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________________ सद्दर्शनशानचारित्ररूप प्रभेदतश्चात्मगुणेषु पंच - पूज्येष्वशल्यं विनयं दधानाः मां पातु यज्ञेऽर्चनया पटिष्ठाः ॥१४३।। भाषा- दरश ज्ञान चारित्र आदी गुणों में, परम पदमई पाँच परमेष्ठियों में । विनय तप धरें शल्य त्रयको निवारें, हमें रक्ष श्रीगुरु जजूं अघु धारें ॥ ॐ ह्रीं विनयतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निपामीति स्वाहा । दिक्संख्यसंघे खलु वातपित्तकफादिरोगक्लमजार्तिसंघौ । दयार्द्रचित्तान्मुनिपेंगितज्ञांस्तद् दुःखहंतूनहमाश्रयामि ॥१४४।। भाषा- यती संघ दस विध यदी रोग धारे, तथा खेद पीड़ित मुनि हों विचारे । करें सेव उनकी दया चित्त ठाने, जजूं मैं गुरु को भरम ताप हाने । ॐ हीं वैय्यावृत्यतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। श्रुतस्य बोधं स्वपरार्थयोर्वा स्वाध्याययोगादवभासमानान् । आम्नायपृच्छादिषु दत्तचित्तान् संपूजयामोऽर्घविधानमुख्यैः॥१४५।। भाषा- करें बोध निज तत्त्व पर तत्त्व रुचिसे, प्रकाशें परम तत्त्व जगको स्वमतिसे । यही तप अमोलक करमको खपावे, जजूं मैं गुरुको कुबोधं नशावे ॥ ॐ ह्रीं स्वाध्यायतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । विनश्वरे देहकृते ममत्वत्यागेन कायोत्सृजतोपि पद्मा सनादियोगानवधार्य चात्मसंपत्सु संस्थानहमर्चयामि ||१४६|| भाषा- अपावन विनाशीक निज देह लखके, तजें सब ममत्वं सुधा आत्म चखके । करें तप सु व्युत्सर्ग संतापहारी, जजूं मैं गुरुको परम पद विहारी ॥ ॐ ह्रीं ट्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । . येषां मनोऽहर्निशमातरौद्रभूमेरनंगीकरणाद्धि धर्म्य । शुक्लोपकंठे परिवर्तमानं तानाश्रये बिंबविधानयज्ञे ॥१४७|| भाषा- जु है आरौिद्रं कुध्यानं कुज्ञानं, उन्हे नहिं धरे ध्यान धर्म प्रमाणं । करें शुद्ध उपयोग कर्मप्रहारी, जजूं मैं गुरुको स्व अनुभव सम्हारी ।। ॐ ह्रीं ध्यानावलम्बननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । येषां भ्रवः क्षेपणमात्रतोऽपि शक्रस्य शक्रत्वविधातनं स्यात् । एवंविधा अप्युदिताधार्ती क्षमां भजते ननु तान् महामि ॥१४८।। भाषा- करै कोय बाधा वचन दुष्ट बोले, क्षमा ढाल से क्रोध मनमें न कुछ लें। धरै शक्ति अनुपम तदपि शाम्यधारी, जजूं मैं गुरु को स्व धर्मप्रचारी ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिम्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। न जातिलाभैश्यविदंगरुपमदाः कदाचिज्जननं प्रयांति । _येषां मृदिम्ना गुरुणार्द्रचित्तास्ते दधुरीशाः स्तवनाच्छिवं में ॥१४९।। ८०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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