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________________ प्रतिष्ठा में माता-पिता एवं शान्ति-यज्ञ (हवन) का इतिहास माता-पिता बन कर पाप के भागी नहीं होवें ब्र. शीतलप्रसादजी का 'प्रतिष्ठा सार संग्रह', जो सन् १९२९ में प्रथम बार खण्डवा पंचायत ने प्रकाशित कराकर भेंट रूप में भिजवाया था, के अनुसार सन् १९३१ में सर्वप्रथम पंच कल्याणक प्रतिष्ठा पं. मुन्नालालजी इन्दौर ने ब्र. दीपचन्दजी वर्णी के अस्वस्थ हो जाने से दाहोद तेरापंथी नसिया में करायी थी। सर सेठ हुकमचन्दजी एवं ब्र. पन्नालालजी गोधा अधिष्ठाता उदासीन आश्रम, इन्दौर ने सहयोग हेतु मुझे दाहोद भेजा था क्योंकि पं. जी ब्र. दीपचन्दजी के भाई मास्टर कालूरामजी इन्दौर के दामाद थे, और प्रथम बार प्रतिष्ठा करा रहे थे। उन्हें उच्च स्वर से गाने का अभ्यास था तथा यह 'प्रतिष्ठा सार संग्रह' हिन्दी कविताओं में गायन द्वारा किया जा सकता था तथा नाटकीय दृश्य भी इसमें बहुत थे, जिनसे दर्शकों का मनोरंजन किया जा सकता था। इसी में तीर्थंकर माता-पिता, गर्भ कल्याणक में माता सबके सामने शैय्या पर शयन आदि का वर्णन था। पं. जी ने बनेड़िया क्षेत्र आदि में भी पंच कल्याणक के ऐसे दृश्य दिखलाये। वहाँ तालाब में इन्द्र-इन्द्राणियों को खड़ा करके जल देवता की पूजा करा कर जल-यात्रा हेतु जल-कलशों में भरवाया। नये पण्डितों के लिए बिना प्रशिक्षण इस 'प्रतिष्ठा सार संग्रह' के आधार पर प्रतिष्ठा के प्रचार का अवसर मिल गया। मूल प्रतिष्ठा पाठ आचार्य जयसेन के संस्कृत पाठ, आशाधर प्रतिष्ठा पाठ, वसुनंदि प्रतिष्ठा पाठ, नेमिचन्द्र देव प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने देखा भी नहीं क्योंकि इनके आधार पर पं. पन्नालालजी न्याय दिवाकर, पं. धन्नालालजी केकड़ी, पं. नरसिंहदासजी, पं. राजकुमारजी, पं. भूरालालजी दोशी, पं. दुर्गाप्रसादजी, पं. हजारीमलजी, पं. सुन्दरलालजी बसवा एवं उक्त गोधाजी साहब ने प्रतिष्ठा में मंजूषा (काष्ठ पेटी) और भद्रासन में ही माता-पिता की स्थापना कर पूजा, भेंट, स्तुति आदि किये थे। ‘मंजूषिकां कल्पतु मातृकार्ये' यह प्रतिष्ठा पाठों का मुख्य प्रमाण है। पं. शिवजी रामजी रांची ने तो ज्योतिषाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य पं. दुर्गाप्रसादजी कानपुर और रा.व. सेठ हरकचन्दजी के सहयोग से उक्त 'प्रतिष्ठा सार संग्रह के अनुसार माता-पिता बनाने का विरोध लिखते हुए सन् १९६० में 'प्रतिष्ठा चन्द्रिका' छपवाई थी। सम्मेद शिखर बावन चैत्यालय बिम्ब प्रतिष्ठा (१९६४) में साहू शान्तिप्रसादजी, पं. जगन्मोहनलालजी, पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने भी विरोध किया था उसके पहले वाराणसी में जन्माभिषेक में महिलाओं द्वारा अभिषेक हुआ था, उसका भी विरोध किया था। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् की इन्दौर कार्यकारिणी की प्रेरणा से मैंने 'प्रतिष्ठा प्रदीप' ग्रन्थ तैयार किया। मैंने प्रस्ताव रखा था कि सन् १९५६ से प्रतिष्ठा क्षेत्र में आये पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' द्वारा संकलित प्रतिष्ठा ग्रन्थ के साथ विद्वत् परिषद् द्वारा सम्मिलित एक ग्रन्थ प्रकाशित हो जाये। परन्तु पुष्पजी ने तीर्थकर माता-पिता बनाने और दक्षिणायन में बिम्ब प्रतिष्ठा कराने का अपना मत नहीं बदला, इसलिए मैंने स्वतंत्र रूप से ही प्रतिष्ठा ग्रन्थ प्रकाशित कराया, जिसे सन् १९९० से १९९८ तक नव वर्ष हो गये। अभी यह दूसरा संस्करण है और पुष्पजी द्वारा भी 'प्रतिष्ठा रत्नाकर' बड़ा ग्रन्थ अभी प्रकाशित हो गया है। उस ग्रन्थ की मैं प्रशंसा करता हूँ। पुष्पजी ने उसके लिए परिश्रम किया है। उसमें तीर्थंकर माता-पिता के दो प्रमाण जयसेन-प्रतिष्ठा पाठ के दिये हैं:- “अत्र मातापित्रो रंक निवेश स्थानीय पूर्वप्रक्लृप्त मंडपोपरिकृत वेदिकायां भद्रासने, मूलबिंब स्थापनं विदध्यात्"। इसका अर्थ पुष्पजी ने यह किया है कि जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र भगवान् के माता-पिता की गोद में प्रतिमा को सौंपे। (बीस) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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