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________________ २. ईशान- देवराज ! हमारी यह देव पर्याय पुण्य का फल अवश्य है परन्तु इस पर्याय में हमें आगामी भव के लिए भी पुण्य कार्य कर लेना चाहिये, जिससे हम तीर्थंकर के समान जगत् कल्याण करके संसार सागर से पार हो जावें। इन्द्राणी- स्वामिन् ! हम विमानवासी देवों और देवियों का परम सौभाग्य है कि हमें तीर्थंकर देव के पंचकल्याणक मनाने का अवसर प्राप्त होता रहता है। ३. सनतकुमार- मनुष्य लोक में पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह क्षेत्र हैं। इन कर्मभूमियों में ही तीर्थंकर होते हैं । भरत और ऐरावत में तीन कालवर्ती चौबीस तीर्थंकर होते हैं। और विदेह के पंचमेरु संबंधी बत्तीस देशों में सीमंधर आदि बीस तीर्थंकर कुल संख्या एक साथ १६० तक होती है। इन्द्राणी- हाँ, मेरा भी यह अनुभव है कि भरत ऐरावत के एक साथ १० मिलाकर कुल १७० तीर्थंकर तक हो सकते हैं। इन सबके पाँच कल्याणकों में से किसी के कोई, किसी के कोई कल्याणक होते रहते हैं। और हमें व श्री ह्रीं आदि देवियों को सभी स्थानों पर एक साथ उपस्थित रहना पड़ता है, जो विक्रिया से सहज ही हो जाता है। ४. महेन्द्र- यह सब तीर्थंकर होने वाली आत्मा के सातिशय पुण्य और पूर्व भवों में सम्यग्दर्शन के साथ सोलह कारण भावनाओं का प्रभाव है। बिना सम्यग्दर्शन के यह संभव नहीं है। इन्द्राणी- इस संसार के समस्त प्राणियों के कल्याण की भावना से ही तीर्थंकर नाम कर्म का बंध हुआ करता है। ऐसे वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग बताते हैं । ५. ब्रह्म इन्द्र- हमें इस काल के उत्सर्पिणी (उन्नति) और अवसर्पिणी (अवनति) इन दो भागों में प्रत्येक के ६-६ हिस्सों में से अवसर्पिणी काल के तृतीय हिस्से में उत्पन्न होने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के कल्याणक मनाना हैं। इन्द्राणी- ऋषभदेव तीर्थंकर जब भोगभूमि का अंतिम समय होता है और दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री में न्यूनता आ जाती है तब उस समय की जनता को मार्गदर्शन देने हेतु उत्पन्न होते हैं। ६. लांतव इन्द्र- ऋषभ तीर्थंकर के पिता चौदहवें कुलकर नाभिराय कल्पवृक्षों से भोजन सामग्री प्राप्त न होने से भूखी जनता को प्राकृतिक वृक्षों के फलों का उपभोग सिखाते हैं। इन्द्राणी- उन दिनों में लोगों के पास बर्तन आदि कुछ भी नहीं रहते । नाभिराय उन्हें हाथी के मस्तक पर मिट्टी के थाली आदि बर्तन बनाकर देते हैं व विधि बताते हैं । जन्म समय बालक की नाभि में नाल काटना भी वे सिखाते हैं। ७. महाशुक्र- ऐसे समय के लोग जंगली व असभ्य नहीं होते । वह समय परिवर्तन का है । जीवन निर्वाह के साधन अपूर्ण होने से कठिनाई हल करना आवश्यक होता है। इन्द्राणी- नाभिराय के पहले १३ कुलकरों में से प्रथम, कल्पवृक्षों के प्रकाश के कारण नहीं दिखने वाले चन्द्र-सूर्य को अकस्मात् उदय होता देखकर भयभीत जनता को निर्भय बनाते हैं, क्योंकि कल्पवृक्ष का प्रकाश मंद हो चुका था। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१५१ _Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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