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भाषा- अन्तर बाहर लक्ष्मी अधीरा, इन्द्रादिक सेवत नाय शीस ।
श्रीधर चरण श्री शिवकराय, आश्रयकर्ता भवदधि तराय ।। ॐ ह्रीं श्रीधराय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रियं ददातीह सुभक्तिभाजां वृंदाय यस्मादिह नाम जातं ।
श्रीदत्तदेवं भवभीतिमुक्त्यै यजामि नित्याद्भुतधामलक्ष्म्यै ॥४२॥ भाषा- जो भक्ति करें मन वचन काय, दाता शिवलक्ष्मी के जिनाय ।
श्रीदत्त चरण पूजू महान, भवभय छूटे लहू अमल ज्ञान | ॐ हीं श्रीदत्त जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सिद्धाप्रभांगस्य विसर्पिणी तन्मध्येजनुः सप्तक्दर्शनेन ।
सम्यग्विशुद्धिर्मनसो यतस्त्वां सिद्धाभ ! यज्ञेऽर्चयितुं समीहे ।।४३॥ भाषा- भामण्डल छवि वरणी न जाय, जहं जीव लखै भव सप्त आय ।
मन शद्ध करें सम्यक्त पाय सिद्धाभ भजे भवभय नशाय ।। ॐ हीं सिद्धाभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभामतिः शक्तिरनेकधा हि सद्ध्यानलक्ष्म्या यत उत्तमार्थैः ।
संगीयतेत्वं ह्यमलां विभर्षि यतोऽर्चये त्वाममलप्रभाख्यं ॥४४|| भाषा- अमलप्रभ निर्मल ज्ञान धरे, सेवा में इन्द्र अनेक खड़े।
नित संत सुमंगल गान करें, निज आतमसार विलास करें॥ ॐ ही अमलप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अनेकसंसारगतं भ्रमेभ्य उद्धारकर्तेति बुधैरवादि ।
यतो मम भ्रांतिमपाकुरु त्वमुद्धारदेव प्रयजे भवंतं ॥४५|| भाषा- उद्धार जिनं उद्धार करें, भव कारण भांति विनाश करें।
हम डूब रहे भवसागर में, उद्धार करो निज आत्म रमें ॥ ॐ हीं उद्धार जिनाय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा।
दुष्टाष्टकर्मेधनदाहकर्ता यतोऽग्निनामाभ्युदितं यथार्थम् ।
ततो ममासाततृणव्रजेऽपि तिष्ठार्चये त्वां किमु पौनरूक्ते ॥४६|| भाषा- अग्निदेव जिनं हो अग्निमई, अठ कर्मन ईंधन दाह दई ।
हम असात तृणं कर दग्ध प्रभो, निज सम करले जिनराज प्रभो ॥ ॐ ह्रीं अग्निदेव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्राणेंद्रियद्वैधसुसंयमस्य दातारमुच्चैः कथयामि सार्व ।
मद्दत्तमर्घ जिन संगृहाण सुसंयम स्वीयगुणं प्रदेहि ॥४७|| भाषा- संयम जिन द्वैविध संयमको, प्राणी रक्षण इंद्रिय दमको ।
दीजे निश्चय निज संयमको, हरिये हम सर्व असंयमको ।। ॐ हीं संयम जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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