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________________ भाषा- करैं नहीं कबूल छाल वस्त्र खण्ड धोवती, दिगानि वस्त्र धार लाज संग त्याग रोवती । बने पवित्र अंग शुद्ध बालसे विचार हैं, जजू यतीश काम जीत शील खड्ग धार हैं । ॐ ह्रीं सर्वथावस्त्रत्यागनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। क्षौरं शस्त्रोज्जनिपराधीनतापात्रमेव (?) जूडा मूर्धन्यतुलकृमिदा भूतशीर्षाकृतिस्था ।। दोषोयैवेति विहितकचोत्पाटनो मुष्टिमात्रात्, साक्षान्मोक्षाध्वनिधृतिपदः पूज्यते श्रौतकर्मा ।।२१८॥ भाषा- करें सु केशलोंच मुष्टि मुष्टि धैर्य भावते, लखाय जन्म जन्तुका स्व केश ना बढ़ावते। ममत्व देहसे नहीं न शस्त्रसे नुचावते, जजू यती स्वतन्त्रता विहार चित रमावते ।। ॐ ह्रीं कृतकेशलोचनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। एकद्वित्रिप्रभृतिदिवसप्रोषधादिप्रकर्तु-रास्यम्लानिर्भवति नितरां दंतशुद्धिं विनाऽत्र । दौगंध्यांधुं वपुषमकृतस्थैर्यमापन्निदानं, जानन् योगं मलिनयति नो तं समर्चे मुनींद्रम् ।।२१९|| भाषा- करें न दन्तवन कभी तजा सिंगार अंगका, लहें स्व खानपान एकावार साध्य अंगका । __ तथापि दंत कर्णिका महान ज्योति त्यागती, जजू यतीश शुद्धता अशुद्धता निवारती ॥ ॐ हीं दंतधावनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। यांचादैन्योदरविघटनादींगितादीनि येषां, निर्मूलंतो मनसि च मनालाभलाभांतराये । तुल्या दृष्टिस्तदपि सकृदेकाह्निभुक्तिप्रमाणं, तेषां धावगमसुगमत्वाय पादौ यजामि ॥२२०|| भाषा- धरै न चाह भोग रोगके समान जानते, शरीर रक्ष काज एक बार भक्त ठानते । सकल दिवस सु ध्यान शास्त्र पाठमें वितावते, जजूं यती अलाभ अन्न लाभ सा निभावते ॥ ॐ ह्रीं एकभक्तनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। यावद्देहं स्थितिधृतिधराशक्तिमंगीकरोति, यावज्जंघाबलमचलतां नोज्जिहीते मुनित्वे । यावत्स्थाप्ये तदपगमने भोजनत्याग एवं, सन्यासस्य ग्रहणमिति यद् यस्य नीतिस्तमर्चे ||२२१॥ भाषा- खड़े रहें सुलेय अन्न देह शक्ति देखते, न होय बल विहार तब मरण समाधि पेखते । करें सु आत्मध्यान भी खड़े खड़े पहाड़ पर, जजू यती विराजते निजानुभव चटान पर ।। ॐ ह्रीं आस्थितभोजननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अष्टाविंशतिसद्गुणग्रथितसद्रत्नत्रयाभूषणं, शीलेशित्वतनुत्ररक्षितवपुः कामेषुभिर्नाहतं । आर्हत्यादिपदस्य वीजमनघं येषां परं पावनं, साधूनां समुदायमुत्तमकुलालंकारमाशाश्महे ॥२२२।। भाषा - दोहा अठविंशति गुण धर यती शील कवच सरदार । रत्नत्रय भूषण धरें टारें कर्म प्रहार ॥ ॐ ह्रीं अस्मिने बिम्बप्रतिष्ठोत्सवे मुख्य पूजार्ह अष्टमवलयोठमुद्रित साधुपरमेष्ठिम्यस्तढमूलगुण ग्रामेभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। ९२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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