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________________ तीसरे वलय में वर्तमान चौबीस जिन पूजा मनुनाभिमहीधरजात्मभुवं मरुदेव्युदरावतरंतमहं । प्रणिपत्य शिरोभ्युदयाय यजे कृतमुख्यजिनं वृषभं वृषभं ॥६१।। भाषा-चाल छन्द मनु नाभि मही धर जाए, मरुदेवि उदर उतराए । युग आदि सुधर्म चलाया, वृषभेष जजों वृष पाया ।। ॐ ह्रीं ऋषभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। जितशत्रुगृहं परिभूषयितुं व्यवहारदिशा तनुभूप्रभवं । नयनिश्चयतः स्वयमेवभुवमजितं जिनमर्चतु यज्ञधरं ॥६२।। भाषा- जितशत्रु जने व्यवहारा, निश्चय आयो अवतारा । सब कर्मन जीत लिया है, अजितेश सुनाम भया है । ॐ ह्रीं अजित जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। दृढराज सुवंशनभोमिहिरं त्रिजगत्रयभूषणमभ्युदयं । जिनसम्भवमूर्ध्वगतिप्रदमर्चनया प्रणमामि पुरस्कृतया ||६३।। भाषा- दृढ़राज सुवंश अकाशे, सूरज सम नाथ प्रकाशे । जग भूषण शिव गति दानी, संभव जज केवलज्ञानी ।। ॐ ह्रीं संभव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । कपिकेतनमीश्वरमर्थयतो मृतिजन्मजरापदनोदयतः । __ भविकस्य महोत्सवसिद्धिमियादत एव यजे ह्यभिनंदनकं ॥६४|| भाषा- कपि चिन्ह धरे अभिनन्दा, भवि जीव करे आनन्दा । जम्मन मरणा दुख टारें, पूजे ते मोक्ष सिधारें ॥ ॐ हीं अभिनन्दन जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सुमतिं श्रितमय॑मतिप्रकरार्पणतोऽर्थकराख्यमवाप्सशिवं । महयामि पितामहमेतदधिजगतीत्रयमूर्जितभक्तिनुतः ॥६५॥ भाषा- सुमतीश जजों सुखकारी, जो शरम गहें मतिधारी । मति निर्मल कर शिव पावें, जग भ्रमण हि आप मिटावें ॥ ॐ ह्रीं सुमतिनाथ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। __ धरणेशभवं भवभावमितं जलजप्रभमीश्वरमानमताम् । सुरसंपदियर्त्ति न केति यजे चरुदीपफलैः सुरवासभवैः ॥६६।। भाषा- धरणेश सुनृप उपजाए, पद्मप्रभ नाम कहाए।। है रक्त कमल पग चिन्हा, पूजत सन्ताप बिछिन्ना ।। ॐ ह्रीं पद्प्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ६६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] ___ JainEducation International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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