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लेख नं. ७०२ में पश्चिम भारत के बलात्कारगण सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दान्वय की भट्टारक परम्परा तथा उत्तर भारत लेख नं. ६१७ में बलात्कार गण के गच्छ की गुरु परम्परा (भट्टारिका) दी गयी है । (पृष्ठ ६५-६६)
सारांश- उक्त उल्लेख से ज्ञात होता है कि मूर्ति प्रशस्ति में केवल दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दाम्नाय के सिवाय गण-गच्छ का कोई महत्त्व नहीं है।
अन्य प्रतिष्ठा ग्रन्थों का परिचय
प्रतिष्ठा सारोद्धार . (श्री पं. आशाधरजी)
प्रथम अध्याय कर्णपिशाचिनी मन्त्र जपकर शुभाशुभ जान वेदी के नीचे बीच में सुवर्ण या चाँदी का मनुष्याकार पुतला घड़े में रखें। नींव की पूजा करें। पाँच शिला व ताम्र-कलश नींव में रखें । मन्दिर निर्माण कराने को पर्वत (खदान) से मूर्ति हेतु शिला लाकर उसे मन्त्र से शुद्ध करें। शिल्पी शुद्ध शाकाहारी हो । मूर्ति १२ दोष रहित हो । गृह चैत्य १२ अंगुल से अधिक न हो । प्रतिष्ठाचार्य (इन्द्र समान) यजमान, इनके दीक्षा गुरु साधु के लक्षण । इन्द्र प्रतीन्द्र व प्रतिष्ठा विधि । मण्डप निर्माण व आठ वेदी।
द्वितीय अध्याय ऐदंयुगीन श्रुतभृद् धुरीणो प्राणपालकः ।
पंचाचाय्परो दीक्षा प्रवेशाप तयेयोर्गुरुः ॥११७।। जल यात्रा विधान | अंग न्यास, सकलीकरण, यज्ञदीक्षा मन्त्र विधि । इन्द्र दीक्षा मन्त्र (४३) - यज्ञ भूमि शुद्धि देवों के आह्वान द्वारा (वेदी मण्डप की)।
तृतीय अध्याय यागमण्डल पूजा अव्युत्पन्न दृशः सदैहिक फल प्राप्तीच्छयार्चन्ति यान् (देवान्) (६६) अर्थ- अज्ञानी ऐहिक फल की प्राप्ति की इच्छा से देवी-देवताओं को पूजते हैं।
चतुर्थ अध्याय सकलीकरण । गर्भ कल्याणक भद्रासन गर्भनिवेशितप्रतिमाये जिन मातृ पूजा (९०) जन्म कल्याणक व धूली कलशाभिषेक, अनेक द्रव्यों से अभिषेक
तप कल्याणक-सिद्ध चारित्र-योगि-शान्ति भक्ति, संस्कार मन्त्र ४८, अंकन्यास । तिलक द्रव्य प्रतिमा को चढ़ावे। [प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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