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________________ द्वादश वदि माघ महीना, शीतल प्रभु समता भीना । तप राखो योग सम्हारो, पूजें हम कर्म निवारो ॥१०॥ ॐ हीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । वदी फाल्गुन ग्यारस गाई, श्रेयांसनाथ सुखदाई । हो तपसी ध्यान लगाया, हम पूजत हैं जिनराया ।।११।। ॐ ह्रीं फाल्गुणकृष्णाएकादश्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वदि फाल्गुन चौदसि स्वामी, श्री वासुपूज्य शिवगामी । तपसी हो समता साधी, हम पूजत धार समाधी ॥१२॥ ॐ हीं फाल्गुणकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वदि माघ चौथ हितकारी, श्री विमल सु दीक्षा धारी । . निज परिणतिमें लय पाई, हम पूजत ध्यान लगाई ॥१३॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। . द्वादशि वदि जेठ सुहानी, वन आए जिन त्रय ज्ञानी । धर सामायिक तप साधा, पूजू अनंत हर बाधा ॥१४॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । तेरस सुदि माघ महीना,. श्री धर्मनाथ तप लीना । वनमें प्रभु ध्यान लगाया, हम पूजत मुनिपद ध्याया ॥१५॥ ॐ हीं माघशुक्लाप्रयोदश्यां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । चौदस शुभ जेठ वदीमें, श्री शांति पधारे वनमें । तहं परिग्रह तज तप लीना, पूजूं आतमरस भीना ।।१६।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपानीति स्वाहा । करि दूर परिग्रह सारी, वैसाख सुदी पड़िवारी । श्री कुंथु स्वात्मरस जाना, पूजन से हो कल्याणा ॥१७|| ॐ ह्रीं वैशास्वशुक्ल प्रतिपदायां श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि दशमी गाई, अरनाथ छोड़ गृह जाई । तप कीना होय दिगंबर, पूजें हम शुभ भावों कर ।।१८।। ॐ हीं अगहनशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअरनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि ग्यारस कीना, सिर केशलोच हित चीन्हा ।। श्री मल्लि यति व्रत धारी, पूजें नित साम्य प्रचारी ॥१९॥ ॐ ह्रीं अगहनशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वैसाख वदी दशमीको, मुनिसुव्रत धारा व्रतको । समता रसमें लौ लाए, हम पूजत ही सुख पाए ॥२०॥ ॐ ह्रीं वैशास्वकृष्णादशम्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । १८६] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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