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परन्तु संस्कृत का अर्थ ठीक यह है कि जन्माभिषेक के बाद इन्द्र माता-पिता के स्थानापन्न (स्थापना रूप में) वेदी के सिंहासन पर प्रतिमा को विराजमान करें।
'अस्य यजमानस्य इक्ष्वाक्वादि वंशे श्री ऋषभनाथादि संताने काश्यप गोत्रे परावर्तनं यावदध्वरं भवतु भवतु क्रौं ह्रीं है नमः।'
इसका भी पुष्पजी अर्थ करते हैं कि यजमान याने माता-पिता को तीर्थंकर के वंश व गोत्र में परिवर्तन करें।
उक्त संस्कृत में यजमान शब्द है, माता-पिता का उल्लेख तक नहीं है। वहाँ सूतक-पातक यजमान (याजक) और इन्द्र को न लगे इसलिए दोनों के लिए यह मन्त्र है। माता-पिता का संबन्ध होता तो इन्द्र का इस मन्त्र में नाम क्यों रखा जाता, जिसका अर्थ स्वयं आगे आचार्य ने किया है।
वर्तमान स्त्री में स्वेदादि - मलमूत्र - गर्भ – रजस्वला दोष होने से माता की योग्यता है ही नहीं।
आश्चर्य है कि माता-पिता न बनाने पर भी धन के बल पर यज्ञनायक व नायिका सातवें माह की गर्भ क्रिया (खोला या अगरनी) भी करने लगे हैं। इस पर साड़ियाँ ओढ़ाना, श्रीफल बाँटना आदि कार्य भी किये गये हैं। यह गर्भ कल्याणक के एक दिन पूर्व किये गये जो हम लोगों से छिपा कर किये गये। ब्रह्मचर्य व्रत ले कर भी माता क्या गर्भ में तीर्थकर को लाने का संकल्प कर सकती है? किन्तु यह भी देखने में आया।
श्लोकवार्तिक द्वितीयाध्याय टीका पृष्ठ २६४ के संकेतानुसार जो पूज्य पंच परमेष्ठी आदि हैं, उन चेतन की स्थापना चेतन में नहीं होती किन्तु अचेतन प्रतिमा आदि में होती है। जो रागी-द्वेषी साधारण इन्द्रादि है, उनकी स्थापना हम सरीखे चेतन पुरुष स्त्रियों में हो सकती है,इसीलिए मैंने नेमिनाथ व महावीर का पार्ट लेने वालों का विरोध किया जो बन्द हो गया है। प्रतिष्ठा मूल ग्रन्थों में सर्वत्र माता-पिता की स्थापना मंजूषा और भद्रासन में बतायी है, जैसे तीर्थंकर की स्थापना प्रतिमा में होती है। गर्भ कल्याणक में (प्रतिष्ठा सार संग्रह) में चौबीस माताओं की पूजा अष्ट द्रव्यों में बतायी है। क्या चेतन माताओं को बैठा कर पूजा हो सकती है? वहाँ तो गर्भ कल्याणक पूजा प्रतिमा के माध्यम से ही होती है। ब्र. शीतलप्रसादजी ने यह पूजा गलत लिखी है।
महापुराण पर्व १४-८२ व १२-२६८ मेंपूज्येषु युवां च नः शाश्वत् पितरौ जगतः पितुः।
वभूव भुवनांबिका अर्थ- 'जगत् के पिता तीर्थंकर के आप माता-पिता हमारे पूज्य हैं। माता (मरुदेवी) लोक की माता थी।' इस विषय में हमारे पूज्य दिगम्बर गुरुओं को मार्गदर्शन करना चाहिये, जिनके सम्मुख प्रतिष्ठा होती है। अब तो हमने प्रतिष्ठा में उनका सान्निध्य अनिवार्य सिद्ध कर दिया है। हमने सुझाव भी दिया है कि गर्म कल्याणक में केवल एक घंटा स्वप्न-फल व प्रश्नोत्तर में जरूरत होती है जहाँ प्रतिष्ठाचार्य समझा देते हैं अन्यथा राजसभा को लोक सभा का रूप दे कर यज्ञनायक व नायिका द्वारा 'माता ने स्वप्न देखे, उनका फल पूछा और पिता ने स्वप्नों का फल इस प्रकार बताया' -उक्त प्रकार कह कर कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
__ 'प्रतिष्ठा रत्नाकर' ग्रन्थ के छपने से प्रमाण ग्रन्थ मान कर माता-पिता बनाये जाते रहेंगे, इसलिए यह लिखना पड़ा है। हम क्षमा चाहते हैं। प्रतिष्ठा सामग्री में बढ़िया बेडशीट, कालीन, पलंग, दरी, गादी, तकिया, रजाई स्टेज पर माता को सुलाने हेतु मँगाना क्या उचित है? बड़े घर की महिलाएँ क्या जनता के सामने सो सकती हैं? ऐसे अश्लील दृश्य बन्द होना चाहिये। मैंने भी इसका परिणाम अच्छा न समझ कर
(इक्कीस)
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