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________________ (९) नौमें वलय में स्थित ४८ ऋद्धिधारी मुनीश्वरों की पूजा त्रैलोक्यवर्तिसकलं गुणपर्ययाढ्यं यस्मिन्करामलकवत् प्रतिवस्तुजातं । आभासते त्रिसमयप्रतिबद्धमर्चे कैवल्यभानुमधिपं प्रणिपत्य मूर्ना ||२२३|| भाषा - दोहा लोकालोक प्रकाशकर, केवलज्ञान विशाल । जो धारें तिन चरणको, पूजूं नम निज भाल | ॐ हीं सकललोकालोकप्रकाशकनिरावरणकैवल्यलब्धिधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । ___वक्रर्जुभावघटितापरचित्तवर्तिभावावभासनपरं विपुलर्जुभेदात् । ज्ञानं मनोऽधिगतपर्ययमस्य जातं तं पूजयामि जलचन्दनपुष्पदीपैः ।।२२४॥ भाषा- वक्र सरल पर चित्त गत, मनपर्यय जानेय । ऋजू विपुलमति भेद धर, पूजूं साधु सुध्येय ।। ॐ ह्रीं ऋजुमतिविपुलमतिमनःपर्ययधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । देशावधिं च परमावधिमेव सर्वावध्यादिभेदमतुलावमदेशपृक्तं । ज्ञानं निरूप्य तदवाप्तियुतं मुनींद्रं संपूज्य चित्तभवसंशयमाहरामि ||२२५|| भाषा- देश परम सर्वा अवधि, क्षेत्र काल मर्याद । द्रव्य भावको जानता, धारक पूजूं साध ।। ॐ हीं अवधिधारकेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । अन्योपदेशमनपेक्ष्य यथा सुकोष्ठे वीजानि तद्गृहपतिर्विनियुज्यमानः । ___ग्रंथार्थवीजबहुलान्यनतिक्रमाणि संधारयन्नृषिवरोऽर्च्यत उवस्थमत्रैः ।।२२६|| भाषा- कोष्ठ धरे वीजानिको, जानत जिम क्रमवार । तिम जानत ग्रंथार्थको पूजूं ऋषिगण सार ।। ॐ ही कोष्ठबुद्धयार्द्धप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । एकं पदार्थमुपगृह्य मुखांतमध्यस्थानेषु तच्छुतसमस्तपदग्रहोक्तिम् । पादानुसारिधिषणाद्यभियोगभाजां संपूज्य तन्मतिधरं तु समर्चयामि ॥२२७।। भाषा- ग्रंथ एक पद ग्रह कहीं, जानत सब पद भाव । बुद्धि पाद अनुसारि धर, जजू साधु धर भाव ॥ ॐ हीं पादानुसारिबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। कालादियोगमनुसृत्य यथाप्तमत्र कोटिप्रदं भवति वीजमनिंद्रियादि । वीर्यांतरायंशमनक्षयहेत्वनेकपादावधारणमतीन् परिपूजयामि ॥२२८।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [९३ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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