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करकृत कुसुमानामंजलिं संवितीर्य धनदमणिसुरत्नाधीशपूजार्थ सार्थे । विकिर विकिर शीघ्रं भक्ति मुद्भाव्य नूनं निगदतु परमांके मंडपोर्ध्वावकाशे ॥११॥ धनद ! ररन वृष्टिं मुंच मुंच स्वाहा। (चाँदी के पुष्प क्षेपण करावें)
(जयसेन प्रतिः १०१-१०२)
'नान्दी व इन्द्र प्रतिष्ठा यज्ञनायक पत्नी प्रातः अपने निवास स्थान से मिट्टी का कलश, जिसमें सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों, पंचरत्न क्षेपण कर ऊपर श्रीफल पीत-वस्त्र से ढक कर लच्छा से बाँध कर महिलाओं व वादिन के साथ मंडप की वेदी के ऊपर कटनी पर अक्षत रख कर उस पर नंद्यावर्त स्वस्तिक रख णमोकार मंत्र ९ बार जप कर स्थापित करें। यही प्रतिष्ठा का नांदी प्रारंभिक मंगलाचरण है।
पश्चात् जो प्रतिष्ठा में इन्द्र-इन्द्राणी बनें, उनमें शची गर्भवती नहीं हो । शेष इन्द्राणी पाँच माह से अधिक गर्भवती न हो और सभी स्वस्थ हों तथा विकलांग न हो । पवित्र आचरण हो और ब्रह्मचर्य पूर्वक रहे।
मंडप में एक ओर पाटा, जल की बाल्टी, लोटा, प्रत्येक इन्द्र के लिए रखवा देवें । पास में आसन व वस्त्र-आभूषण थाली में रखवा दें। प्रथम ही -
ॐ ह्रां ही हूं हौं हः नमोऽहते भगवते पद्मादिद्रह सिंधवादि नदी शुद्ध जलं सुवर्णघट प्रक्षालितं सर्वगंधाक्षत पुष्पैजिनामोदकं पवित्रं कुरु कुरु झंझंझरौं झौं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पंद्रां द्रां द्रीं द्रीं हंसः स्वाहा।।
इस मन्त्र से स्नान जल में सरसों क्षेप कर जल शुद्ध करें।
इन्द्र स्नान कर धोती व वस्त्र पहन लेवें । इन्द्राणियाँ अपने निवास स्थान से स्नान करके आ जावें और इन्द्रों के साथ आसन पर बैठ जावें।
ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय-द्रावय हं सं झ्वी क्ष्वी हं सः स्वाहा।। इस मन्त्र से इन्द्रों पर जल के छीटें डालें।
पात्रेऽर्पितं चंदनमौषधीशं, शुभंसुगंधाहृतचंचरीकं ।
स्थाने नवांके तिलकाय चर्च्य, न केवलं देहविकारहेतोः ।। ॐ ह्रां ही हूं ह्रौं हः मम सर्वांगशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । इस मन्त्र से चन्दन ललाट, सिर, गला, हृदय, दो भुजायें, उदर, नाभि और पीठ में लगावें।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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