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दशमी आषाढ वदीकी, नमिनाथ हुए एकाकी ।
वनमें निज आतम ध्याए, हम पूजत ही सुख पाए ॥२१॥ ॐ ह्रीं आषाढकृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्दपामीति स्वाहा ।
छठि श्रावण शुक्ला आई, श्री नेमिनाथ वन जाई ।
करुणाधर पशू छुड़ाए, धारा तप पूजूं ध्याए ॥२२।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठयां श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
लखि पौष इकादशि श्यामा, श्री पार्श्वनाथ गुणधामा ।
तप ले वन आसन ठाना, हम पूजत शिवपद पाना ||२३|| ॐ ही पौषकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अगहन वदि दशमी गाई, बारा भावन शुभ भाई ।।
श्री वर्द्धमान तप धारा, हम पूजत हों भव पारा ॥२४।। ॐ ही अगहनकृष्णादशम्यां श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय तपकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
भुजंगप्रयात छंद नमस्ते नमस्ते नमस्ते मुनिन्दा । निवारें भली भांतिसे कर्म फंदा || संवारे सु द्वादश तपं वन मंझारी । सदा हम नमत हैं तिन्हें मन सम्हारी ॥१॥ त्रयोदश प्रकारं सु चारित्र धारा । अहिंसा महा सत्य अस्तेय प्यारा ॥ परम ब्रह्मचर्य परिग्रह तजाया । सुधारा महा संयम मन लगाया ॥२॥ दया धार भू को निरखकर चलत हैं । सुभाषा महा शुद्ध मीठी वदत हैं | करें शुद्ध भोजन सभी दोष टालें । दयाको धरे वस्तु लें मल निकालें ॥३॥ वचन काय मन गुप्तिको नित्य धारें । धरम ध्यानसे आत्म अपना विचारें ॥ धरें साम्य भाव रहें लीन निजमें । सु चारित्र निश्चय धरें शुद्ध मनमें ||४|| ऋषभ आदि श्री वीर चौविस जिनेशा । बड वीर क्षत्री गुणी ज्ञान ईशा || खड़ग ध्यान आतम कुबल मोह नाशा । जजें हम यतनसें स्व आतम प्रकाशा ||५||
दोहा धन्य साधु सम गुण धरें, सहें परीसह धीर ।
पूजत मंगल हों महा, टलें जगत जन पीर ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादि वीरांतचतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो तपकल्याणकप्राप्तेभ्यो महाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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