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________________ भाषा- धरै मद न तप ज्ञान आदी स्व मनमें, नरम चित्तसे ध्यान धारें सुवन में। परम मार्दवं धर्म सम्यक् प्रचारी, जजूं मैं गुरु को सुधा ज्ञान धारी ॥ ॐ हीं उन्तममार्दवधर्मधुरंधराचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।। सर्वत्र निश्छद्मदशासु वल्लीप्रतानमारोहति चित्तभूमौ । तपोयमोद्भूतफलैरबंध्या शाम्यांबुसिक्ता तु नमोऽस्तु तेभ्यः ॥१५०॥ भाषा- परम निषकपट चित्त भूमी सम्हारे, लता धर्म वर्धन करें शांति धारें । करम अष्ट हन मोक्ष फलको विचारें, जजूं मैं गुरु को श्रुतज्ञान धारें ।। ॐ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मपरिपुष्टाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । भाषासमित्या भयलोभ मोहमूलंकषत्वादनुभूतया च । हितं मितं भाषयतां मुनीनां पादारविंदद्वयमर्चयामि ॥१५१॥ भाषा- न रुष लोभ भय हास्य नहिं चित्त धारें, वचन सत्य आगम प्रमाणे उचारें। परम हितमितं वाणी प्रचारी, जजूं मैं गुरु को सु समता विहारी ।। ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्मप्रतिष्ठिताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । न लोभरक्षोऽभ्युदयो न तृष्णागृद्धी पिशाच्यौ सविधं सदेतः । तस्मात् शुचित्वात्मविभा चकास्ति येषां तु पादस्थलमर्चयेऽहं ॥१५२।। भाषा- न है लोभ राक्षस न तृष्णा पिशाची, परम शौच धारें सदा जो अजाची । करें आत्म शोभा स्व सन्तोष धारी, जजूं मैं गुरु को भवातापहारी ।। ॐ हीं उत्तमशौचधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मनोवचःकायभिदानुमोदादिभंगतश्चेंद्रियजंतुरक्षा । वर्वर्ति सत्संयमबुद्धिधीरास्तेषां सपर्याविधिमाचरामि ||१५३।। भाषा- न संयम विराधे करें प्राणिरक्षा, दमैं इन्द्रियों को मिटावें कुइच्छा । निजानन्द राचे खरे संयमी हो, जजूं मैं गुरु को यमी अर दमी हो । ॐ ह्रीं उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । . तपोविभूषा हृदयं विभर्ति येषां महाघोरतपोगुणाय्याः । इंद्रादिधैर्यच्यवनं स्वतस्त्यं तया युता एव शिवैषिणः स्यु ॥१५४|| भाषा- तपो भूषणं धारते यति विरागी, पाम सेवी गुणग्राम त्यागी । करें सेव तिनकी सुइन्द्रादि देवा, जजूं मैं चरण को लहूं ज्ञान मेवा ॥ ॐ हीं उन्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । समस्तजंतुष्वभयं परार्थसंपत्करी ज्ञान सुदत्तिरिष्टा । धर्मौषधीशा अपि ते मुनीशास्यागेश्वरा द्रांतु मनोमलानि ।।१५५|| भाषा- अभयदान देते परम ज्ञान दाता, सुधौषधी वाटते आत्म त्राता। परम त्याग धर्मी परम तत्व मर्मी, जजूं मैं गुरु को शमूं कर्म गर्मी ।। ॐ ही उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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