन साहित्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम, ६ जून १९९३ को आपकी कृति 'प्रतिष्ठा प्रदीप' पर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार, फरवरी १९९५ को गाँधी नाथारंगजी दि. जैन जन मंगल प्रतिष्ठान सोलापुर द्वारा पूज्य आचार्य विद्यानन्दजी के सान्निध्य में कुन्दकुन्द पुरस्कार एवं श्रुतयोगी पद से सम्मानित। साहित्य-सेवा : आपकी रचनाओं में जैन तीर्थयात्रा भाग १ से ३, पावागिरि (ऊन) इतिहास, जैन संस्कार विधि, नैतिक शिक्षा भाग १ से ७, प्रतिष्ठा प्रदीप, 'आत्म धर्म एवं समाज धर्म' आदि प्रमुख हैं। नैतिक शिक्षा के सभी भागों को क्रमानुसार उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। वर्तमान में निवृत्त जीवन व्यतीत करते हुए धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों के चर्चित विषयों पर ग्रन्थ लेखन कार्य चल रहा है। आवरण : देवकृष्ण नईदुनिया प्रिन्टरी, इन्दौर 0763121 cation.International 201005 For Private&Personal use o r Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pe GE समवशरण-रचना and all intematon 2010/05 For Pinate S Personal use only www.jalinelibrary.org