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भाषा-छंद मरहटा भव भ्रमण कराया शरण नवाया जीव अजीवहिं खोज । इन्द्रादिक देवा जाको पूजे जग गुण गावे रोज ।। ऐसे अर्हत्की शरणा आए, रत्नत्रय प्रगटाय ।
जासे ही जन्ममरण भय नाशे, नित्त्यानन्दी थाय ।। ॐ हीं अर्हत् शरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
यावद्देहे स्थितिरुपचयः कर्मणामास्रवेण, तावत्सौख्यं कुत उपलभेतस्ततस्त्रोटनेच्छुः । एतत्कृत्यं न भवति विना सिद्धभक्तिं यतो मे, पूर्णाघिप्रयजनविधावाश्रितोऽहं शरण्यम् ॥३२॥
भाषा-छंद नाराच सुखी न जीव हो कभी जहाँ कि देह साथ है । सदा हि कर्म आस्रवें न शान्तता लहात है ॥
जो सिद्धको लखाय भक्ति एक मन करात है । वही सुसिद्ध आप हो स्वभाव आत्म पात है। ॐ हीं सिद्धशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
रागद्वेषव्यपगमनतो निःस्पृहा धीरवीराः, संसाराब्धौ विषमगहने मज्जतां निर्निमित्तं । दत्त्वा धर्मोद्धरणतरणिं पारयंतो मुनीशास्तानLण स्थिरगुणधिया प्रांचयामि त्रिगुप्त्या ॥३३॥
भाषा-छंद त्रोटक नहिं राग न द्वेष न काम धरें, भवदधि नौका भवि पार करें।
स्वारथ बिन सब हितकारक हैं, ते साधु जजू सुखकारक हैं ।। ॐ ह्रीं साधुशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। मित्रं सम्यक् परभवयथाचक्रमे सार्थदायि, नान्यो धर्मादुरितदहन प्लोषणेऽबुप्रवाहः । जानंतं मां समदृशिधियां संनिधानाच्छरण्य, त्रायस्व त्वं त्वयि धृतगतिं पूजनार्धेण युक्तं ॥३४॥
भाषा-छंद चापरो धर्म ही सु मित्रसार साथ नाहिं त्यागता, पाप रूप अग्निको सुमेघ सम बुझावता ।
धर्म सत्त्य शर्ण यही जीवको सम्हारता, भक्ति धर्म जो करें अनंत ज्ञान पावता ।। ॐ हीं धर्मशरणेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
सर्वानेतान् तत्वचंद्रप्रमाणान् जापध्यानस्तोत्रमत्रै रुदय॑ । द्रव्यक्षेत्रस्फूर्तिसज्जावकाशं नत्वाLण प्रांशुना संस्मरामि ॥३५।।
भाषा-दोहा पंच परम गुरु सार हैं, मंगल उत्तम जान ।
शरणा राखनको वली, पूजू कर उर ध्यान ।। ॐ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिप्रभृतिधर्मशरणांत प्रथमवलयस्थित सप्तदशजिनाधीश यज्ञदेवताभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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