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क्रोधस्मराशातविघातनाय संजाततीव्रकुधिवात्मनाम ।
प्राप्तं तु कृष्णेति नु शुद्धियोगात् तं कृष्णमर्चे शुचिताप्रपन्नं ॥५५॥ भाषा- समता मय क्रोध विनाश किया, जग काम रिपूको शांत किया।
शुचिता धर शुचिकर नाथ जजू, श्री कृष्णमती जिन नित्य भजू ।। ॐ हीं कृष्णमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानं मतिर्भाव उपाश्रयादिरेकार्थएव प्रणिधानयोगात् ।
ज्ञानेमतिर्यस्य समासजातेर्यथार्थनामानमहं यजामि ॥५६।। भाषा- शुचि ज्ञानमती जिन ज्ञान धरे, अज्ञान तिमिर सब नाश करे |
जो पूजे ज्ञान बढ़ावत है, आतम अनुभव सुख पावत है । ॐ ह्रीं ज्ञानमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
समस्यमानान्यपदार्थजातं धुरंधुरं मरथांगनेमिः ।
जिनेश्वरं शुद्धमतिं यजेत प्राप्नोति शुद्धां मतिमेव ना सः ॥५७|| भाषा- शुद्धमति जिन धर्म-धुरंधर, जानत विश्व सकल एकीकर ।
शुद्ध बुद्धि होवे जो पूजे, ध्यान करे भवि निर्मल हूजे ॥ ॐ ह्रीं शुद्धमतये जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
संसारलक्ष्म्या अतिनश्वरायै जन्मःमुद्रामिव कुत्सयन्वा ।
भद्रा शिवश्रीरिति योगयुक्त्या श्रीभद्रमीशं रभसार्चयामि ।।५८।। भाषा- संसार विभूति उदास भए, शिवलक्ष्मी सार सुहात भए ।
निज योग विशाल प्रकाश किया, श्रीभद्र जिनं शिव वास लिया ॥ ॐ ह्रीं श्रीभद जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अनंतवीर्यादिगुण प्रपन्नमात्मप्रभवानुभवैकगम्यं ।
अनंतवीर्यं जिनपं स्तवीमि यज्ञार्थभागैरूपलाल्यमानं ।।५९॥ भाषा- सत वीर्य अनन्त प्रकाश किये, निज आतमं तत्त्व विकाश किये।
जिन वीर्य अनन्त प्रभाव धरे, जो पूजे कर्म कलंक हरे ।। ॐ हीं अनन्तवीर्य जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।
___ पूर्व विसर्पिण्यथ कालमध्ये संजातकल्याणपरंपराणाम् ।
संस्मृत्य सार्थ प्रगुणं जिनानां यज्ञेसमाहूय यजे समस्तान् ॥६०|| भाषा दोहा- भूत चौबीस जिन, गुण सुमरूं हरवार ।
___ मंगलकारी लोकमें, सुख शांती दातार ॥ ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे यागमण्डलेश्वर द्वितीयवलयोन्मुदितनिर्वाणाधनन्तवीर्याढतेन्यो भूतजिनेभ्यो पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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