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विजयराज शोभत नृप ज्ञानी, आश्विन वदि शुभ दोज बखानी।
अपराजित विमान तज आए, विप्रा देवी कूख बसाए ॥२१॥ ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णद्वितीयायां गर्भावतरणमंगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा ।
कार्तिक सुदि छठ सब शुभ माने, आए तज सुजयंत विमाने ।
समुदविजय शिवदिव्या रानी, ता उर जनम लियो निज ज्ञानी ।।२२।। ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठ्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रानत स्वर्ग त्यागकर आए, वदि वैशाख दोज गुण गाए ।
विश्वसेन घर वामा रानी, ता उर ज्ञान बसे सुखकानी ॥२३।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा |
तजकर पुष्पोत्तर बड़भागी, तिथि आषाढ़ सुदी छठ लागी ।
सिद्धारथ राजा सुख पाए, प्रियकारिनी देवी उर आए ॥२४|| ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
गीतिका छंद मन वचन काय त्रि शुद्ध करकें, चतुर्विशति जिन जजों । श्रीगर्भकल्याणक सु महिमा, बार बारहिं उर भजों ॥ जिन जजत पाप समूह नाशें, सुखनिधान सु पावहिं ।
सब दुख निवारन सेव जिनकी, होत मंगल भावहीं ॥२५|| ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो गर्भमंगलमंडितेभ्यः पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा शोधन गर्भ सु वस्तुकर, षट् कुमारिका आद । बहु देवी सेवा करत, निशि दिन घर आल्हाद ।।
पद्धरि छंद षट् मास अगाऊ करत सेव, छप्पन देवी उर भक्ति लेव । नित रत्नवृष्टि होवत विख्यात, सब जन आनंद कर भाँत भाँत ॥१॥ तब धनपति नगर सिंगार सार, बहु रतन हेममय रच अपार । षट् मास गए तब मात रैन, सुपने सोलह शुभ लखे ऐन ।।२।। पति पास गई फल पूछि सार, सुनि जाई घर आनंद अपार । फिर इन्द्रादिक आए न वार, करि कल्याणक गर्भावतार ||३|| उत्सव कीनो अति ही महंत, पुनि निज थानक पहुँचे तुरन्त । अब सुसों निर्मल मह प्रभाव, सेवत सुरंगना धर उछाव ||४||
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