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________________ सौधर्माय स्वाहा - उत्तम धर्म स्वरूप सिद्ध के लिए अग्नींद्राय स्वाहा - अधर्म के दहन करने वालों के स्वामी के लिए अनुचराय स्वाहा - परम्परारूप ज्ञान युक्त के लिए ग्रामपतये स्वाहा - प्राणी वर्ग के स्वामी जिनेन्द्र के लिए श्रावकाय स्वाहा - श्रवण आत्म गुणों के योग्य धारक के लिए षट्कर्मणे स्वाहा - जो षट्कमों का उपदेश दे चुके उनके लिए अहमिन्द्राय स्वाहा - मैं परम ऐश्वर्य रूप ज्ञान क्रिया युक्त हूँ ऐसा निजस्वरूप का निश्चय करने वाले के लिए नेमिनाथाय स्वाहा - धर्मचक्र की धुरा के स्वामी के लिए वज्रनामन् स्वाहा - कर्म पर्वतों के नाश करने वाले के लिए। नोट- उक्त अर्थ पं. कलप्पा भरमप्पा निटवे के मराठी महापुराण के अनुसार है। इसी प्रकार अन्य मन्त्र हैं । यहाँ तो उक्त कुछ संदेहात्मक मन्त्रों का स्पष्टीकरण बताया है। मूर्ति प्रशस्ति में सरस्वती गच्छ-बलात्कारगण अनावश्यक जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, मुंबई विक्रमाब्द २०१३ द्वारा विदित होता है कि गण एवं गच्छ पीछे एकार्थ में भी प्रयुक्त हुए हैं, ये पृथक्-पृथक् नहीं हैं । (पृष्ठ ६०) ___ मूल संघ के साथ नन्दि संघ का तथा बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का भी उल्लेख है । लेख नं. ५८५ में यह बताया है कि इस गण के आचार्य रूप में पद्मनंदि थे, जो कुन्दकुन्द आदि नाम से प्रसिद्ध थे। मूल संघ एवं कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ भी प्रयोग (लेख नं. १८० सन् १०४४) हुआ है और कोण्ड कुन्दान्वय का स्वतंत्र प्रयोग ८-९वीं शताब्दी में कई लेखों में हुआ है। मूलसंघ आचार्य कुन्द:कुन्द के पूर्व का है। बलात्कारगण को पूर्व यापनियों के बलगार स्थान विशेष से सम्बन्धित बताया है। पीछे १६वीं शताब्दी में पद्मनंदि आचार्य द्वारा सरस्वती को बलात्कार से बुलाया था इसलिये बलात्कार गण और सरस्वती गच्छ नाम प्रसिद्ध हुआ । (पृष्ठ ६३) यापनीयवेश दिगंबर, सिद्धांत श्वेतांबर (संप्रदाय) । इस बलात्कार के आचार्यों की परम्परा में मुनि कुमुदचन्द्र भट्टारक तथा कुछ श्रेष्ठियों द्वारा उन्हें दान का उल्लेख है। (पृष्ठ ६३) यापनीय संघ के नंदि संघ को द्रविड़ संघ और मूल संघ ने अपनाया था | यापनियों में नंदिसंघ महत्वपूर्ण था । षट्खण्डागम पुस्तक १ में प्राकृत भाषा में नन्दि संघ की पट्टावली उपलब्ध है। (पृष्ठ ८७) २२०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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