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उग्रमय॑तपसाभि संस्कृति ध्यानज्ञान विनिवेशितात्मकं । साधकं शिवरमासुखामृते साधुमीड्यपदलब्धयेऽर्चये ॥२२।।
___ भाषा- द्रुतविलंबित छंद सुभाग तप द्वादश कर्तार हैं । ध्यान सार महान प्रचार हैं ॥
मुकति वास अचल यति साधते । सुख सु आतम जन्य सम्हारते ॥ ॐ हीं घोरतपोऽभिसंस्कृतध्यानस्वाध्यायनिरत साधुपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा ।
अर्हन्नेव त्रिभुवनजनानंदनान्मंडलाग्यो, विघ्नध्वंसं निजमतिकृतादस्त्रसंघोपनोदात् । संकुर्वस्तत्प्रकृतिरपि स्पष्टमानंददायिन्येवं स्मृत्वा जलचरुफलैरर्चयामि त्रिवारं ॥२३॥
भाषा-मालिनी छंद अरि हनन सु अरिहन् पूज्य अर्हन् बताए । मं पाप गलनहेतु मंगलं ध्यान लाए ।
मंगं सुखकारण मंगलीकं जताए । ध्यानी छबी तेरी देखते दुख नशाए ।। ॐ हीं अर्हत्परमेष्ठिमंगलाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
स्मारं स्मारं गुणगणमणिस्फारसामर्थ्यमुच्चैर्यत्प्राप्त्यर्थं प्रयतति जनो मोक्षतत्त्वेऽनवद्ये। प्रत्यूहान्तं भवभवगतानां प्रघातप्रक्लृप्त्यै सिद्धानेव श्रुतिमतिबलादर्चये संविचार्य ॥२४॥
भाषा-चौपाई जय जय सिद्ध परमसुखकारी। तुम गुण सुमरत कर्म निवारी ।
विघ्नसमूह सहज हरतारे । मंगलमय मंगल करतारे ॥ ॐ हीं सिद्धमंगलेभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
रागद्वेषोरगपरिशमे मंत्ररूपस्वभावा, मित्रे शत्रौ समकृतहृदानंद मांगल्यरूपाः येषां नामस्मरणमपि सन्मंगलं मुक्तिदायीत्यर्चे यज्ञे वसुविधविधिप्रीणनैः प्राणिपूज्यं ॥२५॥
भाषा-शार्दूलविक्रीड़ित . रागद्वेष महान सर्प शमने शम मंत्रधारी यती । शत्रू मित्र समान भाव करके भवतापहारी यती ॥ मंगल सार महान कार अघहर सत्वानुकम्पी यती । संयम पूर्ण प्रकार साध तपको संसारहारी यती ॥ ॐ ह्रीं साधुमंगलाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। मूर्छा मूर्छा गुरुलघुभिदा द्वैधवर्त्मप्रदिष्टो, जैनो धर्मः सुरशिवगृहद्वारदर्शी नितांतं । सेव्यो विघ्नप्रहणनविधावुत्तमार्थैः प्रशस्तः, संपूजेऽहं यजनमननोद्दामसिद्ध्यर्थमह्यम् ॥२६||
भाषा-संकर छंद जिनधर्म है सुखकार जगमें धरत भव भयवंत । स्वर्ग मोक्ष सुद्वार अनुपम धरे सो जयवंत ॥
सम्यक्त ज्ञान चारित्र लक्षण भजत जगमें संत । सर्वज्ञ रागविहीन वक्ता है प्रमाण महंत ॥ ॐ हीं केवलिपज्ञप्त धर्ममंगलाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। [प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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