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५. ब्रह्म इन्द्र- इस चर्चा से तो यही सार निकलता है कि मनुष्य ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसीलिए कहा है 'मानुष्यं दुर्लभं लोके ।
६. लांतव इन्द्र- मनुष्य की यह विशेषता है कि वह सप्तम नरक तक का पाप और सर्वार्थ सिद्धि तक पुण्य बन्ध कर उन स्थानों तक पहुँच सकता है।
७. महाशुक्र- मनुष्य पर्याय की इसीलिए प्रशंसा की जाती है किन्तु देवों में सर्वार्थसिद्धि, अनुत्तर विमानवासी, लौकांतिक देव क्या कम हैं, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं और मनुष्य जन्म लेकर मुक्ति पाते हैं।
८. सहस्रार इन्द्र- सौधर्म आदि दक्षिणेन्द्र व लोकपाल भी मुक्ति के अधिकारी होते हैं । इससे ज्ञात होता है कि सातिशय पुण्य सम्यग्दर्शन के साथ होता है। पुण्य की यही महिमा है।
९. आनत इन्द्र- अच्छा तो अब हमें भगवान् ऋषभदेव, जो १५वें कुलकर होंगे, उनका गर्भ कल्याणक मनाने की तैयारी करना चाहिये।
१. सौधर्म- भगवान ऋषभदेव के गर्भ कल्याणक हेतु मध्य लोक में चलने को जिन-जिन को आज्ञा दी है वे सब अपना नियोग पूरा करें।
कुबेर- नगर की रचना करें, रत्नवृष्टि करें। आठ व छप्पन कुमारी देवियाँ माता की सेवा में उपस्थित रहें।
१०. प्राणत इन्द्र- हमारी इस चर्चा का उद्देश्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, ये पंचकल्याणक सम्यग्दर्शन के साधन हैं।
११. आरण इन्द्र- सम्यग्दृष्टि का अनन्त संसार शांत हो जाता है । जब तक वह संसार में रहता है तब तक उत्तमगति में रहकर वह उत्तम पदों को प्राप्त करता रहता है। १२. अच्युत इन्द्र- सम्यग्दृष्टि का जीवन पवित्र होता है वह 'जगमाहिं जिनेश्वर का लघुनंदन' है।
गर्भ कल्याणक (पूर्व क्रिया) दृश्य-२ (कुबेर सिंहासन पर मंजूषिका स्थापित करें । अष्ट कुमारी देवियाँ सेवा में तत्पर दिखालाई जावें)
यहाँ भवनवासी देवियों द्वारा नृत्य कराया जाये। १. श्री देवी को पूर्व दिशा में चमर हाथों में देकर स्थापित करें।
मन्त्र- ॐ महति महसां श्री देवि ऐं ह्रीं श्रीं हैं नित्यै स्वं सं क्लीं इवीं स्वां ला झौं तीर्थंकर सवित्रीं स्नापय स्नापय गर्भ शुद्धिं कुरु कुरु वं मं हं सं सं तं पं श्रीदेट्यै स्वाहा । (पुष्प क्षेपण कर स्थापित करें)
२. ह्रीं देवी, आग्नेय दिशा में, छत्र हाथ में, (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)। ३. धृति देवी, दक्षिण दिशा में, सिंहासन हाथ में (पूर्व मन्त्र नाम बदलकर स्थापित करें)।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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