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भाषा- तपः अनशनं जो तपें धीरवीरा, तजें चारविध भोजनं शक्ति धीरा ।।
कभी मास पक्षं कभी चार त्रय दो, सु उपवास करते जजूं आप गुण दो ॥ ॐ हीं अनशनतपोयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
__ त्रिभागभोज्ये क्षितिवेदवह्निग्रासाशने तुष्टिमतो मुनींद्रान् ।।
ध्यानावधानाधभिवृद्धिपुष्टान् निद्रालसौ जेतुमितान् यजामि ॥१३७|| भाषा- सु ऊनोदरी तप महा स्वच्छ कारी, करे नींद आलस्य का नहिं प्रचारी ।
सदा ध्यानकी सावधानी सम्हारे, जजूं मैं गुरु को करम धन विदारें ॥ ॐ हीं अवमोदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।।
श्रृंगाग्रलग्नं वसनं नवीनं रक्तं नीरीक्ष्यैव भुजिं करिष्ये ।
__ इत्यादिवृत्तौ निरतानलक्ष्यभावान् मुनींद्रानहमर्चयामि ॥१३८॥ भाषा- जमी भोजना हेतु पुरमें पधारें, तभी दृढ़ प्रतिज्ञा गुरु आप धारें ।
यही वृत्तिपरिसंख्य तप आशहारी, भजूं जिन गुरु जो कि धारे विचारी ॥ ॐ ह्रीं वृत्तिपरिसंख्यानतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
मिष्टाज्यदुग्धादिरसापवृत्तेः परस्य लक्ष्येऽप्यवभासनेन ।
त्यागे मुदं चेष्टितमत्ययोगाद् धर्तृन् गणेशाधिपतीन् यजामि ||१३९|| भाषा- कभी छः रसों को कभी चार त्रय दो, तजें राग वर्जन गुरु लोभजित हो ।
धरें लक्ष्य आतम सुधा सार पीते, जजूं मैं गुरु को सभी दोष बीते ॥ ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा ।
दरीषु भूघ्रोपरिषु श्मशाने दुर्गे स्थले शून्यगृहावलीषु ।
शय्यासने योग्यदृढासनेन संधार्यमाणान् परिपूजयामि ।।१४०।। भाषा- कभी पर्वतों पर गुहा बन मशाने, धरें ध्यान एकांत में एकताने ।
धरें आसना दृढ़ अचल शांति धारी, जजूं मैं गुरु को भरम तापहारी ॥ ॐ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।।
ग्रीष्मे महीधे सरितां तटेषु शरत्सु वर्षासु चतुष्पथेषु ।
योगं दधानान् तनुकष्टदाने प्रीतान् मुनींद्रान् चरुभिः प्रणामि ॥१४१।। भाषा- ऋतू उष्ण पर्वत शरद्रितु नदी तट, अधोवृक्ष वर्षात में या कि चउ पथ ।
करें योग अनुपम सहें कष्ट भारी, जजूं मैं गुरु को सु सम दम पुकारी ॥ ॐ ह्रीं कायक्लेशतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिन्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
संभाव्य दोषानुनयं गुरुभ्य आलोचनापूर्वमहर्निशं ये ।
तच्छुद्धिमात्रे निपुणा यतीशा संत्वर्धदानेन मुदंचितारः ॥१४२।। भाषा- करें दोष आलोचना गुरु सकाशे, भरै दंड रुचिसों गुरु जो प्रकाशे ।
सुतप अंतरंग प्रथम शुद्ध कारी, जजूं मैं गुरुको स्व आतम विहारी ॥ ॐ हीं प्रायश्चिततपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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