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ही छोड़ा था। माता-पिता बन कर पाप के भागी नहीं होवें। प्रतिष्ठाचार्यों को संस्कृतज्ञ और निर्लोभी होना चाहिये।
शान्ति-यज्ञ (हवन) का इतिहास- सन् १९४० में श्री कानजी स्वामी से सोनगढ़ मंदिर की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा में हमारे यहाँ के प्रतिष्ठाचार्यजी ने स्वार्थवश अंजनशलाका (श्वेताम्बर पद्धति) के रूप में सवस्त्र नेत्रोन्मीलन संस्कार करा दिया, जिसका विरोध हम मुश्किल से सन् १९४५ में वीछियाँ प्रतिष्ठा में कर सके। क्योंकि स्वामीजी प्रतिष्ठाचार्यों पर विश्वास करते थे। बहनश्री व बहनजी दोनों बहनों ने सोनगढ़ मानस्तम्भ प्रतिष्ठा के समय जलाभिषेक हेतु कतिपय भक्तों द्वारा प्रेरित होकर भी मेरे द्वारा निषेध करने पर अभिषेक नहीं किया। शांतियज्ञ (हवन) प्रतिष्ठामंडप में होता था, वहीं स्वामीजी के प्रवचन भी होते थे। स्वामीजी को अधिक कफ निकलते रहने से धूम्र के फैलने से गले में दर्द होता था। बहन श्री वहन ने मुझे कई बार कहा कि प्रत्येक प्रतिष्ठा के समय अग्नि द्वारा शांति यज्ञ से स्वामीजी को कष्ट होता है। मैं सुनता रहा परन्तु यज्ञ बंद नहीं कर सका। मैं सोनगढ़ की ओर प्रतिष्ठाओं में लगभग ८० बार गया था। मेरे सन् १९६९ से वहाँ जाना बंद हो जाने के कारण नहीं मालूम शांतियज्ञ पीले चाँवलों से कैसे होने लगा? जिसमें संकल्प तो मन्त्रों द्वारा हवन का ही है।
आचार्य जयसेन स्वामी ने प्रतिष्ठा पाठ, श्लोक ३५, पृष्ठ १०९ पर अग्नि से हवन का विस्तार से व श्लोक ४२१ द्वारा दशांश हवन का विधान बताया है जिसे शुद्धाम्नाय का प्रतिष्ठा पाठ माना जाता है। श्री पं. मिलापचन्दजी कटरिया ने 'जैन निबंध-रत्नावली' के 'जैन धर्म और हवन' लेख में वैदिक यज्ञ का और श्री पं. टोडरमलजी, श्री पं. कैलाशचंदजी ने वैदिक यज्ञ के बारे में ही निषेध किया है। किन्तु जनता भयभीत होकर उन अन्यमत के देवी-देवताओं की ओर न झुक जावे इसलिए उस आडम्बर व हिंसापूर्ण यज्ञ के स्थान में आदिपुराण (आचार्य जिनसेनजी) के प्रमाणानुसार अति संक्षेप में विवेकपूर्वक मंदिर से बाहर प्रतिष्ठा व विवाह, गृह-प्रवेश आदि में जैन मन्त्रों से शांतियज्ञ कर लेना चाहिये यह सुझाव कटारियाजी ने दिया है अतः उसे ध्यान से पढ़ना चाहिये। प्रतिष्ठा आदि में मन्त्र जप तो करना पड़ता है अतः उसकी सफलता हेतु हवन भी आवश्यक है, परन्तु पीले चाँवल से समाधान नहीं होता। या तो फिर मन्त्र ही न जपा जाय। समाज में हवन के कारण जो घर-घर में मतभेद बढ़ रहा है, इस पर शांति से विचार करें। हिंसा व पाप पंखा, बिजली मंदिर निर्माण आदि में कहाँ नहीं हैं। शान्ति-यज्ञ (हवन) का निषेध किसी भी शास्त्र में नहीं है। धूप के स्थान पर पीले चांवल का विधान भी नहीं है। यह नया रूप चल गया जो पहचान बन गयी। वर्तमान में पर्यावरण-प्रदूषण को दूर कर सकने का हवन अचूक उपाय है। इससे अनेक रोग नष्ट होते हैं।
नायूमल
प्रतिष्ठा में विकार : जब से बिम्ब प्रतिष्ठाओं में व्यावसायिकता बुद्धि प्रमुख हो गई है, तब से प्रतिष्ठाओं में विकार आ गये हैं। कई विकार पंथ-व्यामोह के कारण आये हैं और कुछ तथाकथित सुधारवादी दृष्टिकोण से आये हैं। जैसे हवन-विधान और प्रतिष्ठा का आवश्यक अंग है। जो कट्टर सुधारवादी प्रतिष्ठा-ग्रन्थों के आचार्य हैं, उन्होंने भी हवन करने का विधान बताया है। किन्तु कुछ सुधारवादी हवन का विरोध करते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि इससे अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। क्या इस तर्क से एक दिन मन्दिरों में जो पूजन-विधान और प्रतिष्ठायें होती हैं, वे बन्द नहीं हो जावेंगी? क्योंकि इनमें जल आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है।
-आचार्य विद्यानन्द
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(बाईस)
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