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________________ दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं घोरं तपोघोरपराक्रमस्थाः । ब्रह्मापरं घोरगुणं चरन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ।।८।। आमर्ष सर्वोषधयस्तथाशी विषंविषा दृष्टि विषंविषाश्च ।। सखेल्लविड्जल्लमलौशधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥ क्षीरं सवन्तोऽत्र घृतं सवन्तो मधुस्रवन्तोऽप्यमृतं सवन्तः ।। अक्षीणसंवास महानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥ (इति परमर्षि स्वस्ति मंगल विधानम्) जल परम उज्ज्व ल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरों । वर धूप निर्मल फैल विविध, बहु जन्म के पातक हरों ।। इह भाँति अर्घ्य चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मचों । अरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु, निर्ग्रन्थ नित पूजा रचों ॥ दोहा वसुविध अर्घ्य संजोय के, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन । ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा। जलफल आठों दर्व, अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनि ह्तै, थुति पूरी न करी है ॥ द्यानत सेवक जानके, (हो) जगते लेहु निकार । सीमन्धर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जहाज । ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरादि विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । यावन्ति जिन-चैत्यानि, विद्न्ते भुवन-त्रये । तावन्ति सततं भक्त्या, त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ।। ॐ ही श्री त्रिलोक संबंधि कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । नवदेवपूजन अरिहन्त सिद्धसाधु-त्रितयं, जिनधर्म-बिम्ब-वचनानि । जिननिलयान् नवदेवान्, संस्थापये भावतो नित्यम् ।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री नवदेवसमूह । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ३२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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