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________________ प्रकाशकीय संहितासूरि पं. नाथूलालजी शास्त्री द्वारा लिखित “प्रतिष्ठा प्रदीप" एक संग्रहीत ग्रंथ है। पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न विधियों द्वारा प्रतिष्ठा संपन्न करवाई जा रही है जिससे प्रतिष्ठा में एकरूपता नहीं रहती। यद्यपि जिनेन्द्रदेव की मूर्ति तो प्रतिष्ठित की जाती है पर उसमें अतिशय प्रकट नहीं होता इस कारण समाज का बहु भाग देवी-देवताओं की ओर आकर्षित होकर एक प्रकार से इस महान् वीतराग धर्म की आस्था पर प्रश्न चिह्न लगा रहा है। पंडितजी समाज के एक अनुभवी वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य हैं जिन्होंने अपने जीवन में सैकड़ों प्रतिष्ठाएँ संपन्न करवाई व विधि में कभी किसी श्रीमान् धीमान् के आगे झुके नहीं । सन् १९८७ में विद्वत् परिषद् कार्यकारिणी ने अपने इन्दौर अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर आधुनिक भाषा में विधि-विधान के स्पष्टीकरण के साथ प्रतिष्ठा पाठ संकलित करने की जिम्मेदारी पंडितजी को सौंपी। पंडितजी ने प्रस्तुत ग्रंथ को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में मंदिर निर्माण से प्रारंभ कर वेदी, ध्वजा, कलश आदि विधियों का दिग्दर्शन कराया। द्वितीय भाग पंचकल्याणक के दृश्यों व विधि तथा मन्त्र संस्कार आदि पूर्ण किया । तृतीय भाग में सिद्ध प्रतिमा व अन्य प्रतिष्ठा विधि आदि तथा सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों के कर्त्तव्य का बोध कराया। यहीं पंडितजी ने अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों का भी सार व यंत्र आदि देकर इस ग्रंथ को पूर्ण करने का प्रयत्न किया। उससे निश्चय ही नवीन प्रतिष्ठाचार्यों को शास्त्रोक्त पद्धति से प्रतिष्ठा संपन्न करवाने का अवसर प्राप्त होगा। इस प्रतिष्ठा प्रदीप ग्रंथ पर विद्वद्वर्य पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री ने भूमिका लिखकर इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला है। परम पूज्य सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज ने अपने शुभाशीर्वाद से इस ग्रंथ की उपयोगिता को प्रतिपादित किया है। ५ जनवरी १९९० को इस युग के महान् संत तपोनिधि आचार्य श्री विद्यासागरर्जी महाराज के समक्ष (टड़ा ) ग्राम (सागर) में समस्त मुनि संघ के समक्ष इस ग्रंथ पर विस्तृत चर्चा हुई। आचार्यश्री ने भी प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक पं. नाथूलालजी शास्त्री से ग्रंथ के विभिन्न विषयों पर चर्चा की तथा आचार्यश्री ने कहा कि प्रतिष्ठा शास्त्र एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो पाषाण प्रतिमा को सातिशय बनाने की विधि दिग्दर्शित करता है। संपूर्ण ग्रंथ के आलोड़न के पश्चात् पूज्य आचार्यश्री ने पंडितजी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि एक समुच्चय प्रतिष्ठा ग्रंथ की कमी को पूरी करके आपने समाज की उत्कृष्ट सेवा की है। महाराजश्री ने यह भी कहा कि समस्त प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा को विधि-विधान के द्वारा संपन्न करवावें तो जो आजकल हो रहा है, उससे जो विकृतियाँ आ रही हैं, समाज उससे बच जावेगा । श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति अपना सौभाग्य मानती है कि उसे एक उद्भट, त्यागमूर्ति, कर्तव्यशील, चरित्रवान, संयमी विद्वान् के ग्रन्थ का प्रकाशन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। मैं समाज एवं समस्त प्रतिष्ठाचार्यों से विनम्र अपील करता हूँ कि इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण उपयोग करके एक-सी विधि द्वारा प्रतिष्ठा जैसे महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करवाने में अपना योगदान देवें । कर पाटोदी Jain Education International 2010_05 ( तेईस ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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