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________________ पडियाँ मूल में ७-७ भाग, मध्य में ६ - ६ भाग और अन्त में टिकूण्या के पास ४३-४३ भाग चौड़ी रक्खे। परिधि सर्वत्र तिगुनी हो । ११. टिकूण्या : दोनों पगों की चारों टिकूण्यों को १ - १ भाग प्रमाण गूढ़ रखें । परिधि इनकी भी तिगुनी हो । १२. चरण : दोनों पगों के चरण तलों को १४- १४ भाग प्रमाण लम्बे करें । टिकूण्यों से अंगुष्ठ के अग्र भाग तक १२ भाग प्रमाण लम्बाई हो । टिकूण्यों के पीछे एड़ी को २ भाग प्रमाण रक्खें । एड़ी नीचे २ भाग, बगल में कुछ कम और मध्य में ऊँची गोल हो, परिधि ६ भाग प्रमाण हो । अंगुष्ठ २ भाग प्रमाण लम्बा, मध्य में २ भाग प्रमाण चौड़ा तथा आदि अन्त में कुछ कम चौड़ा हो । प्रदेशिनी ३ भाग प्रमाण लम्बी हो । मध्यमा प्रदेशनी से भाग प्रमाण कमती हो अर्थात् २ भाग लम्बी हो । मध्यमा से अनामिका कुछ और कम अर्थात् २ भाग लम्बी हो । अनामिका से कनिष्ठिका कुछ और कम अर्थात् भाग लम्बी हो । चारों ही अंगुलियाँ १-१ भाग प्रमाण मोटी और तिगुनी परिधि की हों। अंगुष्ठों में २-२ पर्व और चारों अंगुलियों में ३-३ पर्व करें। अंगुष्ठ का नख १ भाग प्रमाण, प्रदेशिनी का नख भाग प्रमाण और शेष अंगुलियों के नख अनुक्रम से कुछ-कुछ कमती रक्खें । पादतली को एड़ी के पास ४-४ भाग प्रमाण, मध्य में ५-५ भाग प्रमाण और अंत में ६-६ भाग प्रमाण चौड़ी बनावें । चरण युगल एक सरीखे पुष्ट बनावें । शंख, चक्र, अंकुश, कमल, यव, छत्र आदि शुभ चिह्नों से संयुक्त चरण बनावें । इस प्रकार से कायोत्सर्ग प्रतिमा बनावें। शेष अंगोपांगों को भी पुष्ट एवं शोभनीय बनावें । पद्मासन प्रतिमा के भी कितने ही भाग यही हैं । कायोत्सर्ग के भागों के आधे भाग अर्थात् ५४ भाग प्रमाण ही दोनों घुटनों के अंत तक पलौटी की लम्बाई करें। दोनों हाथों की अंगुलियों और पेडू में ४ भाग प्रमाण अंतराल रक्खें । उदर से स्कंध पर्यन्त क्रम से हानिरूप यथा शोभित २ भाग प्रमाण अन्तर रक्खें । अष्ट प्रातिहार्य अशोक वृक्ष (तीर्थंकरों के ज्ञानकल्याणक वृक्ष), पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि, सिंहासन, छत्र, चमर, दिव्यध्वनि, भामण्डल । मुक्ति आसन व मूर्ति विशेषता श्री ऋषभदेव, वासुपुज्य और नेमिनाथ पद्मासन से और शेष तीर्थंकर खड्गासन से मुक्त हुये । ऋषभनाथ की प्रतिमा में सिर पर केश, सुपार्श्वनाथ प्रतिमा पर ५ फण, पार्श्वनाथ प्रतिमा पर सप्त या अधिक फण, बाहुबलि प्रतिमा पर बेल परम्परानुसार निर्माण होती है । मोक्ष को प्राप्त न हुए आचार्यों, उपाध्यायों एवं मुनिराजों के स्टेच्यु व मूर्ति नहीं बनाकर उनकी पिच्छी- कमण्डल सहित चरण व मोक्षगामी तीर्थंकरों व मुनियों की उपलब्ध मूर्ति व उनके चरण चिन्ह बनाये जाते हैं । एक साथ पंच बालयति, सप्तर्ष चौबीस तीर्थंकर, नवदेवता, पंचपरमेष्ठी प्रतिमा भी बनती है और पाई जाती है । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only [ ९ www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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