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________________ दूसरे वलय में २४ भूतकाल के तीर्थंकरों की पूजा निर्वाणदेवं श्रितभव्यलोकं निर्वाणदातारमनंतसौख्यं । संपूजयेऽहं मखसद्धिहेतो रधीश्वरं प्राथमिकं जिनेंद्र ॥३६।। भाषा पद्धरी छन्द भवि लोक शरण निर्वाणदेव, शिवसुखदाता सब देव देव । पूजू शिवकारण मन लगाय, जासें भवसागर पार जाय ।। ॐ ह्रीं निर्वाण जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीसागरं वीतममत्वरागद्वेषं कृताशेषजनप्रसादं । समर्चये नीरचरुप्रदीपैरुद्दीपिताशेषपदार्थमालं ॥३७।। भाषा- तज रागद्वेष ममता विहाय, पूजक जन सुख अनुपम लहाय। गुणसागर सागर जिन लखाय, पूजूं मन वच अर काय नाय॥ ॐ हीं सागरजिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रीमन्महासाधुजिनं प्रमाणनयप्रमाणीकृतजीवतत्त्वं । स्याद्वादभंगप्रणिधानहेतुं समर्चये यज्ञविधानसिद्ध्यै ॥३८॥ भाषा- नय अर प्रमाण से तत्त्व पाय, निज जीव तत्त्व निश्चै कराय। साधो तप केवलज्ञान दाय, ते साधु महा वंदौ सुभाय ।। ॐ ही महासाधु जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । यस्यातिसज्ज्ञानविशालदीपे प्रभासमानं जगदल्पसारं । विलोक्यते सर्षपवत्कराग्रे समर्चयेऽहं विमलप्रभाख्यं ॥३९।। भाषा- दीपक विशाल निज ज्ञान पाय, त्रैलोक लखे बिन श्रम उपाय। विमलप्रभ निर्मलता कराय, जो पूजे जिनको अघ लाय || ॐ हीं विमलप्रभाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । समाश्रितानां मनसो विशुद्धयै कृतावतारं मुनिगीतकीर्तिम् । प्रणम्य यज्ञेऽहमुदंचयामि शुद्धाभदेवं चरुभिः प्रदीपैः ॥४०।। भाषा- भवि शरण गहें मन शुद्धिकार, गावें थुति मुनिगण यश प्रचार। शुद्धाभदेव पूजू विचार, पाऊं आतम गुण मोक्ष द्वार || ॐ ह्रीं शुद्धाभदेवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। लक्ष्मीद्वयं बाह्यगतांतरंगभेदात्पदाग्रे विलुलोठ यस्य । यस्मात्सदा श्रीधरकीर्तिमापत्तमर्चयेद्याश्रितभव्यसार्थम् ॥४१॥ ६२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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