SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८. सहस्रार इन्द्र- भोगभूमि में एक साथ उत्पन्न नर-नारी ही, पति-पत्नी के रूप में रहते हैं और उनकी उत्पत्ति के साथ ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती है । पीछे वे जीवित भी रहते हैं । उन दिनों सामाजिक प्रथा नहीं रहती। १३वें कुलकर विवाह पद्धति प्रारंभ करते हैं। ___इन्द्राणी- कल्पवृक्षों के अभाव में जीवन निर्वाह की वस्तुओं में कमी आने से परस्पर होने वाले विवाद और अपराध का हल उस काल में प्रथम पाँच कुलकरों द्वारा केवल 'हा' बोल देना बहुत समझा जाता था। आनत इन्द्र- और छठे से दशवें तक कुलकरों ने ‘हा मा' इन दो शब्दों का बोलना दण्ड रखा था। इन्द्राणी- अन्त के चार कुलकर 'हा, मा, धिक' इस तरह के दण्ड का विभाजन करते हैं । इन शब्दों के उच्चारण मात्र से अपराधियों को महान् पश्चात्ताप होता है। १०. प्राणत इन्द्र- कल्पवृक्ष वनस्पति की जाति के नहीं होते । वे पृथ्वी के परमाणुओं के होते हैं। इसी प्रकार जम्बूद्वीप में जंबू वृक्ष आदि तथा हिमवन आदि पर्वतों पर पद्म आदि तालाबों में कमल भी पृथ्वी रूप हैं। ___इन्द्राणी- भोग भूमि के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई २२०० हाथ होती है। धीरे-धीरे कम होकर भगवान् आदिनाथ के समय २००० हाथ रह जाती है। आगे तीर्थंकर वर्द्धमान के समय ७ हाथ रह जाती है। ११. आरण इन्द्र- भोग भूमि में मनुष्य की आयु भी ८४ लाख पूर्व की होती है उससे फिर धीरेधीरे कम होती जाती है। इदाणी- अब भगवान् ऋषभदेव माता मरुदेवी के गर्भ में आने वाले हैं। इस तीसरे काल की समाप्ति में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी हैं। १२. अच्युत इन्द्र- हमें तीर्थंकर देव के कल्याणक मनाने का कारण यह प्रतीत होता है कि हम से श्रेष्ठ मनुष्य हैं, क्योंकि देव पर्याय में तीर्थंकर नहीं बनते? इन्द्राणी- देव पर्याय में पुण्य का वैभव अवश्य है। किन्तु पुण्य की सीमा है । पुण्यवान् को कभी कर्माधीन दुःख तो भोगने ही पड़ते हैं । पुण्य का अन्त होने पर यह जीव नीच गति में उत्पन्न होता है। २. ईशान इन्द्र- आपका कथन सत्य है । पुण्य-पाप से रहित वीतराग भाव ही इस प्राणी को शाश्वत सुख प्राप्त करा सकते हैं। ३. सनतकुमार- यह वीतराग भाव मनुष्य पर्याय में ही प्राप्त होता है । मुनि व्रत के बिना वीतरागता संभव नहीं। ४. महेन्द्र इन्द्र- श्रावक और मुनि दशा मनुष्य पर्याय में ही प्राप्त होती है। हम देव तो व्रत धारण कर ही नहीं सकते । मुनि व्रत की बात तो दूर, श्रावक तक नहीं बन सकते । १५२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy