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________________ फल सुन्दर ताजे लाऊं, शिवफल ले चाह मिटाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ हीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेन्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ आठों द्रव्य मिलाऊं, करि अर्घ परम सुख पाऊं । तपसी जिन चोविस गाए, हम पूजत विघ्न नशाए । ॐ ह्रीं ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यो अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । प्रत्येक अर्घ्य नौमी वदि प्रमाणी, वृषभेष तपस्या ठानी । निजमें निज रूप पिछाना, हम पूजत पाप नशाना ॥१|| ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां श्रीवृषभजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | ___ दसमी शुभ माघ वदीको, अजितेश लियो तप नीको । जगका सब मोह हटाया, हम पूजत पाप भगाया ॥२॥ ॐ हीं माघकृष्णादशम्यां श्री अजितनाथाय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । मगसिर सुंदि पूरणमासी, संभव जिन होय उदासी । कचलोच महातप धारो, हम पूजत भय निरवारो ॥३॥ ॐ हीं अगहनशुक्लापूरणमास्यां श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । द्वादश शुभ माघ सुदीकी, अभिनंदन बन चलनेकी । चित ठान परम तप लीना, हम पूजत हैं गुण चीन्हा ॥४॥ ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्री अभिनंदननाथाय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। नौमी वैशाख सुदीमें, तप धारा जाकर वनमें । श्री सुमतिनाथ मुनिराई, पूजूं मैं ध्यान लगाई ॥५॥ ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक वदि तेरसि गाई, पद्मप्रभु समता भाई । वन जाय घोर तप कीना, पूजें हम सम सुख भीना ॥६।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपप्रभुजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सुदि द्वादश जेठ सुहाई, बारा भावन प्रभु भाई । तप लीना केश उखाड़े, पूजूं सुपार्श्व यति ठाड़े ||७|| ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । एकादश पौष वदीको, चंद्रप्रभु धारा तपको । वनमें जिन ध्यान लगाया, हम पूजत ही सुख पाया ॥८॥ ॐ ही पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचंद्रप्रभुजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । अगहन सुदि एकम जाना, श्री पुष्पदंत भगवाना । तप धार ध्यान निज कीना, पूजूं आतम गुण चीन्हा ॥९|| ॐ हीं अगहनशुक्लाएकं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [ १८५ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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