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(१)
प्रथम वलय अनंतकाल संपद्भवभ्रमणभीतितो निवार्य संदधन् स्वयं शिवोत्तमार्यसद्मनि । जिनेश विश्वदर्शिविश्वनाथ मुख्यनामभिः स्तुतं जिनं महामि नीरचंदनैः फलैरहं ॥१८॥
भाषा अडिल्ल काल अनन्ता भ्रमण करत जग जीव हैं। तिनको भवते काढ़ करत शुचि जीव हैं।
ऐसे अर्हत् तीर्थनाथ पद ध्यायके । पूजू अर्घ बना सुमन हरषायके । ॐ ह्रीं अनंत भवार्णवभयनिवारकानन्तगुणस्तुताय अर्हते अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्मकाष्ठहुतभुक् स्वशक्तितः संप्रकाश्यमहनीयभानुभिः । लोकतत्वमचले निजात्मनि संस्थितं शिवमहीपतिं यजे ॥१९॥
भाषा- हरिगीता छंद कर्म-काष्ठ महान जाले ध्यान-अग्निजलायके । गुण अष्ट लह व्यवहारनय निश्चय अनंत लहायके ।। निज आत्म में थिर रूप रहके सुधा स्वाद लखायके ।
सो सिद्ध हैं कृतकृत्य चिन्मय भजूं मन उमगायके || ॐ ह्रीं अष्टकर्मविनाशक निजात्मतत्त्वविभासक सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सार्थवाह मनवद्यविद्यया शिक्षणान्मुनि महात्मनां वरं । मोक्षमार्गमलघुप्रकाशकं संयजे गुरु परंपरेश्वरम् ॥२०॥
भाषा-त्रिभंगीछंद मुनिगणको पालत आलस टालत आप संभालत परम यती। जिनवाणि सुहानी शिवसुखदानी भविजन मानी धर सुमती ।। दीक्षाके दाता अघसे त्राता समसुख भाता ज्ञानपती ।
शुभ पंचाचारा पालत प्यारा हैं आचारज कर्महती ॥ ॐ हीं अनवद्यविद्याविद्योतनाय आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
द्वादशांग परिपूर्णसच्छुतं यः परानुपदिशेत पाठतः । बोधयत्यभिहितार्थ सिद्धये तानुपास्य यजयामि पाठकान् ॥२१॥
भाषा त्रोटक छन्द जय पाठक ज्ञान कृपान नमो, भवि जीवन हत अज्ञान नमो ॥
निज आत्म महानिधि धारक हैं । संशय बन दाह निवारक हैं । ॐ ह्रीं द्वादशांगपरिपूरणश्रुतपाठनोधत बुद्धिविभवोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । ५८]
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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